राजपथ - जनपथ
ओनली कैश!
शादी-ब्याह या किसी पारिवारिक कार्यक्रम में अधिकांश लोग उपहार स्वरुप लिफाफा लेकर जाते हैं, जिसमें हम अपनी हैसियत के मुताबिक कैश रखते हैं, लेकिन बहुत सारे लोग उपहार में कैश देना पसंद नहीं करते और गुलदस्ता या सामान बतौर गिफ्ट देते हैं। वैसे देखा जाए, तो उपहार लेने-देने का प्रचलन बरसों पुराना है, हालांकि समय के साथ इसमें बदलाव आया है, पुराने समय में तो कैश देने-लेने का ही रिवाज अधिक प्रचलित था। आजकल तो कई आमंत्रण में उपहार नहीं लाने के संदेश दिखाई और सुनाई देते हैं। ऐसा करने वालों की मंशा होती है कि पारिवारिक कार्यक्रमों को मेलजोल तक सीमित रखा जाए और उपहार की औपचारिकता में न बांधा जाए। बावजूद इसके शादी-ब्याह जैसे कार्यक्रम में लोग खाली हाथ जाना उचित नहीं समझते और वर-वधू को आशीर्वाद स्वरुप कुछ न कुछ देना जरूरी समझते हैं।
खैर, यहां पर उपहार का लेना-देना बहस का विषय नहीं है, क्योंकि यह व्यक्तिगत ज्यादा है। इसके जिक्र के पीछे भी एक शादी का न्यौता है, जोकि हमें सोशल मीडिया में देखने को मिला। दरअसल, कार्ड में लिखा गया है कि द कपल इज ऑन द मूव, सो ओलनी कैश एज गिफ्ट इज वेलकम। सही भी है क्योंकि नवदंपत्ति को शादी के बाद बाहर जाना है और उपहारस्वरुप मिले सामानों को वे अपने साथ ले जाने की स्थिति में नहीं है तो ऐसा संदेश वाजिब दिखाई पड़ता है। शादी-ब्याह में नई गृहस्थी के हिसाब से बड़े और महंगे उपहार भी दिए जाते हैं, जो या तो उनके पास पहले से होते हैं या फिर वे उसके उपयोग करने की स्थिति में नहीं होते। मना करने के बाद भी कुछ न कुछ उपहार दिए ही जाते हैं, तो कैश लिए जाना ही सही तरीका हो सकता है। यह मेहमान और मेजबान दोनों के लिए सुविधाजनक है और व्यर्थ के खर्चों से बचाने वाला भी है।
कुछ लोग शादी पर उपहार देने में लड़के और लड़की में फर्क करते हैं। अगर वे दूल्हे के परिवार के न्यौते पर पहुंचे हैं, तो वे लिफाफे में सिर्फ शुभकामना का छपा हुए एक कार्ड लेकर जाते हैं, और अगर दुल्हन-परिवार की ओर से मिले न्यौते पर गए हैं, तो कोशिश करते हैं कि अपने खाए पर लड़की के पिता के हुए अंदाजन खर्च से अधिक का लिफाफा देकर आएं। इनमें भी रायपुर के एक प्रमुख व्यक्ति इतने कट्टर हंै कि एक दिन में ऐसी दो किस्म की शादियां हो, तो वे वर पक्ष के न्यौते वाला खाना खाते हैं, और कन्या पक्ष के न्यौते की दावत में कन्या को नगदी का लिफाफा देकर आते हैं। उनका मानना है कि लड़की के पिता को तो लड़के वाले वैसे ही लूट लेते हैं, उस पर और बोझ क्यों बना जाए।
लालबत्ती की बेचैनी
छत्तीसगढ़ में अब लालबत्ती के दावेदारों की बेचैनी बढऩे लगी है। सालभर से ज्यादा का इंतजार पूरा होने वाला है और बैक टू बैक चुनाव भी अंतिम पड़ाव पर है, हालांकि दावेदारों को खुश होना चाहिए, क्योंकि फल प्राप्ति का समय आ गया, लेकिन स्थिति उलट हो गई है। दरअसल, कहा जा रहा है कि लालबत्ती की लिस्ट भी किश्तों में निकाली जाएगी। संभव है कि पहली लिस्ट सीमित हो। कुछ खास लोगों को लालबत्ती मिले। ऐसे में नंबर कटने की आशंका से दावेदार परेशान हैं और इसके लिए रायपुर से लेकर दिल्ली तक लॉबिंग चल रही है। कुछ लोगों का तो यह भी दावा है कि लालबत्ती के लिए बोली भी शुरू हो गई है। इस दावे की सच्चाई पर संशय हो सकता है, लेकिन जोड़-तोड़ में कोई संशय नहीं है। इसका अंदाजा सरकार के नजदीकी लोगों और मंत्रियों के बंगलों में भीड़ को देखकर लगाया जा सकता है। तमाम दावेदार सक्रिय देखे जा सकते हैं। ऐसे ही एक दावेदार को इसकी जानकारी लगी तो समझ आया कि दावा मजबूत रखने के लिए ऐसा करना पड़ता है, वो भी निकल पड़े अभियान में। जैसे ही वो अभियान में कूदे उनका वास्ता दूसरे दावेदारों से हुआ। सभी के अपने अपने अनुभव और तौर तरीके। किसी ने उनसे कहा कि आपकी लालबत्ती तो पक्की है आपको ऐसा कुछ करने की जरूरत नहीं, लेकिन तीसरे दावेदार को पता चला तो उन्होंने जातीय समीकरण में उनको निपटा दिया। नेता बड़े कन्फ्यूज्ड हो गए कि लालबत्ती मिलेगी या नहीं और केवल प्रत्याशा में वे अभियान में कूद गए हैं, जिसमें पैसे भी खर्च हो रहे हैं। इस असमंजस में उनको परिवार के लोगों ने सलाह दी कि आपको लालबत्ती जब मिलेगी तब समझना, लेकिन अभी तो आपके नेतागिरी के चक्कर में धंधे पानी पर असर पड़ रहा है। बच्चों की शादी-ब्याह का समय निकल रहा है। लालबत्ती के चक्कर में धंधा पानी चौपट हो गया तो कहीं के नहीं रहेंगे। एक तो व्यापार पहले से मंदी की चपेट में है। बेचारे नेताजी को परिवार वालों की सलाह जची और कारोबार में ज्यादा फोकस कर रहे हैं और समय बचने पर ही दावा आपत्ति के लिए निकलते हैं और वो भी बंगले में जुटने वाले अभियान से हटकर दावेदारों को फिट अनफिट का समीकरण बताने में लग गए हैं। ([email protected])
नामों में बहुत कुछ रक्खा है...
हिन्दुस्तान, और बाकी दुनिया का भी, शहरी मीडिया आदिवासियों या मूल निवासियों को लेकर मोटेतौर पर अनजान ही बने रहता है, या ये तबके शहरी आंखों के लिए पारदर्शी से रहते हैं। ऐसे में पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में जब एक राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव हुआ और जिसमें देश के बाहर के कुछ देशों से भी आदिवासी लोकनर्तक पहुंचे, तो वह छत्तीसगढ़ के इतिहास का एक किस्म से सबसे बड़ा जलसा बन गया। अब इस कार्यक्रम में पहुंचे आदिवासी-कलाकारों या उनके दल के मुखिया लोगों के नाम देखें तो कुछ दिलचस्प बातें दिखती हैं जो वहां के समाज और लोगों की जाति, उनके नाम को लेकर हैं।
अब ओडिशा से एक नृत्य ग्रुप आया तो उसमें ग्रुप लीडर का नाम तो प्रतिमा रथ था, लेकिन उनके अलावा जो सत्रह लोग ग्रुप में शामिल थे उनमें से हर एक का जाति नाम 'दुरुआ' था। मध्यप्रदेश से आए एक ग्रुप के मुखिया तो सतीश श्रीवास्तव थे लेकिन नर्तक दल के बाकी तमाम नौ लोगों के जातिनाम 'कोलÓ थे। राजस्थान से आए एक दल में कुछ राम, पूजा, जमुना जैसे हिन्दू नाम थे, और इतने ही मुस्लिम नाम भी थे।
महाराष्ट्र से आए एक दल में आधा दर्जन लोगों में से पांच लोग ऐसे थे जिनके नाम में भास्कर और भोसले दोनों ही शब्द थे।
चूंकि ये आदिवासी नृत्य दल थे, इसलिए बहुत से प्रदेशों से ये एक-एक जाति से ही निकले हुए दल थे, और उनमें सभी या अधिकतर लोगों के सरनेम या उपनाम एक जैसे थे। अरूणाचल प्रदेश के एक दल के पन्द्रह लोगों में से पांच के सरनेम पलेंग थे, और बहुत से लोगों के पहले नाम भी ईसाई जैसे थे। अरूणाचल प्रदेश के एक दूसरे दल में एक दिलचस्प बात यह थी कि एक दर्जन से अधिक लोगों में से किन्हीं भी दो लोगों के सरनेम एक सरीखे नहीं थे।
झारखंड के एक दल के डेढ़ दर्जन लोगों में दर्जन भर महतो थे। झारखंड के ही एक दूसरे दल में भी महतो और मुंडा इन दो सरनेम की भरमार थी।
राजस्थान के एक दल में आधे लोगों का जातिनाम गमेती था। उत्तराखंड के एक दल में बहुत ही कम लोगों के जातिनाम लिखे थे, लेकिन जिनके लिखे थे उनमें तकरीबन सारे ही हिन्दवाल थे। केरल के नर्तक दल में किसी की भी जाति नहीं लिखी गई थी, और सारे के सारे नाम बस पहले नाम थे। कुछ ऐसा ही उत्तरप्रदेश के एक दल के साथ था जिसमें किसी के जाति नाम नहीं लिखे गए थे।
गुजरात के एक दल के बीस लोगों में से उन्नीस के नाम के अंत में भाई शब्द था और एक महिला कलाकार के नाम में आखिर में बाई जुड़ा हुआ था। यह पूरी की पूरी टीम राठवा शब्द से शुरू होने वाले नामों की थी, और तमाम बीस नामों में स्त्री या पुरूष कलाकारों के साथ पिता के नाम भी जुड़े हुए थे, जैसे राठवा दीपिका बेन रंगू भाई। गुजरात की ही एक दूसरी टीम में हर किसी का नाम वासव, या वासवा से शुरू हुआ, और लगभग हर नाम में भाई शब्द था ही।
लद्दाख की टीम के उन्नीस नामों में से हर एक का सरनेम अलग था, और कोई भी दो सरनेम एक सरीखे नहीं थे।
चूंकि ये नाम अलग-अलग प्रदेशों से आए थे इसलिए लोगों ने उनमें से किसी लिस्ट में शादीशुदा होने या न होने की बात लिखी थी, किसी में नहीं लिखी थी, लेकिन तमिलनाडु की एक टीम के तमाम उन्नीस सदस्यों के नाम के साथ श्रीमती लिखा हुआ था जो कि हर सदस्य के शादीशुदा होने का संकेत था।
अपने मुख्य आदिवासी इलाके झारखंड से अलग होने के बाद बाकी बचे बिहार को लेकर आदिवासी समुदाय की चर्चा कम होती है। लेकिन बिहार के जो नृत्य कलाकार यहां पहुंचे उस टीम के नाम देखें तो सारे के सारे नाम झारखंड के आदिवासी समुदाय के लगते हैं- एक्का, लकरा, तिग्गा, उरांव, टोप्पो, कुजूर, मिंज, बारा, केरकेट्टा वगैरह।
गुजरात में बसे हुए अफ्रीकी मूल के एक सिद्दी समुदाय के आदिवासी कलाकारों के नाम देखें तो वे सारे के सारे मुस्लिम भी दिखते हैं, इमरान, बादशाह, बिलालभाई, साजिद सुल्तान, बाबूभाई, तौसीफभाई, हुमायूं, शब्बीर, शेख मूसा, रसीदभाई, गुलाम असलम, नसीरभाई, और मोहम्मद सलीम।
हिमाचल के एक नर्तक दल के नाम देखें तो वे लाल या चंद पर खत्म होने वाले थे, और महिलाओं और लड़कियों के नाम देवी और कुमारी पर खत्म हो रहे थे। इनके साथ जातिसूचक नाम नहीं थे। जम्मू से आई हुई टीम के दो दर्जन लोगों में से तकरीबन सारे ही मुस्लिम थे, लेकिन उनके बीच दो हिन्दू नाम भी दिख रहे थे।
त्रिपुरा से आई हुई टीम शायद एक ही जाति की थी, और दर्जन भर से अधिक लोगों में से हर एक का जातिनाम देबबर्मा था। मध्यप्रदेश की एक और टीम एक ही जनजाति की थी, और उसमें टीम लीडर सलमान खान को छोड़ दें तो हर कलाकार का जातिनाम भील था। पश्चिम बंगाल के नृत्य दल के लोगों के नाम देखें तो उनमें आधे नाम झारखंड के आदिवासी समुदायों के दिखते थे, टुडू, मुरमू, सोरेन, हंसदा, किस्कू, और शायद इनका झारखंड और बंगाल का पड़ोसी प्रदेश होने से कुछ लेना-देना था।
सिक्किम के एक दल के दस नामों में से नौ नौ नामों के साथ एक ही जातिनाम, लिम्बू का जिक्र था।
लोगों के नाम कैसे रखे जाते हैं, उनके उपनाम कैसे रहते हैं, उनके नाम के साथ परिवार या पिता, या माता के नाम का जिक्र किस तरह होता है, यह एक बड़ा दिलचस्प समाजशास्त्रीय अध्ययन है, छत्तीसगढ़ आए देश भर के कलाकारों के नामों से यह एक झलक मिली है। ([email protected])
जोगी-भाजपा साथ-साथ...
