विचार / लेख

जेपी और गांधी
11-Oct-2022 8:58 AM
जेपी और गांधी

-पुष्य मित्र

अपने देश में अभिनेता को महानायक और नेता को लोकनायक कहा जाता है। इन दोनों की पहचान एंग्री मैन के रूप में रही है। हालांकि एक ने सिर्फ अभिनय किया, दूसरे ने जीवन जिया। आज दोनों का जन्मदिन है। हालांकि यह पोस्ट जेपी के बारे में है। 

समाजवादी कहते रहे हैं कि आजादी के बाद वे ही गांधी के बताये रास्ते पर चलते रहे। मगर सच यह है कि समाजवादियों ने, खासकर जेपी ने आन्दोलन का जो रास्ता अपनाया था, गांधी उससे बहुत सहमत नहीं थे। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की कमान मुख्यतः समाजवादियों के हाथ में ही रही। उसमें जयप्रकाश नारायण की मुख्य भूमिका थी। उस आन्दोलन को जिस तरह संचालित किया गया वह गांधी को पसंद नहीं आया और उन्होने कई दफा इसको लेकर असहमति भी जाहिर की।
दरअसल भारत छोड़ो आन्दोलन हो या इमरजेंसी के खिलाफ चला जेपी मूवमेंट, दोनों का पैटर्न लगभग एक ही था। किसी व्यक्ति के खिलाफ हिंसा नहीं करना है मगर सार्वजनिक संपत्ति को भरपूर नुकसान पहुंचाना है। जेपी और दूसरे समाजवादी इसे अहिंसक आन्दोलन का ही एक तरीका मानते थे। मगर गांधी इस तरीके से असहमत थे, वे इसे भी हिंसा का ही दूसरा रूप कहते थे।

हालांकि इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं था कि वे जेपी को पसंद नहीं करते थे। वे कहता थे कि जेपी की वीरता को मैं पसंद करता हूं मगर एक सत्याग्रही के रूप में मुझे उनसे अधिक उनकी पत्नी प्रभावती पसंद आती हैं। यह सच भी है कि जेपी में गजब की ऊर्जा थी। भारत से लेकर नेपाल तक कई आंदोलन उनकी अगुआई में चले। विनोवा भावे के साथ मिलकर उन्होने जो काम किया और जिस तरह डकैतों को आत्मसमर्पण कराया वह भी गांधीवादी अहिंसा का ही बेहतरीन उदाहरण था। मगर वे साधन की पवित्रता को लेकर बार-बार डगमगाते रहे।

जब भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू हुआ तब गांधी समेत तमाम बड़े नेता गिरफ्तार हो गये। तब गांधी ने कहा कि इस आन्दोलन का कोई नेता नहीं होगा। हर कोई अपना नेता होगा और अहिंसक तरीके से आंदोलन करेगा। उसके बाद आंदोलन की कमान जेपी, अरुणा आसफ अली और ऐसे ही दूसरे लोगों के हाथ में आ गयी। उस आन्दोलन के दौरान जगह जगह पर लोगों ने रेल की पटरियां उखड़ीं और दूसरे सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को क्षतिग्रस्त किया। बाद में पुलिस के भय से ये नेता भूमिगत हो गये।

बाद में जब गांधी नजरबंदी से रिहा हुए तो कुछ भूमिगत समाजवादी नेताओं ने उनसे सम्पर्क किया। तब गांधी ने इस तरीके पर घोर असहमति जताई। जेपी भी सम्भवतः उनसे मिले थे। उन्हें भी गांधी ने कहा था कि चूंकि इस आन्दोलन का नेतृत्व वे खुद नहीं कर रहे थे मगर यह जरूर वे कहना चाहेंगे कि लोगों ने जो किया वह अहिंसा नहीं थी। सार्वजनिक संपत्तियों ने आपका कोई नुकसान नहीं किया था, उसे नष्ट करने का आपको कैसे अधिकार मिल जाता है। सरकार से असहयोग करने का अर्थ यह नहीं कि सरकारी संपत्तियों को बर्बाद कर देना।

बाद में जब बिहार में साम्प्रदायिक दंगे हुए तब भी गांधी ने कहा, उनका बिहार ऐसा हिंसक और अराजक नहीं था। यह भारत छोड़ो आन्दोलन में यहां के लोगों की हिंसक अभिव्यक्ति का ही नतीजा है। 

मगर सम्भवतः जेपी ने इस आलोचना को स्वीकार नहीं किया। इमरजेंसी के बाद के जेपी आन्दोलन में हम उसी पैटर्न को देखते हैं। सम्पूर्ण क्रांति कहे जाने वाले उस आंदोलन से कितना बदलाव हुआ यह हम सबके सामने है। अभी हाल में अग्निवीर योजना के खिलाफ जो छात्रों ने अराजक आंदोलन किये उसका पैटर्न भी 1942 और इमरजेंसी के आंदोलनों जैसा था। उसकी परिणति भी हम देख चुके हैं।

गांधी ने हिंसा की वजह से ही असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया था। इसकी आज तक आलोचना होती है। मगर आज हम देखते हैं कि कोई भी आन्दोलन जरा भी हिंसक या अराजक होता है, सत्ता की हिंसा के कट्टर समर्थकों को भी उसे खारिज करने का मौका मिल जाता है। गांधी जी जानते थे कि आने वाले वक़्त के आन्दोलन पर्सेप्सन के आन्दोलन होंगे और अहिंसा का प्रभाव सबसे मजबूत होगा। वे सत्ता की प्रवृत्तियों को बदलना चाहते थे। इसलिये वे आंदोलन के हिंसक होने से परहेज करते थे। क्या आज अहिंसक आन्दोलन सबसे प्रभावी नहीं हैं?

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