विचार / लेख
-शंभूनाथ
मुझे लगता है, हिंदी के विश्वविद्यालय-बाहर का साहित्य 10 साल बाद मामूली मुनाफा भी नहीं देगा। अच्छी मासिक और द्वै-मासिक साहित्यिक पत्रिकाएं (गैर-सरकारी) शायद ही रह जाएं। इधर सोशल मीडिया ने पुस्तकें पढऩे की प्रवृत्ति पर बड़ी चोट की है और बौद्धिक सतहीकरण को एक बड़ी मात्रा प्रदान की है। कई हैं जो कुछ पुस्तकें खरीद जरूर लेते हैं, पर सोचते हैं-कभी पढ़ेंगे! साहित्य की दुनिया अभी से सिकुड़ती जा रही है। फिर लेखक का शोषण करने वाले कहां-कहां होंगे, इस पर लेखक को सोचना चाहिए।
आज हिंदी के जो लेखक चेतन भगत की शैली में अपना भाव लगा रहे हैं, उन्हें जरा शांति से आने वाले दिनों के संकट के बारे में सोच लेने में हर्ज नहीं है। मेरा खयाल है, आज का सबसे बड़ा हिंदी साहित्यकार भी लिखकर 25 हजार रुपए महीना भी शायद ही कमाता हो। आज हिंदी में लिखकर अपनी जीविका चलाना तो दूर कोई सब्जी का खर्च भी नहीं निकाल सकता।
10 साल बाद साहित्य के हिंदी पाठक खोजने होंगे, पारिश्रमिक पाना तो बहुत दूर की बात है। इस मामले में अभी से सोचना चाहिए, मिलजुलकर रास्ता निकालना चाहिए।
इसपर विचार करना चाहिए कि जब लेखक को शोषण करने वाले भी नहीं मिलेंगे, तब वे क्या करेंगे? क्या लिखना बंद कर देंगे ? वे यशपाल और अश्क की तरह अपना निजी प्रकाशन शायद ही शुरू करें। अपनी अच्छी नौकरी से बड़ा वेतन पाते हुए भी शायद ही 4-5 व्यक्तियों से ज्यादा हों जो अपनी गांठ से खर्च करके साहित्यिक पत्रिका निकालें या कोई साहित्यिक आयोजन करें। अधिकांश तो हिंदी का सेवन करेंगे।
जिन साहित्यकारों के सजग बेटे-बेटियां न होंगे, शायद उनके मरने के कुछ सालों बाद उनका कोई नामलेवा नहीं होगा।
व्यापारी काफी पहले साहित्य से त्यागपत्र दे चुके हैं। संस्थाओं की हालात सामान्यत: खराब होती जा रही है। क्या तब यही होगा कि लेखक अपने पैसा से डेटा खरीदें, फेसबुक, ब्लॉग जैसी जगहों पर कुछ क्षणभंगुर लिखते रहें और इन्हीं पर परम अभिव्यक्ति का सुख हासिल करते रहें! यह सचमुच एक दयनीय स्थिति होगी।
साहित्य की दुनिया में बड़े व्यावसायिक प्रकाशनों के अलावा बाकी क्षेत्रों में साहित्य का काम हमेशा नुकसान से भरा रहा है। प्रकाशक भी साहित्य की सरकारी खरीद के मंद और धीरे-धीरे बंद होते ही लेखकों को नमस्कार करते नजर आएंगे। हिंदी के 5-7 बड़े प्रकाशकों को छोड़ दें,तो छोटे प्रकाशन कुटीर उद्योग की तरह हैं। ज्यादातर किताबें पैसे लेकर छापी जाती हैं और ये मुश्किल से बिकती हैं। हिंदी में 6 महीने में 1000 प्रतियां बिक गईं तो वह बेस्ट सेलर है! इस मामले में भी झूठा प्रचार ज्यादा है।
गौर कीजिए तो बहुत कम लेखक होंगे जो किताबें या पत्रिकाएं खरीद कर पढ़ते होंगे। कई की दृष्टि यह है कि यदि दूसरा लेखक मित्र नहीं है तो उसकी किताब पढऩा अपना अपमान करना है! यह है दशा।
इन सबके बावजूद क्या किसी भी युग में रचनाकार में लिखने की छटपटाहट कम हो सकेगी? लेकिन जब साहित्य के क्षेत्र में शोषण करने वाले ही न होंगे (!) भारतीय भाषाओं के साहित्य का बाजार ही सिकुड़ जाएगा, तब लेखक क्या करेगा?
प्राय: बड़े हिंदी अखबारों ने अपने पन्नों से साहित्य को पहले ही हटा दिया है।मैं नहीं जानता, नई स्थितियों में प्रकाशक अपने को कितना बदलेंगे और पाठक आंदोलन तैयार करेंगे। लेकिन इतना साफ है कि पढऩे की संस्कृति को बचाना सबसे बड़ी जरूरत है और यह सामूहिक प्रयास से ही होगा।
वस्तुत: साहित्य कर्म हर युग में अपने को लुटाने का काम रहा है, कम से कम हिंदी की दुनिया में साहित्य से कमाकर अंग्रेजी लेखकों की तरह अमीर बनने की संभावना नहीं है।
लेखक समाज से क्या पाएगा, यह अब इसपर निर्भर करेगा कि वह अपनी रचनाओं और बड़े-बड़े विचारों के अलावा समाज को क्या दे रहा है।
हिंदी क्षेत्र के पढ़े-लिखे स्मार्ट नौजवान बड़े पैमाने पर अंग्रेजी और तकनीक की दुनिया में चले गए हैं। आमतौर पर साहित्यकारों के खुद उनके अपने बच्चे ही उनकी किताबें नहीं पढ़ते, भले ऐसे भोले साहित्यकारों की गहरी इच्छा हो कि पूरी दुनिया उनकी किताब पढ़े! ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियां नहीं बदलीं तो 10 साल बाद साहित्य के हिंदी पाठक टॉर्च लाइट लेकर खोजने होंगे, पारिश्रमिक पाना तो बहुत दूर की बात है।
इस मामले में अभी से सोचना चाहिए, बल्कि मिलजुलकर रास्ते खोजने चाहिए। दरअसल अंग्रेजी छोडक़र दूसरी किसी भाषा में अब साहित्य मुनाफे का काम नहीं है! कमाने के लिए जो लेखन की दुनिया में आना चाहते हैं, वे कविता, कथा, आलोचना छोडक़र मिथ्या प्रचार के वीडियो बनाएं-इसकी मांग इधर बढ़ी है!ं