जोगी पार्टी की भाजपा से नजदीकियां बढ़ती जा रही हैं। म्युनिसिपल चुनाव में जोगी पार्टी के सहयोग के दम पर गौरेला, पेंड्रा, रतनपुर और कोटा में भाजपा ने जीत हासिल की। यहां कांग्रेस ने जोगी पार्टी के लोगों को तोडऩे की कोशिश भी की, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिल पाई। कोटा और मरवाही विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व जोगी दंपत्ति करते हैं। वैसे तो जोगी परिवार की कांग्रेस में शामिल होने की खबर उड़ती रहती है। मगर यह परिवार भाजपा के ज्यादा नजदीक रहा है।
बलौदाबाजार में भी जोगी पार्टी के विधायक हैं। यहां उम्मीद की जा रही थी कि जोगी पार्टी के पार्षदों का कांग्रेस को साथ मिलेगा और नगर पालिका में कांग्रेस का कब्जा हो जाएगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। नगर पालिका में जोगी पार्टी के पार्षदों का समर्थन भाजपा को मिल गया और भाजपा का नगर पालिका अध्यक्ष पद पर कब्जा हो गया। जोगी की जाति की जांच के मामले को भाजपा सरकार ने 15 साल तक लटकाए रखा। जबकि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनते ही जांच में तेजी आई। ऐसे में जोगी पार्टी का भाजपा को साथ मिल रहा है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अपनी समझ भी इस्तेमाल करें...
छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने सिगरेट की खुली बिक्री पर रोक लगा दी है। अब जिसे खरीदना हो वह पूरा पैकेट ही खरीदे। मतलब यह कि कोई सिगरेट पीने की लत छोडऩे की कोशिश कर रहे हों, और एक बार में एक सिगरेट खरीद रहे हों, तो वह मुमकिन नहीं है। अब पूरे का पूरा पैकेट लेना होगा, और आदत छोडऩे की हसरत अगर हो, तो उस हसरत को ही छोडऩा होगा। इसके पीछे तर्क यह है कि सिगरेट के पैकेट पर तो उससे कैंसर होने की चेतावनी दर्ज रहती है, लेकिन सिगरेट पर अलग से ऐसी कोई चेतावनी नहीं रहती, और एक सिगरेट खरीदकर पीने वाले को सावधानी का ऐसा संदेश नहीं मिलता।
कोई कानून किस तरह अपने मकसद को ही शिकस्त देने वाला हो सकता है, यह उसकी एक शानदार मिसाल है। यह छत्तीसगढ़ सरकार का अपना फैसला नहीं है, बल्कि बीते बरस केन्द्र सरकार ने ही कोटपा नाम के इस कानून को लागू किया है जिसके तहत सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू प्रोडक्ट की बिक्री पर कुछ प्रतिबंध और लागू किए गए हैं, और इन्हें तोडऩे पर बड़े जुर्माने का इंतजाम किया गया है। अभी प्रतिबंधित इलाकों में सिगरेट पीने पर भी दो सौ रूपए का जुर्माना है, और स्कूल-कॉलेज के आसपास सिगरेट-बीड़ी-तम्बाकू की बिक्री पर भी। केन्द्र सरकार ने सिगरेट की खुली बिक्री पर जुर्माना बढ़ाते हुए इस बात को अनदेखा किया है कि देश में करीब 70 फीसदी सिगरेट खुली बिकती है, और पैकेट खरीदने की ताकत भी कम लोगों में रहती है। अब यह नया जुर्माना एक तो लागू करना नामुमकिन है, दूसरी तरफ यह लोगों के जेब में हमेशा पैकेट को बनाए रखेगा जिससे उनका सिगरेट पीना बढ़ेगा। छत्तीसगढ़ सरकार को केन्द्र सरकार के इस नियम को लागू करते हुए अपनी खुद की समझ का भी इस्तेमाल करना चाहिए। ([email protected])
निर्बाध ताकत ने पूरा भ्रष्ट कर दिया
अंग्रेजी में कहावत है-पॉवर करप्ट्स एण्ड एब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स एब्सोल्यूटली। यानी ताकत भ्रष्ट करता है और निर्बाध ताकत पूरी तरह भ्रष्ट करती है। यह कहावत रमन सिंह के पीए ओपी गुप्ता और अरूण बिसेन पर एकदम फिट बैठती है। अरूण बिसेन कंसोल नाम की कंपनी से रिश्तों और, पत्नी की नियम विरूद्ध नियुक्ति को लेकर सुर्खियों में रहे हैं, तो रिंकू खनुजा आत्महत्या मामले में पुलिस एक बार उनसे पूछताछ कर चुकी है। गुप्ता के कारनामे तो और भी भयंकर हैं। उनके खिलाफ नाबालिग ने बरसों से लगातार यौन शोषण का मामला दर्ज कराया है। आरोप है कि गुप्ता बरसों से पढ़ाने के नाम पर एक नाबालिग स्कूली छात्रा को रखकर उसका यौन शोषण कर रहे थे।
पुलिस फिलहाल ओपी गुप्ता से पूछताछ कर रही है। रमन राज में मामूली हैसियत के दोनों पीए गुप्ता और बिसेन की ताकत सीनियर आईएएस अफसरों से कम नहीं थी। मंतूराम पवार प्रकरण हो, या फिर निर्दलीय प्रत्याशियों की दबावपूर्वक नाम वापसी का मामला हो, रमन सिंह के दोनों पीए का नाम चर्चा में रहा है। इन शिकायतों को नजरअंदाज करना आज रमन सिंह के लिए भारी पड़ रहा है। सौम्य और मिलनसार रमन सिंह की छवि को भी नुकसान पहुंचा है। सुनते हैं कि ये दोनों सहायक आर्थिक रूप से बेहद ताकतवर भी हैं। ओपी गुप्ता का राजेन्द्र नगर में भव्य बंगला है, तो अरूण बिसेन करोड़पतियों-अरबपतियों की कॉलोनी स्वर्णभूमि में निवास करते हैं। भाजपा के कई ताकतवर लोग इन दोनों के खिलाफ रहे हैं। मगर दोनों का बाल बांका नहीं हो पाया। अब जब दोनों जांच-पड़ताल के घेरे में आए हैं, तो पार्टी के लोग चैन की सांस ले रहे हैं। कहा भी जाता है कि जैसी करनी, वैसी भरनी।
प्रेतनी बाधा से सीडी तक
वैसे ओपी गुप्ता इसके पहले भी बस्तर की एक स्थानीय निर्वाचित नेत्री के साथ रिश्तों को लेकर पार्टी और सरकार में सबकी जानकारी में विवाद में थे, और वे खुद आपसी बातचीत में मंजूर करते थे कि प्रेतनी-बाधा दूर करने में करोड़ों रुपये लग गए थे। दूसरी तरफ अरूण बिसेन का सीएम हाऊस में जलवा देखकर लोग हक्काबक्का रहते थे जब वे एक सबसे महत्वपूर्ण विभाग चला रहे आईएएस राजेश टोप्पो को राजेश कहकर ही बुलाते थे। इन्हीं दोनों के नाम मुंबई जाकर सेक्स-सीडी देखने से लेकर अंतागढ़ में पैसा पहुंचाने तक, चुनाव से नाम वापिस लेने तक के फोन जैसे कई मामलों में उलझे ही रहे।
भीतरघात की शिकायत
म्युनिसिपल चुनाव में भाजपा के कई बड़े नेताओं के खिलाफ भीतरघात की शिकायतें सामने आई है। इनमें पूर्व विधायक श्रीचंद सुंदरानी भी हैं। सुनते हैं कि रायपुर के एक वार्ड प्रत्याशी ने शिकायत की है कि श्रीचंद ने उनके खिलाफ काम किया है। प्रत्याशी ने पार्टी के प्रमुख नेताओं को मौखिक रूप से श्रीचंद की चुनाव में गतिविधियों की जानकारी दी है। यह भी बताया गया कि श्रीचंद ने पार्टी के प्रत्याशी के बजाए निर्दलीय को सपोर्ट किया। भाजयुमो के महामंत्री संजूनारायण सिंह ठाकुर ने भी कई नेताओं के खिलाफ भीतरघात की शिकायत की है। हालांकि कुछ नेताओं के खिलाफ कार्रवाई तो की गई है, लेकिन बड़े नेताओं के खिलाफ कार्रवाई का हौसला संगठन नहीं जुटा पा रहा है। ऐसे में देर सबेर मामला गरमा सकता है।
कांग्रेस की बड़ी कामयाबी
म्युनिसिपल चुनाव में कांग्रेस को अच्छी सफलता मिली है। प्रदेश के 10 में से 9 म्युनिसिपलों में कांग्रेस के मेयर-सभापति बने हैं। कोरबा में शुक्रवार को चुनाव हैं। कांग्रेस नेता मानकर चल रहे हैं कि कोरबा में भी कांग्रेस का मेयर-सभापति बनेगा। इस सफलता के बाद भी कांग्रेस में शिकवा-शिकायतों का दौर चल रहा है। कहा जा रहा है कि पार्टी ने अनारक्षित सीटों में भी आरक्षित वर्ग के नेताओं को मेयर बना दिया। पंचायत चुनाव में वैसे भी अनारक्षित वर्ग के नेताओं की भागीदारी नहीं के बराबर रह गई है। क्योंकि दो को छोड़कर बाकी सभी जिला पंचायत के अध्यक्ष के पद आरक्षित हो गए हैं।
असंतुष्ट नेता बताते हैं कि पिछले चुनाव में सैद्धांतिक रूप से फैसला लिया गया कि अनारक्षित सीटों पर सामान्य वर्ग से प्रत्याशी उतारने का फैसला लिया गया था। मेयर पद के लिए सामान्य वर्र्ग के प्रत्याशी उतारने के अच्छा संदेश भी गया। पार्टी को सरकार न रहने के बावजूद सफलता भी मिली। अब जब डायरेक्ट इलेक्शन नहीं हुए हैं ऐसे में अनुभवी और योग्य सामान्य वर्ग के नेताओं को नजर अंदाज कर दिया गया। खुद सीएम के विधानसभा क्षेत्र पाटन के कुम्हारी में ऐसा हुआ है। दुर्ग को छोड़कर कहीं भी सामान्य वर्ग से मेयर नहीं बन पाया। पार्टी के आलोचक मान रहे हैं कि सरकार बनने के बाद जातिवादी ताकतें हावी हो गई। जिनके दबदबे के चलते पिछले चुनाव की तरह कोई निर्णय नहीं लिया जा सका।
सुनते हैं कि पार्टी के कुछ नेता ने एक सीनियर विधायक को इसके लिए तैयार कर कर रहे हैं और उनके जरिए जल्द ही पार्टी हाईकमान को इससे अवगत कराया जाएगा।
उधर चंद्राकर की पहल...
