राजपथ - जनपथ
जयदीप जर्मनी चले...
छत्तीसगढ़ कैडर के आईपीएस अफसर जयदीप सिंह की पोस्टिंग जर्मनी के भारतीय दूतावास में हो गई है। 97 बैच के आईपीएस जयदीप सिंह लंबे समय से आईबी में पदस्थ हैं। पिछले कुछ समय से वे छत्तीसगढ़ में आईबी का काम देख रहे हैं। जयदीप सिंह स्वास्थ्य सचिव निहारिका बारिक सिंह के पति हैं। चूंकि पति की विदेश में पोस्टिंग हो गई है, तो संभावना जताई जा रही है कि निहारिका बारिक सिंह भी केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर जा सकती हैं। हालांकि अभी तक उन्होंने इसके लिए आवेदन नहीं किया है। करीबी जानकारों का कहना है कि अभी तुरंत उन्होंने ऐसा कुछ सोचा नहीं है।
अमितेष चुप नहीं रह पाए...
राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान विपक्ष की तरफ से टोका-टाकी की आशंका जताई जा रही है, लेकिन सबकुछ शांतिपूर्ण चल रहा था। तभी अमितेष शुक्ल खड़े हुए और उन्होंने राज्यपाल का अभिभाषण शांतिपूर्वक सुनने के लिए विपक्षी सदस्यों को साधुवाद दे दिया। यानी टोका-टाकी की शुरूआत खुद सत्तापक्ष के सदस्य ने कर दी। अमितेश की टिप्पणी पर सदन में ठहाका लगा। पिछले बरस अक्टूबर में जब गांधी पर विधानसभा का विशेष सत्र हुआ तो अमितेष शुक्ल ने तमाम विधायकों की तरह विशेष कोसा-पोशाक पहनने से इंकार कर दिया था, और नतीजा यह हुआ था कि विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरण दास महंत ने दो दिन के उस सत्र में अमितेष को बोलने नहीं दिया था, और वे नाराजगी से सदन के बाहर चले गए थे। इस बार उन्हें बोलने का मौका मिला। बाद में अभिभाषण खत्म होने के बाद भाजपा सदस्य बृजमोहन अग्रवाल ने धान खरीदी बंद होने से किसानों की परेशानी का मुद्दा उठाया।
आडंबर से उबरना भी जरूरी...
अभी-अभी महाशिवरात्रि के मौके पर एक बार फिर यह सवाल उठा कि कुपोषण के शिकार इस देश में जहां बच्चों को पीने के लिए दूध नसीब नहीं है, वहां पर क्या किसी भी प्रतिमा पर इस तरह दूध बर्बाद करना चाहिए? और बात महज हिन्दू धर्म के किसी एक देवी-देवता की नहीं है, यह बात तो तमाम धर्मों के लोगों की है जिनमें कहीं भी, किसी भी शक्ल में सामान की बर्बादी होती है, और लोग उससे वंचित रह जाते हैं। कई धर्मों को देखें, तो हिन्दू धर्म में ऐसी बर्बादी सबसे अधिक दिखती है। शिवलिंग पर चढ़ाया गया दूध नाली से बहकर निकल जाता है, और ऐसे ही मंदिरों के बाहर गरीब भिखारी, औरत और बच्चे भीख मांगते बैठे रहते हैं। जाहिर है कि ऐसे गरीबों को दूध तो नसीब होता नहीं है।
लेकिन समाज अपने ही धार्मिक रिवाजों से कई बार उबरता भी है। अभी सोशल मीडिया पर एक तस्वीर आई है जिसमें शिवलिंग पर दूध के पैकेट चढ़ाए गए हैं, और उसके बाद ये पैकेट गरीब और जरूरतमंद बच्चों को बांट दिए जाएंगे। धार्मिक रीति-रिवाजों में पाखंड खत्म करके इतना सुधार करने की जरूरत है कि ईश्वर को चढ़ाया गया एक-एक दाना, एक-एक बूंद गरीबों के लिए इस्तेमाल हो। जब ईश्वर के ही बनाए गए माने जाने वाले समाज में बच्चे भूख और कुपोषण के शिकार हैं, तो दूध को या खाने-पीने की किसी भी दूसरी चीज को नाली में क्यों बहाया जाए? यह भी सोचने की जरूरत है कि जब कण-कण में भगवान माने जाते हैं, तो ऐसे कुछ कणों को भूखा क्यों रखा जाए? धार्मिक आडंबर में बर्बादी क्यों की जाए? ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनके जवाब लोगों को ढूंढने चाहिए, और चूंकि धार्मिक आस्था तो रातोंरात घट नहीं सकती, नई तरकीबें निकालकर बर्बादी घटाने का काम करना चाहिए। धर्म के नाम पर पहले से मोटापे के शिकार तबके को और अधिक खिला देना उन्हें मौत की तरफ तेजी से धकेलने का काम है, उससे कोई पुण्य नहीं मिल सकता। खिलाना तो उन्हें चाहिए जिन्हें इसकी जरूरत हो। अभी की शिवरात्रि तो निकल गई लेकिन अगली शिवरात्रि तक समाज के बीच यह बहस छिडऩी चाहिए कि दूध को इस तरह चढ़ाया जाए कि वह लोगों के काम आ सकें, जरूरतमंदों के काम आ सके। ([email protected])
किस्सा भूतों..., मतलब भूतपूर्वों का
राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष अजय सिंह 29 तारीख को रिटायर हो रहे हैं। उन्हें नाराजगी के चलते सरकार ने सीएस के पद से हटाकर राजस्व मंडल भेज दिया था। बाद में उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया। अब चूंकि वे रिटायर हो रहे हैं, तो उनकी पोस्टिंग को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। यह संकेत हैं कि अजय सिंह योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर आगे भी बने रहेंगे। वैसे भी, राज्य बनने के बाद जितने भी सीएस रहे हैं, उनमें से आरपी बगई और पी जॉय उम्मेन को छोड़ दें, तो बाकी सभी को रिटायरमेंट के बाद कुछ न कुछ जिम्मेदारी सौंपी गई थी। आरपी बगई और पी जॉय उम्मेन को भी पद का ऑफर दिया गया था, लेकिन दोनों ने यहां सरकार में काम करने से मना कर दिया।
बगई को पीएससी चेयरमैन का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया। बगई का सोचना था कि पीएससी चेयरमैन का पद प्रमुख सचिव के समकक्ष है। वे कोई अहम जिम्मेदारी चाह रहे थे, जिसके लिए रमन सरकार तैयार नहीं थी। बाद में वे दुबई चले गए और एक निजी कंपनी में नौकरी करने लगे। जबकि जॉय उम्मेन को सीएस के पद से हटाने के बाद सीएसईबी और एनआरडीए चेयरमैन के पद पर यथावत काम करने के लिए कहा गया था, लेकिन वे सीएस के पद से हटाए जाने के बाद इतने नाखुश थे कि वे रिटायरमेंट के बाद अपने गृह प्रदेश केरल चले गए, जहां केरल सरकार में वे राज्य वित्त निगम के चेयरमैन हो गए थेे। बाद में वे एक मंत्रालय के सलाहकार बनाए गए थे और जब भ्रष्टाचार के चलते उस मंत्रालय के मंत्री की कुर्सी चली गई, तो उम्मेन का काम भी खत्म हुआ।
राज्य के पहले सीएस अरूण कुमार प्रशासनिक सुधार आयोग के अध्यक्ष बनाए गए। उनका बनना भी बहुत दिलचस्प है। सीएस रहते हुए उन्होंने कोई काम नहीं किया, फाईलें उनके कमरे में जाती थीं, वहां से वापिस नहीं आती थीं। लेकिन रिटायर होने के बाद उन्हें पुनर्वास की बहुत तलब थी। अजीत जोगी मुख्यमंत्री थे, और सुनिल कुमार उनके सचिव थे। रिटायर होने के बाद उन्होंने सुनिल कुमार की ऐसी घेरेबंदी की कि आखिर में थक-हारकर उन्होंने जोगीजी से कहा कि इन्हें कहीं भी कुछ भी बना दें, ताकि परेशान करना बंद करें। ऐसे में एक प्रशासनिक सुधार आयोग बनाकर अरूण कुमार को एक साल के लिए उसमें रखा गया। जिसने नौकरी में रहते काम नहीं किया, उसे प्रशासनिक सुधार का काम दिया गया। सरकार में इस किस्म की बर्बादी को अधिक गंभीर नहीं माना जाता है, और हर सरकार में ऐसे कई पद बर्बाद होते ही हैं।
उनके बाद के सीएस एस के मिश्रा राज्य विद्युत नियामक आयोग के चेयरमैन बनाए गए। इसके बाद भी वे कई अहम पदों पर काम करते रहे। वे रिटायरमेंट के बाद सबसे लंबी पारी खेलने वाले अफसर रहे। एसके मिश्रा के उत्तराधिकारी एके विजयवर्गीय राज्य के पहले मुख्य सूचना आयुक्त बने। उनके बाद शिवराज सिंह भी पहले राज्य निर्वाचन आयुक्त फिर राज्य योजना आयोग और राज्य पावर कंपनी के चेयरमैन रहे, वे सीएम के सलाहकार के पद पर भी काम करते रहे। शिवराज सिंह के बाद जॉय उम्मेन और फिर सुनिल कुमार सीएस बने। सुनिल कुमार ने भी योजना आयोग के उपाध्यक्ष, और मुख्यमंत्री के सलाहकार के पद पर काम किया। उनके बाद विवेक ढांड रिटायरमेंट के पहले ही इस्तीफा देकर रेरा के चेयरमैन बने और वे इस पद पर काम कर रहे हैं। विवेक ढांड के बाद अजय सिंह सीएस बनाए गए थे। भूपेश बघेल सरकार ने आते ही अजय सिंह को हटाकर सुनील कुजूर को सीएस बनाया गया। कुजूर को रिटायरमेंट के बाद वर्तमान सरकार ने सहकारिता आयोग के अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी। अब अजय सिंह को उनके पूर्ववर्तियों की तरह कोई जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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बापू की कुटिया...
पिछली भाजपा सरकार के दौरान रायपुर के बहुत से बगीचों में एक उत्साही कलेक्टर ने बापू की कुटिया बनवा दी थी। कलेक्टरों के पास जिला खनिज निधि का बहुत सा पैसा मर्जी से खर्च करने के लिए रहता था, जिसमें अब कलेक्टरों की मर्जी काफी कम कर दी गई है। उस वक्त छह या आठ कोने के ऐसे कमरे बगीचों में बनवाए गए थे जो सिर्फ बुजुर्गों के बैठने के लिए रखे गए थे। उनमें टीवी भी लगाया गया था, और जूते-चप्पल बाहर उतारकर आने के नोटिस भी लगाए गए थे। पता नहीं बुजुर्गों को यह रास नहीं आया, या फिर जूते-चप्पल बाहर चोरी होने का खतरा था, ये उजाड़ पड़े हुए हैं, और अब पता चल रहा है कि म्युनिसिपल इन्हें महिलाओं को किटी पार्टी जैसी जरूरतों के लिए किराए पर देने के लिए ठेकेदार तय कर रहा है। अगर पार्टी की बाजारू जगह ही बनानी थी, तो हरियाली की जगह पर नियम तोड़ते हुए क्यों ऐसे निर्माण किए गए? बगीचों का ऐसा इस्तेमाल पूरी तरह नियमों के खिलाफ रहेगा। म्युनिसिपल के अफसरों और नेताओं ने यह भी कोशिश नहीं की कि बापू की कुटिया की जगह बा की कुटिया नाम करके देखा जाता कि क्या महिलाएं वहां बैठने में दिलचस्पी लेती हैं? आम महिलाएं बैठ सकें इसके बजाय अब महंगा भाड़ा देकर पार्टी रखने वाली, और गंदगी फैलाने वाली खास महिलाओं के लिए ये ढांचे अब रह गए हैं। म्युनिसिपल को इनका बाजारू इस्तेमाल करने के बजाय किसी और तरह का सामाजिक उपयोग करना चाहिए क्योंकि ये सामाजिक पैसे से सामाजिक जगह पर बने हुए ढांचे हैं।
बगीचे और शऊर
छत्तीसगढ़ के अधिकतर शहरों में बाग-बगीचों में म्युनिसिपलों ने कसरत करने के लिए मशीनें लगाई हैं। किसी भी जगह एक किस्म की एक ही मशीन है, और उस पर एक या दो लोग ही कसरत कर सकते हैं। आठ-दस किस्म की मशीनें, और उस पर दर्जन भर लोगों की गुंजाइश, क्योंकि महिलाओं और आदमियों का आमने-सामने एक ही मशीन पर कसरत करने का यहां के बाग-बगीचों में चलन है नहीं। ऐसे में किसी एक मशीन पर दो महिलाएं बैठकर कमर पर जोर डालने के बजाय जब गप्पें मारने लगती हैं, तो फिर बाकी लोगों का वह कसरत करना हो नहीं पाता। अभी राजधानी रायपुर के ऐसे ही एक बगीचे में दो लड़कियां आमने-सामने जम गईं, एक अपने हाथ में चिप्स के पैकेट से एक-एक चिप्स निकालकर उसके बारे में देर तक घूरते हुए यह सोच रही थी कि मार दिया जाए, या छोड़ दिया जाए। पैकेट खत्म होने के पहले तो उसका वहां से हिलने का सवाल नहीं था, और हर चिप्स उसके सामने जीवन का सबसे बड़ा धर्मसंकट खड़ा करते दिख रहा था कि खाऊं या न खाऊं। उसके ठीक सामने बैठी लड़की मोबाइल फोन पर कुछ देखे जा रही थी, और आधा घंटा गुजर जाने पर भी उसका देखना जारी था। उस मशीन पर कसरत करने की हसरत रखने वाले एक-दो लोग पास की मशीनों पर खड़े उन्हें घूर रहे थे, लेकिन इस जोड़े की एकाग्रता पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। बाद में बगल से निकलते हुए एक आदमी ने इस लड़की के फोन की स्क्रीन पर एक नजर डाली, तो उस पर बिना कपड़ों की एक लड़की की तस्वीर दिख रही थी। यह तुलना करना मुश्किल था कि एक लड़की की देह में एकाग्रता अधिक गहरी थी, या उसके सामने चिप्स में एकाग्रता। जो भी हो, हिन्दुस्तानियों को इतना सलीका और शऊर सीखना चाहिए कि कसरत की मशीनें बैठने की बेंच-कुर्सी नहीं होती हैं। राजधानी के अफसरों की समझ का यह हाल है कि जिन जगहों पर पैदल घूमने या कसरत करने को बढ़ावा देना चाहिए, वहां पर वे मुफ्त का वाईफाई देकर चर्बी को बढ़ावा दे रहे हैं। ([email protected])
केंद्रीय कानून के विरोध से अपात्रता?
