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भूलन कांदा : उपन्यास से फिल्म तक की यात्रा
02-Jun-2022 5:02 PM
भूलन कांदा : उपन्यास से फिल्म तक की यात्रा

-रमेश अनुपम
शायद वह सन् 2009 काआखिरी महीना रहा होगा जब संजीव बख्शी ने मुझे अपने प्रथम  उपन्यास ‘भूलन कांदा’ की पांडुलिपि पढऩे और उस पर अपनी राय  देने  के लिए  मुझे दी । इससे पहले उन्होंने  जिन दो लोगों को इसकी पांडुलिपि पढऩे के लिए दी थी, उनकी यह  राय थी कि उन्हें अभी और इस पर काम करना चाहिए। संजीव बख्शी दोनों की राय से मुझे अवगत करा चुके थे और अब वे तीसरे पाठक के रूप में मेरी राय जानने के लिए किंचित उत्सुक थे। यह उनका पहला उपन्यास था वे मूलत: कवि थे। इसलिए अपने पहले उपन्यास की लेकर उनका सशंकित होना जायज ही था।

मैने पांडुलिपि मिलते ही  उसे पढऩा शुरू कर दिया था। पूरा उपन्यास मैने एक ही बैठक में समाप्त कर दिया था। मैं इसे पढक़र एक तरह से चकित था, कुछ-कुछ रोमांचित भी।

मुझे यह बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि संजीव बख्शी जो मूलत:  एक कवि हैं ऐसा महत्वपूर्ण उपन्यास  लिख लेंगे।

मैंने दूसरे दिन उनसे कहा कि यह गजब का उपन्यास है। आप इसे कहीं प्रकाशित करवाइए।  फिर मैंने यह भी जोड़ दिया  कि अच्छा होता आप इसे पहले ‘बया’ में प्रकाशित करवाते, इसके बाद ही पुस्तकाकर रूप में इसे साया होने देते।

संजीव बख्शी को मेरी राय काम की लगी होगी।  सो उन्होंने बिना देरी किए पांडुलिपि ‘बया’ में प्रकाशनार्थ भेज दी। कुछ दिनों के भीतर ही ‘बया’ के संपादक गौरीनाथ का फोन भी आ गया कि वे इसे ‘बया’  के अगले अंक में प्रकाशित कर रहे हैं।

‘बया’ के अप्रैल-जून सन् 2010 में यह पूरा उपन्यास प्रकाशित हुआ।

‘बया’ में प्रकाशित होते ही सबसे पहले  विष्णु खरे और वंदना राग की प्रतिक्रियाएं सामने आई। दोनों ने ‘भूलन कांदा’ की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।

विष्णु खरे ने संजीव बख्शी को  मुंबई से फोन किया और कहा कि उपन्यास के रूप में प्रकाशित होने से पहले वे कुछ जरूरी चर्चा इस उपन्यास के संबंध में उनसे करना चाहते हैं। इसलिए उनका आग्रह था कि समय निकालकर संजीव बख्शी किसी दिन मुंबई आ जाएं ।

विष्णु खरे उन दिनों दिल्ली छोड़ चुके थे और मुंबई में बस गए थे। अब संजीव बख्शी किसी तरह मुंबई जाने के लिए उत्सुक थे । इसी बीच एक दुर्लभ संयोग घटित हुआ।

छत्तीसगढ़ शासन को कंपनी लॉ की एक पेशी में कंपनी कोर्ट में उपस्थित होने की नोटिस मिली। छत्तीसगढ़ शासन के तत्कालीन मुख्य सचिव विवेक ढांड को इस पेशी में उपस्थित होना था पर व्यस्तताओं के चलते उनके लिए मुंबई जा पाना दूभर था। उन्होंने अपने मातहत  संजीव बख्शी को  आदेशित किया कि छत्तीसगढ़ शासन का पक्ष रखने के लिए वे मुंबई जाएं। संजीव बख्शी को विमान से आने जाने का किराया छत्तीसगढ़ शासन से मिल ही रहा था सो उन्होंने मेरे समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि उन्हें छत्तीसगढ़ शासन की ओर से मुंबई आने जाने का किराया मिल ही रहा है सो वे अपनी ओर से मुझे अपने साथ मुंबई ले जाना चाहते हैं । मैं  सहर्ष तैयार  हो गया। संजीव बख्शी अगर विमान की टिकट का भार नहीं उठाते तो भी विष्णु खरे से मिलने का आकर्षण ही अपने आप में इतना प्रबल था कि मैं मुंबई जा सकता था। तब तक विष्णु खरे से मेरी मित्रता परवान चढ़ चुकी थी। दिल्ली में अक्सर उनसे मिलना जुलना मेरा होता ही रहता था।

सो तत्काल  विष्णु खरे को इसकी सूचना दी गई कि हम लोग मुंबई पहुंच रहे हैं और  इस तरह हम 6 जनवरी 2011 को मुंबई पहुंच गए थे।

