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आजादी के 75 साल : गरीबी तो कम हुई है लेकिन सबसे बड़ी चिंता भी बढ़ी
21-Aug-2022 12:12 PM
आजादी के 75 साल : गरीबी तो कम हुई है लेकिन सबसे बड़ी चिंता भी बढ़ी

जीएस राममोहन
आजाद भारत के 75 साल पूरे होने पर जो भी विश्लेषण देखने को मिल रहा है उनमें से अधिकांश में पिछले तीन दशकों की बात हो रही है। ज़ोर इस बात पर है कि कैसे इस अवधि के दौरान भारत एक बेमिसाल देश बन गया है।

कई लोग याद दिला रहे हैं कि कैसे लैंडलाइन फोन कनेक्शन के लिए अपने इलाके के सांसद के चक्कर लगाने होते थे, गैस कनेक्शन के लिए महीनों लंबा इंतज़ार करना होता था और अपने परिजनों से बात करने के लिए सार्वजनिक फोन बूथ के बाहर लंबी कतार में घंटों इंतज़ार करना पड़ता था।

1990 के दशक में और उसके बाद पैदा हुए लोग उपरोक्त बातों से परिचित न होंगे लेकिन पुरानी पीढय़िों के लिए ये जीता जागता सच रहा है।

स्कूटर खरीदने के लिए भी सालों इंतजार करना होता था। वहां से स्थितियां काफी बदल गई हैं। प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, उत्पादों की निरंतर आपूर्ति और लाइसेंस के तौर तरीकों में संशोधन से यह बदलाव आया है।

सर्विस सेक्टर और रोजमर्रा के कामों में एक हद तक व्यक्तिगत आग्रहों या फैसलों को खत्म किया गया था। इससे मध्य वर्ग की रोजमर्रा की जिंदगी काफी आसान हो गई है।

1990 के दशक में आर्थिक सुधार जोर-शोर से लागू कर दिए गए और तब से जो रास्ता बना है उसमें कई बदलाव आ चुके हैं जो आज भी स्पष्ट तौर पर नजऱ आ रहे हैं।

आर्थिक सुधारों से निकले महत्वपूर्ण बदलाव ये थे: प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में बढ़ोतरी, आपूर्ति व्यवस्था की स्थिति में सुधार और लाइसेंस राज की समाप्ति।

लेकिन इन बदलावों के अलावा और भी ऐसे बुनियादी मुद्दे थे जिन पर चर्चा किए जाने की ज़रूरत है और जो ज़्यादा प्रखर तौर पर सर्विस सेक्टर में नजऱ आने लगे थे। इसे समझने के लिए दो मुख्य प्रक्रियाओं को देखना होगा। एक तरफ़ गऱीबी कम हो रही है तो दूसरी तरफ़ असमानता बढ़ रही है। इस लिहाज से देखें तो 75 साल में दो अहम बदलाव हुए- गरीबी में कमी और असमानता बढ़ गई।

गरीबी में कमी
1994 और 2011 के बीच भारत में कहीं ज़्यादा तेज गति से गरीबी कम हुई। इस अवधि के दौरान गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या 45 फीसद से गिरकर 21.9 फीसद पर आ गई।

करीब 13 करोड़ लोगों को घोर गरीबी से बाहर निकाल लिया गया था। 2011 के बाद के आंकड़े आधिकारिक तौर पर जारी नहीं हुए हैं। हालांकि सर्वे हुए हैं लेकिन उसके आंकड़े जारी नहीं किए गए हैं।

विश्व बैंक के मुताबिक 2019 के अंत तक गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले आबादी 10।2 फीसदी पर आ गई थी। शहरी भारत के मुकाबले ग्रामीण भारत की स्थिति ज़्यादा बेहतर थी।

ये ध्यान देने वाली बात है कि अत्यंत गरीबी में जीवन यापन करने वालों की संख्या कम करने में 75 साल लगे थे और आर्थिक सुधारों के 30 सालों की इसमें एक अहम भूमिका थी। करीब आधी से ज़्यादा आबादी-करीब 45 फीसदी-तीन दशक पहले गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रही थी। आज वो संख्या 10 फीसद है। ये एक असाधारण बदलाव है। ये साफ़ है कि इन तीन दशकों में गरीबी हटाओं के नारे को जीवंत बनाने के लिए जबर्दस्त तेजी दिखाई गई है।

इसी दौरान, इन तीन दशकों में लागू आर्थिक सुधारों से असमानताएं भी बढ़ी है। अरबपतियों की संपत्ति आसमान छूने लगी है। राष्ट्रीय संपदा में सबसे निचले पायदान के लोगों का हिस्सा कम होता जा रहा है।

90 के दशक में भारत से दुनिया के अरबपतियों की फोर्ब्स की सूची में कोई शामिल नहीं था। 2000 में उस सूची में 9 भारतीय थे। 2017 में उनकी संख्या 119 हो गई। और 2022 में फोब्र्स की अरबपतियों की सूची में 166 भारतीयों के नाम हैं।

रूस के बाद सबसे ज्यादा अरबपति भारत में हैं। 2017 की ऑक्सफैम रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय संपदा का 77 फीसद हिस्सा शीर्ष पर मौजूद 10 फीसद लोगों तक सीमित है। सबसे अमीर शीर्ष के एक फीसदी लोग 58 फीसदी राष्ट्रीय संपत्ति पर स्वामित्व रखते हैं।

भारत में अरबपतियों की संख्या
1990 में अगर आय को देखें तो शीर्ष 10 फीसदी के पास राष्ट्रीय आय का 34.4 फीसद हिस्सा था और 50 फीसद निम्न तबके की हिस्सेदारी राष्ट्रीय आय में महज 20.3 फीसद थी। 2018 में सबसे अमीर लोगों के लिए यह हिस्सेदारी बढक़र 57.1 फीसद हो गई जबकि गरीबों के लिए ये घटकर 13.1 फीसदी रह गई।

उसके बाद भी, ऑक्सफेम रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड महामारी के दौरान भी अमीर लोगों की संपत्ति बढ़ती गई।

20 महीने में 23 लाख करोड़
2017 में सबसे अमीर 10 फीसद लोगों के पास 77 फीसद राष्ट्रीय संपत्ति थी। सबसे अमीर एक फीसद लोगों के बाद राष्ट्रीय संपत्ति का 58 प्रतिशत हिस्सा मौजूद था।

ऑक्सफैम के आंकड़ों के मुताबिक शीर्ष 100 अरबपतियों के पास 2021 में 57.3 लाख करोड़ की संपत्ति आंकी गई थी। जबकि कोविड महामारी के दौरान (मार्च 2020 से नवंबर 2021 तक) भारत में अरबपतियों बढक़र 23.14 लाख करोड़ हो गई थी।

भारत की कामयाबी या आर्थिक समृद्धि की कहानी को, गरीबी में कमी और असमानता में बढ़ोतरी के दो विपरीत तथ्यों के बीच देखना चाहिए।

बात सरहद पार
दो देश, दो शख्सियतें और ढेर सारी बातें। आजादी और बँटवारे के 75 साल। सीमा पार संवाद।

भारत उन देशों में से है जहां असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की संख्या ज़्यादा है। संगठित क्षेत्र में भी, वेतन का अंतर अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में अपर्याप्त वेतन, वेतन का अंतर, काम करने की परिस्थितियां और गैरसमावेशी बढ़ोत्तरी को भारत के लिए बड़ी चुनौती माना है। आईएलओ के अलावा, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन ने भी अपने एक शोध पत्र में इन मुद्दों की ओर रेखांकित किया है।

कुछ संगठनों में, सीईओ की पगार करोड़ों मे है, वहीं कर्मचारी 15 हजार रुपये प्रति महीने का वेतन पा रहे हैं। कुछ निजी कंपनियों में वेतन का अंतराल 1000 फीसदी से ज्यादा का है।

अगर बड़े देशों को देखें तो उनमें वेतन में अंतर के मामलों में भारत सूची में सबसे ऊपर है। इससे भी असमानता और बढ़ रही है।

इतिहास बताता है कि पूंजीवाद जितनी तरक्की करता है, विशेषज्ञता बढ़ती है। प्रौद्यगिकी के इस्तेमाल से कुशल और अकुशल श्रम में अंतर भी बढ़ जाता है। कुशल कर्मचारियों के लिए प्रीमियम भुगतान, वेतन के अंतर को बढ़ा देता है। ये याद रखना होगा कि उपरोक्त कारकों को पैमाना मानें भी तो भी वेतन का अंतर, विकसित और विकासशील देशों के मुकाबले, भारत में असामान्य ढंग से ज्यादा है।

इसी तरह, संपत्ति वितरण के मापदंड के रूप में ज्ञात गिनी गुणांक को रखें तो 2011 में 35.7 था। 2018 में ये बढक़र 47.9 हो गया। पूरी दुनिया में, खासतौर पर बड़े बाजारों के बीच, जब अत्यधिक असमानता की बात आती है तो भारत का नाम सूची में सबसे ऊपर आता है।

आय की असमानता
वल्र्ड इनइक्वेलिटी डाटाबेस (डब्लूआईडी) के मुताबिक 1995 से 2021 के दौरान सबसे अमीर एक फीसद लोग और निम्न तबके के 50 फीसद लोगों के बीच आमदनी का अंतर बढ़ा है।

नीचे दिए गए ग्रॉफिक्स में 1995 से 2021 के दरम्यान अमीर 1 फीसदी और निचले तबके के 50 फीसदी के बीच आय के बढ़ते अंतर को दर्शाया गया है। लाल रेखा अमीर 1 फीसदी और नीली रेखा निम्न तबके के 50 फीसदी को दर्शाती है। ये ग्राफ बीते 20 वर्षों के दौरान इन दोनों वर्गों के बीच बढ़ती आय की असमानता को दर्शाता है।

अमीर और निम्न वर्गों की आय में बीच बढ़ता फासला
जाने माने अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने भी भारत में बढ़ती असमानता की चर्चा की है। जब सबसे अमीर 10 फीसद की आय को लेते हैं, तो भारत में असमानता 2015 के रूस और अमेरिका के मुकाबले ज़्यादा दिखती है। गरीबी की तरह, असमानता भी एक सामाजिक बुराई है।

आंकड़े बताते हैं कि भारत में संपत्ति बढऩे के साथ साथ असमानताएं भी बढ़ी थीं और दोनों के बीच एक अकाट्य या अपरिहार्य रिश्ता है।

भारत में कई विश्लेषक अपनी सुविधा से आंकड़े चुनते हैं, अपना नज़रिया आगे बढ़ाकर पेश करते हैं और दूसरे मुद्दों को पीछे कर देते हैं। हालांकि कुछ ऐसे भी हैं जो ये सुनिश्चित करना नहीं भूलते कि वे मुद्दे बिल्कुल भी सुनाई न दें।

सरकार इस पर बात कर रही है लेकिन, तब भी पूरी तस्वीर उभर कर नहीं आती है। वास्तव में भारत सरकार चौथी पंचवर्षीय योजना से लेकर 2020-21 के आर्थिक सर्वे तक हर संभव स्थिति में बढ़ती असमानता की चर्चा करती आई है।

1969-74 की चौथी पंचवर्षीय योजना ने ऐलान किया था, ‘विकास का मुख्य मापदंड निजी स्तर पर लोगों को फ़ायदा पहुंचाना नहीं है। विकास की यात्रा समानता की ओर होनी चाहिए।’

2020-21 की आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट, अरस्तू के इस कथन से शुरू होती है कि ‘गरीबी, क्रांति और अपराध की जननी है।’ इस रिपोर्ट में, विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के असमानता पर किए काम पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है।

हालांकि रिपोर्ट का नतीजा ये था कि संपत्ति में वृद्धि के साथ गरीबी में कमी आती है और इस अवस्था में बढ़ती हुई संपत्ति, असमानता से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इससे ये दिखता है कि भारत किस दिशा की ओर बढ़ रहा है।
प्रथम पंचवर्षीय योजना का मानना था कि तात्कालिक तौर पर पर्याप्त संपदा उपलब्ध नहीं है, और उसे फिर से बांटने का मतलब, फिर से गरीबी बांटना ही होगा, लिहाजा, फोकस संपत्ति बढ़ाने पर होना चाहिए। 75 साल बाद, जब भारत का संपन्न वर्ग दुनिया के टॉप-10 अरबपतियों के बीच अपनी राह बना चुका है तो भी भारत वही पुरानी लकीर पीट रहा है।

अगर हम 1936 से, जब मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने औद्योगिक नीति का प्रस्ताव रखा था, तबसे लेकर 2020-21 के आर्थिक सर्वे तक, भारत की औद्योगिक यात्रा पर निगाह डालें तो हम देखते हैं कि ये तमाम चीजें संपत्ति के असमान वितरण की ओर संकेत करती हैं।

इस यात्रा का दूसरा हिस्सा गरीबी को कम करने पर रहा लेकिन इससे गांव से शहरों की ओर जबरन पलायन देखने को मिला और ये लोग शहर में आकर महज उपभोक्ता के तौर पर बदल गए।

आर्थिक सुधारों की वकालत करने वाले कुछ लोगों का मानना है कि प्रतिस्पर्धा में कमी की वजह से भारत ने अतीत में तकलीफें  भुगतीं। 1990 के दशक से पहल हर चीज़ राज्य के नियंत्रण में थी। वे इस बात की आलोचना भी करते हैं कि भारत समाजवादी मॉडल की वजह से एक हाशिये की ताकत ही बना रहा।

उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि नेहरू और इंदिरा गांधी की नीतियों ने देश की वृद्धि को बाधित किया। और पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की नीतियों की बदौलत भारत उन जंजीरो को तोड़ पाया और आज जो संपदा हम देख रहे हैं वे इन दोनों के उठाए कदमों की बदौलत हैं।

ये सच है कि पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की जोड़ी सुधारों को गति देने वाले इंजिन की तरह रहीं। लेकिन हमें इससे आगे जाकर प्रक्रिया को देखना चाहिए। सुधारों की ओर उनके उन्मुख होने के पीछे भी एक ऐतिहासिक रूप से क्रमिक विकास था, वो एक प्रक्रिया थी, महज कोई छलांग नहीं थी।

वो उस दौर के उद्योगपति थे जो कहते थे कि प्रतिस्पर्धा की जरूरत नहीं है। भारत के उद्योगपतियों ने ही पहली बार प्रतिस्पर्धा का विरोध किया था और सरकार से घरेलू उद्योगों को बचाने की गुहार लगाई थी। शुरुआती चरण में उद्योगपतियों ने गुजारिश की थी कि सरकार का नियमन, नियंत्रण होना चाहिए, और विदेशी उद्योगों से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होनी चाहिए।

ये सिर्फ नेहरू का ख्याली पुलाव नहीं था। जब हम आज़ादी के मुहाने पर थे, तब जेआरडी टाटा की अगुवाई में उद्योगपतियों की 9 सदस्यों की टीम ने 1944-45 के दौरान बॉम्बे प्लान तैयार किया था। ये प्लान हमें बताता है कि उस दौर के उद्योगपतियों की सोच क्या थी।

प्रतिस्पर्धा के मामले में उद्योगपतियों ने इस बात पर जोर दिया था कि विदेशी प्रतिस्पर्धा में टिके रह पाने की भारत की क्षमता नहीं और नियमन और नियंत्रण बने रहने चाहिए। वे न सिर्फ  विदेशी निवेशों के खिलाफ थे, बल्कि सरकार से मदद मांग रहे थे। बॉम्बे समूह ने यहां तक कह दिया था कि घरेलू देसी उद्योग में जान फूंकने के लिए राज्य को पैसा लगाना चाहिए।

लेकिन लायसेंसिंग और नियंत्रण से जुड़ी नीतियां एकाधिकार की ओर ले गईं। एकाधिकार जांच समिति ने खुद इस बात की तस्दीक की थी।
एकाधिकार की वजह से ही क्षमता का विकास नहीं हो सकता था और लोगों को रोजमर्रा के उपभोक्ता सामान के लिए कतारों में खड़ा रहना पड़ता था। चाहे वो संसाधन हों, या ज़रूरत के सामान हों, लैंडलाइन फोन हों या स्कूटर या कुछ भी, हर चीज किसी न किसी चीज़ के एकाधिकार की शिकार थी।
सरकार सबसे बड़ी पूंजीपति है और पूंजीवादियों की पोषक है।

सरकारी पैसों से भारतीय पूंजीपतियों की मदद, आजाद भारत के इतिहास में होता आया है। 1955-56 में संसद में नेहरू का भाषण इसी औद्योगिक नीति के इर्द-गिर्द केंद्रित था।

रूस और चीन की तरह, यहां भी, इस्पात के उत्पादन पर ध्यान दिया गया था। पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजनाओं में इस बात पर जोर दिया गया था कि अगर देश को विकास करना है तो सार्वजनिक और निजी सेक्टरों को काम करना होगा और सरकार को इसमें मुख्य भूमिका निभानी होगी।
शुरुआत में ये ही महसूस कर लिया गया था कि पूंजी के विस्तार में राज्य की भूमिका बहुत अहम है और राज्य ही सबसे बड़ा पूंजीपति और पूंजीपतियों की पोषक है।

दूसरी पंचवर्षीय योजना में लिखा गया कि अगर निजी सेक्टर बड़े उद्योग स्थापित करने की लागत वहन नहीं कर सकता है तो राज्य को ये ज़िम्मेदारी संभालनी पड़ेगी।

पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि को अहमियत दी गई थी, लेकिन दूसरी पंचवर्षीय योजना में उस जगह पर उद्योग ने कब्जा कर लिया।

पहली पंचवर्षीय योजना ने खाद्यान्न के आयात की ज़रूरत से निपटने और सरप्लस की हद तक वृद्धि करने के लक्ष्य का ऐलान किया था। विश्व भर के अनुभव हमें बताते हैं कि सरप्लस की स्थिति नयी पूंजी और पूंजीपतियों का निर्माण करते हैं। भारत में भी यही हुआ।

सामाजिक और क्षेत्रीय असमानताएं
भारत ने 80 के दशक में खाद्यान्न की कमी से निजात पा ली थी। आज वो खाद्यान्न का निर्यातक है। इस परिवर्तन में हरित क्रांति का अहम रोल था। उसके साथ, विभिन्न कृषि जातियों से पूंजीपतियों के नये वर्ग का उदय हुआ था।

आंध्र प्रदेश से कम्मा और रेड्डी जातियों का उदय इसकी एक मिसाल है। हरियाण और पंजाब के जाट और सिख व्यापारी बन गए। लिहाजा इस विकास ने कुछ जातियों में और ज़्यादा संपत्ति को फिर से वितरित कर दिया। सामाजिक असमानता यहीं पर उभरीं। शहर केंद्रित विकास मॉडल के चलते, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य औद्योगिकीकरण में पीछे रह गए। उसी दौरान तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्य आगे बढ़ निकले।
आजादी के समय, बिहार और पश्चिम बंगाल, बम्बई की तरह समान रूप से औद्योगिक थे। लेकिन आज वो पीछे रह गए हैं। ये वो बदलाव है कि जो आज आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी दिखता है।

दलील दी जाती है कि पश्चिम बंगाल के पास भले ही कोलकाता जैसा महानगर है, लेकिन भूमि सुधारों पर सख्ती से अमल करने और कृषि सरप्लस के निजी पूंजी के रूप में जमा नहीं होने से वो आज औद्योगिक रूप से पिछड़ा हुआ है।

इसी दौरान, दूसरे पक्ष का कहना है कि पश्चिम बंगाल जैसी जगह में पूंजीवादियों को अपने क़दम पीछे करने पड़े जहां काम की अच्छी स्थितियां और बेहतर पगार जैसी मांगों के लिए जगह बन चुकी थी, और इसकी वजह थी अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता। पश्चिम बंगाल आज भी कई लोगों के लिए एक केस स्टडी है।

अभाव से प्रचुरता तक
1960 के दशक में, भारत में भोजन की कमी थी और अमेरिका के आयात पर निर्भर रहना पड़ता था। आज, स्थिति ये है कि खाद्यान्न इतना ज़्यादा है कि उसका क्या करें ये स्पष्ट नहीं है। हरित क्रांति और उसके बाद की प्रक्रियाओं की वजह से ये हालात बने थे।

मालूम था कि पूंजी, कृषि उपज की अधिकता से मिली है, फिर भी राज्य एक जरूरी शुरुआती चरण में उसके हित के लिए जरूरी पर्यावरण देने में नाकाम रहा।

कृषि में पैदावार के पिछड़े तरीक़ों की वजह से अधिक उत्पादन एक बड़ा अवरोध बन गया था। आज, पैदावार योग्य भूमि घट रही है लेकिन उत्पादन बढ़ रहा है। ये एक अहम बदलाव है।

