बस्तर
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
जगदलपुर, 23 अक्टूबर। जिले में धूमधाम के साथ बस्तर दशहरा पर्व मनाया जा रहा है। 6 दिनों के फूल रथ की परिक्रमा के बाद सरगीपाल के जंगल में बेल पूजा की रस्म पूरी की गई।
ज्ञात हो कि यहां एक दुर्लभ बेल का पेड़ है, जिसकी डाली में जोड़ी के साथ ही बेल लगते हैं, जबकि इसके आगे और पीछे के पेड़ में केवल एक बेल लगता है। दरअसल यह रस्म एक विवाह और बेटी की बिदाई की रस्म है।
ये है बेल पूजा की पौराणिक कथा
मान्यता है कि राजा पुरषोत्तम देव सरगीपाल के जंगल में शिकार खेलने गए थे। उन्होंने यहां 2 रूपवती कन्याओं को देखा और मुग्ध होकर उन्हें विवाह का प्रस्ताव दिया।
कन्याओं ने उन्हें 8वें दिन बाद बारात लेकर आने को कहा। अगले दिन राजा राजसी और दूल्हे के वेश में लाव लश्कर के साथ वहां पहुंचे, तब दोनों कन्याओं ने कहा कि वे उनकी कुल देवी मणिकेश्वरी और दन्तेश्वरी हैं।
उन्होंने ठिठोली करते हुए राजा को बारात लेकर आने को कहा था। शर्मिंदा राजा ने उनसे अपने व्यवहार के लिए क्षमा याचना की और उन्हें दशहरा पर्व में आने का निमंत्रण दिया। तब से यह विधान चला आ रहा है।
आधी रात में न्योता देने जाता है पुजारी
बेल न्योता रस्म की पूर्व रात्रि दन्तेश्वरी मंदिर के पुजारी, आधी रात सरगीपाल जाकर जोड़ी वाले बेल को लाल कपड़े से बांध देते है और इनके देवी स्वरूप को दशहरा पर्व में शामिल होने का न्योता देते हैं।
राजा स्वयं पुजारी से जोड़ी बेल को ससम्मान ग्रहण कर देवी दन्तेश्वरी के मंदिर तक लाते हैं। इसी बेल के गूदे का लेप मांईजी के छत्र में किया जाता है और राजा भी इसे मिलाकर स्नान करते हैं।
बेटी की विदाई की तरह होती है रस्म
इस दौरान सरगीपाल में मेले और विवाह जैसा माहौल रहता है। उपस्थित स्त्री -पुरुष रिवाज के अनुरूप हल्दी खेलते हैं और दुखी मन से बेल की जोड़ी के देवी स्वरूप को बेटी की तरह बिदा करते हैं।