विचार / लेख
-ध्रुव गुप्त
भारतीय संगीत के युगपुरूष, शहनाई के जादूगर, भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां देश के कुछ सबसे सम्मानित संगीत व्यक्तित्वों में एक हैं। यह दिलचस्प है कि उस्ताद ख़ुद अपने दौर की तीन गायिकाओं के मुरीद रहे थे। उनमें से पहली थी बनारस की रसूलन बाई। किशोरावस्था में वे बड़े भाई शम्सुद्दीन के साथ काशी के बालाजी मंदिर में रियाज़ करने जाया करते थे। रास्ते में रसूलन बाई का कोठा पड़ता था। कोठे के साथ एक बदनामी जुड़ी होती है, फिर भी वे बड़े भाई से छुपकर कभी-कभी कोठे पर पहुंच जाते थे। जब रसूलन गाती थीं तो वे एक कोने में खड़े मुग्ध होकर उन्हें सुनते रहते थे। रसूलन की खनकदार आवाज़ में ठुमरी, टप्पे, दादरा सुनकर उन्होंने भाव, खटका और मुर्की की बारीकियां सीखी थीं। एक दिन जब भाई ने उनकी चोरी पकड़ ली और कहा कि ऐसी नापाक जगहों पर आने से अल्लाह नाराज़ होता है तो उस्ताद का जवाब था - 'दिल से निकली आवाज़ में क्या नापाक होता होगा भला ?' उस्ताद जीवन भर रसूलन बाई को बहुत संम्मान के साथ याद करते रहे थे।
लता मंगेशकर उनकी दूसरी प्रिय गायिका थी। उन्हें तो वे देवी सरस्वती का साक्षात रूप ही कहते थे और मानते थे कि अगर देवी सरस्वती होंगी तो वे लता जैसी ही सुरीली होंगी। उन्होंने लता के गायन में त्रुटियां निकालने की उन्होंने बहुत कोशिशें की, लेकिन सफल नहीं हुए। वैसे तो लता जी के बहुत सारे गीत उन्हें पसंद थे, लेकिन उनका एक गीत 'हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना, दुनिया बड़ी बेईमान' वे अकेलेपन में अक्सर गुनगुनाया करते थे।
बेगम अख्तर उनकी तीसरी पसंदीदा गायिका थीं। बेग़म की गायिकी को वे उनके एक ख़ास ऐब के लिए पसंद करते थे। एक रात लाउडस्पीकर से आ रही एक आवाज़ ने उन्हें चौंकाया था। ग़ज़ल थी- 'दीवाना बनाना है तो, दीवाना बना दे' और आवाज़ थी बेगम अख्तर की। वह आवाज़ उनके दिल में उतर गई। कमी यह थी कि ऊंचे स्वर पर जाकर बेगम की आवाज़ अक्सर टूट जाया करती थी। संगीत की दुनिया में इसे एक ऐब समझा जाता है,लेकिन उस्ताद को बेगम का यही ऐब भा गया था। बेगम को सुनते वक़्त उन्हें उसी ऐब वाले लम्हे का इंतज़ार होता था। वह लम्हा आते ही उनके मुंह से बरबस निकल जाता था - माशाअल्लाह !
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन !