विचार / लेख
-अपूर्व गर्ग
आंकड़े बताते हैं अब इस देश की 75 प्रतिशत जनता नॉन वेजीटेरियन है। पर ये भी सच्चाई है इस 75 प्रतिशत में बहुत ही कम लोग अपना भोजन कटते हुए देख सकते हैं।
इस मामले में लोग बहुत संवेदनशील हैं। खुद काटना तो दूर लोग कटते भी नहीं देख सकते, कई तो खरीदने भी नहीं जाते। पका पकाया खाते हैं या कोई लाकर देता है। संवेदनशील हैं।
आजकल लोग शांति भी चाहते हैं और ऐसी रेजिडेंशियल सोसाइटी ढूंढते हैं जो ‘पीसफुल’ हो पूरी तरह शांत, शोर शराबे से दूर, उपद्रव तो दूर की बात पीसफुल लोग हैं।
लोग सप्ताहांत मनाने शहर से दूर ढाबों में जाते हैं ताकि चैन से भीड़ से दूर कहीं अपना समय व्यतीत कर सकें।
आजकल लोग परिवार के साथ पहाड़ों, जंगलों और रिमोट जगहों पर ज़्यादा जाने लगे ताकि शहरी भीड़, शोर शराबे से दूर अपने लोगों के साथ एकांत में कुछ दिन शांति से रह सकें। सबको आत्मिक शांति चाहिए।
लंबी-लंबी लॉन्ग ड्राइव सूफी गीत, गजल और पुराने गाने चाहिए ताकि दिल को ठंडक मिले। दिल तन-मन तनाव रहित होना चाहिए।
कितनी अच्छी-अच्छी पहल कर कितने सुंदर, शांत अमन और चैन से जीने के तरीके अपनाते हैं लोग।
वाकई दाद दी जानी चाहिए।
पर क्या यही लोग अपने देश, समाज और शहर में जब किसी बच्ची को पेट्रोल से जलाया जाता है तो विचलित होते हैं?
क्या यही लोग जब बलात्कारियों का महिमामंडन होता है तो अमन शांति और चैन से सो पाते हैं?
इस देश की सीमा पात्राएँ जब विकलांग बच्ची पर बर्बर ज़ुल्म करती है, बच्ची को भूखा रखकर पेशाब तक पिलाती है तो क्या उनकी कथित संवेदनशीलता कभी जागती है?
शांति, चैन-अमन, सिविल सोसाइटी सबको चाहिए पर उसे बनाने की भूमिका से वो ठीक वैसे ही दूर रहते हैं जैसे नॉन वेज तो बहुत बहुत पसंद है पर उसके कटने से बनने की प्रक्रिया बहुत गलत है। पसंद नहीं!
सोचिये, ये कैसी दुनिया बन चुकी जहाँ दूर-दूर नहीं बल्कि आसपास कई बार घर के भीतर ही हैवान बैठे हैं जो एक रेतीले तूफान की तरह सब कुछ बर्बाद कर रहे और हम शुतुरमुर्ग की तरह सिर रेत में गड़ाए हुए हैं।
बहुत बहुत भयानक बेदर्द और ऐसा हिंसक दौर सामने है। जब इसी समाज के आदतन अपराधियोंको नहीं बल्कि तथाकथित वाइट कॉलरड लोगों को हिंसक परपीडऩ से अब ‘किक’ मिलती है ।
इस पर अगर सवाल उठाकर आप एक कीचड़ को पोछने जायेंगे तो पूछा जायेगा। तब उस कीचड़ को क्यों नहीं साफ किया?
अगर उस कीचड़ को साफ करने जायेंगे तो उधर भी वही सवाल आएगा। तब कहाँ थे?
अब कहाँ हैं तब कहाँ थे ये सवाल चारों ओर से आएंगे पर वो खुद इस देश समाज और अपने लोगों के साथ एक ऐसी अंधी गली में चले गए जहाँ सिर्फ बर्बरता, हिंसा, अमानवीयता पाशविकता ही है उस पर कभी गौर नहीं करेंगे।
ज़्यादा से ज़्यादा क्या? इस गली के अँधेरे ओर शोर शराबे से बहुत ऊबे तो चले जंगल, पहाड़। समुद्र के तट।
पर क्या इससे अँधेरा छटेगा?
ज़रूर सोचिये हमारे आसपास अच्छी-अच्छी पोशाक में बनावटी मुस्कराहट वाले, समाज देश सेवा के बैनर पर कैसे-कैसे कातिल हैं जिनके बारे में ओर जिनकी हरकतों पर सीधी-सरल जिंदगी जीने वाले कल्पना भी नहीं कर सकते।
पर ऐसी ही प्रवृत्ति के लोग रोज हैवानियत के नए रिकॉर्ड इसीलिए कायम कर पा रहे क्योंकि आम आदमी गलत देखना-बोलना-सुनना छोडक़र एक भद्र आदमी की मोम की मूर्ती सा अनजान बना बैठा है।
हमें अपनी इस खामोश भूमिका पर विचार करना चाहिए,
एक बार जऱा सोचिये।
‘ये भी तो सोचिए कभी तन्हाई में जरा दुनिया से हम ने क्या लिया दुनिया को क्या दिया।’