लाल बहादुर शास्त्री ने हरित क्रांति की शुरुआत की थी और इंदिरा गांधी ने उसे जारी रखा। वो हरित क्रांति और उससे प्रेरित कृषि प्रौद्योगिक बदलावों ने उन बहुत सारे बदलावों की नींव रखी थी जिन्हें हम आज देख रहे हैं।
उस दौरान, नेहरू की दूरदर्शिता की बदौलत बनाए गए बांध, बड़े काम आए थे। आर्थिक प्रणाली वित्तीय अभाव से प्रचुरता की ओर उन्मुख हुई। नये पूंजीपति परिदृश्य में उभर आए। ख़ासकर उन इलाकों और जातियों में जिन्हें हरित क्रांति से लाभ हुआ था।

ये संयोग नहीं है कि आंध्रप्रदेश में चाहे कोई भी सेक्टर हो- दवा, सिनेमा, मीडिया आदि-अधिकांश सेक्टरों पर उन लोगों का स्वामित्व है जो हरित क्रांति से लाभ हासिल करने वाले इलाकों से आते थे।

दुनिया भर में उदाहरण हैं जहां औद्योगिक पूंजी और उद्योगपति कृषि क्षेत्र से उभर कर आए हैं। लेकिन भारत को पूंजी के विस्तार में मददगार कृषि सरप्लस में वृद्धि के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा था। उसी दौरान, बैंकिंग की आम लोगों तक पहुंच होने से लोगों की जमा पूंजी बढऩे लगी थी।

पूंजीपतियों को उदारतापूर्वक कर्ज़ देने के लिए सरकार को टैक्स के ज़रिए भी मदद मिल रही थी। इस प्रक्रिया के दौरान, भारी कर्ज लेने और उसे न चुकाने की प्रवृत्ति भी शुरू हो गई थी।

चीन के मुकाबले 12 साल की देरी
चीन में 1978 मे सुधार शुरू हो गए थे। उसी दौरान भारत में उन पर विचार होना ही शुरू हुआ था। इंदिरा गांधी दूसरी बार सत्ता में आई तो उसका आगाज हुआ। उनकी अचानक मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने उसे आगे बढ़ाने की कोशिश की थी।

लेकिन उस दौरान के राजनीतिक बवंडरों की बदौलत उनकी कोशिशों उम्मीद के मुताबिक सफल नहीं रही थी। एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में आर्थिक सुधार 12 साल की देरी से शुरू हुए थे।

1991 में भुगतान संकट के दौरान सोने को गिरवी रखने के घटनाक्रम ने सुधारों को अवश्यंभावी बना दिया। तत्पश्चात पीवी नरसिम्हाराव, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की शर्तों पर सहमत हो गए और उन्होंने सुधारों की शुरुआत कर दी। मनमोहन सिंह जैसे काबिल अर्थशास्त्री की अगुवाई में सुधारों ने रफ्तार पकड़ ली।

औद्योगिकीकरण के तीन चरण
पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की भूमिका को समझते हुए भी ये ध्यान रखना चाहिए कि इन सुधारों के पीछे एक ऐतिहासिक प्रक्रिया था।
शुरुआत में औद्योगिक सेक्टर सरकार के नियंत्रण में था। अगले चरण में, ये पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी थी। आखिरी चरण में, यानी की मौजूदा अवस्था में, निजी सेक्टर प्रमुख भूमिका निभा रहा है।

ये तीनों चरण भारतीय औद्योगिक सेक्टर और आर्थिक वृद्धि की यात्रा में साफ तौर पर देखे जा सकते हैं। ये भी स्पष्ट होता है कि ये तीनों चरण क्रमवार रहे हैं और निजी पूंजीपतियों को तैयार कर, राज्य धीरे-धीरे कई सेक्टरों से दूर हटा है।

कुल मिलाकर, सुधारों से जो तरक्की हासिल हुई है और जो संपत्ति इस तरक्की से पैदा हुई है, उसे रेखांकित करते हुए गऱीबी को कम करने में भी उनकी सराहना की जानी चाहिए। लेकिन उसी दौरान ये भी नहीं भूलना चाहिए कि असमानताएं बहुत ख़तरनाक तेजी के साथ बढ़ती जा रही हैं।

सरकार की रिपोर्ट ने खुद ये संकेत दिया है कि ‘गरीबी क्रांति और अपराध की जननी है’ तो जाहिर तौर पर सरकार को ही, बढ़ती असमानताओं पर लगाम लगाने की हर मुमकिन कोशिश करनी होगी। (bbc.com/hindi)

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