विचार / लेख

बलिहारी शिष्य आपने पैर लिए छुआए
16-May-2022 2:06 PM
बलिहारी शिष्य आपने पैर लिए छुआए

-चिन्मय मिश्र
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाए,
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।
कबीर

और
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,
सीस दिए से गुरु मिले, वो भी सस्ता जान।
कबीर

दुनिया बदलती है, यह तो दस्तूर है, लेकिन क्या उसके साथ शाश्वत मान्यताएं और शाश्वत मूल्य भी बदल जाते हैं ? आश्चर्य तब होता है जब कि इन सनातन मूल्यों को वे तोड़ते हैं, जो कि स्वयं को सनातन धर्म का प्रवक्ता और ठेकेदार मानते हैं। कबीर का जीवनकाल सन् 1398 ईस्वी से सन् 1518 (करीब 120 वर्षों का) तक माना जाता है। वे निरक्षर थे लेकिन गुरु का महत्व समझते थे। वह समझा गए थे कि अक्षरज्ञान ही सब कुछ नहीं है। वे बता गए थे कि गुरु और गोविंद में से पहले कौन वंदनीय है। उन्होंने यह बात भी कान में डाल दी थी कि सिर कटाने से भी बड़ी बात एक गुरु से साक्षात्कार है। परंतु उनकी मृत्यु के करीब 504 वर्षों बाद भारत में सभ्यता और संस्कृति की नई (बयार) लू चल पड़ी है। खबर आई है भारत के आदर्श राज्य और जहां से देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री आते हैं, उसी गुजरात से, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की अहमदाबाद इकाई के एक नेता ने विगत शुक्रवार को शहर के साइंस सिटी रोड स्थित ‘साल टेक्निकल इंस्टिट्यूट’ जिसे साल कालेज भी कहा जाता है, की महिला प्रिंसिपल को एक छात्रा के पैर छूने को मजबूर कर दिया।

इक्कीसवीं सदी की इस ‘महान’ प्ररेणादायी और अब तक चली आ रही सड़ी-गली परंपरा जिसमें कि छात्र गुरुजनों के पैर छूते थे, उनके चरणों की वंदना करते थे, जैसी परंपरा को बदल कर यह ऐतिहासिक कार्य किया गया। इस प्रगतिशील कदम के अन्तर्गत महाविद्यालय की प्राचार्या ने अपने विद्यार्थी के प्रति जो घृणित अपराध किया था, उसके पश्चाताप स्वरूप उनसे अपनी ही विद्यार्थी के पैर छुआए गए। प्राचार्य ने जो अपराध किया उसे भी जान लेना जरुरी है। उनका घनघोर अपराध यह था कि उन्होंने 75 प्रतिशत से कम उपस्थिति के चलते कालेज में डिप्लोमा इंजीनिरिंग कर रहे पहले, दूसरे और चौथे वर्ष के 12 विद्यार्थियों के अभिभावकों को महाविद्यालय बुलाया था। कुछ के अभिभावक आ भी गए थे

सोचिए वे यानी प्रिसिंपल जिनका नाम डा. मोनिका गोस्वामी है, कितना बड़ा अपराध कर रहीं थीं। ऐसे विद्यार्थी जिन्होंने महाविद्यालय न आकर महाविद्यालय और पूरे शिक्षा जगत पर अहसान किया था, के माता-पिता को कालेज में बुला लिया ! जाहिर है कुछ अति मेधावी और महान विद्यार्थी जो कि कक्षाओं में न आकर अहसान कर रहे थे, को यह नागवार गुजरा। एबीवीपी यानी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, जो कि गुजरात व भारत में सत्तासीन राजनीतिक दल का समर्थक संगठन है, के पदाधिकारियों को भी यह कृत्य नागवार गुजरा। उन्हें लगा होगा कि उनके समर्थकों के साथ ऐसा कैसे हो सकता है? बहरहाल ये निरीह और असहाय छात्र अपने परम आदरणीय नेता अक्षत जयसवाल के पास पहुंचे। जाहिर है अक्षत जी को प्रधानाचार्यं की इस कारगुजारी से गहरी चोट पहुंची होगी। उनका हृदय करुणा जो अपने साथियों के प्रति थी और गुस्सा जो प्राचार्या के प्रति था, एकसाथ उबल पड़ा। वे बेहद भावुक व क्रोधित एकसाथ हो उठे होंगे। उन्होंने करीब 100 विद्यार्थियों को साथ लिया और प्राचार्य डा. मोनिका गोस्वामी को दंड देने उनके दफ्तर में जा पहुंचे। गोस्वामी से याद आया कि महाकवि तुलसीदास को भी तो गोसांई या गोस्वामी तुलसीदास कहा जाता था। वे भी गुरु के लिए रामचरित मानस के बालकांड में लिखते हैं,