इससे परे भाजपा में पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर सामान्य वर्ग के नेताओं को संगठन में पर्याप्त महत्व मिले, इसके लिए मुखर रहे हैं। चंद्राकर ने धमतरी जिलाध्यक्ष के चयन के मौके पर बेबाकी से अपनी राय रखी थी। उन्होंने कहा कि जिले की तीन सीटों में खुद समेत दो पिछड़े वर्ग के विधायक हैं। एक सीट अजजा वर्ग के लिए आरक्षित है। ऐसे में संगठन में सामान्य वर्ग से अध्यक्ष बनाए जाने से संंतुलन बना रह सकता है और पार्टी की ताकत बढ़ सकती है। चंद्राकर के सुझाव की पार्टी के भीतर काफी प्रशंसा भी हो रही है। चंद्राकर के सुझाव को पार्टी बाकी जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में ध्यान रख सकती है।
गुरूचरण होरा का योगदान
एजाज ढेबर की बड़ी जीत में यूनियन क्लब के अध्यक्ष गुरूचरण सिंह होरा की अहम भूमिका रही है। सात में से छह निर्दलीय पार्षदों को गुरूचरण ने अपने होटल में रख लिया था। ये पार्षद पूरे समय उनकी निगरानी में रहे। निर्दलीय पार्षद गुरूचरण के साधन-संसाधन और खातिरदारी से इतने खुश थे कि वे एजाज को छोड़कर किसी दूसरे के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। वैसे तो गुरूचरण भाजपा के सक्रिय सदस्य हैं। पेशे से इंजीनियर गुरूचरण विधानसभा चुनाव के ठीक पहले नौकरी छोड़कर विधिवत भाजपा में शामिल हो गए थे। उन्होंने रायपुर उत्तर से टिकट की दावेदारी भी की थी।
मगर मेयर चुनाव में गुरूचरण की सक्रियता से भाजपा नेता हक्का-बक्का हैं। वैसे तो खेल संघों की राजनीति गुरूचरण के इर्द-गिर्द घूमती है। राज्य बनने के बाद वे तत्कालीन सीएम अजीत जोगी के करीबी माने जाते थे। तब जोगी को ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बनवाने में बशीर अहमद खान और गुरूचरण सिंह होरा की अहम भूमिका रही। इसके बाद वे सीएम रमन सिंह के करीबी हो गए। रमन सिंह की ओलंपिक संघ अध्यक्ष पद पर ताजपोशी भी गुरूचरण के होटल में हुई थी। बशीर और गुरूचरण की जोड़ी ने रमन सिंह को हाल ही में ओलंपिक संघ से बेदखल भी किया।
मिलनसार और अपार संपर्कों के धनी गुरूचरण हमेशा सीएम हाऊस के नजदीक रहे हैं। उन्हें अब भूपेश बघेल का नजदीकी माना जाने लगा है।
मृत्युंजय और अनिल दुबे
बहुत कम समय होने के बावजूद भाजपा के मेयर प्रत्याशी मृत्युंजय दुबे ने निर्दलीय पार्षदों और कांग्रेस में सेंधमारी की भरपूर कोशिश की। निर्दलीय पार्षदों ने यह कहकर हाथ जोड़ लिए कि अब बहुत देर हो चुकी है। वे कांग्रेस के पक्ष में मतदान के लिए वचनबद्ध हैं। अलबत्ता, कांग्रेस का एक पार्षद जरूर पुराने संबंधों को देखते हुए भाजपा के साथ आने के लिए तैयार हो गया था।
सुनते हैं कि मृत्युंजय के बड़े भाई अनिल दुबे ने भी कांग्रेस में कोशिश की। यह खबर उड़ी कि कांग्रेस के कई पार्षद एजाज की उम्मीदवारी से खुश नहीं हैं। इसके बाद मतदान के घंटेभर पहले भाजपा के पक्ष में लाबिंग तेज हो गई। अनिल दुबे को एक महिला पार्षद के पति ने भरोसा दिलाया था कि उनकी पत्नी मृत्युंजय दुबे के पक्ष में मतदान करेंगी। इसके लिए उन्होंने किसी तरह की डिमांड भी नहीं की थी। अलबत्ता, पार्षद पति को आशंका थी कि कांग्रेस के लोग उन पर शक कर सकते हैं। उन्होंने अपनी दुविधा अनिल दुबे को बताई, तो अनिल दुबे ने उन्हें अपने दल का साथ न छोडऩे की नसीहत देकर दुविधा से बचा लिया।
भाजपा की यही जीत कि...
रायपुर म्युनिसिपल के मेयर चुनाव में भाजपा को जीत की उम्मीद तो थी नहीं, पार्टी का कोई भी पार्षद नहीं छिटका, यही बड़ी उपलब्धि रही। चूंकि निर्दलियों को अपने पक्ष में करने की कवायद इतनी देर से हुई कि कोई भी निर्दलीय पार्षद भाजपा के साथ नहीं जुड़ सका। पार्टी के रणनीतिकारों के पास इस बात की पुख्ता जानकारी थी कि भाजपा के 4 से 5 पार्षद क्रॉस वोटिंग कर सकते हैं। चर्चा यह भी रही कि इन पार्षदों को एडवांस भी दिया जा चुका है। बाद में खुद बृजमोहन अग्रवाल ने कमान संभाली और सभी पार्षदों को एकजुट रखने में कामयाब रहे।
सुनते हैं कि भाजपा पार्षदों के पिकनिक से लौटने के बाद चुनाव के दिन सुबह परम्परा गार्डन में ठहराया गया था। बृजमोहन अग्रवाल और राजेश मूणत पार्षदों को मतदान के तौर तरीके सिखाते रहे। पार्षदों को यह भी संकेत दिया गया कि किसी ने कांग्रेस को वोट देने के लिए प्रॉमिस कर दिया है, तो भी उन्हें डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह पता लगाना संभव नहीं है कि किस पार्षद ने किसको वोट दिए हैं।
खास बात यह है कि निर्दलीय पार्षद अमर बंसल भी वहां पहुंच गए उन्होंने भाजपा पार्षदों के साथ चाय-नाश्ता किया और भरोसा दिलाकर गए कि वे भाजपा को ही वोट करेंगे। बंसल को मिलाकर 30 वोट मिलने की उम्मीद थी, लेकिन मेयर प्रत्याशी मृत्युंजय दुबे को 29 मत ही हासिल हुए। अमर बंसल कसम खाते फिर रहे हैं कि उन्होंने भाजपा को ही वोट दिए हैं। मगर भाजपा के लोग उन पर भरोसा नहीं जता पा रहे हैं, क्योंकि वे शायद कुछ इसी तरह का आश्वासन कांग्रेस के नेताओं को भी दे चुके थे।
भाजपा की यही जीत कि...
