विचार / लेख

चीन को नाहक ही शत्रु की तरह पेश किया गया, पढ़ें यह किताब
06-Oct-2022 5:13 PM
चीन को नाहक ही शत्रु की तरह पेश किया गया, पढ़ें यह किताब

-रवीश कुमार
अच्छी बात है कि चीन को ठीक से समझने की शुरुआत हो रही है। पिछले दो साल में चीन पर कई किताबें आई हैं। विजय गोखले की इस किताब से गुजरते हुए चीन के आर्थिक सुधारों के दौर को समझने का मौका मिला। इस सुधार के लिए चीन के गाँवों के लोगों ने बहुत बड़ी कीमत अदा की, जो भारत के गाँवों से विस्थापित लोग चुका रहे हैं। वहाँ उन्हें जबरन और मजबूरन विस्थापित होकर शहर आना पड़ा और कम मजदूरी में काम करना पड़ा। इससे पूँजी और मुनाफे का निर्माण हुआ। उनके सस्ते और बेगार श्रम के लालच में दुनिया भर से निवेशक चीन गए। यह समझ में आता है कि जब तक आबादी के एक बड़े हिस्से को न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर खटाया नहीं जाएगा तब तक शहर में विकास दिखाने के लिए इमारतें और कंपनियाँ खड़ी नहीं हो सकतीं। विजय गोखले की किताब का मुख्य तर्क नहीं है, मगर मुझे यह मुख्य रूप से दिखा।

यह किताब आर्थिक सुधारों की परतों में चीन की सामरिक और कूटनीतिक नीतियों की सफलता की कहानी कहती है। यह सफलता झूठ और झाँसे पर आधारित है। जिसके चंगुल में अमरीका और यूरोप दोनों आए। अपनी पूँजी और तकनीक दोनों चीन में ठेलते गए और चीन बीस वर्षों तक डबल डिजिट का आर्थिक विकास दर हासिल करता रहा। विजय गोखले चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और सेना में आए पैसे और रिश्वत के खेल को रेखांकित करते हैं। जिस समय चीन आर्थिक रूप से तरक्की कर दुनिया को हैरान कर रहा था, उस समय उसकी सेना में पैसे लेकर पद बिक रहे थे और पार्टी के लोगों को ही विकास का ठेका मिल रहा था। सब मालामाल हो रहे थे।

मगर असली झूठ और झाँसा यह था कि चीन लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है। दुनिया से जुड़ रहा है। उसके नियम कायदों को अपना रहा है। लेखक ने दिखाया है कि इस मामले में वह हर किसी को चकमा देता है। जिस वक्त अमरीका बेगार की मजदूरी से पूँजी बनाने की लालच में चीन गया, जरूर उस माहौल का असर भारत पर पड़ा होगा और भारत की तरफ से सीमा विवाद को लेकर कई पहल की गई। चीन ने लंबे समय तक सकारात्मक संदेश देकर झाँसा दिया और चुप्पी साध ली। अब चीन एक बड़ी आर्थिक शक्ति है। इस दौरान उसने आर्थिक रूप से संपन्न कई शहर और केंद्र बना लिए हैं। विजय गोखले यह नहीं बताते कि चीन को हमेशा संदिग्ध निगाह से ही देखें मगर साफ़-साफ़ दिखा देते हैं कि चीन को तीन से पाँच दशक के स्केल पर देखा और समझा जाना चाहिए।

इस किताब में मोदी दौर की झूला-झुलाओ कूटनीति का जिक्र नहीं है। क्यों नहीं है? क्या इसलिए कि लेखक ने किताब के लिए अलग कालखंड चुना है? हो सकता है लेकिन उस चैप्टर में संक्षेप में हो सकता था, जिसमें राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह की चीन नीतियों की समीक्षा की गई है। इसके बाद भी विजय गोखले दिखा ही देते हैं कि हेडलाइन के लिए और तात्कालिक रूप से की गई पहल से आप चीन को प्रभावित नहीं कर सकते। बारीक तर्कों के बीच यह दिखता है कि वाजपेयी काल में परमाणु परीक्षण बाद दुनिया भर के नेताओं को लिखे पत्र में चीन को नाहक शत्रु की तरह पेश किया गया। यहाँ से चीन हमेशा के लिए चिढ़ जाता है। वह भारत के साथ एक ही व्यवहार करता है। चुप रहकर नजरअंदाज कर देता है।

मुझे यह किताब अच्छी लगी। हार्पर कॉलिन्स की है। कीमत 390 की। ऐसी किताबें हिन्दी में भी तुरंत आनी चाहिए ताकि हिन्दी के पाठक चीन को फुलझडिय़ों और मोबाइल एप के विरोध से आगे देख सकें। इसमें पाठकों का क़सूर नहीं है। हिन्दी के अखबार और चैनलों ने जो कूड़ा फैलाया है, अब लोगों में समझने का मानक ही वही कूड़ा बन गया है। तो उसे ही प्रस्थान बिंदु बनाकर नई जानकारियों के लिए रास्ते खोले जा सकते हैं।

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news