श्रीगुर पद नख मनि गन जोति, सुमिरत दिव्य दृष्टि हिंय होती।।
दलन मोह तमसो स प्रकासू, बड़े भाग उर आवई जासू।।
उपरोक्त चौपाईयों का अर्थ है, ‘‘श्री गुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही ह्दय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करने वाला है। वह जिसके ह्दय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।

अब आप ही सोचिए इस इक्कीसवीं सदी में क्या कबीर और क्या तुलसीदास! कबीर तो पूरे पैर की बात करते हैं लेकिन तुलसीदास तो सिर्फ पैरों के नाखून को ज्योति मणि बता रहे हैं। हम तो इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं। विज्ञान के युग में रह रहे हैं और इस बात पर विश्वास कर लेंगे कि गुरु के नाखून ज्योति मणि के समान हैं ? कतई नहीं। तो आधुनिक संत शिरोमणी श्री श्री अक्षत जी अपने 100 दिव्य शिष्यों के साथ अधम या उधम करने वाली प्राचार्या के कक्ष में पहुंचते हैं और उन्हें उनकी ही एक छात्रा के पैर छूने को मजबूर कर देते हैं। इस तरह से वह भारत में अनादि काल से चली आ रही एक रूढ़ परंपरा को ध्वस्त कर देते हैं। जाहिर है वे एक ऐतिहासिक कार्य कर रहे हैं। एक ऐसा कार्य जिसकी कल्पना भी नेहरू के शासनकाल में नहीं की जा सकती थी। आप ही सोचिए आजादी के 75 वर्षों में क्या कभी ऐसा हुआ? यह महान कार्य आजादी के अमृत वर्ष में और अमृत काल के चलते एबीवीपी द्वारा ही संभव हो पाया है। कांग्रेस को शर्म से डूब मरना चाहिए कि गांधी व नेहरू ने उन्हें शिक्षकों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह भी नहीं सिखाया था।

घटना का वीडियो जारी हो जाने के बाद, एबीवीपी की महानगर मंत्री प्रार्थना अमीन ने अक्षत जयसवाल को निलंबित कर दिया। देखिए, कितनी कठोर कार्यवाही की है? नहीं? सोचिए हम किस तरह का दोहरा आचरण अपने आसपास देख रहे हैं। कायदे से होना तो यह था कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद व अन्य सभी छात्र संगठन इस घटना की भत्र्सना करते। महाविद्यालय की प्राचार्या से सार्वजनिक माफी मांगते और अक्षत जायसवाल के खिलाफ पुलिस थाने में रिपोर्ट करते। वैसे यह कोई बिरली घटना नहीं है जो शिक्षकों के खिलाफ हुई हो । अभी कुछ दिन पहले ही बड़ौदा स्थित एमएस विश्वविद्यालय में विवाद हुआ और उत्तरप्रदेश के लखनऊ में विवाद हुआ। असहमति की गुंजाइश हमेशा से रही है और होना भी चाहिए। परंतु किसी विद्यार्थी की कलाकृति या किसी प्राध्यापक की टिप्पणी पर विद्यार्थियों द्वारा इतनी कटुता भरी और कमोवेश अपमानजनक ढंग से दी गई प्रतिक्रियाएं वास्तव में आश्चर्यचकित करतीं हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से अपने शिक्षकों का मूल्यांकन छात्रों द्वारा किया जाना वास्तव में बेहद अरुचिपूर्ण व अभद्र है।