छत्तीसगढ़ विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव देवेन्द्र वर्मा भोपाल शिफ्ट हो गए हैं। उनकी पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पाण्डेय और पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल से गहरी छनती रही है। देवेन्द्र वर्मा कई और राजनेताओं के करीबी रहे हैं। वे संसदीय मामलों के गहरे जानकार भी माने जाते हैं। वे प्रेमप्रकाश पाण्डेय के पुत्र के विवाह समारोह में शिरकत करने पहुंचे, तो उन्होंने अनौपचारिक रूप से मीडिया से जुड़े लोगों के साथ निजी चर्चा में एनआरसी-सीएए पर अपनी राय रखी।
छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों के सीएम एनआरसी-सीएए का खुलेतौर पर विरोध कर चुके हैं। उन्होंने अपने राज्यों में एनआरसी-सीएए लागू नहीं होने देने की बात कही है। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू ने भी दो दिन पहले मीडिया में यही बात दोहराई है। पूर्व प्रमुख सचिव देवेन्द्र वर्मा का मानना है कि केन्द्रीय कानून को रोकने का अधिकार राज्यों को नहीं है। ये बात कानून के खिलाफ टीका-टिप्पणी करने वाले राजनेता भी जानते हैं। मगर उनकी यह टिप्पणी संविधान के खिलाफ भी है।
वे कहते हैं कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने संविधान की शपथ ली है और ऐसे में उनकी कानून के खिलाफ टिप्पणी असंवैधानिक है। पूर्व पूर्व विधानसभा सचिव का मानना है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का एनआरसी-सीएए को लागू नहीं करने की बात कहना सदन से अयोग्यता का कारण भी बन सकता है। यह उनकी अयोग्यता साबित करने के लिए एकदम फिट केस है। जिस तरह एनआरसी-सीएए के खिलाफ टीका-टिप्पणी हो रही है, उसको लेकर देर सवेर संबंधित नेताओं की सदस्यता समाप्त करने के खिलाफ कोई सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है, क्योंकि संवैधानिक विषयों पर सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में ही सुनवाई हो सकती है। फिलहाल तो गली-मोहल्लों में एनआरसी-सीएए को लेकर बहस ही चल रही है।
भाजपा का समुद्रमंथन जारी
प्रदेश भाजपा के नए मुखिया की तलाश चल रही है। पूर्व सीएम रमन सिंह और बाकी दिग्गज नेताओं की अपनी अलग पसंद बताई जा रही है। इन चर्चाओं के बीच पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर, नारायण चंदेल और शिवरतन शर्मा प्रदेश अध्यक्ष को लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के समक्ष बेबाकी से अपनी बात कह चुके हैं। चूंकि नड्डा छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रभारी भी रह चुके हैं। और उनके प्रदेश के इन तीनों समेत कई अन्य से उनके व्यक्तिगत संबंध भी हैं। ऐसे में नड्डा ने उनकी बातों को गंभीरता से सुना।
तीनों नेताओं ने इशारों-इशारों में कह दिया कि नेता प्रतिपक्ष की तरह ही प्रदेश अध्यक्ष बनाने से पार्टी को खड़ा करना मुश्किल हो जाएगा। उन्होंने आक्रामक प्रदेश अध्यक्ष की जरूरत पर बल दिया। तीनों नेताओं को सुनने के बाद नड्डा के कहने पर राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष ने प्रदेश के सभी सांसदों से भी रायशुमारी की है। सुनते हैं कि सांसदों के विचार भी अजय, नारायण और शिवरतन से मेल खाते दिखे। प्रदेश अध्यक्ष के लिए खुद अजय चंद्राकर, विजय बघेल और रामविचार नेताम का नाम चर्चा में है। पूर्व सीएम रमन सिंह और सौदान सिंह की जोड़ी ने विष्णुदेव साय का नाम बढ़ाया है। चर्चा है कि आरएसएस सहित एक पूर्व मंत्री अमर अग्रवाल ने बिलासपुर के सांसद अरूण साव को प्रदेश संगठन की कमान सौंपने की वकालत की है।
खास बात यह है कि हाईकमान ने रमन सिंह की पसंद पर विधायकों के बहुमत को नजरअंदाज कर धरमलाल कौशिक को नेता प्रतिपक्ष बनाया था। देखना है कि प्रदेश अध्यक्ष के चयन में पार्टी चंद्राकर, नारायण और शिवरतन की तिकड़ी की राय को महत्व देती है, अथवा नहीं। कुल मिलाकर नए प्रदेश अध्यक्ष के चयन से हाईकमान के सामने दिग्गजों की अपनी ताकत का भी प्रदर्शन हो जाएगा।
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टैक्स चोरी और आयकर छापे
टैक्स चोरी के खिलाफ आयकर विभाग का अभियान चल रहा है। प्रदेश के आधा दर्जन से अधिक कारोबारियों के प्रतिष्ठानों में आयकर जांच चल रही है। देशभर में मंदी का माहौल हैं, ऐसे में कारोबारी आयकर जांच से काफी दिक्कत महसूस करते दिख रहे हैं। पिछले दिनों कैट के एक कार्यक्रम में एक व्यापारी नेता ने तो मुख्य आयकर आयुक्त से गुजारिश भी कर दी थी कि छत्तीसगढ़ से आयकर का लक्ष्य कम रखा जाए, ताकि व्यापारियों पर आयकर का प्रेशर कम रहे।
आयकर आयुक्त ने साफ तौर पर बता दिया कि आयकर का लक्ष्य कम नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह खुलासा कर व्यापारियों की बोलती बंद कर दी, कि किसी भी कारोबारी को जानबूझकर परेशान नहीं किया जा रहा है, बल्कि आयकर विभाग के पास पूरा डेटा है कि कई व्यापारी आयकर चोरी कर रहे हैं। ऐसे 962 कारोबारी चिन्हित भी किए गए हैं, केवल उन्हीं के यहां जांच-पड़ताल हो रही है। उन्होंने यह भी बताया कि कई कारोबारियों ने जांच में आयकर चोरी की बात मानी थी और इसको पटाने का भी वादा किया था, लेकिन वे सरेंडर राशि जमा नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि अब टैक्स प्रणाली पूरी तरह पारदर्शी हो चुकी है। ऐसे में किसी को बेवजह परेशान नहीं करने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
कुछ एसपी बदलेंगे...
प्रदेश के कुछ आईपीएस अफसरों को जल्द ही इधर से उधर किया जा सकता है। इस पर सीएम के अमरीका प्रवास से लौटने के बाद फैसला हो सकता है। फेरबदल की स्थिति बलौदाबाजार एसपी नीतू कमल की वजह से बनी है। नीथू कमल की सीबीआई में पोस्टिंग हो चुकी है। वे सीबीआई में एसपी बनकर जा रही हैं। सीएम के लौटने के बाद उन्हें रिलीव किया जा सकता है। इसके अलावा कवर्धा एसपी लाल उमेद सिंह को भी दो साल से अधिक हो चुके हैं। वे एकमात्र एसपी हैं जिनकी पोस्टिंग पिछली सरकार में हुई थी, और उन्हें बदला नहीं गया है। ऐसे में उनका भी तबादला संभव है। रायपुर एएसपी प्रफुल्ल ठाकुर सहित कुछ नाम है, जिन्हें एसपी बनाया जा सकता है।
हिचकियों का भयानक राज...
अभी शादियों के एक सैलाब में छत्तीसगढ़ के छोटे-बड़े शहरों में जिस भयानक स्तर तक लाऊडस्पीकर बजे हैं, उनसे लोगों का जीना हराम हो गया है। कई लोग अपने घर के भीतर किसी ऐसे कमरे में सोने लगे हैं जहां आवाज का हमला कुछ कम रहे, लेकिन हर किसी को तो इतने बड़े घर नसीब होते नहीं हैं। चारों तरफ शादियों के ढोल-धमाके, लाऊडस्पीकर, और फिर रही-सही कसर धार्मिक शोरगुल पूरी कर देता है। ऐसे में जब आसपास से बिगड़ैल पैसे वाले भारी-भरकम बुलेट-मोटरसाइकिल का सायलेंसर फाड़कर निकलते हैं, तो लोग खूब गालियां देते हैं।
एक दिलचस्प कहानी अभी सोशल मीडिया पर तैर रही है। एक परिवार में अचानक कुछ सदस्यों को हिचकियां आने लगती हैं, और बढ़ते-बढ़ते नौबत इतनी बुरी हो जाती है कि उन्हें डॉक्टर के पास ले जाना पड़ता है। डॉक्टर कई किस्म की जांच करवाता है, और उसमें कोई सुराग न निकलने पर वह मरीजों के साथ आए हुए नौजवान से पूछता है- क्या आपके घर में अभी-अभी किसी ने बुलेट खरीदी है?
डॉक्टर के सवाल से हैरान नौजवान कहता है कि हां ली तो है, लेकिन उससे हिचकियों का क्या लेना-देना?
डॉक्टर फिर पूछता है कि क्या बुलेट का सायलेंसर बदलकर जोरों की आवाज वाला सायलेंसर लगवाया है?
और अधिक हैरान होते हुए नौजवान कहता है कि हां लगवाया तो है, लेकिन उससे घरवालों की हिचकियों का क्या लेना-देना?
डॉक्टर अपनी अक्ल के तजुर्बे से कहता है- तुम मोटरसाइकिल का शोर मचाते हुए जितनी जगह घूमते हो, वहां के लोग तुम्हारे घर के लोगों को याद करते हुए गालियां देते हैं, और उसी की वजह से तुम्हारे घर के लोगों को इतनी हिचकियां आ रही हैं।
अब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ऐसे हजारों लोग घूम रहे हैं, जो दूसरों का जीना हराम कर रहे हैं, और लाखों लोगों की बद्द्ुआओं का असर उनके परिवार पर तो होगा ही होगा, आज नहीं हुआ है तो कल की गारंटी है। इसलिए शोर वाला सायलेंसर लगाते हुए अपने परिवार के उन लोगों का ख्याल रखें जिन्हें लोग आमतौर पर गालियां दे सकते हैं, आपकी वजह से। कम लिखे को अधिक समझें, और अपने परिवार पर मेहरबानी रखें।
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बैठक क्यों हुई, अटकलें जारी...
पिछले दिनों राहुल गांधी ने दिल्ली में सीएम भूपेश बघेल, डॉ. चरणदास महंत, टीएस सिंहदेव और ताम्रध्वज साहू के साथ बैठक की। बैठक में प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी पीएल पुनिया और अध्यक्ष मोहन मरकाम भी थे। यह खबर आई कि राहुल ने सरकार के कामकाज की समीक्षा की है, मगर बैठक के औचित्य को लेकर पार्टी के भीतर कयास लगाए जा रहे हैं।
वैसे तो हाल ही में प्रदेश में सरकार और संगठन के बीच बेहतर तालमेल के लिए समन्वय समिति का गठन किया गया है, लेकिन राहुल की बैठक में समन्वय समिति के कई सदस्यों को नहीं बुलाया गया था। चुनिंदा नेताओं के साथ बैठक की जरूरत क्यों पड़ी, इसको लेकर भी पार्टी नेता अंदाजा लगा रहे हैं।
सुनते हैं कि प्रदेश के दिग्गज नेता पिछले कुछ समय से हाईकमान के समक्ष सीएम-सरकार के खिलाफ कानाफूसी कर रहे थे। किसी तरह की अप्रिय स्थिति पैदा हो, उससे पहले ही राहुल गांधी ने प्रमुख नेताओं को एक साथ बिठाकर वस्तुस्थिति जानने की कोशिश की। ताकि समस्या का मौके पर ही इलाज किया जा सके। बैठक में सरकारी योजना और चुनाव नतीजों पर सामान्य चर्चा हुई, मगर बैठक में किसी भी नेता ने सीएम-सरकार के कामकाज पर कोई सवाल खड़े नहीं किए। ऐसे में राहुल करते भी तो क्या, सबको मिलजुलकर काम करने की मसीहाई नसीहत देकर रवाना कर दिया। पीठ पीछे जाकर कोई कुछ भी कहे, सामने जब कुछ कहा नहीं गया तो राहुल क्यों और क्या करते?
दूसरी तरफ अभी मुख्यमंत्री के अमरीका जाने से राजनीतिक उबाल कुछ ठंडा पड़ा हुआ था, लेकिन इस बीच उनके संसदीय सलाहकार राजेश तिवारी ने अपने फेसबुक पेज पर एक फोटो पोस्ट की है जिसमें वे मुख्यमंत्री के दूसरे सलाहकार विनोद वर्मा, और दो अन्य करीबी लोगों के साथ प्रियंका गांधी से मिलते हुए दिख रहे हैं। जाहिर तौर पर यह तस्वीर दिल्ली में मुलाकात की दिखती है, और मुख्यमंत्री के इतने करीबी इतने लोगों को कांगे्रस हाईकमान की इतनी करीबी प्रियंका से मिलने पर काफी कुछ कहने का मौका तो मिला ही होगा।
कबाड़ का बाजार बंगला
अफसरों में बहुत से ऐसे रहते हैं जिन्हें सामानों का भुगतान नहीं करना पड़ता। नतीजा यह होता है कि सामान बढ़ते चलते हैं, और हर बार तबादले पर एक ट्रक बढ़ जाती है। ऐसे लोगों में भी अगर परिवार में किसी को कबाड़ जमा करके रखने का शौक हो, तो मुसीबत और बढ़ जाती है। राज्य में तैनात अखिल भारतीय सेवा के एक जोड़े के साथ ऐसी ही दिक्कत हो गई है। पति-पत्नी में से एक गैरजरूरी सामानों से छुटकारा चाहते हैं, और दूसरे की चाहत अखबारों की रद्दी तक को सम्हालकर रखने की है। नतीजा यह है कि नया सामान आते जाता है, जिसका भुगतान आमतौर पर करना नहीं पड़ता, और पुराना सामान भी जमा रहता है जिससे बंगले के कुछ कमरे भर जाते हैं। जब तक जिलों के बड़े बंगलों में तैनाती रहती थी, तब तक तो किसी तरह काम चल जाता था, वहां भी बंगले के अहाते में टीन के शेड बनवाकर गोदाम की तरह सामान रखना पड़ा, लेकिन राजधानी में तो बंगले सीमित आकार के ही मिलते हैं, और उनमें गोदाम जोडऩे की सहूलियत भी नहीं रहती है। नतीजा यह हुआ है कि यह परिवार इतने सामानों से लद गया है कि जरूरत के वक्त सामान ढूंढना मुमकिन नहीं होता, और तलाश से बचने के लिए एक बार फिर किसी को कहकर सामान बुलवा लिया जाता है। ऐसे ही एक मातहत विभाग के छोटे अफसर को बंगले के इंतजाम के लिए रखा गया है, जिसका कहना है कि बंगले में से ही सामान निकालकर सामने रख दिया जाए तो भी साहब और मैडम को पता नहीं चलेगा कि वह बाजार से आया है, या उनके घर में ही पैक पड़ा हुआ सामान है। ऐसे मातहत विभाग में अब यह मजाक चल निकला है कि मनोचिकित्सक से कहकर कबाड़प्रेम का इलाज करवाया जाए, वरना इससे बड़ा बंगला मिलने में तो अभी दस बरस बाकी हैं।
खुद नंगे हो रहे हैं...