रायपुर म्युनिसिपल के मेयर चुनाव में भाजपा को जीत की उम्मीद तो थी नहीं, पार्टी का कोई भी पार्षद नहीं छिटका, यही बड़ी उपलब्धि रही। चूंकि निर्दलियों को अपने पक्ष में करने की कवायद इतनी देर से हुई कि कोई भी निर्दलीय पार्षद भाजपा के साथ नहीं जुड़ सका। पार्टी के रणनीतिकारों के पास इस बात की पुख्ता जानकारी थी कि भाजपा के 4 से 5 पार्षद क्रॉस वोटिंग कर सकते हैं। चर्चा यह भी रही कि इन पार्षदों को एडवांस भी दिया जा चुका है। बाद में खुद बृजमोहन अग्रवाल ने कमान संभाली और सभी पार्षदों को एकजुट रखने में कामयाब रहे।
सुनते हैं कि भाजपा पार्षदों के पिकनिक से लौटने के बाद चुनाव के दिन सुबह परम्परा गार्डन में ठहराया गया था। बृजमोहन अग्रवाल और राजेश मूणत पार्षदों को मतदान के तौर तरीके सिखाते रहे। पार्षदों को यह भी संकेत दिया गया कि किसी ने कांग्रेस को वोट देने के लिए प्रॉमिस कर दिया है, तो भी उन्हें डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह पता लगाना संभव नहीं है कि किस पार्षद ने किसको वोट दिए हैं।
खास बात यह है कि निर्दलीय पार्षद अमर बंसल भी वहां पहुंच गए उन्होंने भाजपा पार्षदों के साथ चाय-नाश्ता किया और भरोसा दिलाकर गए कि वे भाजपा को ही वोट करेंगे। बंसल को मिलाकर 30 वोट मिलने की उम्मीद थी, लेकिन मेयर प्रत्याशी मृत्युंजय दुबे को 29 मत ही हासिल हुए। अमर बंसल कसम खाते फिर रहे हैं कि उन्होंने भाजपा को ही वोट दिए हैं। मगर भाजपा के लोग उन पर भरोसा नहीं जता पा रहे हैं, क्योंकि वे शायद कुछ इसी तरह का आश्वासन कांग्रेस के नेताओं को भी दे चुके थे।
मृत्युंजय और अनिल दुबे
बहुत कम समय होने के बावजूद भाजपा के मेयर प्रत्याशी मृत्युंजय दुबे ने निर्दलीय पार्षदों और कांग्रेस में सेंधमारी की भरपूर कोशिश की। निर्दलीय पार्षदों ने यह कहकर हाथ जोड़ लिए कि अब बहुत देर हो चुकी है। वे कांग्रेस के पक्ष में मतदान के लिए वचनबद्ध हैं। अलबत्ता, कांग्रेस का एक पार्षद जरूर पुराने संबंधों को देखते हुए भाजपा के साथ आने के लिए तैयार हो गया था।
सुनते हैं कि मृत्युंजय के बड़े भाई अनिल दुबे ने भी कांग्रेस में कोशिश की। यह खबर उड़ी कि कांग्रेस के कई पार्षद एजाज की उम्मीदवारी से खुश नहीं हैं। इसके बाद मतदान के घंटेभर पहले भाजपा के पक्ष में लाबिंग तेज हो गई। अनिल दुबे को एक महिला पार्षद के पति ने भरोसा दिलाया था कि उनकी पत्नी मृत्युंजय दुबे के पक्ष में मतदान करेंगी। इसके लिए उन्होंने किसी तरह की डिमांड भी नहीं की थी। अलबत्ता, पार्षद पति को आशंका थी कि कांग्रेस के लोग उन पर शक कर सकते हैं। उन्होंने अपनी दुविधा अनिल दुबे को बताई, तो अनिल दुबे ने उन्हें अपने दल का साथ न छोडऩे की नसीहत देकर दुविधा से बचा लिया।
गुरूचरण होरा का योगदान
एजाज ढेबर की बड़ी जीत में यूनियन क्लब के अध्यक्ष गुरूचरण सिंह होरा की अहम भूमिका रही है। सात में से छह निर्दलीय पार्षदों को गुरूचरण ने अपने होटल में रख लिया था। ये पार्षद पूरे समय उनकी निगरानी में रहे। निर्दलीय पार्षद गुरूचरण के साधन-संसाधन और खातिरदारी से इतने खुश थे कि वे एजाज को छोड़कर किसी दूसरे के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। वैसे तो गुरूचरण भाजपा के सक्रिय सदस्य हैं। पेशे से इंजीनियर गुरूचरण विधानसभा चुनाव के ठीक पहले नौकरी छोड़कर विधिवत भाजपा में शामिल हो गए थे। उन्होंने रायपुर उत्तर से टिकट की दावेदारी भी की थी।
मगर मेयर चुनाव में गुरूचरण की सक्रियता से भाजपा नेता हक्का-बक्का हैं। वैसे तो खेल संघों की राजनीति गुरूचरण के इर्द-गिर्द घूमती है। राज्य बनने के बाद वे तत्कालीन सीएम अजीत जोगी के करीबी माने जाते थे। तब जोगी को ओलंपिक संघ का अध्यक्ष बनवाने में बशीर अहमद खान और गुरूचरण सिंह होरा की अहम भूमिका रही। इसके बाद वे सीएम रमन सिंह के करीबी हो गए। रमन सिंह की ओलंपिक संघ अध्यक्ष पद पर ताजपोशी भी गुरूचरण के होटल में हुई थी। बशीर और गुरूचरण की जोड़ी ने रमन सिंह को हाल ही में ओलंपिक संघ से बेदखल भी किया।
मिलनसार और अपार संपर्कों के धनी गुरूचरण हमेशा सीएम हाऊस के नजदीक रहे हैं। उन्हें अब भूपेश बघेल का नजदीकी माना जाने लगा है।
सबके चक्कर में उजागर हो गए...
रायपुर के तीनों कांग्रेस विधायकों ने मेयर पद के लिए किसका नाम सुझाया था, यह साफ नहीं है। मगर दावेदारों को यह जरूर पता लग गया कि कौन उनके समर्थन में हैं, और कौन विरोध में। सुनते हैं कि दावेदार आपस में विधायकों की गतिविधियों को एक-दूसरे से साझा कर रहे थे। इन सबके चक्कर में एक सीनियर विधायक एक्सपोज भी हो गए।
हुआ यूं कि पिकनिक पर जाने से पहले मेयर के एक दावेदार एक सीनियर विधायक से मिलने उनके घर गए। दावेदार ने उनसे अपने लिए लॉबिंग करने का आग्रह किया। सीनियर विधायक ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे पूरी तरह उनके साथ हैं और निर्दलियों को अपने पाले में करने के लिए टिप्स भी दिए। विधायक के समर्थन का भरोसा मिलने के बाद दावेदार, मेयर पद के दूसरे दावेदार से मिलने पहुंचे। दोनों के बीच चर्चा चल रही थी कि सीनियर विधायक का फोन दूसरे दावेदार के पास आया और उन्होंने अपने पास समर्थन मांगने के लिए आए मेयर के दावेदार से चर्चा का ब्यौरा भी दे दिया।
दोनों दावेदारों ने एक-दूसरे से सीनियर विधायक के साथ हुई बातचीत साझा की। दिलचस्प बात यह है कि यह सब सीनियर विधायक को पता ही नहीं चला और वे सभी को अपना बताने के चक्कर में एक्सपोज हो गए। इसी तरह एक अन्य विधायक के किस्से को भी पार्टी केे लोग चटकारे लेकर सुना रहे हैं। यह विधायक एक दावेदार के घर दो-तीन दिनों तक घंटों मीटिंग कर मेयर बनाने के लिए लॉबिंग करने का दिखावा करते रहे। मगर जिसके लिए लॉबिंग कर रहे थे, उसका नाम ही आगे नहीं बढ़ाया। यह बात भी दावेदार के कानों तक पहुंच गई।
चर्चा यह है कि तीनों विधायक इस कोशिश में थे कि मेयर का दावेदार ऐसा हो, जो भविष्य में उनके लिए चुनौती न बन सके। यानी मेयर पद के लिए एजाज ढेबर को चुपचाप समर्थन दे दिया। ढेबर रायपुर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र से पार्षद बने हैं और दक्षिण सीट भाजपा के पास है। ऐसे में ढेबर तीनों विधायकों के लिए चुनौती नहीं है। जबकि मेयर के अन्य दावेदार ज्ञानेश शर्मा, विकास उपाध्याय के लिए, नागभूषण राव और श्रीकुमार मेनन, पूर्व मंत्री सत्यनारायण शर्मा के लिए चुनौती बन सकते थे। इस पूरे घटनाक्रम से एक बात तो साफ हो गई कि दो विधायकों से मेयर पद के दावेदार से खुश नहीं हैं।
दुर्ग संभाग और भाजपा
दुर्ग संभाग में अधिकांश जगहों पर भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया है। कुछ जगह पर तो भाजपा बढ़त के बाद भी अपना अध्यक्ष नहीं बना पाई। भाजपा में प्रत्याशी चयन को लेकर तनातनी चलती रही। संभाग में बुरी हार के लिए पार्टी के भीतर पूर्व सीएम रमन सिंह और सरोज पाण्डेय की आलोचना हो रही है। राजनांदगांव-कवर्धा में रमन सिंह और दुर्ग में सरोज की एक तरफा चली है। सुनते हैं कि राजनांदगांव मेयर पद के लिए शोभा सोनी की जगह नए चेहरे को उतारने का सुझाव भी आया था, लेकिन पूर्व सीएम ने अपने कुछ करीबियों के कहने पर सुझाव को अनदेखा कर दिया।
हाल यह रहा कि नांदगांव में एक भाजपा पार्षद ने ही कांग्रेस के पक्ष में क्रॉस वोटिंग कर दी। यहां भाजपा की आसान हार हो गई। पूरे कवर्धा जिले में भाजपा एक भी जगह मुकाबले पर नहीं रही। डोंगरगढ़ में ज्यादा पार्षद होने के बावजूद पालिका अध्यक्ष का चुनाव हार गई। दुर्ग जिले का हाल यह रहा है कि एक भी म्युनिसिपल में पार्टी को जीत हासिल नहीं हो सकी। दिलचस्प बात यह है कि दुर्ग में हार पर बचाव के लिए सौदान सिंह आगे आए हैं। वे यह कहते सुने गए कि दुर्ग के वार्डों में पहले भी भाजपा पीछे रही है। ऐसे में अब असंतुष्ट नेता हार की भी समीक्षा करने की मांग से परहेज करने लग गए हैं।
छात्र आंदोलनों से परहेज!
सोशल मीडिया पर महज शब्दों से लोगों के दांत, नाखून, बदन की धारियां, और उनकी नीयत, सब कुछ उजागर हो जाते हैं। अभी जामिया मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, और जेएनयू को लेकर बहुत से लोगों को लग रहा है कि विश्वविद्यालयों को राजनीति से दूर रहना चाहिए, रखना चाहिए। ये लोग जिस विचारधारा के समर्थन में ऐसे परहेज की वकालत कर रहे हैं, उनके मां-बाप अगर उसी विचारधारा के थे, तो उन्होंने आपातकाल के वक्त, और उसके बाद छात्र आंदोलनों से ही, छात्र राजनीति से ही नेहरू की बेटी की सरकार को जाते देखा था, और उसका जश्न मनाया था। जिन छात्रों को वोट डालने का हक है, जिन विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दलों के अपने खुद के छात्र संगठनों के बैनरतले छात्रसंघ के चुनाव होते हैं, उनमें से भी कुछ दलों को आज विश्वविद्यालयों में राजनीति खटक रही है। ऐसे लोग आपातकाल के आलोचक रहे हैं, और उसके बाद की जनता सरकार के दौरान मीसाबंदियों की शक्ल में फायदा भी उठाया है। अब आज उन्हें लग रहा है कि छात्र आंदोलन मोदी सरकार से असहमति के साथ आगे बढ़ रहा है तो वे विश्वविद्यालयों में आंदोलनों के खिलाफ हो गए हैं। हिंदुस्तान केे इतिहास में अगर आपातकाल के वक्त छात्र आंदोलन न होते, तो जयप्रकाश नारायण के पीछे खड़े होने वाली भीड़ उतनी बड़ी न होती, और हो सकता है कि देश में आज भी आपातकाल चलते रहता। इसलिए अलग-अलग दौर में छात्र आंदोलनों का समर्थन और विरोध दर्ज होते चलता है। कम से कम उन लोगों को तो इसका विरोध नहीं करना चाहिए जो कि आपातकाल में उंगली भी कटाए बिना शहीद होकर पेंशन पा रहे हैं।
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चुनाव प्रभारी के अपने घर में...
