विचार / लेख
-निधीश त्यागी
21वीं सदी में पनप चुकी मार्केट इकोनॉमी की बदौलत बने एक हाइवे पर एक चमकीली कार तेजी से दौड़ रही है। उसके स्टीरियो के चार या शायद ज्यादा स्पीकर्स से जो आवाज आ रही है, वह नैय्यरा नूर तुम्हारी है। उस वीरान शाम के लंबे से सफर में अगर तुम फैज को न गा रही होती तो मुझे तुमसे शायद मुहब्बत न हुई होती। वैसे तो यह भी कह सकता हूं, मेरी जिंदगी में भी वह सब न चल रहा होता, तो भी शायद ऐसा न होता।
पता नहीं कब फैज ने लिखा उन्हें पता नहीं कहां, और पता नहीं किस स्टूडियो में तुमने जाकर उन्हें रिकॉर्ड किया। कौन सा वक्त कौन सी जगह। पर जैसे उस धूप किनारे सब पिघलता, घुलता मेरी आत्मा में तुम्हारे बोल ऐसे दस्तक दे रहे थे कि तय करना मुश्किल था कि दस्तक बाहर से आ रही है या भीतर से। हम वक्त के एक तिलिस्मी पड़ाव पर हैं इकट्ठे और नजरों से ओझल। तुम्हारी आवाज एक पल या डोरे की तरह जोड़ती है दिल के कहे को दिल के सुने से। फैज को पढ़ना फैज के बारे में पढ़ना नहीं है। फैज की तस्वीर देखना (एक प्रापर्टी डीलर वाला सफेद सफारी सूट जिसमें बस मोबाइल फोन नहीं झांक रहे) इन दोनों से अलग है।
नैय्यरा नूर, तुम्हारी आवाज से उस बगावत की बू नहीं आती, जिसके लिए हम फैज को जानते हैं। तुम्हारी आवाज फैज के गुस्से को नहीं, उसकी पेचीगियों को भी नहीं, बल्कि उसके भीतर के नर्मदिल और मजबूर, और प्यार करने वाले इंसान का हलफिया बयान बनती है। जो न काटती है, न चीरती है, बस एक फाहे की तरह नम उस जख्म को छूती है, जो पता नहीं कब से हरे थे और तुम्हारी आवाज के इंतजार में।
पहले तुम्हारी आवाज और फिर तुम्हारे बोल जहन में घुलते हैं। संगीत और कविता दोनों ही आत्मा का द्रव्य है। शब्द फिर भी कई बार फंस जाते हैं, संगीत नहीं। मैं बार-बार तुम्हारी आवाज से भरता हूँ, अपनी आत्मा के खाली मर्तबान को। तुम्हारे उन गीतों को गाने और मेरे सुनने में करीब पच्चीसेक सालों का फासला है और फैज को उनके लिखे का और भी ज्यादा। परिदों की तरह संगीत भी आसमानी होता है, जमीन पर खिंची लकीरें उसे रोक नहीं सकतीं।
तुम्हारी आवाज से मुझे इतना प्यार हो गया कि मैंने तुम्हारी शक्ल लंबे समय नहीं देखी। एक अरसे तक तुम्हें गूगल नहीं किया। बस तुम्हारी आवाज और लोगों से उसकी तारीफ। फिर एक दिन किसी ने एक यू-ट्यूब का लिंक भेजा जिसमें कोई और गा रहा है, तुम उस में बैठी हुई हो। और तुम उस भीड़ में भी अलग हो...। सादगी और गरिमा से जगमग...। मेरे बचपन के कस्बों की भली पड़ोसन लड़कियों की तरह, दोस्तों की बड़ी बहनों की तरह, जिनमें हमेशा एक तरह की पवित्रता रहती है।
बहुत मन था कि इस चिट्ठी को उर्दू में लिखवाकर तम्हें भेज दंू। पर जिस तारीख की आवाज से मुझे मुहब्बत है, वह तारीख दीवार पर टंगे कलैंडरों से फडफ़ड़ाकर कब की उड़ चुकी है। तुम्हारी अपनी जिंदगी होगी, अपना संसार। और जितना यकीं तुम्हारी आवाज पर है, उतना बाकी सब पर नहीं। न मैं तुम्हारे गाए के लिए गलत समझा जाना चाहता हूं न अपने सुने के लिए।
कार को जहां पहुंचना था, पहुंच गई है। मैं अपनी जगह नहीं पहुंचा हूं। फिलवक्त तुम्हारा गीत फिर से बज रहा है। और जल्दी नहीं है...
('तमन्ना तुम अब कहां हो' किताब से)