सोशल मीडिया पर अपनी असहमति पर आधारित आलोचना लिखने में कुछ लोग इतने हमलावर हो जाते हैं कि दूसरे की इज्जत मटियामेट हो या न हो, अपनी खुद की इज्जत जरूर मिट्टी में मिला लेते हैं। खासकर जब किसी महिला पर हमला करना हो, तब अगर उसके साथ बलात्कार की धमकी पोस्ट की जाए, उसके गुप्तांगों के साथ क्या सुलूक करना चाहिए यह पोस्ट किया जाए, तो उस महिला का चाहे जो हो, पोस्ट करने वाला तो बलात्कार की मानसिकड्डता वाला दिखता ही है। अब यह तो इस देश का सबसे कड़ा आईटी कानून लागू करने वाले अफसर केंचुए की तरह के बिना रीढ़ वाले प्राणी हैं, इसलिए वे कुछ चुनिंदा मामलों को छोड़कर और कुछ नहीं करते, वरना हर दिन छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में भी दर्जन भर लोग गिरफ्तार होते, और कुछ हफ्तों में ही जेल के बाहर बचे मर्दों की बलात्कारी मानसिकता ठंडी पड़ जाती। फिलहाल तो दिल्ली से छत्तीसगढ़ आई वामपंथी नेता बंृदा करात के खिलाफ जहर उगलने वालों ने बंृदा का तो नुकसान नहीं किया, खुद अपना चाल-चलन और अपनी सोच जरूर उजागर कर दी। सोशल मीडिया एक ऐसी दुधारी तलवार है जिसमें अपने तरफ की धार अधिक घातक होती है।
अमरीका दौरे पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के साथ गए उनके सलाहकार प्रदीप शर्मा ने इस तस्वीर को पोस्ट करते हुए लिखा है- कुछ मौकों पर आपको एक बाउंसर (पीछे धकेलने वाले) की तरह काम करना पड़ता है, खासकर तब जब आपके बॉस ने एक सचमुच ही शानदार भाषण दिया हो, और वे घिर गए हों, भूपेशजी ने अपने भाषण से बॉस्टन में हलचल मचा दी है।
बजाज के दिन फिरेंगे?
सालभर से निलंबन का दंश झेल रहे आईएफएस अफसर एसएस बजाज की जल्द ही बहाली हो सकती है। सीएम भूपेश बघेल अमरीका प्रवास से लौटने के बाद बजाज की बहाली पर फैसला ले सकते हैं। नवा रायपुर के पौंता चेरिया में सोनिया गांधी ने जिस जगह पर नई राजधानी का शिलान्यास किया था, उस जमीन को पिछली सरकार ने आईआईएम संस्थान को दे दिया गया था। वर्तमान सरकार ने इसके लिए तत्कालीन सीईओ एसएस बजाज को जिम्मेदार माना था।
वैसे तो राज्य सरकार अखिल भारतीय सेवा के अफसर को निलंबित कर सकती है, लेकिन इसके लिए केन्द्र का अनुमोदन जरूरी है। बजाज ने निलंबन के खिलाफ अपील भी की थी। केन्द्र ने बजाज का निलंबन खत्म करने की अनुशंसा की है। राज्य सरकार का रूख भी नरम है। बजाज की साख अच्छी है। ऐसे में पूरा विभाग उनके साथ खड़ा दिख रहा है। आईएफएस एसोसिएशन पहले से ही बजाज का निलंबन खत्म करने का आग्रह कर चुका है। चूंकि निलंबन का फैसला कैबिनेट ने लिया था। ऐसे में वापसी भी सीएम की सहमति जरूरी है। माना जा रहा है कि सीएम के अमरीका लौटने के बाद बजाज की बहाली पर मुहर लग सकती है। बजाज शानदार साख वाले अफसर हैं जिसकी वन विभाग में थोड़ी सी कमी भी रहती है। वे छत्तीसगढ़ के ही रहने वाले हैं, यहीं के इंजीनियरिंग कॉलेज के पढ़े हुए हैं, इस सरकार में बाहर से बड़ी ताकत रखने वाले लोगों ने भी पिछले बरसों में बजाज का अच्छा काम देखा हुआ है, और भूपेश के कांगे्रस के भीतर के एक करीबी सहयोगी शैलेष नितिन त्रिवेदी बजाज के सहपाठी भी रहे हैं। आज जब वन विभाग को एक किस्म से सोच-समझकर भ्रष्ट बनाया जा रहा है, जब आधे डिवीजनों में गैरआईएफएस को सोच-समझकर प्रभार दिया गया, तो ऐसे माहौल में काबिल और ईमानदार अफसरों की वैसे भी कमी दिख रही है।
फरमाईशों की लिस्ट
शादी के विज्ञापन लोगों के पूर्वाग्रह भी बताते हैं, और हिन्दुस्तानी अंदाज की पसंद भी। अब इस एक विज्ञापन को देखें तो समझ आता है कि लड़कों की उम्मीदें कैसी आसमान छूती होती हैं। पांच फीट आठ इंच के एक बीडीएस डेंटिस्ट ने एक ईश्तहार दिया है। वह अभी काम भी नहीं कर रहा है, और उसकी फरमाईश कोई मूर्तिकार ही पूरी कर सकता है। उसे बहुत ही गोरी, खूबसूरत, बहुत ही निष्ठावान, बहुत ही भरोसेमंद, प्यारी, ख्याल रखने वाली, बहादुर, ताकतवर, पैसे वाली, अत्यंत ही देशप्रेमी, और भारत की फौजी क्षमता को बढ़ाने की हसरत रखने वाली, भारत की खेल क्षमता बढ़ाने वाली, शिशुपालन में विशेषज्ञ, शानदार पकाने वाली, भारतीय हिन्दू-ब्राम्हण कामकाजी लड़की चाहिए। यह लड़की झारखंड या बिहार से होनी चाहिए, संपूर्ण कुंडली मिलान, और 36 गुण मिलना जरूरी। यह सब हो तो ही इस लड़के को शादी में कोई जल्दी नहीं है, और यह सिर्फ एसएमएस पर आने वाले प्रस्ताव का जवाब देगा, फोन नहीं उठाएगा।
अब जो डेंटिस्ट कोई कामकाज भी नहीं कर रहा है, उसकी फरमाईशों की लिस्ट इतनी लंबी है कि उसे कोई मूर्तिकार या कोई ईश्वर ही पूरा कर सकते हैं, और इतने हुनर, इतनी खूबसूरती एक बदन में फिट कर सकते हैं।
नंबर प्लेट
लोगों को अपनी ताकत और अपना खास दर्जा दिखाने के लिए गाडिय़ों के आगे-पीछे का इस्तेमाल करते हैं। राजनीति से जुड़े हुए कुछ लोग गाडिय़ों के ऊपर तरह-तरह की लाईट लगा लेते हैं, सायरन और लाऊडस्पीकर लगा लेते हैं, ताकि चौराहे पर खड़े सिपाही दहशत में आ जाएं। राजनेताओं की गाडिय़ों में सायरन एक आम बात हो गई है, और वह सड़क पर आतंक फैलाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। नंबर प्लेट की जगह किसी धार्मिक या सामाजिक संस्था का नाम, किसी साम्प्रदायिक संगठन का नाम, या किसी पार्टी के चुनाव चिन्ह को लगा लेना एक आम बात है। पुलिस भी आमतौर पर ऐसी गाडिय़ों को नहीं छूती है क्योंकि ऐसी एक गाड़ी पर कार्रवाई से जितने फोन आने लगेंगे, और जितना बवाल होने लगेगा उतनी देर में दस दूसरी गाडिय़ों पर कार्रवाई की जा सकेगी।
अब अभी एक ऐसी गाड़ी देखने मिली जिसकी नंबर प्लेट पर लिखा हुआ तो है सामान्य नागरिक, लेकिन इसके साथ की बाकी नंबर प्लेट पर नियमों के खिलाफ पूरा छत्तीसगढ़ लिखा हुआ है। अब नियम तोडऩे के बाद भी कोई अपने आपको सामान्य नागरिक साबित करने की कोशिश करे, तो वह तो बड़ी अटपटी बात है।
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भूपेश ने की महंत की तारीफ ही तारीफ
अमरीका के दौरे पर गए हुए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से हार्वर्ड विश्वविद्यालय में भारतीय राजनीति और जातिवाद को लेकर बहुत सवाल किए गए। दरअसल उनके भाषण का विषय भी यही था, और छत्तीसगढ़ में उन्होंने पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण बढ़ाने का फैसला जिस तरह लिया, उससे भी जाति आधारित आरक्षण और राजनीति एकदम से खबरों में आए। हार्वर्ड में भारत के कुछ सबसे प्रमुख और चर्चित लोगों को इस कार्यक्रम में व्याख्यान के लिए बुलाया गया है, जिनमें भूपेश बघेल एक हैं।
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में भूपेश बघेल से मंच पर यह सवाल किया गया कि भारत में आरक्षण से दलित-आदिवासी (एसटी/एससी), ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ा दिया गया है, और जब ऐसे लोग कॉलेज या किसी जगह पर पहुंचते हैं तो सवाल उनके मेरिट पर किए जाते हैं, लोग सवाल करते हैं कि आपके भीतर वैसी क्वालिटी नहीं थी, लेकिन आरक्षण से आ गए। ऐसे में आपने छत्तीसगढ़ में आपने एक दलित अधिकारी को मुख्य सचिव बनाया है, एक कबीरपंथी को विधानसभा अध्यक्ष बनाया है, इस पर आप जो कहेंगे वो हमें भी आगे इन मुद्दों पर जवाब देने में काम आएगा।
इस पर भूपेश बघेल ने कहा- सवाल अवसर का है। डॉ. चरणदास महंत विधानसभा अध्यक्ष हैं, मैं आपको बताना चाहूंगा वे पहले केन्द्रीय मंत्री थे, तीन या चार बार सांसद थे, और 1980 से लगातार विधानसभा में भी प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य में वे गृहमंत्री थे, और उन्होंने अपनी काबिलीयत सिद्ध की है। 1980 से वे लगातार चुनाव लड़ भी रहे हैं, और अधिकांश चुनाव जीते भी हैं, जनता के बीच जाकर जीतकर भी आए हैं, और अपनी काबिलीयत साबित भी की है।
भूपेश बघेल के साथ अधिकारियों के अलावा चरणदास महंत भी गए हुए हैं, और अभी यह नहीं मालूम है कि इस कार्यक्रम में वे मौजूद थे या नहीं, लेकिन मुख्यमंत्री ने जिस दरियादिली से महंतजी की तारीफ की है, वह दरियादिली राजनीति में कुछ कम ही दिखाई पड़ती है। हार्वर्ड से आए एक वीडियो में सिर्फ मंच दिख रहा है, इसलिए दर्शकों में बैठे लोगों में कौन थे, यह पता नहीं चल रहा।
और खरीदने की जरूरत
भाजयुमो के एक पदाधिकारी पंचायत चुनाव जीतकर भी मायूस हैं। वजह यह है कि चुनाव जीतने के बाद उन्हें उपाध्यक्ष प्रत्याशी बनाने का वचन दिया गया था। भाजयुमो नेता ने सदस्यों को अपने पाले में करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। तीन सदस्यों को अपने खर्चे पर प्रदेश से बाहर भेज दिया।
चुनाव के दो दिन पहले पदाधिकारी तीनों सदस्यों को लेकर रायपुर पहुंचे, तो उन्हें कहा गया कि एक और सदस्य के समर्थन की जरूरत होगी। इसके लिए जो खर्चा बताया गया, उसे सुनकर पदाधिकारी भी चकरा गए। भाजयुमो पदाधिकारी पहले ही तीनों सदस्यों पर काफी कुछ खर्च कर चुके थे। उन्होंने और बोझ उठाने से मना कर दिया। फिर क्या था, पार्टी ने उनकी जगह दूसरे को प्रत्याशी बना दिया। अंतिम क्षणों में प्रत्याशी बदलने का नुकसान भी पार्टी को उठाना पड़ा और उपाध्यक्ष चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
घड़ा फोडऩे के लिए सिर मौजूद
पूरा एक बरस हो गया छत्तीसगढ़ में सरकार के कुछ बड़े कार्यक्रमों, चुनावों, और छत्तीसगढ़ी त्यौहारों की खबरों से परे अगर किसी किस्म की खबरें मीडिया पर लदी हुई हैं तो वे एफआईआर, अदालती पिटीशन, और स्टेऑर्डर की खबरें हैं। जो लोग एक-एक कतरन सम्हालकर नहीं रखते, उन्हें यह भी याद नहीं होगा कि किसके खिलाफ मामला कहां तक पहुंचा है, किस अदालत से जांच पर रोक लगी है, और उस रोक को हटाने का पिटीशन लगा है या नहीं? पूरे एक बरस में सरकार की जांच एजेंसियों, या जिला पुलिस की कार्रवाई अदालत में खड़ी होते नहीं दिख रही है। मामूली समझ रखने वाले लोग भी कार्रवाई के पहले ही समझ जाते हैं कि कागजों में कौन-कौन सी कमजोरियां छोड़ी जा रही हैं ताकि अदालत से तुरंत ही स्थगन मिल सके। ऐसी भी चर्चा रहती है कि सरकार के कुछ अफसर और आरोपी के वकील मिल-बैठकर कार्रवाई के कागज तैयार करते हैं, और ऐसा किसी एक मामले में ही हो रहा हो, ऐसा भी नहीं है। एक-एक करके सारे ही मामले अदालतों में जसपाल भट्टी के फ्लॉप शो साबित हो रहे हैं। जिन मामलों का सुप्रीम कोर्ट तक जाना तय है, उनके कागजात में भी जब कुएं जितने चौड़े और गहरे गड्ढे छोड़ दिए जाते हैं, तो लोगों को समझ आ जाता है कि यह कैसी मिलीजुली कुश्ती खेली जा रही है, और ऐसे टीम-वर्क के बाद जब घड़ा फोडऩे की बारी आती है, तो फिर एडवोकेट जनरल का सिर तो मौजूद रहता ही है। ([email protected])
फनसिटी से जाने देना, फन खत्म
म्युनिसिपल की तुलना में जिला पंचायत चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन कुछ बेहतर रहा है। कवर्धा, जशपुर, बस्तर और बलरामपुर में तो भाजपा का अध्यक्ष बनना ही था, लेकिन राजनांदगांव, बेमेतरा और कोरिया में अपना अध्यक्ष बिठाने के लिए काफी कुछ संसाधन झोंकना पड़ा। रायपुर में तो एक दिन पहले तक भाजपा के साथ 9 सदस्य दिख रहे थे, और पार्टी के रणनीतिकार पूरी उम्मीद पाले थे कि अध्यक्ष पद पर उनका कब्जा होगा। जबकि पिछली बार सरकार होने के बाद भी पार्टी यहां अपना अध्यक्ष नहीं बिठा पाई थी। मगर इस बार तो दुर्गति हो गई। अध्यक्ष पद के भाजपा समर्थित उम्मीदवार को बुरी हार का सामना करना पड़ा।
सुनते हैं कि रायपुर में अध्यक्ष-उपाध्यक्ष पद पर कब्जा जमाने के लिए भाजपा के रणनीतिकारों ने पुख्ता रणनीति तैयार की थी। शहर के बाहर एमएम फन सिटी में सभी जिला पंचायत सदस्यों के खाने-पीने की व्यवस्था की गई थी। खाने-पीने के बाद दो सदस्य राजू शर्मा और मोहन साहू (जिला पंचायत सदस्य पति) वहां से निकल गए। पार्टी के रणनीतिकारों ने उन्हें जाने भी दिया। वैसे भी राजू शर्मा का परिवार तो जनसंघ के जमाने से पार्टी के साथ रहा है। और वैसे भी उन्हें उपाध्यक्ष का प्रत्याशी बनाना तय हुआ था। मगर रणनीतिकार गच्चा खा गए। राजू शर्मा, मोहन साहू के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए।
दो सदस्यों के टूटने के बाद भी पार्टी के रणनीतिकारों को चमत्कार की उम्मीद थी, क्योंकि कांग्रेस समर्थित तीन सदस्य, भाजपा के संपर्क में थे, मगर चुनाव नतीजे आए, तो ठीक इसका उल्टा हुआ। अध्यक्ष चुनाव में झटका मिलने के बाद भाजपा के रणनीतिकार फिर एकजुट हुए। और अपने साथ के सदस्यों को खरी-खोटी सुनाई। बताते हैं कि दो महिला सदस्य तो रो पड़ी। बाद में साथ रहने का कसम खाकर बैठक से उठे। इसके बाद भाजपा के रणनीतिकारों ने कांग्रेस समर्थित सदस्यों पर डोरे डालना शुरू किया। कांग्रेस के जो तीन सदस्य संपर्क में थे, उनकी मतदान के पहले जरूरतें पूरी की गर्इं। तब कहीं जाकर उपाध्यक्ष पद पर भाजपा का कब्जा हो पाया।
हम नहीं तो कांग्रेस भी नहीं...