बिलासपुर मेयर-सभापति के चुनाव में कांग्रेस को वाकओवर देने पर भाजपा ने विवाद शुरू हो गया है। यहां भाजपा बहुमत से ज्यादा दूर नहीं थी, बावजूद इसके उसने मैदान छोड़ दिया। इसको लेकर खुद पूर्व मंत्री अमर अग्रवाल पार्टी नेताओं के निशाने पर आ गए हैं। अमर अग्रवाल नगरीय निकाय चुनाव के लिए पूरे प्रदेश में पार्टी के प्रभारी थे। ऐसे में उनके खुद के शहर के म्युनिसिपल में पार्टी का बुरा हाल हो गया। इससे परे जगदलपुर में भाजपा बहुमत से बहुत पीछे थी। फिर भी पूरी दमदारी से मेयर का चुनाव लड़ी और कांग्रेस को भी तोडऩे की कोशिश की, यद्यपि इसमें सफलता नहीं मिल पाई।
इसके उलट बिलासपुर में एक दिन पहले तक पार्टी ने मेयर-सभापति का चुनाव लडऩे के लिए तैयारी पूरी कर ली थी। पार्टी पर्यवेक्षक प्रेमप्रकाश पाण्डेय भी वहां पहुंच गए थे। सुनते हैं कि मेयर के नाम को लेकर अमर अग्रवाल और धरमलाल कौशिक एकराय नहीं थे। फिर नांदगांव से ज्यादा बुरा हाल होने की आशंका थी।
नांदगांव में तो सिर्फ एक पार्षद ने क्रास वोटिंग की थी, लेकिन बिलासपुर में तो 4 से 5 भाजपा पार्षदों की क्रास वोटिंग के संकेत मिल गए थे। ये पार्षद अमर अग्रवाल की पसंद पर मुहर लगाने के लिए तैयार नहीं थे। हल्ला यह भी है कि धरमलाल कौशिक और प्रेमप्रकाश पाण्डेय, किसी भी दशा में मैदान छोडऩे के पक्ष में नहीं थे। ऐसे में अमर अग्रवाल ने सीधे सौदान सिंह से चर्चा की। फिर क्या था, सौदान के हस्तक्षेप के बाद पार्टी ने चुनाव लडऩे का इरादा छोड़ दिया।
राजनीति के कुछ जानकारों का यह मानना है कि जीतने की संभावना तो नहीं थी, लेकिन क्रास वोटिंग से पार्टी भीतर ही भीतर और टूट गई होती, विपक्ष में बैठी भाजपा के लोग भी एक-दूसरे के प्रति शक से भरे रहते, और चुनाव के बाद यह एक दूसरा नुकसान हुआ रहता। ऐसे में जंग न लडक़र सिपाहियों को जख्मी होने से बचाने, और दुश्मन खेमे में जाने से रोकने के लिए ऐसा किया गया होगा।
ऐसे लोगों को सजा दिलवाएं...
कल देश भर में केन्द्र सरकार और भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं की अपील पर नागरिकता-संशोधन कानून का समर्थन दर्ज करने के लिए एक टेलीफोन नंबर तय किया गया था जिस पर लोग एक मिस्डकॉल देकर यह काम कर सकते थे। जब खर्च न करना पड़े तो हिन्दुस्तानी लोग ऐसा मिस्डकॉल देते भी हैं। और लोगों को याद है कि कुछ बरस पहले जब देश भर में भाजपा ने सदस्यता अभियान चलाया था, तो उस वक्त भी ऐसी ही मिस्डकॉल से मेंबर बनाए गए थे, और उनकी गिनती भी जाहिर की गई थी, यह एक अलग बात है कि उसके बाद के चुनाव में भाजपा को उतने वोट भी नहीं मिले थे जितने सदस्य बनाने का उसका दावा था। अब नागरिकता-समर्थन का मामला थोड़ा सा ठीक रहता, लेकिन सोशल मीडिया ट्विटर पर जिस अश्लील किस्म के आकर्षक न्यौते देकर लोगों को इस टेलीफोन नंबर पर कॉल करने के लिए उकसाया गया, उसे देखकर सब लोग हक्का-बक्का हैं। क्या किसी एक गंभीर राजनैतिक-सामाजिक मुद्दे पर समर्थन जुटाने के लिए सेक्स के आकर्षण का सहारा लिया जाना चाहिए? अब इंसाफ तो यही कहता है कि जब तक यह साबित न हो जाए कि भाजपा ने ऐसा किया, तब तक यह मानना चाहिए कि पता नहीं किसने ऐसा किया। काल्पनिक रूप से तो यह भी मानना चाहिए कि भाजपा के विरोधियों ने भाजपा को बदनाम करने के लिए उसके दिए गए नंबर को सेक्स-न्यौतों के साथ जोडक़र, फ्री-इंटरनेट, फ्री-डेटा, फ्री-नेटफ्लिक्स, मुफ्त नागरिकता का लालच दिया। लेकिन कुल मिलाकर केन्द्र सरकार भाजपा के हाथ है, और उसे या तो अपने आपको ऐसे बाजारू तरीकों से अलग होने का भरोसा दिलाना चाहिए, और ट्विटर पर दर्ज ऐसे न्यौते पोस्ट करने वाले दसियों हजार लोगों के खिलाफ जुर्म कायम करना चाहिए कि उसने भाजपा जैसी बड़ी पार्टी का नाम बदनाम करने के लिए ऐसी साजिश की है। जिन लोगों ने ऐसे झांसे पोस्ट किए हैं, उनके पिछले महीनों के ट्वीट देखें, तो उनकी राजनीतिक विचारधारा साफ दिखती है, फिर भी यह भाजपा की जिम्मेदारी है, और भाजपा अगुवाई वाली केन्द्र सरकार का अधिकार है कि ऐसे लोगों को सजा दिलवाए जिन्होंने भाजपा को ऐसी बदनामी दिलवाई है।
स्थानीय कुर्सी, राष्ट्रीय सिफारिश
रायपुर मेयर को लेकर जंग चल रही है। एक-दो दावेदारों के नाम पर राष्ट्रीय नेताओं ने भी सिफारिश की है। सुनते हैं कि कांग्रेस के राष्ट्रीय महामंत्री वेणुगोपाल ने भी एक दावेदार के लिए सिफारिश की है। इसके विपरीत दो दावेदारों के खिलाफ पार्षदों को अपने पाले में करने के लिए प्रलोभन देने की शिकायत भी सीएम तक पहुंची है। बिलासपुर में रामशरण यादव का नाम चौंकाने वाला रहा। वैसे तो रामशरण मेयर और विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन दोनों में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इस बार वे पार्षद का चुनाव लड़े और जीते, लेकिन उन्हें मेयर बनाने में सीएम के साथ-साथ प्रभारी सचिव चंदन यादव की भूमिका भी रही है।
कामयाबी दिखती नहीं, और...
किसी भी देश-प्रदेश की सरकार हो, कुछ एक कुर्सियां ऐसी होती हैं जिनकी कामयाबी हवा की तरह ओझल रह जाती हैं, और जिनकी नाकामयाबी फिल्म शोले की पानी की टंकी पर चढ़े धर्मेन्द्र की तरह चीख-चीखकर दुनिया को बताती है। इनमें से एक कुर्सी सरकार के खुफिया विभाग की रहती है, और दूसरी कुर्सी सरकारी वकील की रहती है। केंद्र से लेकर राज्य तक, अगर खुफिया विभाग की खुफिया जानकारी के आधार पर कोई हमला टल जाता है, तो सरकारें उसका प्रचार नहीं कर पातीं। चूंकि विभाग का नाम और काम दोनों ही खुफिया रहता है, इसलिए उसकी कामयाबी बंद कमरे की रहती है, लेकिन अगर कोई बड़ी वारदात हो जाती है, तो विपक्ष से लेकर मीडिया तक देश में इंटेलीजेंस ब्यूरो पर चढ़ बैठते हैं, और राज्यों में भी वहां की खुफिया विभाग पर। इसी तरह केंद्र और राज्य सरकारों के सरकारी वकील लगातार इस दबाव में रहते हैं कि वे कोई भी मामला न हारें, क्योंकि उनके जीते हुए दर्जनों मामले सार्वजनिक जीवन में दर्ज नहीं होते, और उनके हारे हुए एक-एक मामले को लेकर सरकार के भीतर की गुटबाजी भी उन पर चढ़ बैठती है कि उनका काम बहुत खराब है, और सरकारी वकील को बदल देना चाहिए। सरकार के हर पहलू के जानकार लोग यह बात जानते हैं कि ये दोनों कुर्सियां किसी अस्पताल में सबसे गंभीर और नाजुक मरीजों को देखने वाले विशेषज्ञ डॉक्टर की कुर्सी जैसी रहती हैं जहां से जिंदा निकलने वाले मरीजों की किसी को याद नहीं रहती, और मरकर निकलने वाले मरीजों के परिवार के लोग रोते-पीटते दिखते हैं, और वे ही याद रहते हैं।
स्मार्ट सड़क और स्मार्ट नेता
रायपुर स्मार्ट सिटी की एक सड़क को स्मार्ट बनाने की दिशा में काम चल रहा है। फिलहाल सड़क तलाशने में ही अफसरों को दिक्कत हो रही है। सुनते हैं कि एक सड़क चिन्हित जरूर की गई है, लेकिन उसको लेकर विवाद चल रहा है। चर्चा है कि सड़क के किनारे सत्तारूढ़ दल के एक प्रभावशाली नेता की जमीन है। नेताजी की तरफ से भी सड़क को स्मार्ट बनाने के लिए काफी दबाव भी है। मगर ऊंचे ओहदे पर बैठे नेताजी के खिलाफ कई तरह की शिकायतें सीएम तक पहुंची है। ऐसे में अफसर उक्त सड़क को स्मार्ट बनाने का प्रस्ताव तैयार नहीं कर पा रहे हैं।
कुछ इसी तरह की स्थिति महाराजबंद तालाब के किनारे की सड़क की है। इस सड़क को स्मार्ट बनाया जा रहा है। यानी इस सड़क में अंडरग्राउंड डक, ड्रेनेज-सीवरेज और अंडरग्राउंड इलेक्ट्रिक-वाटर सिस्टम होगा। 25 साल तक इस सड़क की खुदाई नहीं हो सकी है। दिलचस्प बात यह है कि सड़क के आस-पास बसाहट नहीं है। चूंकि आगे महामाया मंदिर के आसपास की गरीब बस्तियां हैं इसलिए भारी वाहनों की आवाजाही भी कम रहेगी। ऐसे में सड़क तो सुरक्षित रहेगी ही। एक बात और, कि सड़क के किनारे भाजपा नेताओं ने जमीन खरीद ली है। यानी स्मार्ट सड़क से आम लोगों को फायदा हो न हो, भाजपा नेता की कौडिय़ों की जमीन करोड़ों की हो गई है।
