विचार / लेख
-चैतन्य नागर
टेक्सस, अमेरिका के युवाल्डे शहर के रॉब एलिमेंट्री स्कूल में एक 18 वर्षीय बंदूकधारी सेल्वडोर रॉमोस ने जिस तरह गोलियों की बारिश करके वहाँ के प्राइमरी स्कूल में पढऩे वाले पाँच से ग्यारह साल के 19 मासूम बच्चों को मार डाला, सुनकर ही दिल दहल जाता है। इस युवक के पास सेमी-ऑटोमेटिक राइफल और हैंडगन थी। स्कूल आने से पहले इसने अपनी दादी पर भी गोलियाँ दागी थी। यह खबर उसने अपनी मित्र को मेसेज के जरिये दे दी थी कि उसने अपनी दादी को गोली मार दी है, और अब वह एक और सरप्राइज देने वाला है! मंगलवार को हुई इस घटना के दस दिन पहले ही न्यूयॉर्क में एक मॉल में इसी तरह की अंधाधुंध फायरिंग में दस लोगों ने जानें गवाईं थी।
टेक्सस के गवर्नर ग्रेग एबॉट का कहना है कि शूटर, सेल्वडोर रामोस ने हमले में एआर-15 का इस्तेमाल किया। मंगलवार की सामूहिक गोलीबारी की घटना से कुछ ही दिनों पहले शिकागो के एक इलाके में एक बंदूकधारी ने राहगीरों पर गोलियां चला दीं, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई थी। अमेरिका में स्कूलों में अंधाधुंध फायरिंग और बच्चों की मौत का एक लंबा इतिहास रहा है। कुछ खास घटनाएँ इस प्रकार हुई हैं- 2005 में रेड लेक सीनियर हाई स्कूल में फायरिंग में । लोगों की मौत हुई थी। 2006 में वेस्ट निकेल माइन्स स्कूल फायरिंग में 5 लोगों की मौत हुई थी। 200। में वर्जीनिया टेक स्कूल में फायरिंग में 32 लोगों की मौत हो गई थी। 2012 में सैंडी हुक स्कूल फायरिंग में 26 लोगों की मौत हुई थी।2014 में मैरीसविल पिलचक हाई स्कूल में 4 लोगों की मौत हुई थी। 2018 में मार्जोरी स्टोनमैन डगलस हाई स्कूल फायरिंग में 1। लोगों की मौत हुई थी। 2018 में सांता फे हाई स्कूल में फायरिंग में 10 लोगों की मौत हुई थी।
चिंतक और लेखक अरुण महेश्वरी कहते हैं- ‘पर्दे पर हिंसक खूनी खेलते-खेलते ये युवा अब असल जिंदगी में भी मौत का ये घिनौना खेल खेल रहें हैं। ये कैसे हत्यारे रोबोटों का समाज बन रहा है! इस घटना ने सोलह दिसंबर की पेशावर की उस दर्दनाक घटना की याद ताजा कर दी जब आतंकियों ने इसी तरह स्कूल के मासूम बच्चों को गोलियों से भून दिया था।’ अरुण बॉब डिलन की मर्मस्पर्शी पंक्तियों को उद्धृत करते हैं जो वहाँ के हाल को बखूबी दिखाती हैं- ‘और एक इंसान के कितने कान होने चाहिए/जिससे वह लोगों की चीखें सुन सके/और उसे कितनी मौतों का सामना करना होगा, जिससे वह जान सके कि कई लोग मर चुके है।‘
कइयों को इस बात को लेकर ताज्जुब हो रहा होगा कि 18 साल के एक बच्चे के हाथ में इतना घातक हथियार कैसे आ गया। अमेरिका का कानून ही कुछ ऐसा है कि वहां बंदूक वगैरह रखने की न्यूनतम उम्र काफी कम है। संघीय कानून तो कुछ अपवादों को छोडक़र स्पष्ट है कि हैंडगन रखने वाले की न्यूनतम उम्र अठारह साल होनी चाहिए, पर राइफल और शॉटगन जैसे हथियारों के लिए ऐसी कोई सीमा नही। कोलंबिया डिस्ट्रिक्ट और बीस अन्य स्टेट्स ने न्यूनतम उम्र के कानून को 14 से 21 वर्ष के बीच रखा हुआ है। मोंटाना में यह 14 वर्ष है जबकि इलिनोई में 21 वर्ष। बाकी तीस स्टेट्स में किसी बच्चे के लिए लंबी नली की बंदूक रखना तकनीकी रूप से वैध है।
जब कोलंबाइन हाई स्कूल में इस तरह का कत्ले आम 1999 में हुआ था तो अमेरिका हिल गया था। ऐसा लगा कि वह घटना अमेरिकी इतिहास की सबसे भयावह घटना के रूप में दर्ज होगी। आज यदि मरने वालों की संख्या पर नजर डाली जाए तो दिखेगा कि इसी दशक में तीन और घटनाएँ ऐसी हुई हैं जो उससे भी ज्यादा दर्दनाक रही है। 2012 में सैंडी हुक एलीमेंट्री स्कूल में हुए हमले में 26 बच्चे मारे गए थे; इसके बाद 2018 में मरजोरी स्टोनमैन डगलस हाईस्कूल, फ्लोरिडा में 17 लोगों की जानें गईं और अब 24 मई को टेक्सस में 19 बच्चे और दो वयस्क मौत के मुंह में समा गए।