कम्पनी लॉ की पेशी अगले दिन  मुकर्रर थी,  इसलिए 6 जनवरी को हम  पूरी तरह से फ्री थे। चूंकि विष्णु खरे मलाड वेस्ट में रह रहे थे इसलिए संजीव बख्शी ने मलाड वेस्ट के ही एक होटल  में कमरा बुक करवा रखा था, जिससे कि उनसे मिलने-जुलने में किसी प्रकार की  कोई असुविधा न हो।

दोपहर में ही विष्णु खरे होटल आ गए थे। देर रात तक उनके साथ ‘भूलन कांदा’ उपन्यास  को लेकर हमारी चर्चा होती रही। उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए। तय हुआ कि उपन्यास के रूप में प्रकाशित होने के पूर्व ही इसे संशोधित कर लिया जाए। उसी दिन यह भी तय हो गया कि विष्णु खरे ही ‘भूलन कांदा’ उपन्यास का ब्लर्ब  भी लिखेंगे। पांच छह घंटे तक उस दिन हम केवल ‘भूलन कांदा’ उपन्यास पर ही  चर्चा करते रहे ।

दूसरे दिन गेटवे ऑफ इंडिया के समीप स्थित कम्पनी लॉ के कोर्ट में संजीव बख्शी की पेशी थी। पेशी निबटा कर हम गेटवे ऑफ इंडिया में देर शाम तक घूमते रहे थे। शाम को होटल पहुंचे। विष्णु खरे भी तब तक होटल पहुंच चुके थे।
पहले से तयशुदा कार्यक्रम के चलते आज रात्रि का भोजन हमें विष्णु खरे के  घर पर  करना था। हम विष्णु खरे के साथ ही मलाड वेस्ट स्थित उनके फ्लैट पहुंचे थे।  विष्णु खरे के बेटे ने हम लोगों के लिए होटल से खाना भिजवा दिया था। विष्णु खरे के घर पर भी हमारी बातचीत ज्यादातर ‘भूलन कांदा’ पर ही केंद्रित रही थी।

8 मई को हम मुंबई से वापस रायपुर लौट आए थे। संजीव बख्शी ने  रायपुर वापस लौटने के बाद विष्णु खरे के सुझाव पर ‘भूलन कांदा’ में कुछ जगहों पर आवश्यक परिमार्जन किए और उपन्यास को अन्तिका प्रकाशन को छपने के लिए  रवाना भी कर दिया।

विष्णु खरे ने समय सीमा में उपन्यास का  ब्लर्ब लिख कर भेज दिया था। रामकिंकर की सुप्रसिद्ध धातु शिल्प संथाल परिवार को इस उपन्यास के कवर पेज के लिए पसंद किया गया जो इस उपन्यास की थीम के अनुरूप ही था।

सन् 2012 में यह उपन्यास अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया।

रायपुर के वृंदावन हाल में इसका लोकार्पण समारोह  संपन्न हुआ। विष्णु खरे इस समारोह के मुख्य अतिथि और मुख्य आकर्षण दोनों  थे। ‘भूलन कांदा’ पर उनका व्याख्यान हम सबके लिए एक यादगार व्याख्यान  रहा।

‘भूलन कांदा’ के प्रकाशन के पश्चात छत्तीसगढ़ के युवा फिल्म निर्देशक मनोज वर्मा द्वारा इस पर फिल्म निर्माण की चर्चा भी शुरू हो गई थी। विष्णु खरे भी इसे लेकर अपनी तरह से उत्साहित थे। मनोज वर्मा से उन्होंने कहा कि वे इस फिल्म की स्क्रिप्ट पढऩा चाहेंगे और इस फिल्म के निर्माण संबंधी अन्य चीजों में भी उनसे  वे   लगातार बातचीत करना चाहेंगे।

इसी बीच अप्रैल 2014 में विष्णु खरे छिंदवाड़ा से रायपुर आए। तय हुआ कि ‘भूलन कांदा’ के लिए लोकेशन देख लिया जाए।

मनोज वर्मा गरियाबंद जिले के भुंजिया आदिवासियों का एक गांव महुवा भाटा पहले ही देख आए थे। वे चाहते थे कि विष्णु खरे और हम लोग भी  उस गांव को एक बार देख लें। मनोज वर्मा, विष्णु खरे, संजीव बख्शी और मैं गरियाबंद जिले में स्थित महुवाभाटा पहुंचे। चार-पांच घंटे तक हम लोग पूरा गांव घूमते रहे।

विष्णु खरे और हम सबको ‘भूलन कांदा’ के लिए यह गांव उपयुक्त प्रतीत हुआ। प्राकृतिक रूप से सुंदर इस आदिवासी गांव ने हम सबको मोह लिया था। बहुत सारे महुवा के पेड़ होने के कारण इस  गांव का नाम महुवा भाटा पड़ा था।