कुछ अनौपचारिक सा नुक्कड़ टी-कैफे
बड़े-बड़े ब्रांड की कॉफी शॉप का बिल बड़ा-बड़ा बनता है। ऐसे में छत्तीसगढ़ में रायपुर से शुरू करके ऐसे टी-सेंटर शुरू हुए हैं जो कि कम दाम पर चाय-कॉफी और खाने-पीने के सामान रखते हैं। शहर के एक नौजवान प्रियंक पटेल ने ऐसा नुक्कड़ टी-कैफे तो शुरू किया ही है, उसके साथ सामाजिक सरोकार की कई बातों को जोड़ा भी है। वहां पर काम करने वाले जितने कर्मचारी हैं, वे या तो सुन-बोल नहीं सकते, या फिर वे थर्डजेंडर समुदाय के हैं। कुल मिलाकर ऐसे कर्मचारी जिन्हें आमतौर पर कोई काम पर न रखे, और जिनसे या तो लिखकर बात हो सकती है, या इशारों की जुबान में, वे ही वहां काम करते दिखते हैं। पहली बार वहां गए लोगों को कुछ अटपटा जरूर लगता है, लेकिन धीरे-धीरे बिना जुबान भी बात होने लगती है। लोगों को कागज पर लिखकर ऑर्डर देना होता है, और इशारों से ही बिल बन जाता है।
इसे शुरू करने वाले प्रियंक पटेल ने इसके भीतर तरह-तरह की रचनात्मक और साहित्यिक गतिविधियों के लिए भी एक कोना बनाया है, एक बुकशॉप बनाई है, और हैण्डलूम के कपड़ों की बिक्री का एक कोना भी है। जलविहार कॉलोनी में एक घर मेें ही मामूली फेरबदल करके, मामूली साज-सज्जा करके यह जिंदा जगह विकसित की गई है जहां समय-समय पर लोग कभी किसी का तजुर्बा सुनने के लिए जुटते हैं, तो कभी किसी की कविताओं को सुनने के लिए।
जंगल-अफसरों की टोली का मुखिया
एपीसीसीएफ सुधीर अग्रवाल आईएफएस एसोसिएशन के अध्यक्ष चुने गए। अरण्यक भवन परिसर में नववर्ष मिलन समारोह में सुधीर अग्रवाल और अन्य पदाधिकारियों को आईएफएस अफसरों ने बधाई दी। सुधीर से पहले नरसिम्हाराव एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। उनके पीसीसीएफ बनने के बाद सुधीर को सर्वसम्मति से अध्यक्ष की जिम्मेदारी सांैपी गई। पीसीसीएफ राकेश चतुर्वेदी ने सुधीर की कार्यशैली की प्रशंसा की और कहा कि उनके प्रयासों के फलस्वरूप ही 25 आईएफएस अफसरों को समय पर पदोन्नति दी जा सकी है।
एपीसीसीएफ (प्रशासन) का दायित्व संभाल रहे सुधीर अग्रवाल की साख बहुत अच्छी है। वे छत्तीसगढिय़ा हैं और रायपुर की पुरानी बस्ती के मूल रहवासी हैं। वे सरकार के अलग-अलग पदों पर काम कर चुके हैं। रमन सरकार में डायरेक्टर शहरी विकास पद पर रहते उन्होंने गरीबों के आवास निर्माण में भारी गड़बड़ी के सत्ता के इरादों पर पानी फेर दिया था। इसको लेकर उन्हें अमर अग्रवाल का कोपभाजन बनना पड़ा और ईमानदारी की उनकी इस कोशिश पर उल्टे सुधीर के खिलाफ ही विभागीय जांच बिठा दी गई थी। इसके बाद भी सुधीर का हौसला कम नहीं हुआ। बाद में उनके खिलाफ विभागीय जांच खत्म भी कर दी गई।
सुधीर की ईमानदार कोशिशों का नतीजा रहा कि प्रदेश में प्रधानमंत्री सड़क योजना आज पटरी पर है। एक समय ऐसा भी था जब केंद्र से पीएमजीएसवाय के मद में फंड मिलना बंद हो गया था। ग्रामीण सड़कों का काम तकरीबन रूक गया था। तब सुधीर की पीएमजीएसवाय सीईओ के पद पर पोस्टिंग की गई। वे पूरे चार साल इस पद पर रहे। उनके आने के बाद ग्रामीण सड़कों का पूरी रफ्तार से काम हुआ। अब एसोसिएशन के मुखिया के रूप में अपने कैडर के अफसरों की समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने और इसका निराकरण के लिए प्रयास करने की उन पर बड़ी जिम्मेदारी भी हैं।
कौन बनेगा करोड़पति, सॉरी महापौर...
कांग्रेस में रायपुर मेयर पद के दावेदारों में खींचतान चल रही है। सुनते हैं कि विधायकों ने भी अपनी पसंद प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया को बता दी है। हल्ला है कि कुलदीप जुनेजा ने एजाज ढेबर को मेयर बनाने की वकालत की है, तो विकास उपाध्याय ने श्रीकुमार मेनन को मेयर पद के लिए उपयुक्त बताया है। जबकि मौजूदा महापौर प्रमोद दुबे को पूर्व मंत्री सत्यनारायण शर्मा की पसंद माना जा रहा है। इससे परे प्रभारी मंत्री रविंद्र चौबे की राय ज्ञानेश शर्मा के पक्ष में दिख रही है। दिलचस्प बात यह है कि खुद सीएम भूपेश बघेल ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं। ऐसे में इनमें से कौन मेयर बनेगा, यह आंकलन करना कठिन हो गया है। यद्यपि अन्य म्युनिसिपलों के लिए यह फार्मूला तय किया गया है कि जिसके पक्ष में पार्षदों की संख्या ज्यादा रहेगी, उसे ही मेयर अथवा अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। पर रायपुर में कौन मेयर बनेगा, यह तो कह पाना अभी पार्टी नेताओं के लिए भी मुश्किल हो चला है।
छत्तिसगढिय़ा सबले बढिय़ा
आरपी मंडल के सीएस बनने के बाद कार्य संस्कृति कुछ हद तक बदली है। मंडल की पहली कलेक्टर-कॉफ्रेंस में उनके साथ डीजीपी डीएम अवस्थी और पीसीसीएफ राकेश चतुर्वेदी भी थे। उन्होंने संकेत दे दिए थे कि वे बाकी दोनों विभागों के मुखियाओं को साथ लेकर चलेंगे। नए साल के मौके पर भी तीनों अफसर सीएम को बधाई देने एक साथ सीएम हाउस पहुंचे थे। तीनों के बीच बेहतर तालमेल की झलक आदिवासी नृत्य महोत्सव में देखने को मिली।
सालों बाद पहला कार्यक्रम हुआ है जिसमें किसी तरह का कोई नुक्स नहीं निकला। मंडल और उनकी टीम की हौसला अफजाई का नतीजा यह रहा कि नीचे के अफसर-कर्मियों ने आदिवासी महोत्सव को सफल बनाने के लिए दिनरात एक कर दिए। संस्कृति सचिव सिद्धार्थ कोमल परदेशी का हाल यह रहा कि वे सुबह 5 बजे साइंस कॉलेज मैदान पहुंच जाते थे और रात 11 बजे घर लौटते थे। कई बार तो कार्यक्रम स्थल के कंट्रोल रूम में ही जाकर कपड़े बदलते थे।
आम लोगों के साथ-साथ देश दुनिया से आए कलाकारों ने भी आयोजन के इंतजामों की जमकर तारीफ की। महोत्सव में दल के साथ आए जम्मू-कश्मीर के सलाहकार बोर्ड के अलताफ हुसैन ने तो कहा कि इतना बेहतरीन प्रबंधन और आयोजन पहले कभी नहीं देखा है। उन्होंने कहा कि वे इसके लिए छत्तीसगढ़ सरकार और पुलिस प्रशासन को सलाम करते हैं। जम्मू कश्मीर के आदिवासी कलाकार जाते-जाते जय जोहार बोलकर प्रस्थान किए। इस अखबार ने छत्तीसगढ़ पुलिस के साथ कश्मीरी सुंदरियों के सेल्फी खींचने के नजारे छापे ही थे, और उससे देश भर में कई जगहों पर पुलिस की जो खराब छवि बन रही है, यहां का हाल उसका ठीक उल्टा रहा। हजारों खूबसूरत और प्रतिभाशाली महिला कलाकार आकर लौट गईं, और कोई अप्रिय चर्चा नहीं हुई। इस एक कार्यक्रम को लेकर प्रदेश के लोग बोल सकते हैं, छत्तिसगढिय़ा सबले बढिय़ा।
निर्दलियों की लॉटरी
मेयर के अप्रत्यक्ष चुनाव से किसी को फायदा हुआ हो, या नहीं लेकिन निर्दलीय पार्षदों की लाटरी निकल गई है। जहां बहुमत नहीं है वहां निर्दलियों की पूछपरख काफी हो रही है। उन्हें अपने पाले में करने के लिए दोनों के लोग हर संभव कोशिश कर रहे हैं। रायपुर में तो कांग्रेसियों के बीच यह चर्चा चल रही है कि जो निर्दलियों को अपने पक्ष में करेगा, उसे ही मेयर बनाया जाएगा। इसमें सच्चाई भले ना हो, लेकिन मेयर के दावेदार जिस तरह निर्दलियों को अपने पाले में करने के लिए संसाधन झोंक रहे हैं, उससे तो यही लग रहा है। एक खबर यह भी उड़ी है कि मेयर के एक दावेदार ने तो न सिर्फ ज्यादातर निर्दलियों बल्कि भाजपा के तीन पार्षदों को भी अपने लिए क्रास वोटिंग करने के लिए तैयार कर लिया है। इसके एवज में पार्षदों को उपकृत भी किया गया है। सुनते हैं कि पार्षदों ने उन्हें मना इसलिए नहीं किया कि कांग्रेस ने अभी तक अपने मेयर प्रत्याशी घोषित नहीं किए हैं। जरूरी नहीं है कि जिन्होंने उनके लिए कुछ किया है, उसे ही प्रत्याशी बनाया जाए। फिर भी भाजपा के लोग इस खबर से परेशान दिख रहे हैं। ([email protected])
जोगी अर्श से फर्श पर!