बलौदाबाजार और बेमेतरा में कांग्रेस को झटका लगा है। यहां अध्यक्ष-उपाध्यक्ष के चुनाव में भाजपा ने अजय चंद्राकर के फार्मूले पर काम किया। अजय ने चुनाव के पहले सुझाया था कि जहां अध्यक्ष-उपाध्यक्ष बना पाना संभव न हो, वहां निर्दलीय को समर्थन कर कांग्रेस को रोकने की कोशिश की जाए। पार्टी की यह रणनीति दोनों जिलों में कारगर रही।
बलौदाबाजार में तो कांग्रेस को भारी समर्थन मिला था। कांग्रेस ने जिस उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारा था, वह आर्थिक रूप से बेहद सक्षम था। सुनते हंै कि कांग्रेस उम्मीदवार ने राजीव भवन के मठाधीशों को साध लिया था। इसका नतीजा यह रहा कि जिला पंचायत सदस्यों की रायशुमारी के बिना ही उन्हें प्रत्याशी घोषित कर दिया। भाजपा को सदस्यों की नाराजगी की भनक लगी और कांग्रेस के ही एक अन्य धड़े को उचकाया। कांग्रेस के सदस्य दो फाड़ हो गए। फिर क्या था कांग्रेस समर्थित अधिकृत उम्मीदवार को हार का मुख देखना पड़ा। भाजपा के सहारे कांग्रेस के बागी प्रत्याशी को जीत हासिल हो गई।
चर्चा है कि हार के बाद कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार काफी गुस्से में हैं। उनके समर्थकों ने मतगणना स्थल के बाहर हंगामा भी मचाया था। कुछ इसी तरह का बेमेतरा में भी हुआ। यहां भाजपा ने बागी को उपाध्यक्ष का पद देकर अध्यक्ष पद हथिया लिया। इन सब जीत के बाद भी भाजपा की पंचायत चुनाव में अब तक की सबसे बड़ी हार है।
पुनिया कौन होते हैं तय करने वाले...
इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पुलिस लोगों को हेलमेट पहनाने की कोशिश कर रही है, और कांग्रेस पार्टी के एक विधायक यह साबित करने में लगे हैं कि जनता का सिर भीतर से खाली रहता है, उसमें कोई नाजुक चीज नहीं रहती है, और कोई खतरा नहीं रहता है, इसलिए हेलमेट पहनना जरूरी न हो। जनता के वोटों से जीतने के बाद जनता के सिर में दिमाग होने पर इतना गहरा शक छोटी बात नहीं है, और जब ऐसी जनता ने वोट दिया है, और उसे बेदिमाग समझा जा रहा है, तो आगे फिर चुनाव तो आएगा ही। चारों तरफ खबरें हैं कि कांग्रेस विधायक विकास उपाध्याय की इस बात को लेकर राष्ट्रीय कांग्रेस के छत्तीसगढ़ प्रभारी पी.एल. पुनिया से बड़ी नोंकझोंक हुई है, और विधायक ने पुनिया को ऐसा कहा जाता है कि कहा है कि अब उन्हें राजनीति क्या पुनिया से सीखनी पड़ेगी? बात तो सही है, पुनिया और उनके बेटे दोनों ही चुनाव हार चुके हैं, और विकास उपाध्याय जीते हुए विधायक हैं, इसलिए यह तय करने का हक तो विधायक का ही होना चाहिए कि जनता के सिर के भीतर दिमाग बिल्कुल भी नहीं है, हेलमेट की जरूरत बिल्कुल भी नहीं है। ([email protected])
पर्यवेक्षक पहुंचे भी नहीं
जनपद पंचायतों में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता मिली है। ऐसा इसीलिए संभव हो पाया कि भाजपा ने जनपद अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनाव के लिए कोई रणनीति नहीं बनाई। ज्यादातर जगहों पर भाजपा ने चुनाव लडऩे की औपचारिकता ही निभाई। चुनाव के लिए भाजपा ने जिलेवार पर्यवेक्षक तो नियुक्त किए थे, लेकिन एक-दो जगहों पर तो पर्यवेक्षक ही नहीं पहुंचे।
सुनते हैं कि बस्तर संभाग के एक जिले के जनपदों में चुनाव के लिए नियुक्त किए गए पर्यवेक्षक ने जिलाध्यक्ष को फोन लगाया और अपने आने की सूचना दी। जिला अध्यक्ष ने दो टूक शब्दों में कह दिया कि यदि चुनाव में खर्च करने के लिए कुछ लेकर आ रहे हैं, तभी आना ठीक होगा, वरना खाली हाथ आने का कोई मतलब नहीं है। फिर क्या था, पर्यवेक्षक गए ही नहीं। पूर्व मंत्री अमर अग्रवाल को सरगुजा में चुनाव का जिम्मा दिया गया था। पूरा चुनाव निपट गया, अमर अग्रवाल झांकने तक सरगुजा नहीं गए। कई भाजपा कार्यकर्ता मानते हैं कि बड़े नेताओं की बेरूखी की वजह से चुनाव में हार हुई है, तो एकदम गलत भी नहीं है।
झारखंड और रामविचार
झारखण्ड चुनाव में भाजपा की बुरी हार के बाद सुनते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी को भाजपा में शामिल करने की तैयारी चल रही है। 17 तारीख को बड़ी रैली में मरांडी को भाजपा में प्रवेश दिलाया जाएगा। मरांडी की पार्टी का भाजपा में विलय होगा। झारखण्ड की राजनीति में होने वाले इस बदलाव के विमर्श की प्रक्रिया में सौदान सिंह कहीं नहीं है। अलबत्ता, रामविचार नेताम की पूछपरख जरूर हो रही है। वे आदिवासी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और इस नाते उन्हें झारखण्ड में भाजपा संगठन को मजबूत करने के लिए जो भी निर्णय लिए जा रहे हैं, उसमें नेताम की भी अहम भूमिका है।
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हार और सन्नाटा
हमेशा से भाजपा का चुनाव-कार्यक्रम प्रबंधन बाकी दलों से काफी बेहतर रही है। मगर छत्तीसगढ़ में सत्ता से बेदखल होने के बाद हर मामले में कमी दिखाई दे रही है। लोकसभा चुनाव में तो खराब चुनाव प्रबंधन के बाद भी मोदी के नाम पर जीत हासिल हो गई, लेकिन म्युनिसिपल और पंचायत चुनाव में तो बुरा हाल रहा है। म्युनिसिपल चुनाव में बुरी हार से भाजपा ने कोई सबक नहीं सीखा। पंचायत चुनाव में स्थिति और बुरी होने जा रही है। जो भाजपा चुनाव को लेकर सबसे ज्यादा संवेदनशील और सक्रिय रही है, वहां पर्यवेक्षकों की सूची जनपद चुनाव के दो दिन पहले जारी की गई।
सुनते हैं कि पर्यवेक्षक अपने प्रभार वाले जिले की बैठक ले पाते, इससे पहले ही कांग्रेस के लोगों ने ज्यादातर जिलों के जनपदों में नवनिर्वाचित सदस्यों को अपने पाले में कर लिया था। ऐसे में पर्यवेक्षकों के लिए ज्यादा कुछ करने के लिए नहीं रह गया है। यही हाल जिला पंचायतों का भी हो गया है। बस्तर-जशपुर और कवर्धा को छोड़ दें, तो ज्यादातर जिलों में कांग्रेस का कब्जा होना तय है। भाजपा का एक बड़ा खेमा इसके लिए हाईकमान को जिम्मेदार ठहरा रहा है।
नाराज भाजपा नेताओं का तर्क है कि हाईकमान प्रदेश अध्यक्ष को लेकर अब तक स्थिति साफ नहीं कर पाया है। हाल यह है कि संगठन की गतिविधियां सिमटकर रह गई हैं। मौजूदा अध्यक्ष विक्रम उसेंडी सिर्फ अपने गृह जिले कांकेर तक ही सीमित रह गए हैं। वहां भी कई स्थानीय नेता उसेंडी के खिलाफ खड़े हो गए हैं। ऐसे में चुनाव पर ध्यान दे पाना मुश्किल हैं। फिलहाल पार्टी कार्यकर्ता खामोश हैं और नए अध्यक्ष की नियुक्ति का इंतजार कर रहे हैं। फिर भी कार्यकर्ताओं की खामोशी का असर चुनाव में तो पड़ता ही है। ([email protected])
वन अफसरों की अब मंत्रालय पोस्टिंग नहीं
प्रदेश में आईएएस अफसरों की कमी है। अभी आधा दर्जन से अधिक सीनियर आईएएस अफसर केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर हैं। एक-दो और जाने की तैयारी में हैं। मगर भूपेश सरकार का रूख साफ है कि आईएएस के विकल्प के रूप में आईएफएस अफसरों की मंत्रालय में पदस्थापना नहीं की जाएगी। जबकि पिछली सरकार में मंत्रालय और निगम-मंडलों को मिलाकर दर्जनभर आईएफएस पदस्थ थे। लेकिन सरकार बदलते ही एक-दो को छोड़कर बाकियों को वापस वन विभाग में भेज दिया गया।
सुनते हैं कि पिछले दिनों अफसरों की कमी को देखते हुए दो-तीन आईएफएस अफसरों की मंत्रालय में पोस्टिंग का प्रस्ताव रखा गया। मगर सीएम ने साफ कर दिया कि वन अफसरों की मंत्रालय में पोस्टिंग नहीं की जाएगी। उनका मत था कि प्रदेश में 44 फीसदी वन क्षेत्र हैं और इसको बचाना जरूरी है। वन संपदा से रोजगार की अपार संभावना है। ऐसे में वन अफसरों को अपने विभाग में काबिलियत दिखाने की ज्यादा जरूरत है।
भाजपा सरकार में धर्मांतरण...
खबर है कि पिछले दिनों आरएसएस की भोपाल बैठक में छत्तीसगढ़ में धर्मांतरण पर चिंता जताई गई है। आरएसएस के बड़े पदाधिकारी यह कहते सुने गए कि छत्तीसगढ़ में 15 साल भाजपा की सरकार रही है, फिर भी ऐसी स्थिति क्यों बनी? इस बैठक में पूर्व सीएम रमन सिंह के साथ-साथ सौदान सिंह और चुनिंदा भाजपा नेता मौजूद थे।
आरएसएस की चिंता बस्तर संभाग को लेकर ज्यादा है। संघ से जुड़े नेताओं का कहना है कि बस्तर में पिछले वर्षों में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ है, लेकिन राज्य की भाजपा सरकार इसको लेकर उदासीन रही। ऐसे में कथित धर्मांतरण को लेकर वे किसी और को दोष नहीं दे पा रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि पहले सरस्वती शिशु मंदिर से जुड़े लोग काफी रूचि लेते थे और वे गांव-गांव में हिन्दुत्व का प्रचार-प्रसार करते थे। मगर उन्होंने पिछली सरकार में अपनी उपेक्षा की वजह से गतिविधियों को सीमित कर दिया है। संघ ने अब फिर बस्तर में विशेष सक्रियता की जरूरत पर बल दिया है और पार्टी के साथ-साथ आरएसएस भी जनजागरण के लिए अभियान चलाएगा।
कॉम्पलेक्स विवाद में कूदे विधायक
शहर के मध्य में स्थित एक व्यावसायिक कॉम्पलेक्स के मालिकाना हक को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। सुनते हैं कि एक पुराने कारोबारी ने दशकों पहले नजूल जमीन लीज पर लेकर कॉम्पलेक्स खड़ा किया था। दूकानें किराए पर दी थी। जमीन के लीज की अवधि खत्म होने से पहले कॉम्पलेक्स की दूकानों को बेचना शुरू कर दिया। खास बात यह है कि सारी दूकानें एक ही व्यक्ति ने खरीदी है। चर्चा है कि कॉम्पलेक्स के खरीददार की पिछली सरकार में गहरी पैठ रही है। और पिछली सरकार के रहते खरीदी बिक्री से जुड़े काफी काम निपट गए थे। मगर कुछ काम बाकी रह गए थे।
सरकार बदलते ही खरीदी-बिक्री को लेकर कुछ लोगों ने अलग-अलग स्तरों पर शिकायत कर दी। इसमें बड़ा पेंच यह भी था कि कॉम्पलेक्स के पिछले हिस्से में सरकारी दफ्तर चल रहा था। संबंधित विभाग ने कॉम्पलेक्स के मालिक से भवन किराए पर लिया था। अब बदली परिस्थितियों में सरकारी भवन को खाली कराना आसान नहीं था। तब खरीददार ने सत्तारूढ़ दल के एक विधायक से मदद मांगी।
विधायक महोदय एक दिन सरकारी दफ्तर में जा धमके और अफसरों से खुद को भवन का मालिक बताकर भवन खाली करने के लिए कह दिया। आधा अरब से अधिक की इस संपत्ति की खरीदी-बिक्री और इससे जुड़े विवादों को लेकर शिकायतकर्ता जांच के लिए दबाव बनाए हुए हैं। शिकायतकर्ता और विधायक, दोनों ही सत्तारूढ़ दल के हैं। इसके चलते प्रशासन भी पशोपेश में हैं। फिर भी मामले को सुलझाने की कोशिश हो रही है। मगर अब तक सुलझ नहीं पाया है। देर-सवेर इसको लेकर एक बड़ा विवाद खड़ा हो सकता है।
दिल्ली चुनाव में सुनील सोनी की सक्रियता
दिल्ली चुनाव में भाजपा ने करीब 80 सांसदों को विधानसभावार प्रचार की जिम्मेदारी दी थी। इनमें रायपुर के सांसद सुनील सोनी भी थे। सुनील सोनी को दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के चुनाव क्षेत्र नई दिल्ली की कमान सौंपी गई थी। सोनी पहली बार सांसद बने हैं। दिल्ली की गतिविधियों से ज्यादा परिचित नहीं रहे। फिर भी उन्होंने भाजपा प्रत्याशी के प्रचार में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।
सुनील सोनी का हाल यह था कि वे अकेले ही भाजपा के लिए वोट मांगने निकल जाते थे। स्थानीय कार्यकर्ता बड़े नेताओं के साथ रहते थे। चुनाव परिणाम का भी सबको अंदाजा था इसलिए कार्यकर्ता सुनील सोनी के साथ प्रचार में जाने से परहेज करते थे। सुनील सोनी ने इसकी परवाह नहीं की और वे अंत तक डटे रहे। सुनील सोनी के लिए यह काफी था कि पार्टी ने उन्हें दिग्गज नेता के खिलाफ प्रचार का जिम्मा सौंपा। जबकि छत्तीसगढ़ के पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह और अन्य नेताओं को प्रचार के लिए बुलाया ही नहीं गया था। इससे सुनील सोनी के समर्थकों को भविष्य में पार्टी संगठन में महत्व मिलने की उम्मीद है।
सेवा सत्कार का फायदा
पूर्व मंत्री राजेश मूणत सहित कई पूर्व भाजपा विधायकों की सुरक्षा वापस ले ली गई है। मगर पूर्व विधायक लाभचंद बाफना की न सिर्फ सुरक्षा बरकरार है बल्कि एक अतिरिक्त सुरक्षाकर्मी उपलब्ध कराया गया है। बाफना के प्रति सरकार की दरियादिली की भाजपा के अंदरखाने में जमकर चर्चा हो रही है। पिछली सरकार में विशेषकर दुर्ग जिले में रेत खनन में बाफना परिवार का एकाधिकार रहा है। बाफना विधायक बनने से पहले पार्टी और सरकार के प्रभावशाली लोगों की खूब सेवा करते थे। दुर्ग जिले के अपने फार्महाऊस से ताजी सब्जियां लेकर आते थे और उनके घर पहुंचाते थे।