इस बीच विष्णु खरे का छिंदवाड़ा से रायपुर आना जाना खूब होता रहा। जब भी आते ‘भूलन कांदा’ फिल्म  की  चर्चा  करना वे  नहीं भूलते थे।

मनोज वर्मा के साथ इस फिल्म की स्क्रिप्ट को लेकर उनकी  एक बार नहीं अनेक बार चर्चाएं भी  हुईं।

बहरहाल 5 नवंबर सन 2016 को इस फिल्म की शूटिंग की शुरुआत हुई और केवल 34 दिनों में  इस फिल्म की शूटिंग पूरी भी हो गई। एडिटिंग, डबिंग और बैक ग्राउंड म्यूजिक का काम अलबत्ता अभी बाकी था।

इस फिल्म के सिनेमेटोग्राफर के लिए मनोज वर्मा ने विशेष रूप से कोलकाता के सुप्रसिद्ध कैमरामैन संदीप सेन को बुलवाया था।

‘पीपली लाइव’ के ओंकार दास मानिकपुरी को मुख्य किरदार के रूप में तथा इसकी नायिका प्रेमिन के लिए मुंबई की उभरती हुई नायिका अणिमा पगारे को अनुबंधित किया था। इसके अतिरिक्त मुंबई से ही अशोक मिश्र,  राजेंद्र गुप्ता, मनोज तिवारी जैसे जाने-माने अभिनेताओं सहित छत्तीसगढ़ के आशीष शेंद्रे, संजय महानंद को मनोज वर्मा ने इस फिल्म के लिए अनुबंधित किया था।

कला निर्देशन की जिम्मेदारी मुंबई के ही जयंत देशमुख  को सौंपी गई थी।  संगीत के लिए  सुनील सोनी को तथा बैक ग्राउंड म्यूजिक के लिए मुंबई के मोंटी शर्मा का चयन किया गया था।

इस फिल्म में गांव का लोकेशन महुवा भाटा को ही रखा गया। महुवा भाटा सहित गरियाबंद, खैरागढ़, रायपुर में इस फिल्म की शूटिंग हुई। संजीव बख्शी के साथ मैं गरियाबंद, खैरागढ़, रायपुर में हुई शूटिंग में उपस्थित रहा। किसी भी फिल्म को बनते हुए देखना, किसी दृश्य में खुद को भी शामिल होते हुए देखना यह सब कुछ मेरे लिए विरल और सुखद अनुभव था। अर्थात् जाने अनजाने मैं भी इस फिल्म का हिस्सा बनता चला गया।

इसलिए अपने बारे में यह तो कह ही सकता हूं कि  उपन्यास से लेकर फिल्म के निर्माण तक की यात्रा का न केवल  मैं गवाह रहा हूं अपितु एक तरह से इसका एक अविभाज्य हिस्सा भी रहा  हूं।

फिल्म के निर्माण के पश्चात इसे अनेक बार बार देखने का सौभाग्य भी मुझे मिला, जिसमें एक बार विष्णु खरे के साथ  भी  मनोज वर्मा के स्वप्निल स्टूडियो में इस फिल्म को देखना शामिल है।

अब जब ‘भूलन कांदा’ जो ‘भूलन द मेज’ के नाम से पूरे देश भर में 27 मई को रिलीज होने जा रही है। जो रीजनल फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड तथा अनेक फिल्म समारोहों में कई सारे अवार्ड हासिल कर चुकी है। ‘भूलन द मेज’ अपने छत्तीसगढ़ी गीत संगीत के लिए भी प्रदर्शन से पूर्व ही पूरे प्रदेश में अच्छी खासी लोकप्रियता बटोर चुकी है। इसे लेकर छत्तीसगढ़ सहित देश भर के दर्शकों में उत्सुकता तो होगी ही।

छत्तीसगढ़ राज्य की यह पहली फिल्म है जिसे नेशनल अवार्ड से सम्मानित होने का खिताब मिला है।

27 मई से यह फिल्म सिनेमाघरों मैं सफलतापूर्वक दिखाई जा रही है। मेरे लिए उपन्यास के प्रकाशन से लेकर इस फिल्म के रिलीज होने तक की इतनी सारी यादें हैं जिसे एक लेख तक सीमित कर पाना मेरे लिए एक कठिन कार्य है।

इस अवसर पर विष्णु खरे की याद मुझे सबसे अधिक आ रही है। इस उपन्यास के प्रकाशन के पश्चात ही  मुझे लगता  रहा है कि इस उपन्यास के हर पृष्ठ पर  विष्णु खरे जैसे  स्वयं मौजूद हैं । वैसे ही ‘भूलन द मेज’ फिल्म में भी  उनकी मौजूदगी को मैं साफ साफ महसूस कर सकता हूं।

आज वे होते तो इस फिल्म के प्रीमियर शो में अवश्य उपस्थित होते।

 

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