विधानसभा चुनाव के बाद से जोगी पार्टी का ग्राफ लगातार गिर रहा है। पार्टी ने लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा था। मगर दंतेवाड़ा और चित्रकोट विधानसभा उपचुनावों में प्रत्याशी उतारे थे। हाल यह रहा कि दोनों ही सीटों पर जोगी पार्टी के उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा सके। म्युनिसिपल चुनाव में जोगी पार्टी की तरफ से बढ़-चढ़कर दावे किए जा रहे थे, लेकिन प्रदेश के 2836 वार्डों में से 28 वार्डों में ही जोगी पार्टी को सफलता मिल पाई। यानी एक फीसदी से भी कम सीटों पर पार्टी को सफलता मिली है।
सुनते हैं कि जोगी पार्टी के जो पार्षद जीतकर आए हैं, उन पर भी पार्टी नेताओं का नियंत्रण नहीं रह गया है। ज्यादातर पार्षद अपनी सुविधा के अनुसार कांग्रेस या भाजपा का समर्थन कर रहे हैं। बलौदाबाजार में जोगी पार्टी के 3 पार्षद जीतकर आए हैं। यहां नगर पालिका अध्यक्ष बनवाने में जोगी पार्टी की भूमिका अहम होगी। मगर बलौदाबाजार के जोगी पार्टी के विधायक प्रमोद शर्मा ने कांग्रेस और भाजपा के लोगों को साफ तौर पर बता दिया है कि उन्हें सीधे पार्षदों से ही चर्चा करनी होगी। पार्टी के चुनाव चिन्ह पर जीत तो गए हैं, लेकिन वे समर्थन का फैसला खुद लेंगे।
अजीत जोगी जब कांग्रेस में थे, तो अपनी ताकत का अहसास कराते हुए अक्सर कहा करते थे कि कांग्रेस के बिना जोगी नहीं और जोगी के बिना कांग्रेस नहीं। उनका मानना था कि बिना जोगी के कांग्रेस का राज्य में कोई अस्तित्व नहीं है। मगर हुआ ठीक उल्टा, उनके पार्टी छोडऩे के बाद कांग्रेस 15 साल बाद सत्ता में आई। इसके बाद से कांग्रेस का ग्राफ बढ़ रहा है। इसके विपरीत जोगी का आधार सिमटता जा रहा है। कम से कम म्युनिसिपल चुनाव में तो यह साबित भी हो गया है। ऐसे में उनके विरोधी कहने लगे हैं कि कांग्रेस के बिना जोगी नहीं...
एक मोहभंग
छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी के मुखिया रहे कृषि वैज्ञानिक डॉ. संकेत ठाकुर ने कल सोशल मीडिया पर साल के आखिरी दिन राजनीति को बिदा करने की घोषणा की। लोग कुछ हैरान हुए कि अचानक ऐसा क्या हो गया? लेकिन म्युनिसिपल चुनावों में आम आदमी पार्टी का हाल देखने के बाद शायद उन्हें यह रास्ता सूझा हो। जो भी हो, राजनीति में, एक खासकर दलगत-चुनावी राजनीति में गए हुए भले लोगों का मोहभंग होना कोई नई बात नहीं है। छत्तीसगढ़ में ऐसे ही एक दूसरे भले इंसान को लेकर भी लोगों में अटकल लगते रहती है कि आखिर कब तक?
अब डॉ. संकेत ठाकुर के राजनीति छोडऩे की घोषणा उस वक्त आई है जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि छत्तीसगढ़ का दिल्ली पर कोई असर होगा, अरविंद केजरीवाल बगल के लगे हुए राज्यों में अपनी पार्टी को धूल चाटते देख चुके हंै, और छत्तीसगढ़ का वहां कोई असर नहीं है, फिर भी एक खबर तो बनती हैै, और यह खबर आम आदमी पार्टी के खिलाफ तो जाती है। कुछ अरसा पहले इस पार्टी की बस्तर की सबसे बड़ी नेता सोनी सोरी ने भी पार्टी छोड़ी थी। पिछले कुछ चुनावों में पार्टी किसी किनारे पहुंच नहीं पाई, और कोई किनारा नजर भी नहीं आ रहा है, इसलिए लोगों का हौसला पस्त है। छत्तीसगढ़ कुल मिलाकर दो पार्टियों का राज्य बना हुआ है, और जोगी की पार्टी भी पूरी तरह से हाशिए पर चली गई दिखती है। ([email protected])
कोरबा में मुमकिन तो है पर...
कांग्रेस सभी 10 म्युनिसिपलों में अपना मेयर-सभापति बनाने का दावा कर रही है। सीएम भूपेश बघेल पूरी दमदारी से यह बात कह भी चुके हैं। सिर्फ कोरबा में थोड़ी बहुत दिक्कत हो सकती है। क्योंकि यही एक म्युनिसिपल है जहां कांग्रेस, भाजपा से थोड़ी पीछे है। यद्यपि बहुमत किसी दल को नहीं है, फिर भी कांग्रेस के रणनीतिकार मानकर चल रहे हैं कि कोरबा में भी कांग्रेस का मेयर बनेगा। यहां कांग्रेस के 26, भाजपा को 31, जोगी कांग्रेस के 2 और 9 निर्दलीय पार्षद चुनकर आए हैं।
पार्टी ने सोच समझकर अनुभवी नेता सुभाष धुप्पड़ को मेयर चुनाव के लिए पर्यवेक्षक बनाया है। वे विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत के करीबी माने जाते हैं, तो सीएम का भी उन पर भरोसा है। वे अल्पमत को बहुमत में बदलने का कारनामा पहले भी कर चुके हैं। डायरेक्ट इलेक्शन के दौर में जब जोगेश लांबा कोरबा के मेयर बने थे तब कांग्रेस पार्षदों की संख्या भाजपा से कम थी।
तब सभापति के चुनाव में सुभाष धुप्पड़ की रणनीति के आगे भाजपा टिक नहीं पाई और सभापति पद पर कांग्रेस का कब्जा हो गया। अब तो प्रदेश में सरकार भी है। फिलहाल तो चार पार्षद पहले ही मंत्री जयसिंह अग्रवाल को समर्थन देने का वादा कर आए हैं। बाकियों से चर्चा चल रही है। ऐसे में पार्टी के रणनीतिकार मानकर चल रहे हैं कि इतिहास फिर दोहराया जाएगा।
अब कांगे्रस के भीतर कोरबा के मेयर को लेकर एक दुविधा यह है कि पार्टी के कुछ लोग वहां मंत्री जयसिंह अग्रवाल के एक विरोधी कांगे्रस पार्षद को मेयर बनाना चाहते हैं। उन्होंने सीएम तक कोशिश की है, लेकिन कोरबा संसदीय सीट के सबसे बड़े नेता, विधानसभाध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत ने पार्टी के भीतर यह साफ कर दिया है कि पार्टी के बाहर से पार्षदों को लाकर या लेकर महापौर बनाने की क्षमता आज सिर्फ जयसिंह में है, और कोई चाहे या न चाहे, जयसिंह की पसंद से ही पार्टी का मेयर बन सकता है। वैसे यह बात भी है कि जयसिंह अग्रवाल दशकों से सुभाष धुप्पड़ के करीबी रहे हुए हैं, और इन्हीं सब तालमेल को देखते हुए उन्हें कोरबा का जिम्मा दिया गया है।
टीएस की अगली पीढ़ी का लाँच
सरगुजा राजघराने के मुखिया टीएस सिंहदेव अब अपने भतीजे आदितेश्वर शरण सिंहदेव (आदि बाबा) को पंचायत चुनाव के जरिए चुनावी राजनीति में लांच करने जा रहे हैं। आदि बाबा के जिला पंचायत चुनाव मैदान में उतरने की चर्चा है। वे सरगुजा के जिला पंचायत क्रमांक-2 से प्रत्याशी हो सकते हैं। आदि बाबा ने अमेरिका से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की है और वे कुछ समय वहां एक निजी कंपनी में काम करते रहे हैं। नौकरी छोड़़कर आने के बाद वे सक्रिय राजनीति में आ गए। वे एआईसीसी के सदस्य भी हैं।
टीएस सिंहदेव के मंत्री बनने के बाद आदि बाबा अंबिकापुर में रहकर सिंहदेव के निर्वाचन क्षेत्र से जुड़े कामकाज में सहयोग करते हैं। वैसे तो पंचायत चुनाव दलीय आधार पर नहीं हो रहे हैं फिर भी पार्टी अधिकृत प्रत्याशियों की सूची जारी करेगी। जिला पंचायत का अध्यक्ष पद अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित है। ऐसे में चुनाव जीतने की स्थिति में आदि बाबा जिला पंचायत के उपाध्यक्ष ही बन सकते हैं।
छत्तीसगढ़ को नई पहचान
दिलाने वाला नृत्योत्सव
आदिवासी नृत्य महोत्सव की तारीफ देश-दुनिया में हो रही है। यह आयोजन देश में पहली बार हुआ है। न सिर्फ देश के बल्कि दुनिया के अलग-अलग देशों के आदिवासी कलाकारों ने अपनी पारंपरिक नृत्य कला का प्रदर्शन किया। इससे पहले तक पिछली सरकार में राज्योत्सव और अन्य मौकों पर गीत-संगीत, नृत्य के कार्यक्रम होते रहे हैं। इनमें सलमान खान, करीना कपूर जैसी फिल्मी हस्तियों पर ही करोड़ों रुपये फूंके गए थे, मगर वैसी तारीफ और सुर्खियां नहीं मिलीं, जैसे आदिवासी नृत्य महोत्सव की हो रही है।
सुनते हैं कि इस तरह के आयोजन का आइडिया छत्तीसगढिय़ा मूल के, अमरीका में बसे वैंकटेश शुक्ला का रहा है। वे साल में एक-दो बार छत्तीसगढ़ आते हैं। उनका दर्द यह रहा है कि छत्तीसगढ़ की समृद्धशाली आदिवासी नृत्य-परंपराओं को देश-दुनिया में कोई पहचान नहीं मिल पा रही है। उन्होंने पिछली सरकार के लोगों को भी इस तरह के आयोजन का सुझाव दिया था। मगर सरकार में शहरी-अभिजात्य सोच के दबदबे के चलते उनके इस सुझाव पर ध्यान नहीं दिया गया। सरकार बदलने के बाद तीन-चार माह पहले यहां आए, तो उन्होंने फिर से आदिवासी नृत्य महोत्सव के आयोजन का सुझाव दिया। भूपेश बघेल की खुद आदिवासी कला-परंपराओं को आगे बढ़ाने की सोच रही है। उन्हें आदिवासी कला को लेकर आयोजन को अंतराष्ट्रीय स्वरूप देने का आइडिया जच गया। फिर क्या था, उन्होंने अपने करीबी अफसरों को इसकी कार्ययोजना तैयार करने कहा।
महोत्सव के आयोजन का भार संस्कृति विभाग को सौंपा गया। फंड की बड़ी चिंता थी, क्योंकि इस आयोजन में काफी खर्च होना था। तब सरकार के रणनीतिकारों ने इसके लिए एनएमडीसी से चर्चा की। एनएमडीसी को माइनिंग लीज की अवधि समय से पहले ही बढ़ा दी गई। इससे एनएमडीसी प्रबंधन राज्य सरकार से काफी उपकृत है।