विधायक बनने के बाद भी उनका यह क्रम जारी रहा। मगर इसी के आड़ में उनका अपना कारोबार काफी फैल गया। उनके भाई और परिवार के लोगों के खिलाफ कई गंभीर शिकायतें भी हुई, लेकिन बाफना की सेवा से प्रभावित भाजपा और सरकार के लोगों ने ध्यान नहीं दिया। इसी के चलते विधानसभा चुनाव में न सिर्फ बाफना की बुरी हार हुई, बल्कि पूरे जिले में भाजपा का सफाया हो गया।
अब सरकार जाने के बाद भी बाफना की हैसियत में ज्यादा कोई कमी नहीं आई है। सुनते हैं कि बाफना ने दुर्ग जिले के कांग्रेस के कई प्रभावशाली नेताओं को साध लिया है। कांग्रेस नेताओं ने उनकी सुरक्षा बहाल रखने में मदद की है। जिन भाजपा नेताओं की सुरक्षा वापस ली गई है, उनमें से कुछ अब बाफना का अनुशरण करने की कोशिश कर रहे हैं।
निशक्तजन संस्थान में गदर
निशक्तजन संस्थान में गड़बड़ी की सीबीआई जांच से शासन-प्रशासन में हड़कंप मचा हुआ है। वैसे तो संस्थान में गड़बड़ी की अलग-अलग स्तरों पर शिकायत हुई थी तब मामूली जांच-पड़ताल के बाद ज्यादा कुछ नहीं हुआ। समाज कल्याण विभाग के आला अफसरों ने इसको गंभीरता से नहीं लिया। इसकी वजह भी थी कि शिकायतकर्ता को कदाचरण के आरोप में नौकरी से निकाल दिया गया था। ऐसे में शिकायतकर्ता की शिकायतों को नौकरी से निकालने की सामान्य प्रतिक्रिया के रूप में देखा गया।
कोर्ट में भी ज्यादा कुछ मजबूती से पक्ष नहीं रखा गया। अब जब सीबीआई जांच हो रही है, तो प्रकरण से जुड़े कई तथ्य सामने आ रहे हैं। सुनते हैं कि शिकायतकर्ता के ससुरजी समाज कल्याण विभाग के ही कर्मचारी थे। दामाद को नौकरी से निकाला गया, तो ससुर का गुस्सा स्वाभाविक था। विभाग के अफसर भी दो खेमे में बंटे हुए थे।
विभाग की अंदरूनी जानकारी छनकर बाहर निकलने लगी और मामला कोर्ट कचहरी तक पहुंच गया। शिकायतकर्ता की ज्यादा कोई चाह तो थी नहीं, नौकरी में वापसी की चाहत थी। मगर दूसरा खेमा इसके लिए तैयार नहीं था। अब प्रकरण हाईकोर्ट पहुंचा, तो भी विभाग गंभीर नहीं था। फिर सरकार बदलने के बाद कुछ अदृश्य शक्तियों का भी साथ मिल गया। फिर जो हो रहा है, वह धीरे-धीरे अब सबके सामने आ रहा है। कई बार किसी प्रकरण को हल्के में लेने का नतीजा अच्छा नहीं रहता है।
नान घोटाला प्रकरण में भी कुछ इसी तरह का हुआ था। मैडम सीएम-सीएम सर लिखे, डायरी के पन्ने योजनाबद्ध तरीके से लीक किए गए। शुरूआत में तो पिछली सरकार और प्रकरण की जांच कर रही एजेंसी ईओडब्ल्यू-एसीबी ने इसको हल्के में लिया। बाद में यह मामला राजनीतिक रंग ले लिया, तो ईओडब्ल्यू-एसीबी से जुड़े लोगों को सफाई देने के लिए आगे आना पड़ गया। हाल यह है कि पांच साल बाद भी जांच एजेंसी डायरी में लिखे नामों को लेकर माथापच्ची कर रही है। यह प्रकरण अब तक सुलझा नहीं है। ([email protected])
नि:शक्तजन घोटाला और सीबीआई जांच
नान घोटाले की तरह नि:शक्तजन घोटाला प्रकरण भी अब राजनीतिक रंग ले रहा है। प्रकरण की सीबीआई जांच के खिलाफ हाईकोर्ट में रिव्यू पिटीशन दायर करने से भाजपा के लोगों को भूपेश सरकार पर हमला बोलने का मौका मिल गया और पार्टी नेताओं ने सवाल उछाल दिया कि आखिर भूपेश सरकार किसको बचाने की कोशिश कर रही है? इस सवाल पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया आना बाकी है। मगर देर सबेर इस घोटाले पर नान की तरह भाजपा के लोगों को बचाव में आना पड़ सकता है।
सीबीआई की एक टीम भोपाल से जांच के लिए रायपुर आई हुई है, जिसमें दिल्ली के अफसर भी हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि घोटाला पिछली भाजपा सरकार के समय का है। मगर इसमें कौन-कौन शामिल हैं, इसको लेकर कयास ही लगाए जा रहे हैं। सुनते हैं कि नि:शक्तजन संस्थान के जरिए सोसायटी का गठन किया गया था, उस पर तत्कालीन विभागीय मंत्री रेणुका सिंह से लेकर तत्कालीन वित्त मंत्री अमर अग्रवाल और तत्कालीन सीएम रमन सिंह की सहमति रही है।
फाइलों पर तत्कालीन सीएम रमन सिंह के अनुमोदन से सोसायटी की प्रबंध कार्यकारिणी में सच्चिदानंद जोशी, प्रफुल्ल विश्वकर्मा, सुधीर देव और दामोदर गणेश को अशासकीय सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया था। अब जब इस संस्थान और सोसायटी को कथित तौर पर फर्जी करार दिया जा रहा है, तो ऐसे में इन तमाम दिग्गजों पर आंच आना स्वाभाविक है।
यह बात भी छनकर आ रही है कि संस्थान के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक सोसायटी की तीन-चार मीटिंग हुई थी, जिसमें पहली बार रेणुका सिंह, फिर लता उसेंडी और आखिरी बार मीटिंग की अध्यक्षता रमशीला साहू के समाज कल्याण मंत्री रहते हुई थी। जांच आगे बढ़ेगी, तो इन सभी से पूछताछ संभव है। यही नहीं, जिस संस्थान में करीब एक हजार करोड़ का घोटाला बताया जा रहा है, उसमें पिछले 15 सालों में सिर्फ 23 करोड़ ही खर्च हुए हैं।
ऐसे में बाकी की राशि कहां से आई, और कहां गईं, इसका जवाब भी सीबीआई को ढूंढना है। नान घोटाले की जांच के चलते वहां के छोटे-बड़े कर्मचारी पिछले कई साल से टेंशन में हैं, लेकिन सोसायटी में काम कर रहे लोग सीबीआई जांच से बेफिक्र और बेखौफ दिख रहे हैं। उनका अंदाज कुछ मशहूर शायर राहत इंदौरी के उस शेर की तरह नजर आ रहा है कि 'लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी हैÓ।
बंसल भी प्रतिनियुक्ति की राह पर
कृषि विभाग के विशेष सचिव मुकेश बंसल भी केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जा सकते हैं। सुनते हैं कि बंसल, केन्द्रीय इस्पात मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर के सचिव बन सकते हैं। बंसल भाप्रसे के वर्ष-2005 बैच के अफसर हैं। वे सीएम रमन सिंह के संयुक्त सचिव भी थे। वे राजनांदगांव कलेक्टर भी रह चुके हैं। बंसल से पहले सुबोध सिंह केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जा चुके हैं। हालांकि आईएएस अफसरों की कमी है। ऐसे में मुकेश बंसल को केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने का मौका मिलेगा या नहीं, देखना है।
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एक ट्वीट से खलबली
कल दिल्ली की एक प्रमुख पत्रकार रोहिणी सिंह ने एक ट्वीट किया, जिस पर बड़ी बहस छिड़ गई। उन्होंने ट्वीट में कोई नाम तो नहीं लिखे, लेकिन इशारों में उन्होंने जिस बड़ी राजनीति की चर्चा की उससे छत्तीसगढ़ में भी सनसनी फैली, और हो सकता है कि कुछ दूसरे कांग्रेसी राज्यों में भी खलबली मची होगी। रोहिणी सिंह ने लिखा- एक कांग्रेस नेता ने एक बड़ी कार्पोरेट घराने, और राहुल (गांधी) की टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य की मदद से एक पब्लिक रिलेशन्स फर्म की सेवाएं लेकर एक कांग्रेस मुख्यमंत्री को अस्थिर करने का काम शुरू किया है। इस कार्पोरेट घराने के व्यवसायिक हित, और इस कांग्रेस नेता की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने मुख्यमंत्री के खिलाफ यह गठजोड़ बनाया है।
अब इस पर गंभीर, और मजाकिया सभी किस्म की टिप्पणियां आने लगीं। लोगों ने नामों पर अटकल लगाना शुरू किया लेकिन बात किसी नतीजे तक पहुंची नहीं। कल शाम से लेकर रात तक दिल्ली के कुछ पत्रकार छत्तीसगढ़ के कुछ संपादकों से फोन पर इस राजनीति को समझने की कोशिश करते रहे। कुछ लोगों ने इस बारे में खुलकर भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव का नाम भी लिखा। कुछ लोगों ने लिखा कि राहुल गांधी यह सब जानते-समझते हैं, फिर भी चुप हैं। बहुत से लोगों ने रोहिणी सिंह के मोदी-विरोधी रूख को लेकर भी उन पर हमले बोले। कुछ लोगों ने लिखा कि यह छत्तीसगढ़ का मामला है और यह अडानी से जुड़ा हुआ है। कुछ ने रोहिणी को चुनौती दी कि वे केजरीवाल की तरह झूठों की रानी न बनें, और नाम बताएं। कुछ ने पूछा कि क्या यह अंबानी से जुड़ा मामला है? एक ने कहा कि इनकी पहचान का थोड़ा सा इशारा तो दिया जाए, बताया जाए कि ये तीन लोग किन जानवरों से मिलते-जुलते दिखते हैं, या ऐसा बता दिया जाए कि गणित के किसी फार्मूले में उनकी उम्र डालकर दुगुनी करें, और बच्चों की संख्या से गुणा करने तो कितना नंबर आएगा, या यह बताएं कि उद्योगपति कितने करोड़ का आसामी हैं। एक ने लिखा कि छत्तीसगढ़ के इस मामले में जिंदल भी शामिल है। एक-दो लोगों ने हेमंत सोरेन और गहलोत का नाम भी लिखा। एक ने लिखा कि भूपेश बघेल को छुआ भी जाएगा तो राहुल गांधी के हाथ से छत्तीसगढ़ चला जाएगा। बहुत से लोगों ने रोहिणी से यह भी पूछा कि यह पोस्ट करने के लिए उन्हें कितनी रकम मिली है, या कितना बड़ा मकान मिला है। एक ने कमलनाथ के न होने की संभावना लिखी कि वे गांधी परिवार के सबसे बड़े चमचे हैं, इसलिए तो वे हो ही नहीं सकते। कुछ लोगों ने राजस्थान के सचिन पायलट और मध्यप्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया के नाम की भी अटकल लगाई, कि वे अपने राज्यों के मुख्यमंत्री के खिलाफ ऐसा कर सकते हैं। एक व्यक्ति ने अधिक सावधानी बरतते हुए इन तीनों राज्यों की तीनों जोडिय़ों के नाम लिख दिए, ताकि कोई न कोई अंदाज तो सही साबित हो। कुल मिलाकर शाम से आज दोपहर तक सैकड़ों लोगों ने इस पर लिखा और अपना अंदाज भी बताया। रोहिणी सिंह को ट्विटर पर दो लाख साठ हजार लोग फॉलो करते हैं, और वे संघ परिवार, भाजपा, मोदी, अमित शाह की आलोचना से भरी अपनी ट्वीट के लिए लगातार हमलों का शिकार भी रहती हैं।
तैराक से हमदर्दी नहीं...
चार साल पहले सुकमा के अपने सरकारी बंगले में स्वीमिंग पूल बनवाकर चर्चा में आए आईएफएस अफसर राजेश चंदेला एक बार फिर जांच के घेरे में आ गए हैं। वैसे तो स्वीमिंग पूल प्रकरण की पिछली सरकार ने जांच कराई थी तब उन्हें क्लीनचिट मिल गई थी। अब फिर से प्रकरण की जांच शुरू हो रही है। विभाग जल्द ही जांच कमेटी गठित करने वाला है।
सुनते हैं कि स्वीमिंग पूल प्रकरण पर चंदेला को अकेले आरोपी बनाना आसान नहीं है। जांच ज्यादा बारीकी से हुई, तो चंदेला का तो ज्यादा कुछ नहीं होगा लेकिन उनके चक्कर में कुछ और अफसर लपेटे में आ सकते हैं। बताते हैं कि चंदेला के बंगले के स्वीमिंग पूल के निर्माण पर करीब 70 लाख खर्च हुआ था। जिसमें से तत्कालीन कलेक्टर ने डीएमएफ फंड से 5 लाख दिए थे। बाकी की राशि का जुगाड़ स्थानीय बड़े ठेकेदारों के सहयोग से किया गया।
स्वीमिंग पूल का उपयोग भी चंदेला से ज्यादा कलेक्टर, एसपी ही करते थे। चूंकि उस समय कांग्रेस नेताओं ने इसके निर्माण को लेकर काफी हल्ला मचाया था। अब सरकार में आने के बाद सबकुछ सच सामने लाने के लिए जांच कमेटी पर काफी दबाव होगा। अब देखना है कि कमेटी किस हद तक जांच करती है।
वैसे इस भ्रष्टाचार से परे सैकड़ों और भ्रष्टाचार इस राज्य के बनने के बाद से हुए हैं, लेकिन यह भ्रष्टाचार जितना दर्शनीय है, उतना शायद ही कोई और भ्रष्टाचार हो। एक सरकारी बंगले में सरकारी या भ्रष्टाचारी पैसों से स्वीमिंग पूल बनवा दिया जाए, ऐसी बड़ी और दर्शनीय कोई दूसरी मिसाल सामने आई नहीं है। इसलिए सरकार के बड़े अफसरों में भी ऐसे तैराक के लिए कोई हमदर्दी नहीं है।
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म्युनिसिपल से बेहतर
पंचायत चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन म्युनिसिपल चुनाव से बेहतर रहा है। म्युनिसिपल में तो पार्टी एक भी जगह अपना मेयर-सभापति नहीं बना पाई। मगर जिला पंचायतों में ऐसा नहीं होगा। कम से कम 4 जिला पंचायतों में भाजपा समर्थित अध्यक्ष बनना तय है। इनमें जशपुर, बलरामपुर, कवर्धा और बस्तर है। बाकी कुछ जगहों पर बढ़त के बावजूद अपना अध्यक्ष बनाने के लिए निर्दलियों का समर्थन हासिल करना जरूरी होगा। सुनते हैं कि पंचायत चुनाव के प्रभारी अजय चंद्राकर ने ज्यादा से ज्यादा जिलों में अपना अध्यक्ष बनाने के लिए रणनीति तैयार की है।
कहा जा रहा है कि जिन जिलों में कांग्रेस-भाजपा, दोनों को बहुमत नहीं है, पार्टी वहां निर्दलियों को समर्थन देकर कांग्रेस को रोकने की कोशिश करेगी। यानी हर हाल में कांग्रेस समर्थित अध्यक्ष न बन पाए, इसके लिए भाजपा नेता एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। और अभी से निर्दलियों से चर्चा भी शुरू हो गई है। अजय की रणनीति सफल रही, तो पांच और जिलों में भाजपा समर्थित अध्यक्ष बन सकते हैं। अजय की रणनीति पूरी तरह सफल भले न हो, लेकिन उन्होंने कांग्रेस के खेमे में हलचल मचा दी है। उन्होंने यह भी दिखाया कि वे अमर अग्रवाल जैसे बेदम नहीं हैं, जो कि खुद प्रभारी थे और अपने ही बिलासपुर म्युनिसिपल के मेयर चुनाव में मैदान छोड़ दिया था।
इंदिरा का पुनर्जन्म !