चूंकि नवीनतम मसला अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ा है, ऐसे में उनके मूल संगठन से अपेक्षा है कि वह गुजरात के अपने संगठन के सभी पदाधिकारियों व सदस्यों को नए दिशा-निर्देश जारी करें कि गुरुजनों से किस प्रकार से व्यवहार किया जाना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि मूल संगठन को इस तरह की अपमानजनक व अमानवीय घटना के मद्देनजर गुजरात के अपने संगठन में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहिए और खोज करना चाहिए कि इस तरह की खतरनाक विकृति कैसे पनप गई। यह घटना हमारे देश के शिक्षकों के लिए भी बड़ा सबक है। उन्हें सोचना समझना होगा कि वे किस तरह की भस्मासुरी पीढ़ी को विकसित कर रहे हैं। इस घटना की जिम्मेदारी से शिक्षक वर्ग भी बच नहीं सकता। अहमदाबाद में जिन छात्रों ने इस तरह की घृणित हरकत की है, वे उन्हीं के द्वारा पढ़ाए (?) गये हैं। महाविद्यालयों में उपस्थिति में छूट को तमाम छात्रों द्वारा अपना मौलिक व वैधानिक अधिकार मान लेना कोई एक दिन में नहीं हो गया है। पिछले कई वर्षों से यह परंपरा बनती जा रही है कि विद्यार्थी महाविद्यालय जाते ही नहीं और जाते भी हैं तो कक्षाओं में नहीं बैठते। वैसे उनका कहना कि बैठकर करेंगे भी क्या, शिक्षक तो हैं ही नहीं। तो ये छात्र कहां पढ़ रहे हैं, कैसे पढ़ रहे हैं, किससे पढ़ रहे हैं और कैसे हमेशा पहली श्रेणी यानी फस्र्ट क्लास में उत्तीर्ण हो जाते हैं ? अब यह बीमारी विद्यालयों में भी फैल गई है। नौंवी से तमाम छात्र कमोवेश विद्यालय जाना बंद कर देते है या ‘डमी स्कूलों’ में प्रवेश ले लेते हैं। वे सिर्फ कोचिंग क्लासेस में ही जाते हैं। अतएव छात्रों और शिक्षकों में शिक्षा संबंधी संबंध विकसित ही नहीं हो पाते। उनके संबंध उपभोक्ता और आपूर्तिकर्ता के रह जाते हैं।

छात्र और उनके अभिभावक शिक्षा शुल्क देने के बाद मान लेते हैं कि उनकी जिम्मेदारी खत्म हो गई है। शिक्षा अब एक उत्पाद है, और उन्होंने उनकी कीमत चुका दी है। चूंकि इस उत्पाद का प्रमाणीकरण डिग्री से होता है और उसका नकद भुगतान पहले कर ही चुके हैं। अहमदाबाद की घटना एकाध अखबार में पिछले पन्ने या अंदर के पन्ने पर छपी है। जबकि यह प्रथम पृष्ठ का सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य समाचार है जो समझा रहा है हम पतन के गर्त से भी नीचे कोई जगह होती होगी, तो उस रसातल पर पहुंच चुके हैं। एक शिक्षक को इस तरह अपमानित करना राष्ट्रीय रोष नहीं शोक का विषय है। इस पतन का अगला चरण तो यही हो सकता है कि यदि हम अपने माता-पिता के कार्य से संतुष्ट नहीं हैं या विरोध में हैं तो समझौते की स्थिति में आने के लिए उन्हें हमारे यानी बच्चों के पांव छूने पड़ेंगे।

यह घटना को अंजाम एक ऐसे संगठन के सदस्य ने दिया है जो भारतीय संस्कृति, सभ्यता और संस्कार की कसमें खाता है। पिछले कुछ समय से उन्होंने कसमें खिलवाना भी आरंभ कर दिया है। अहमदाबाद में प्राचार्या/शिक्षक को छात्रा के पांव छूने को मजबूर करना हमारे समाज में बढ़ती वीभत्सता का स्पष्ट संकेत है। शिक्षक या गुरु बनना महज नौकरी नहीं है। शिक्षकों को भी समझना होगा कि वे ज्ञान की परंपरा के संवाहक हैं। यदि वे इसे महज एक नौकरी की तरह लेंगे और अधिकांशत: ऐसा कर भी रहे हैं, तो फिर प्रतिष्ठा प्राप्त कर पाना भी संभव नहीं है। प्रथम सिख इतिहासकार भाई गुरदास गुरु अंगद को गुरु गद्दी मिलने पर कहते हैं, ऐसा माना जाता है कि गुरुगद्दी पर नामजद किए जाने पर प्रत्येक गुरु में गुरु की ज्योति प्रवेश कर जाती थी। अत: वे भी नानक ही कहलाए और उनमें से कुछ ने अपना उपनाम भी नानक रखा। याद रखिए (गुरु) ग्रंथ साहेब भक्ति काव्य के महानतम संकलनों में से एक है। इसकी शुरुआत या आरंभ में मूलमंत्र हैं,
एक ओंकार/सतनाम/करता पुरख/निरभौ/निरवैर/अकाल सूरत/अजूनी/सैभं/गुरु प्रसाद।।

अर्थात, ईश्वर एक है, वही सृष्टि का रचनाकार है। वह निर्भय है और किसी से बैर नहीं रखता। वह शाश्वत है, वह जन्म-मृत्यु से परे है। वह स्वयं-भू है, उसे गुरुकृपा से प्राप्त किया जा सकता है।
जबकि अहमदाबाद की घटना तो बता रही है कि अब गुरु ही शिष्य की कृपा पर निर्भर हैं। इस संक्रमण को जितनी जल्दी रोका जाएगा बेहतर रहेगा। अन्यथा कोरोना से तो दुनिया बच भी सकती है, लेकिन गुरु के अपमान के बाद...
 

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