मानसिक रोग और बंदूक के दुरुपयोग के संबंध को लेकर एक बार फिर से अमेरिका में बहस छिड़ी हुई है। बंदूकों का प्रेमी देश कहता है कि मानसिक बीमारी के कारण ऐसी घटनाएँ होती हैं, न कि सिर्फ बंदूक रखने के कारण। इन लोगों को नहीं लगता कि बंदूक रखने की कानून को बदला जाना चाहिए। इन्हें इस बात का भी अहसास नहीं कि ऐसा कह कर वे मानसिक तौर पर बीमार लोगों पर एक तरह का कलंक लगा रहे है। हर मानसिक रोगी गन का इस्तेमाल नहीं करता, और मानसिक रुग्णता भी कई तरह की होती है। जरूरी नहीं कि मानसिक तौर पर बीमार हर इंसान हिंसक भी हो। कई मानसिक बीमारियाँ तो व्यक्ति को बिल्कुल शिथिल और निष्क्रिय बना देती है। अवसाद तो व्यक्ति को चारों और से जकड़ लेता है, इतनी बुरी तरह कि वह कुछ करने के लायक ही नहीं बचता।
सीधे मानसिक रोग से इस समस्या को जोड़ देना इसका अति सरलीकरण है। इससे मानसिक रोगी अपनी दशा के बारे में खुलकर बताने से हिचकिचाएंगे और साथ ही समाज के लोग उनसे दूरी बनाने लगेंगे। दरअसल इस तरह की हिंसा के कई कारण हो सकते हैं और इस बात को भूला नहीं जाना चाहिए कि अमेरिका में हथियारों के कारोबारियों की एक बहुत मजबूत लॉबी है। वह दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का निर्यातक है, और अपने घरेलू बाजार में भी खतरनाक हथियार झोंकने में उसे कोई संकोच नहीं हुआ है। उसके कानून और वहां हो रही इस तरह की घटनाएँ ही इसका सबसे बड़ा सबूत है।
अमेरिका में करीब 33 करोड़ लोग हैं और बंदूकें हैं 40 करोड़। यानी, प्रति नागरिक एक से ज़्यादा बंदूके। अमेरिका की आबादी दुनिया की आबादी का 4 प्रतिशत है। इन 4 फीसदी लोगों के पास दुनिया की 40 फीसदी बंदूकें वगैरह है। ये वहां के नागरिक हैं, पुलिस या सेना के लोग नही। अंदाजा लगाइए, लोगों के मन में एक दूसरे के प्रति कितना भय और शंकाएं होंगी। कितनी नफरत होगी। बंदूकें होंगीं तो चलेंगीं भी, कभी न कभी। इन भयावह परिस्थितियों के साथ है वहां एक अजीब तरह की आजादी की धारणा। ऐसी आजादी जिसमें न ही जिम्मेदारी है और न ही अनुशासन। आपको यह भी मालूम होगा शायद कि स्कूलों में गोलियां चलना अमेरिकी संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। शायद एक समाज के रूप में इंसान से ज़्यादा प्रिय उन्हें बंदूकें है। संविधान (दूसरा संशोधन या सेकंड अमेंडमेंट) उन्हें हथियार रखने का हक देता है। वॉलमार्ट अपने करीब 5000 आउटलेट्स से बंदूकें बेचता है। और शिकार करने के शौकीन भी कई हैं वहां, इसलिए वे कई तरह के शस्त्र रख लेते है। अक्सर बच्चे अपने माता पिता के हथियारों का भी इस्तेमाल कर लेते है। आप आग पर चलेंगे और चाहेंगे कि तलुवे भी न झुलसे! मूर्खों के स्वर्ग में रहना इसी को तो कहते है।
अमेरिका आत्मघाती हुआ जा रहा है। अंधाधुंध अपने ही बच्चों को, अपने ही भविष्य को मार देने का सामान बना रहा है। न ही पेरेंट्स, न ही स्कूल प्रबंधन, न ही सरकार जानती है इसे रोका कैसे जाए। हथियारों के कारोबार में डूबे रहने वालों को खुद को बम, गोलियों की आवाजों और खून की गंध का आदी बना लेना चाहिए।
कल ही इस घटना को लेकर मित्र ब्रूस ऑल्डरमैन से फ़ोन पर बात हुई। ब्रूस कैलिफोर्निया की नेशनल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं, कवि हैं और मनोविज्ञान उनका विषय है। उन्होंने बड़े ही दुखी मन से कहा- ‘हमारे लिए यहाँ बड़ा ही उदास समय है। मुझे नहीं लगता कि किसी के पास भी इसका कोई जवाब है भी कि ये घटनाएँ क्यों हो रही है। खतरनाक हथियारों की उपलब्धता तो एक कारण है ही, पर साथ ही एक किस्म की सांस्कृतिक रुग्णता भी देखी जा सकती है। बंदूकों की पूजा और बंदूक संस्कृति की उपासना हाल के वर्षों में सामने आई है और यह बहुत परेशान कर रही है। बंदूक की मदद से हिंसक गतिविधियों में शामिल होना युवा वर्ग के लिए आसान हो गया है।
युवा इस आसानी से उपलब्ध माध्यम का उपयोग करके अपने आक्रोश को व्यक्त करते हैं और अपनी ‘छाप छोड़ देना चाहते हैं’। कई मामलों में मानसिक बीमारी भी इसका कारण है, पर हमेशा नही। कई शूटर अवसाद दूर करने की दवाओं पर रहते हैं, और इनकी वजह से उनमे आत्मघाती और हिंसक प्रवित्तियां बढ़ जाती है। यह एक बड़ी बुरी तरह उलझी हुई गाँठ है और मैं वास्तव में चाहता हूँ कि हम इसका कोई हल ढूँढ़ निकाल लें।’