राजस्थान शादी का एक दिलचस्प कार्ड अभी सामने आया है जिसमें कुछ बातों का मतलब निकालना भी मुश्किल है। वहां के करौली जिले के वैद्य हरिप्रसाद शर्मा (रमल ज्योतिषी) का भेजा कार्ड बताता है कि उन्हें गृहमंत्री अमित शाह से धन्यवाद प्राप्त हुआ है, महामहिम राष्ट्रपति कलाम, अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से धन्यवाद प्राप्त हुआ है। यह भी लिखा है कि रायबरेली संसदीय सीट से वे 1977 में चुनाव लड़े थे, और उन्हें 2703 वोट मिले थे। यह भी लिखा है कि वे भारत के राष्ट्रपति चुनाव में 2012-2017 में उम्मीदवार थे। लेकिन सबसे दिलचस्प बात यह लिखी हुई है कि इंदिरा गांधीजी पुनर्जन्म स्वरूप पुत्री यमुना के भ्राता का विवाह!
अब इन बातों का जो मतलब निकल सके, निकाल लें।
एक निजीकरण तो हो ही चुका है
केन्द्र सरकार बड़ी-बड़ी सरकारी कंपनियों के निजीकरण में लगी है। एयर इंडिया पूरी ही बिकने जा रही है, और एलआईसी का कुछ हिस्सा बिकने वाला है। ऐसे में रायपुर एयरपोर्ट पर पार्किंग ठेकेदारी के अंधाधुंध भ्रष्टाचार को एयरपोर्ट मैनेजमेंट जिस खूबी से बचा रहा है, उसके चलते लोगों का मानना है कि एयरपोर्ट का निजीकरण जब होना है, तब हो, फिलहाल तो एयरपोर्ट के मुखिया को सरकारी काम से आजाद करके पार्किंग ठेकेदारी में लगाना चाहिए। हैरानी इस बात की है कि रायपुर के भाजपा सांसद सुनील सोनी की अध्यक्षता में इस एयरपोर्ट के लिए बनी कमेटी के सामने भी इस भ्रष्टाचार के बारे में दर्जनों लोगों ने बताया है, लेकिन एयरपोर्ट मैनेजर की ताकत के सामने सांसद पानी भरते नजर आते हैं। यह भी संभव है कि अगले चार साल पार्किंग ठेकेदारी करने के बाद मैनेजर रायपुर से चुनाव लड़कर भी जीत जाए।
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निपटाने के चक्कर विधायक निपटे
वैसे तो पंचायत चुनाव में भी कांग्रेस को अच्छी सफलता मिली है। लेकिन कुछ जिले जहां विधानसभा और म्युनिसिपल चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा है, वहां हार का सामना करना पड़ा। मसलन, कोरिया, बस्तर, बलरामपुर और जशपुर में कांग्रेस समर्थित जिला पंचायत सदस्य प्रत्याशियों को हार का मुख देखना पड़ा।
पार्टी के अंदरखाने में चर्चा है कि स्थानीय विधायक और जिला संगठन के बीच टकराव के कारण कांग्रेस समर्थित प्रत्याशियों को हार का सामना करना पड़ा। बैकुंठपुर विधायक अंबिका सिंहदेव ने अपनी पसंद से प्रत्याशी तय करवाए थे। यहां से विधानसभा के पूर्व प्रत्याशी वेदांती तिवारी चुनाव लडऩा चाहते थे, लेकिन अंबिका ने किसी और को अधिकृत करवा दिया। हाल यह रहा है कि वेदांती अच्छे मतों से चुनाव जीत गए और कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी तीसरे स्थान पर रहे।
दरअसल, विधायकों को डर था कि आने वाले समय में जिला पंचायत के सदस्य विधानसभा टिकट के दावेदार हो सकते हैं। इसलिए उन्हें चुनाव मैदान से बाहर रखने की भरपूर कोशिश की और इन्हीं वजहों से अपनी फजीहत करा बैठे। बलरामपुर में तो स्थानीय विधायक बृहस्पत सिंह और जिला अध्यक्ष के बीच मतभेद पहले से ही चल रहे थे। चुनाव के दौरान यह खुलकर सामने आ गया। इससे पूरे जिले में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा। बस्तर और जशपुर में भी कांग्रेस के विधायक पंचायतों में अपने करीबियों को बिठाने के चक्कर में पार्टी का नुकसान करा बैठे।
एक पद, और एक ही नाम
कवर्धा जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर भाजपा का कब्जा तय हो गया है। खास बात यह है कि अध्यक्ष का पद अनुसूचित जाति महिला वर्ग के लिए आरक्षित है। जिला पंचायत के चुनाव में एक मात्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सदस्य पद में भाजपा समर्थित उम्मीदवार सुशीला रामकुमार भट्ट चुनाव जीती हैं। ऐसे में कांग्रेस चाहकर भी किसी दूसरे को अध्यक्ष नहीं बना सकती। सुशीला रामकुमार भट्ट का जिला पंचायत अध्यक्ष बनना तय है। हालांकि यहां भाजपा समर्थित प्रत्याशी ज्यादा संख्या में जीतकर आए हैं, लेकिन दोनों दलों से अलग हटकर चुनाव जीतने वालों को मिलाकर कांग्रेस अपना अध्यक्ष बनाने की कोशिश में थी। मगर पार्टी के रणनीतिकारों को झटका लगा है। अध्यक्ष पद खोने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष पद पर अपनी ताकत झोंकेगी। गौर करने लायक बात यह है कि कुछ इसी तरह की स्थिति 10 साल पहले के जिला पंचायत चुनाव में भी बनी थी। जब अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित सीट पर कांग्रेस का कब्जा हो गया था। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सदस्य पद पर कांग्रेस की सीमा अनंत चुनाव जीती थीं और भाजपा के रणनीतिकारों ने उन्हें अपने दल में शामिल करने की कोशिश भी की थी, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिल पाई थी।
बजट को ऐसे समझें...
सोशल मीडिया भी बजट के बड़े मजे ले रहा है। एक पोस्ट-
मेरी कामवाली बाई ने कहा कि..वित्तमंत्री ने आपको टैक्स में बहुत बड़ी राहत दी है मेरी भी सैलरी बढ़ा दो।
मैंने कहा ठीक है। तुम्हारे 500 रूपए बढ़ा देता हूं। लेकिन साल भर होली-दीपावली की गिफ्ट नहीं मिलेगी।
अब तुम्हारे पास दो विकल्प हैं। गिफ्ट चाहिए तो पुराने वेतन पर काम करो या तो बढ़ा हुआ वेतन ले लो।
कामवाली ने अभी तक जवाब नहीं दिया है। शायद सी.ए. से विचार-विमर्श करेगी?
विष्णुदेव साय की दूसरी पारी
वैसे तो आधा दर्जन नेता प्रदेश भाजपा संगठन के मुखिया बनने की होड़ में हैं, लेकिन पूर्व केन्द्रीय मंत्री विष्णुदेव साय का नाम तकरीबन तय होने का हल्ला है। साय से परे, लोकसभा चुनाव में प्रदेश से सर्वाधिक वोटों से जीतकर आए दुर्ग सांसद विजय बघेल का नाम प्रमुखता से उभरा है। तेज तर्रार और साफ छवि के विजय को अग्रिम बधाई भी मिल रही है। मगर पार्टी के अंदरूनी सूत्र बता रहे हैं कि विजय बघेल को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की चर्चा सिर्फ मीडिया तक ही सीमित है। यह बात सर्वविदित है कि विजय ने पार्टी की राष्ट्रीय महामंत्री सरोज पाण्डेय से संगठन चुनाव के दौरान सीधी टकराहट मोल ले ली थी। सरोज का दिल्ली में असर बरकरार है। ऐसे में अब कहा जा रहा है कि विजय का प्रदेश अध्यक्ष बनना तो दूर, वे अपनी पसंद से भिलाई-दुर्ग में जिलाध्यक्ष ही बना पाते हैं, तो काफी होगा।
सुनते हैं कि विष्णुदेव साय के नाम पर बड़े नेताओं में सहमति बन गई है। उनका नाम आगे करने में पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह, सौदान सिंह की अहम भूमिका रही है। विष्णुदेव साय एक बार प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। केन्द्रीय मंत्री रहनेे के बावजूद उन्हें लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं दी गई। हालांकि अभी भी पार्टी के कई नेताओं को उम्मीद है कि पार्टी किसी तेज-तर्रार नेता को आगे बढ़ाएगी। कुछ इसी तरह की उम्मीद नेता प्रतिपक्ष के चयन के दौरान भी रही है। ऐन वक्त में प्रदेश अध्यक्ष रहते धरमलाल कौशिक को नेता प्रतिपक्ष का भी दायित्व सौंपा गया था। ऐसे में अब सीधे-साधे विष्णुदेव साय को मुखिया बनाया जाता है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कुल मिलाकर माहौल यह दिख रहा है कि रमन सिंह से परे के कोई नेता छत्तीसगढ़ भाजपा में अभी महत्व पाते नहीं दिख रहे हैं।
जात में क्या रक्खा है, या सब रक्खा है?
शराब के खिलाफ आंदोलन करने वाले रायपुर के एक सामाजिक कार्यकर्ता निश्चय वाजपेयी ने फेसबुक पर लिखा है-आज अश्वनी साहू भाई के साहू भोजनालय कुम्हारी मे खाना खाया। भाई ने ब्राह्मण को भोजन कराया है यह बोलकर पैसा नहीं लिया। भुगतान करने के मेरे सारे प्रयास असफल हुए। रामजी भाई के व्यापार मे दिन दूनी-रात चौगनी बढ़ोत्तरी दें। भाई का बहुत आभार एवं धन्यवाद।
अब इस पर यह चर्चा चल रही है कि एक संपन्न ब्राम्हण को खिलाने से भी पुण्य मिल सकता है, या इसके लिए ब्राम्हण का विपन्न होना जरूरी है? या फिर जाति देखे बिना सिर्फ विपन्न को खिलाना बेहतर है?
दरअसल हिन्दुस्तानी समाज में जाति इतने गहरे बैठी हुई है कि उससे परे कुछ सोच पाना मुश्किल रहता है। किसी ट्रेन या बस में सफर करते हुए बगल के मुसाफिर से बात करने के पहले लोग उसके धर्म, और उसकी जाति का अंदाज बिना किसी कोशिश के लगाने लगते हैं। पहरावे से, धार्मिक प्रतीकों से तो धर्म और जाति का अंदाज लगता ही है, नाम सुनने पर नाम के साथ उपनाम से भी जाति का अंदाज लग जाता है। यह एक अलग बात है कि छत्तीसगढ़ में एक अनुसूचित जाति और ब्राम्हणों के बीच बहुत से उपनाम एक सरीखे हो गए हैं, तो उससे धोखा भी हो सकता है। फिर हिन्दुस्तान में जाति के संदर्भ में अगर कोई अपमानजनक बात कही जाती है तो भी उसमें कुछ मामलों में एक कानून लागू होता है, और अपमान खतरनाक हो सकता है।
दिक्कत वहां पर अधिक होती है जहां लोग जातिसूचक उपनाम नहीं लिखते हैं, और केवल नाम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में अगल-बगल के मुसाफिरों को यह शक होता है कि यह किसी नीची समझी जाने वाली जाति का ही होगा, तभी जाति को छिपा रहा है।
दिलचस्प बात यह है कि एक जाति के होने की वजह से एक-दूसरे को बचाने की उम्मीद ऊंची समझी जाने वाली जातियों में कुछ अधिक होती है। कोई एक कानूनी दिक्कत में है, तो उसकी दूसरों से उम्मीद रहती है कि वे अगर उसकी जाति के हैं, तो उसकी मदद करेंगे ही करेंगे, या करें ही करें।
खैर, आधे मजाक और आधी गंभीरता से शुरू यह बात बहुत लंबी चल सकती है, बाकी अगली बार कभी। ([email protected])
रेणुका सिंह का क्या होगा?
निशक्तजन संस्थान में घपले की सीबीआई जांच के आदेश से प्रदेश के राजनीतिक-प्रशासनिक गलियारों में खलबली मची हुई है। जांच के घेरे में रमन सरकार के पहले कार्यकाल में समाज कल्याण मंत्री रहीं रेणुका सिंह भी आ गई हैं। वे मात्र 18 महीने मंत्री रहीं। तब संस्थान का सिर्फ गठन हुआ था और थोड़ा बहुत खर्च हुआ था। उनसे अब इस पूरे मामले पर जवाब मांगा जा रहा है। हल्ला तो यह भी है कि उन्हें केन्द्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ सकता है।
सुनते हैं कि सीबीआई जांच के आदेश से रेणुका सिंह काफी परेशान है। वे सफाई दे रहीं हंै कि उनका इस घपले से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। चर्चा तो यह भी यह है कि उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को फोन कर अपनी तरफ से सफाई दी है। मगर नड्डा की तरफ से कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला है। दूसरी तरफ, पार्टी के भीतर चर्चा है कि रेणुका सिंह को ज्यादा कोई समस्या नहीं है, लेकिन उनके बाद समाज कल्याण विभाग का दायित्व संभालने वाली लता उसेंडी और रमशीला साहू को दिक्कत हो सकती है, क्योंकि संस्थान में अनियमितता इन्हीं दोनों के कार्यकाल में ज्यादा हुई हैं।
मुस्लिमों के बीच भाजपा धराशायी
एनआरसी और सीएए कानून का चौतरफा विरोध हो रहा है। इस कानून के खिलाफ विशेषकर मुस्लिम समाज के लोग सड़कों पर उतर आए हंै। पहले भाजपा को मुस्लिम विरोध के चलते वोटों का ध्रुवीकरण की उम्मीद पाले थी और राज्यों के विधानसभा चुनावों से लेकर वर्ष-2024 के लोकसभा चुनाव में फायदे की उम्मीद थी। अब धीरे-धीरे उम्मीदों को झटका लगता दिख रहा है। भाजपा सांसद मोदी सरकार के खिलाफ बनते माहौल को लेकर चिंतित दिख रहे हैं। पार्टी के अंदरखाने में इसको लेकर बहस चल रही है।
एक विवाह कार्यक्रम में शिरकत करने आए पड़ोसी राज्य के एक भाजपा सांसद ने अनौपचारिक चर्चा में कहा कि शुरू में लग रहा था कि एनआरसी-सीएए कानून से भाजपा को बड़ा फायदा होगा। मगर पहले धारा-370, फिर राम मंदिर पर फैसला और अब एनआरसी-सीएए के चलते मुस्लिम समाज तकरीबन पूरी तरह भाजपा के खिलाफ हो गया है। उन्होंने यह भी बताया कि पार्टी फोरम में इस बात को लेकर चर्चा हुई थी और सभी सांसदों को मुस्लिम समाज के बीच में जाकर कानून को लेकर गलतफहमी दूर करने के लिए कहा गया था।
इस सांसद ने आगे कहा कि जब वे अपने लोकसभा क्षेत्र के मुस्लिम बस्तियों में गए, तो पाया कि निचले तबके के लोगों को कानून को लेकर कोई जानकारी नहीं है, फिर भी वे इसको अपने खिलाफ मान रहे हैं। भाजपा विरोधी लगातार इसको हवा दे रहे हैं। हाल यह है कि मुस्लिम समाज के अन्य वर्ग जैसे कि शिया, बोहरा, अहमदिया और खोजा तबके के लोग भाजपा समर्थक रहे हैं, वे भी अब दूर होते दिख रहे हैं। इस कानून के चलते तकरीबन पूरा मुस्लिम समाज भाजपा के खिलाफ हो गया है। वे मानते हैं कि मोदी सरकार और पार्टी को जल्द ही कानून से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने के लिए तत्काल कोई कदम उठाना होगा।
रायपुर के एक नेता ने कहा कि एनआरसी-सीएए कानून के चलते म्युनिसिपल चुनाव तक में भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। रायपुर के एक वार्ड में तो मुस्लिम समाज के भाजपा प्रत्याशी को अपने ही समाज के वोट भी नहीं मिल पाए। समाज के लोगों ने बैठक कर भाजपा प्रत्याशी को साफ तौर पर बता दिया था कि उन्हें समाज के लोगों का वोट नहीं मिलेगा। मुस्लिम समाज के लोगों ने एकमुश्त गैर मुस्लिम कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में मतदान किया।
ऐसा नहीं है कि पार्टी स्तर पर कानून को लेकर मुस्लिम समाज के लोगों के बीच गलतफहमियां दूर करने की कोशिश नहीं की गई है। एक भाजपा नेता ने बताया कि पूर्व सीएम रमन सिंह का एनआरसी-सीएए को लेकर भ्रांतियां दूर करने मुस्लिम बाहुल्य इलाके बैजनाथ पारा में कार्यक्रम प्रस्तावित था। मगर समाज के लोगों ने शर्त जोड़ दी कि पूर्व सीएम को हमारी बातें पूरी सुननी पड़ेगी। हड़बड़ाए भाजपा नेताओं ने पुलिस अफसरों की समझाइश के बाद कार्यक्रम निरस्त करना उचित समझा।
जब तक हॉर्न प्लीज लिखा रहेगा...
मुम्बई पुलिस ने अभी एक नया इंतजाम किया है कि चौराहों के रेड लाईट पर रूकने वाली गाडिय़ां अगर हर बत्ती जल्दी बुलाने की हसरत में हॉर्न अधिक बजाएंगी, तो उनके शोर को भांपकर उनके सामने की लालबत्ती को कुछ और लंबा कर दिया जाएगा।
हिन्दुस्तानी सड़कों पर शोर का ऐसा बुरा हाल है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट लगातार कई किस्म के फैसले दे चुके हैं, यह एक अलग बात है कि उन पर कोई अमल करने में शासन-प्रशासन की दिलचस्पी नहीं है। दरअसल ट्रकों और बसों के पीछे, छोटे-छोटे कारोबारी वाहनों के पीछे जिस तरह हॉर्न प्लीज लिखा रहता है उससे लोगों की सोच ऐसी हो जाती है कि हॉर्न बजाना ही है। और सामने चूंकि गाड़ी यह अनुरोध कर ही रही है कि कृपया हॉर्न बजाएं, तो पीछे के लोग उसकी फरमाईश पूरी करते चलते हैं। गाडिय़ों के पीछे यह लिखने पर कानूनी रोक लगनी चाहिए, और यह लिखवाना चाहिए कि हॉर्न न बजाएं। इसमें एक दिक्कत जरूर आ सकती है कि हिन्दुस्तानी ट्रैफिक सड़क के नियमों के बजाय हॉर्न की आवाज सुनकर ही ठीक हो पाता है, और बिना हॉर्न इसमें कुछ गड़बड़ हो सकती है, शायद शुरू के कुछ वक्त।
लेकिन पुलिस और आरटीओ विभागों का हाल देखें, तो जिन बड़ी बसों और ट्रकों से इन्हें सबसे अधिक संगठित रिश्वत मिलती है, उन गाडिय़ों में जो बड़े-बड़े प्रेशर हॉर्न लगाकर रखते हैं, और जो उनकी अंधाधुंध रफ्तार के लिए जरूरी रहते हैं, उन पर रोक न तो सुप्रीम कोर्ट लागू कर पाया, न किसी प्रदेश का हाईकोर्ट। ([email protected])
नाम में राम, पर मारा था मोहन को...
नाम में क्या रखा है। दिल्ली में अभी रामभक्त गोपाल ने बेकसूरों पर पिस्तौल लहराई, धमकियां दीं, लोगों को गद्दार कहा, और गोली चलाकर एक को घायल भी कर दिया। नाम में गोपाल भी था, और अपने आपको वह फेसबुक पर रामभक्त भी लिखता था। इसी तरह दुनिया के कई देशों में आतंकी हमले करने वाले लोगों के नाम के साथ कहीं मोहम्मद लिखा होता है, तो कहीं किसी और धर्म का नाम। नामों का ही अगर असर हुआ होता तो फिर नाथूराम ने गांधी को क्यों मारा होता? उसके नाम राम था, और गांधी के नाम में मोहन था। इन दो युगों के बीच ऐसी हिंसा की गुंजाइश क्यों निकलनी थी?
अब इधर छत्तीसगढ़ में रेलवे के लोहे की इतिहास की सबसे बड़ी चोरी पकड़ाई है तो चोरी का माल खरीदने वाले जिन दो कारखानों से जब्ती हो रही है, उनमें से एक का नाम हिन्दुस्तान क्वाइल लिमिटेड है, और दूसरे का नाम इस्पात इंडिया फैक्ट्री। नाम में हिन्दुस्तान भी है, और इंडिया भी, और ये दोनों हिन्दुस्तानी या इंडियन रेलवे से चोरी की गई पटरियों को गलाकर लोहा बनाते पकड़ाए हैं, और कारखानों में खूब सा लोहा भी बरामद हुआ है। इसलिए नामों के फेर में नहीं पडऩा चाहिए कि नाम भला होगा तो इंसान या कारोबार भी भले होंगे।
निरर्थक स्वागतद्वारों पर फिजूलखर्च
छत्तीसगढ़ के पहले विश्वविद्यालय, पंडित रविशंकर शुक्ल विवि का इलाका नए और बाद में बने विश्वविद्यालयों की वजह से कटते-कटते अब केवल पुराने रायपुर जिले जितना बच गया है। आज से बीस बरस पहले जो रायपुर जिला महासमुंद, धमतरी, गरियाबंद, बलौदाबाजार को मिलाकर बना था, उसमें अब ये सब जिले बनकर हट गए और सिर्फ आज का रायपुर जिला छोटा सा रह गया है। रविशंकर विश्वविद्यालय फिलहाल अविभाजित रायपुर जिले जितना बड़ा है। अब इस विश्वविद्यालय में एक दूसरी दिशा में एक सड़क निकाली जा रही है जहां पर एक नया गेट बनाने की घोषणा रजिस्ट्रार गिरीशकांत पांडेय ने आज सुबह फेसबुक पर की है।
हिन्दुस्तान में छोटी सी छोटी पंचायत, या गांव-कस्बे में भी गेट बनाना एक बड़ा ही लोकप्रिय काम है। जिस कस्बे में एक भी सार्वजनिक शौचालय न हो, वहां भी पांच-दस लाख रूपए लागत का एक स्वागतद्वार या गेट बना दिया जाता है। आज भी रविशंकर विश्वविद्यालय में जो अकेला प्रवेशद्वार है, वह इतना बड़ा और महंगा ढांचा है कि वह तस्वीरों में कई बार गिरौदपुरी में बनाए गए विशाल जैतखंभ जैसा दिखता है। इस गेट से विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा में कोई इजाफा नहीं होता। इतनी रकम की किताबें अगर लाइब्रेरी में ले ली जातीं, लाइब्रेरी को रात-दिन चौबीसों घंटे खुलने लायक बनाया जाता तो शायद यूनिवर्सिटी की इज्जत बढ़ती। लेकिन किसी गांव-देहात की तरह विश्वविद्यालय को भी स्वागतद्वार और गेट बनाने का शौक है।
इंटरनेट पर दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की तस्वीरों को सर्च करें, तो उनकी सैकड़ों तस्वीरों में भी कोई स्वागतद्वार नहीं दिखता है।
लोगों को याद रहना चाहिए कि पिछली सरकार में जब अजय चंद्राकर कुछ समय पर्यटन मंत्री भी थे, उन्होंने रायपुर-धमतरी सड़क से चंद्राकर के कस्बे कुरूद जाने वाली सड़क पर डेढ़-पौने दो करोड़ रूपए की लागत से स्वागतद्वार बनवाया था। उसकी वजह से एक पर्यटक भी कुरूद की ओर मुड़ा हो ऐसा नहीं लगता, लेकिन कोई शहर-कस्बा अपनी बाकी खूबियों से लोगों का स्वागत करे, उसके बजाय स्वागतद्वार का महंगा निर्माण करना सत्ता की एक रहस्यमय चाह रहती है। इसी तरह पूरी प्रदेश में पिछले बरसों में जगह-जगह ताकतवर मंत्रियों और विधायकों ने अपने इलाकों में पर्यटन-रिसॉर्ट बनवा दिए जो कि अब खंडहर हो रहे हैं। उन्हें ऐसी जगह बनाया गया जहां किसी पर्यटक के पहुंचने की संभावना नहीं थी, और अब आसपास निर्माण का ठेका लेने वाले ठेकेदार ऐसे रिसॉर्ट को अपने गोदाम की तरह इस्तेमाल करते हैं।
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भाजपा में गुटबाजी-असंतोष
खबर है कि प्रदेश भाजपा में गुटबाजी से हाईकमान चिंतित है। कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी के बड़े नेताओं के बीच खाई और बढ़ गई है। इस वजह से पहले विधानसभा उपचुनावों और फिर म्युनिसिपल चुनाव में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। पंचायत चुनाव में भी कोई अच्छे आसार नहीं दिख रहे हैं। खुद अमित शाह के कार्यक्रम में गुटबाजी का नजारा साफ देखने को मिला।
वैसे तो शाह करीब 2 घंटे कुशाभाऊ ठाकरे परिसर में रहे। मगर मंच संचालन से लेकर स्वागत और मेल-मुलाकात संगठन में हावी नेताओं तक ही सीमित रहा। दिग्गज आदिवासी नेता नंदकुमार साय, बृजमोहन अग्रवाल, अजय चंद्राकर और प्रेम प्रकाश पांडेय, नारायण चंदेल जैसे दिग्गज नेताओं को मंच पर बिठाना तो दूर, स्वागत सत्कार के लिए भी नहीं बुलाया गया। स्वागत भाषण से लेकर सत्कार और मेल-मुलाकात का पूरा कार्यक्रम संगठन पर हावी मंचस्थ 4-5 नेताओं तक ही सीमित रहा। जबकि कुछ नेता प्रदेश संगठन की स्थिति को लेकर अपनी बात अमित शाह तक पहुंचाना चाहते थे, लेकिन उन्हें मौका नहीं मिला।
सुनते हैं कि पूर्व मंत्री ननकीराम कंवर दिल्ली में कई बड़े नेताओं से मिलकर कार्यकर्ताओं में बढ़ते असंतोष की तरफ ध्यान दिला चुके हैं। यह भी कहा गया है कि नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक और प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी का अब तक का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। ऐसे में दोनों में से कम से कम एक को बदलने पर जोर दिया जा रहा है। मगर कंवर जैसे नेताओं की शिकायतों को कितना महत्व मिलता है, यह आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा, फिलहाल तो पिछले बरसों का इतिहास बताता है कि ननकीराम कंवर के पिछले दस बरस महज पार्टी के भीतर के असंतुष्ट की हैसियत से गुजरे हैं। वे जब गृहमंत्री थे, तब भी सरकार के भीतर कुछ जायज, या नाजायज वजहों से वे असंतुष्ट ही बने रहते थे।
पैसे वाला होना, और ईमानदार होना...
कुछ लोगों को यह लगता है कि जिनके पास बहुत पैसा है, वे लोग गलत तरीके से पैसा क्यों कमाएंगे? एक वक्त था जब चुनाव में किसी उम्मीदवार को वोट देते समय लोग यह चर्चा करते थे कि उसके पास पहले से इतना पैसा है, तो कम से कम लूटपाट तो नहीं करेगा। लेकिन ऐसे लोग भी जीतने के बाद करोड़पति से अरबपति, और अरबपति से खरबपति बनने के लिए मुंह पर गमछा बांधे बिना ही सरकारी लूटपाट में लग जाते थे, और धीरे-धीरे यह तर्क बेअसर हो गया। अब कुछ लोग गरीब को वोट देने की बात जरूर करते हैं कि उसे गरीबी में जीने की आदत है, और हो सकता है कि वह ईमानदारी से राजनीति और सरकार चला ले।
लेकिन छत्तीसगढ़ में बड़े-बड़े रईसों के ऐसे-ऐसे भ्रष्टाचार, और आर्थिक अपराध सामने आए हैं कि लोगों को लगता है कि इनको जरूरत क्या थी? छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े सेठ कहलाने वाले परिवार के अरबपति माने जाने वाले वारिस कुछ करोड़ की धोखाधड़ी में पूरे कुनबे सहित जेल और कटघरे में हैं।
अभी बंगाल के कोलकाता में दो बड़े कारोबारियों के नौजवान लड़कों ने दर्जनों महिलाओं और लड़कियों के साथ अपने सेक्स-वीडियो बनाए, और उनको ब्लैकमेल करके उनसे पांच-दस लाख रूपए जैसी रकम वसूल करना शुरू किया। पुलिस को इनके जब्त किए गए लैपटॉप से ऐसे दर्जनों वीडियो मिले हैं, और इन दोनों रईस नौजवानों को गिरफ्तार किया गया है। इसलिए लोगों को किसी की संपन्नता की वजह से उसके मुजरिम न होने जैसी बात नहीं सोचना चाहिए। घर का रईस होना, करोड़पति या अरबपति होना किसी को जुर्म से परे रख पाए ऐसा जरूरी नहीं है।
प्रकाश बजाज पर सनसनी
भाजपा नेता प्रकाश बजाज एक बार फिर सुर्खियों में है। बजाज चर्चित सेक्स-सीडी कांड के शिकायतकर्ता रहे हैं। उनके खिलाफ छेड़छाड़ और धोखाधड़ी के कई गंभीर आरोप हैं। बजाज को नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक का करीबी माना जाता है। सुनते हैं कि प्रकाश बजाज ने पिछले दिनों केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की। बजाज के साथ एक प्रतिनिधिमंडल भी था।
बजाज की अमित शाह से मुलाकात ऐसे समय में हुई जब पार्टी के बड़े नेता उनसे मुलाकात के लिए मशक्कत कर रहे थे, लेकिन उन्हें समय नहीं मिला। सिर्फ चार प्रतिनिधिमंडलों को मुलाकात के लिए समय दिया गया था। इन्हीं में से एक के साथ प्रकाश बजाज भी अमित शाह से मिलकर आ गए। पार्टी के अंदरखाने में प्रकाश बजाज को अमित शाह से मुलाकात के लिए समय दिलाने की तीखी प्रतिक्रिया हो रही है। हालांकि कुछ लोग बजाज की अमित शाह से मुलाकात का खंडन भी कर रहे हैं।
पार्टी के कई नेताओं ने मुलाकातियों की सूची निकलवाई भी है, जिसमें आखिरी में प्रकाशजी लिखा है। दावा किया जा रहा है कि उनके सरनेम को जानबूझकर छोड़ दिया गया, ताकि कोई विवाद न हो। प्रकाश बजाज की अमित शाह से क्या चर्चा हुई है, इसको लेकर उत्सुकता भी है। इस संवाददाता ने प्रकाश से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उनका मोबाइल बंद मिला। मगर जिस व्यक्ति के खिलाफ कई गंभीर आरोप हैं और कुछ दिन पहले तक जेल में रहा है उसे केन्द्रीय गृहमंत्री से मुलाकात कराने की शिकायत पार्टी हाईकमान से भी की जा रही है। इस मामले में कुछ बड़े नेता निशाने पर भी हैं।
हाईकोर्ट का फैसला, और अटकलें...
सरकार और सियासत से जुड़े हुए लोगों की अटकल लगाने की क्षमता अपार होती है। कल छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का एक बड़ा कड़ा फैसला आया जिसमें पिछली सरकार के कार्यकाल में नि:शक्तजनों के लिए सरकार से अपार पैसा लिया गया, और उसे इधर-उधर कर दिया गया। अदालत ने इस मामले की जांच सीबीआई को दे दी, और जांच के घेरे में राज्य के कुछ सबसे बड़े अफसर रहे लोगों के नाम आ रहे हैं। ये नाम हक्का-बक्का कर रहे हैं। अब चूंकि इस मामले में अदालत ने राज्य सरकार से भी जवाब मांगा था, इसलिए यह अटकल भी लग रही है कि क्या सरकार इन अफसरों में से कुछ, या कई, या सभी को जांच में फंसने देना चाहती है? फैसला अदालत का है, लेकिन अदालत में सरकार का पक्ष तो सरकार ही रखती है, और उसी बात को लेकर कल रात राज्य में जगह-जगह यह अटकलबाजी चल रही थी।
ठीक इसी तरह की अटकलबाजी इस बात को लेकर भी चल रही थी कि सीबीआई इस मामले में क्या रूख दिखाएगी। देश की यह सबसे बड़ी जांच एजेंसी लंबे वक्त बाद छत्तीसगढ़ में अदालती आदेश से किसी जांच में आने का एक मौका पा रही है, और इस बात को लेकर भी राज्य के कुछ लोगों में बेचैनी है, हालांकि सीबीआई यहां किसी और केस की जांच नहीं कर पाएगी, और इस मामले में भी तकरीबन सारे लोग रिटायर हो चुके हैं, या सरकार की फिक्र उन्हें लेकर नहीं है। अब चूंकि सीबीआई केन्द्र सरकार के मातहत है, इसलिए लोग यह अटकल भी लगा रहे हैं कि क्या भाजपा सरकार के दौरान का यह बड़ा मामला पूरी तरह हल किया जाएगा, या फिर सीबीआई कुछ नरमी बरतेगी? सीबीआई के कामकाज की जानकारी रखने वाले कुछ लोगों का मानना है कि उसकी जांच में बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं डाला जा सकता, और अगर कागजात भ्रष्टाचार बताएंगे, तो वह बात जांच में आ ही जाएगी।
फिलहाल यह छत्तीसगढ़ के इतिहास का एक सबसे बड़ा भ्रष्टाचार दिख रहा है, और सबसे बड़े नामों वाला भी। आगे पता लगेगा कि इसके लिए कौन कुसूरवार पाए जाते हैं।
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आदिवासी भाजपा नेताओं में तलवारें
भाजपा के दो पूर्व गृहमंत्री रामविचार नेताम और रामसेवक पैंकरा के बीच वर्चस्व की लड़ाई छिड़ गई है। नेताम की पत्नी पुष्पा नेताम जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ रही हैं। पुष्पा जिस क्षेत्र से चुनाव लड़ रही है, वह प्रतापपुर विधानसभा का हिस्सा है, जहां से पैकरा विधायक रह चुके हैं। ये अलग बात है कि विधानसभा चुनाव में पैकरा को बुरी हार का सामना करना पड़ा था। सुनते हैं कि पैंकरा कतई नहीं चाहते थे कि रामविचार की पत्नी प्रतापपुर इलाके से चुनाव लड़े।
नेताम अपनी पुत्री को तो अपने विधानसभा क्षेत्र रामानुजगंज से चुनाव लड़ा रहे हैं, लेकिन पत्नी को दूसरे के इलाके से चुनाव मैदान में उतार दिया है। पुष्पा चुनाव जीत जाती है, तो प्रतापपुर में रामविचार की दखल बढ़ जाएगी। वैसे भी रामानुजगंज के बजाए रामविचार प्रतापपुर विधानसभा सीट को अपने लिए ज्यादा बेहतर मानते हैं। यही वजह है कि वे अपनी पत्नी को जिताने के लिए मेहनत कर रहे हैं। दूसरी तरफ पार्टी के स्थानीय नेताओं के बीच चर्चा है कि पैंकरा से जुड़े लोग कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार को मदद कर रहे हैं। ऐसे में पुष्पा की राह आसान नहीं रह गई है। फिलहाल जानकारों की नजर इस हाईप्रोफाइल बन चुके जिला पंचायत सीट पर टिकी हैं।
देवव्रत ने पलटी मारी
वैसे तो म्युनिसिपल चुनाव में जोगी पार्टी के विधायक देवव्रत सिंह ने कांग्रेस का साथ दिया था। मगर पंचायत चुनाव में उन्होंने पलटी मार दी। उन्होंने अपने खैरागढ़ विधानसभा क्षेत्र के जिला पंचायत के चुनाव में पूर्व सीएम रमन सिंह के भांजे विक्रांत सिंह को सपोर्ट किया। देवव्रत की मेहनत का ही नतीजा है कि विक्रांत किसी तरह चुनाव जीतने में सफल रहे। सुनते हैं कि देवव्रत ने अपने इलाके में लोधी फैक्टर को कमजोर करने के इरादे से ऐसा किया है।
खैरागढ़ में लोधी समाज के मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। एक बार देवव्रत की पत्नी लोधी फैक्टर के चलते हार गई थी। खुद विधानसभा का चुनाव सिर्फ इस वजह से जीत पाए कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही लोधी उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे थे। लोधी मतों के बंटने का फायदा देवव्रत को मिला और वे किसी तरह चुनाव जीतने में सफल रहे। हल्ला यह भी है कि विधानसभा चुनाव में विक्रांत और उनके समर्थकों ने देवव्रत का अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग किया था। ऐसे में देवव्रत ने विक्रांत को सहयोग किया है, तो गलत नहीं है। वैसे भी देवव्रत को छोड़कर जोगी पार्टी के अन्य विधायक भाजपा के ज्यादा करीब दिख रहे थे। अब देवव्रत भी इसी राह पर जा रहे हैं।
हवा बदली है समझो साहब...
छत्तीसगढ़ सरकार में अफसरों को भाजपा सरकार के तीन कार्यकाल के बाद बदले हुए माहौल को समझने में थोड़ा सा वक्त लग रहा है। आज गांधी पुण्यतिथि पर देश भर में केन्द्र सरकार के निर्देश पर लंबे समय से शहीद दिवस मनाया जाता है। केन्द्र सरकार के ही निर्देश का ही जिक्र करते हुए राज्य शासन ने कल एक आदेश निकाला जिसमें स्वतंत्रता संग्राम में शहीद होने वाले लोगों की स्मृति में दो मिनट का मौन रखने के लिए कहा गया। यह आदेश हर बरस से चले आ रहा है, और केन्द्र सरकार में भी यूपीए के समय का है। इसमें गांधी की शहादत की सालगिरह का कोई जिक्र नहीं है। लेकिन छत्तीसगढ़ की नई कांग्रेस सरकार लगातार गांधी को एक मुद्दा बनाकर एक वैचारिक लड़ाई लड़ते आ रही है। ऐसे में इस सर्कुलर में गांधी का जिक्र भी न होना थोड़ा सा अटपटा था, फिर चाहे वह प्रतिवर्षानुसार ही क्यों न हो, चाहे वह केन्द्र सरकार के सर्कुलर के अनुसार ही क्यों न हो। बीती रात जब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का ध्यान इस तरफ खींचा गया, तो उन्होंने खासी नाराजगी जाहिर की, और उसके बाद हड़बड़ी में स्कूल शिक्षा विभाग का एक सर्कुलर निकाला गया जिसमें आज गांधी पुण्यतिथि पर दो मिनट के मौन का जिक्र किया गया।
कुछ ऐसा ही हाल मुख्यमंत्री की उस घोषणा का हुआ था जो कुछ महीने पहले उन्होंने विधानसभा में की थी। स्कूलों में संविधान का पाठ पढ़ाया जाएगा, इसकी घोषणा के बाद भी स्कूल शिक्षा विभाग ने ऐसा कोई आदेश नहीं निकाला था, और न ही कोई योजना बनाई थी। अभी चार दिन पहले स्कूल शिक्षा के नए प्रमुख सचिव डॉ. आलोक शुक्ला के आने के बाद ऐसा आदेश निकला और स्कूलों में संविधान पर चर्चा शुरू होने जा रही है। सरकार में कामकाज बंधी-बंधाई लीक पर चल रहा है, और देश-प्रदेश में बदली हुई सोच की कोई झलक उसमें कम ही दिखाई पड़ती है।
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जनसंपर्क की बदली हवा
सरकार बदलने के बाद जनसंपर्क विभाग के कामकाज में काफी बदलाव देखने को मिला है। आमतौर पर जनसंपर्क विभाग के सचिव-संचालक का पद काफी प्रतिष्ठा और चुनौतीपूर्ण माना जाता है। पिछली सरकार में तो इन पदों पर तैनात अफसरों पर राजनीतिक गतिविधियों में लिप्त रहने और विपक्षी नेताओं की सीडी बनवाने जैसे संगीन आरोप तक लगे थे। विभाग के कई अफसरों के खिलाफ जांच चल रही है। इन सबको देखकर सीएम भूपेश बघेल ने साफ-सुथरी छवि के अफसरों की पोस्टिंग की। अब डीडी सिंह को सरकार के प्रचार-प्रसार का जिम्मा दिया गया है।
डीडी सिंह प्रदेश के उन चुनिंदा अफसरों में से हैं, जो राज्य प्रशासनिक सेवा से भारतीय प्रशासनिक सेवा में आए और केन्द्र सरकार में संयुक्त सचिव पद के लिए सूचीबद्ध हुए हैं। उनकी साख काफी अच्छी है। उनके मातहत संचालक तारण प्रकाश सिन्हा को भी डीडी सिंह की तरह नियम-कायदे पसंद और लो-प्रोफाइल में रहकर काम करने वाला अफसर माना जाता है। छत्तीसगढ़ बनने के बाद यह पहला मौका है कि जनसंपर्क सचिव के पद पर राज्य का ही एक आदिवासी अफसर नियुक्त हुआ है। डीडी सिंह के पहले झारखंड के आदिवासी राजेश सुकुमार टोप्पो इस विभाग के विशेष सचिव और प्रभारी सचिव रहे, लेकिन उनके कार्यकाल का अंत बहुत ही खराब हुआ।
खास बात यह है कि डीडी सिंह और तारण सिन्हा, दोनों ही अफसर छत्तीसगढिय़ा हैं और उनकी अपनी नौकरी का ज्यादा हिस्सा छत्तीसगढ़ में ही गुजरा है। बरसों बाद ऐसा मौका आया है जब मीडिया पर सरकारी तंत्र का कोई दबाव नहीं दिख रहा है। न सिर्फ दोनों बल्कि विभाग के अन्य अफसर पर चुपचाप लो-प्रोफाइल में काम करते दिख रहे हैं। इसका नजारा गणतंत्र दिवस के संवाद दफ्तर के ध्वाजारोहण कार्यक्रम में उस वक्त देखने को मिला, जब संवाद के प्रमुख उमेश मिश्रा ने खुद ध्वजारोहण करने के बजाए सबसे पुरानी महिला सफाईकर्मी से ध्वजारोहण कराकर सामाजिक भागीदारी और बराबरी का संदेश देने की कोशिश की।
बीच में एक समय ऐसा भी आया था जब रमन सिंह के एक जनसंपर्क सचिव अपने और अपने पिता के प्रचार में लगे रहते थे, और मीडिया से विभाग के संबंध सबसे खराब स्तर पर पहुंच गए थे। बाद में जब इस सचिव को गंभीर शिकायतों के चलते जनसंपर्क से हटाया गया, तो साथ-साथ उसका मलाईदार विभाग आबकारी भी चले गया था।
कमाई का जरिया बढ़ा...
जिला स्तर पर सरकारी अफसरों की कमाई के कुछ बंधे-बंधाए जरिये होते हैं। कुछ विभाग ही कमाऊ होते हैं जो विभागीय अफसरों के लिए और उनके ऊपर के अफसरों के लिए नियमित कमाई जुटाते रहते हैं। अब छत्तीसगढ़ में ऐसी कमाई में एक बड़ा इजाफा रेत की खदानों को लेकर हुआ है। सरकार ने रेत खदानों नीलामी की, तो अधिकतर पुराने शराब ठेकेदारों ने अपने लोगों के नाम से लॉटरी डाली, और जगह-जगह उनको खदानें मिल गई हैं। एक वक्त रेत खदान चलाने वाले छोटे लोग रहते थे, लेकिन अब जब कलेक्ट्रेट में यह बात साफ हो गई है कि किन नामों के पीछे कौन से अरबपति भूतपूर्व दारू ठेकेदार हैं, तो रेत से भी अफसरों को दारू जैसी कमाई की उम्मीद बंध गई। खनिज विभाग के अफसर रेत खदानों के एग्रीमेंट के पहले अपना हिस्सा भी रखवा रहे हैं, और अपने से ऊपर वालों का भी। नतीजा यह है कि कारोबार शुरू होने के पहले बड़ा पूंजीनिवेश हुए जा रहा है। एक जिले में कलेक्टर ने इतना बड़ा मुंह फाड़ दिया है कि खदान पाने वाले ने काम छोड़ देना तय किया है। खनिज अफसर अधिक व्यवहारिक रहते हैं, इसलिए वे कमाई का अंदाज लगाकर अपना हिस्सा मांगते हैं। लेकिन बड़े अफसर तो बड़े अफसर रहते हैं। ऐसे एक कलेक्टर को मातहत लोगों ने जाकर कहा कि उनके करीबी, एक दूसरे जिले के कलेक्टर इससे आधा भी नहीं ले रहे हैं, उनसे एक बार समझ तो लीजिए।