सीएमडी एन बैजेंद्र कुमार ने व्यक्तिगत रूचि लेकर महोत्सव के लिए सीएसआर मद से साढ़े सात करोड़ उपलब्ध करा दिए। इसके बाद युद्ध स्तर पर कार्यक्रम की तिथि तय कर अलग-अलग देशों के दूतावास के जरिए आदिवासी कलाकारों को आमंत्रण पत्र भेजा गया। पहले तो कई बड़े लोग इसको लेकर नाक-भौंह सिकोड़ रहे थे। कार्यक्रम के आयोजन की सफलता पर सवाल खड़े किए जा रहे थे, लेकिन जैसे ही देश-दुनिया के कलाकारों ने छत्तीसगढ़ की धरती पर कदम रखा पूरा माहौल ही बदल गया। कपकपाती ठंड में लोग आदिवासी नृत्य देखने के लिए उमड़ पड़े हैं, जो लोग पहले नृत्य के आयोजन को लेकर सवाल खड़े कर रहे थे, वे आदिवासी कलाकारों के साथ फोटो खिंचवाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं। कुल मिलाकर इस आयोजन ने दुनिया के अलग-अलग देशों में भी छत्तीसगढ़ की पहचान और आदिवासी संस्कृति को लेकर उत्सुकता जगाई है, और आने वाले बरसों में हो सकता है कि यह कार्यक्रम और भी बड़ा रूप ले ले। ([email protected])
कैसा भी हो, बने तो सही
खबर है कि म्युनिसिपलों में अपना मेयर बिठाने के कांग्रेस हर तरीके अपना रही है। वैसे तो कोरबा को छोड़कर सभी जगहों पर कांग्रेस पार्षदों की संख्या ज्यादा हैं, ऐसे में पार्टी नेताओं की इस तरह की कोशिश स्वाभाविक है, मगर भाजपा भी अपनी कोशिशों में कमी नहीं कर रही है। भाजपा कोरबा में तो मेयर बनाने के लिए जुटी हुई है, धमतरी और अन्य जगहों पर भी निर्दलियों का सहयोग लेकर अपना मेयर बनाने की कोशिश कर रही है। इन म्युनिसिपलों में आर्थिक रूप से ताकतवर पार्षद को मेयर प्रत्याशी के रूप में आगे करने की सोच रही है।
सुनते हैं कि एक म्युनिसिपल में तो भाजपा एक बड़े सटोरिए पर दांव लगाने के लिए भी तैयार दिख रही है। फटाका उपनाम से मशहूर उक्त सटोरिए को पार्टी के कुछ नेताओं ने संकेत भी दे दिए हैं और उसे निर्दलीय पार्षदों का जुगाड़ करने के लिए कह दिया है। फटाका ने एक निर्दलीय पार्षद को अपने प्रभाव में ले लिया है। इसकी भनक कांग्रेस के रणनीतिकारों को हो गई है। फटाका का कैरियर रिकॉर्ड खंगाला जा रहा है। चर्चा है कि पुलिस भी इस पूरे मामले में दखल देे सकती है। अब मेयर के चक्कर में भाजपा का 'फटाका' फूट जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
दिग्गजों को लेकर एक कहानी
रायपुर-बिलासपुर और राजनांदगांव में तो कांग्रेस का मेयर बनना तय है। मगर भाजपा के दिग्गज केंद्रीय नेतृत्व को यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी तरफ से प्रयासों में कोई कमी नहीं की गई थी। इन 'कोशिशोंÓ पर पार्टी के एक नेता ने चुटकी ली और पंचतंत्र की कहानी सुनाई कि जंगल में एक शेर बूढ़ा हो चला था। उसे शिकार करने में दिक्कत होती थी। जिसके कारण कई दिनों तक उसे भूखा भी रहना पड़ता था। शेर की दशा को देखकर उसके मंत्री सियार ने सलाह दी कि वह राजा का पद त्याग कर दें और सबसे माफी मांग लें। सियार ने शेर के कान में अपने आगे की योजना भी बताई।
शेर को सियार की बात जम गई। उसने सियार के जरिए सारे जानवरों की मीटिंग बुलाकर अपना पद त्याग करने की घोषणा की। साथ ही निर्दोष जानवरों का शिकार करने के लिए माफी भी मांगी। योजना अनुसार राजा का पद बंदर को दे दिया। राजा बनने के बाद बंदर ने सभी को भरोसा दिलाया कि शेर से डरने की जरूरत नहीं है। वह अब शिकार नहीं करेगा। भरोसा जीतने के लिए कुछ दिन तक शेर ने शिकार भी नहीं किया। बकरी-हिरण और अन्य जानवर निडर होकर उसके पास से गुजरने भी लगे। एक दिन मौका पाकर हिरण के बच्चे को चुपचाप दबोच लिया। रोज एक-एक कर बकरी-हिरण के बच्चे गायब होने लगे।
सभी जानवर एक दिन गुस्से से राजा बंदर के पास पहुंचे और उनसे गायब बच्चों के बारे में पूछा। फिर क्या था बंदर एक डाल से दूसरे डाल फिर तीसरे डाल में उछलकूद करते रहा। काफी देर तक यह नजारा देख रहे जानवरों ने बंदर से पूछा कि आखिर वह कर क्या रहा है? बंदर का जवाब था कि उसे बच्चों के बारे में नहीं पता, लेकिन उसके प्रयासों में कमी है तो बताएं। कुछ इसी तरह मेयर बनाने के लिए उछलकूद तो सभी दिग्गज कर रहे हैं, लेकिन निर्दलियों को अपने पाले में करने के लिए जरूरी संसाधन झोंकने के लिए कोई तैयार नहीं हैं।
झारखंड और छत्तीसगढ़
झारखंड चुनाव में कांग्रेस गठबंधन सरकार की जीत के बाद विशेष रूप से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव का कद बढ़ा है। भूपेश पर झारखंड में आक्रामक चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी भी थी, और उन्हें वहां चुनाव खर्च में पार्टी की तरफ से योगदान भी करना था। भूपेश वहां चुनावी सभाओं में छत्तीसगढ़ की किसान-आदिवासी बिरादरी की खुशहाली गिनाकर माहौल बना पाए।
दूसरी तरफ सिंहदेव को टिकट वितरण में भी शामिल रखा गया था, और अब झारखंड मुक्ति मोर्चा और अन्य सहयोगी दल के साथ चर्चा कर नई सरकार का खाका खींचने की अहम जिम्मेदारी सौंपी गई है। यह पहले से ही तय है कि हेमंत सोरेन सीएम होंगे और वे जल्द शपथ भी लेंगे, लेकिन गठबंधन सरकार के साझा घोषणापत्र के क्रियान्वयन और अन्य विषयों पर सिंहदेव की राय भी अहम रहेगी। यानी साफ है कि भूपेश और सिंहदेव का छत्तीसगढ़ के साथ-साथ झारखंड सरकार में भी कांगे्रस की भागीदारी की हद तक दखल रहेगा।
ऐसी भी चर्चा है कि छत्तीसगढ़ सरकार की कुछ नीतियां बाकी कांग्रेस-राज्यों में भी अपनाई जा सकती हैं, लेकिन ऐसा होता या नहीं यह आने वाले महीने बताएंगे। ([email protected])
योगेश अग्रवाल की खुशी
रायपुर म्युनिसिपल चुनाव में हार के बाद भाजपा में अंदरूनी कलह उभरकर सामने आ गया है। असंतुष्टों के निशाने पर खुद चुनाव संयोजक बृजमोहन अग्रवाल भी हैं। सुनते हैं कि बृजमोहन अग्रवाल के भाई योगेश अग्रवाल और अन्य समर्थकों ने स्वामी आत्मानंद वार्ड में निर्दलीय प्रत्याशी अमर बंसल के पक्ष में खुलकर काम किया। यह वही वार्ड है जहां से त्रिपुरा के राज्यपाल रमेश बैस के सगे भतीजे ओंकार बैस भाजपा प्रत्याशी थे।
बंसल की जीत की घोषणा हुई, तो योगेश अग्रवाल और अन्य बृजमोहन समर्थक जश्न मनाते दिखे। टीवी चैनलों में अमर बंसल के साथ योगेश अग्रवाल विजयी मुस्कान बिखेरते नजर आए। यह नजारा देखकर बैस समर्थक गुस्से में हैं। ओंकार की हैसियत संगठन में ऊंची है। वे शहर जिला अध्यक्ष पद की दौड़ में है और जिले के महामंत्री रह चुके हैं।
खुद रमेश बैस दो दिन रायपुर में रहकर ओंकार का चुनावी हाल पूछ रहे थे। हालांकि यह जरूर कहा जा रहा है कि योगेश भाजपा के कार्यकर्ता नहीं है। वैसे भी एक परिवार के लोग अलग-अलग दलों से भी जुड़े रहते हैं, ऐसे में योगेश का किसी का साथ देना न देना, उनका निजी मामला है। यही नहीं, अमर बंसल भाजपा से टिकट चाह रहे थे, टिकट नहीं मिली, तो वे बागी हो गए। चाहे कुछ भी हो, भाई की वजह से विरोधियों को बृजमोहन के खिलाफ बोलने का मौका मिल ही गया।
खर्च के रिकॉर्ड टूटे
म्युनिसिपल चुनाव नतीजे आने के बाद हार-जीत का आंकलन चल रहा है। सुनते हैं कि रायपुर के कई वार्डों में तो प्रत्याशियों ने विधानसभा चुनाव से ज्यादा खर्च किया। कुछ जगहों पर तो निर्दलियों ने पैसा खर्च करने के मामले में भाजपा-कांग्रेस के उम्मीदवारों को मीलों पीछे छोड़ दिया। रायपुर पश्चिम के एक वार्ड के एक निर्दलीय प्रत्याशी ने तो प्रदेश से बाहर गए कई वोटरों को लाने के लिए एयर टिकट तक का इंतजाम किया था।
रायपुर उत्तर के एक वार्ड के निर्दलीय प्रत्याशी तो दीवाली के बाद से ही थैली खोल दी थी। उन्होंने अपने वार्ड के रोजी मजदूरी करने वाले लोगों को प्रचार में झोंक दिया था। उनके आक्रामक प्रचार से कांग्रेस-भाजपा उम्मीदवार तक थर्राए हुए थे। यही नहीं, मतदान के दिन तो उसने खुले तौर पर नोट बंटवाए। मगर चुनाव नतीजे आए, तो निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों की बाहुल्यता वाले इस वार्ड के लोगों ने अपने विवेक का इस्तेमाल किया और व्यवहार कुशल-मेहनती समझे जाने वाले कांग्रेस प्रत्याशी को जिताया। निर्दलीय प्रत्याशी इतना कुछ खर्च करने के बाद अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए।
म्युनिसिपल चुनाव में तो कांग्रेस के महापौर पद के दो दावेदारों के चुनावी खर्च की भी जमकर चर्चा है। दोनों ने न सिर्फ अपने वार्ड में साधन-संसाधन झोंका बल्कि पड़ोस के वार्ड से चुनाव लड़ रहे महापौर पद के अन्य दावेदार को हराने के लिए भी भारी भरकम रकम खर्च की। मगर इतना कुछ करने के बाद भी दोनों दावेदारों की इच्छा पूरी नहीं हो पाई। इन चार-पांच वार्डों के चुनाव खर्च और कुल प्राप्त मतों से तुलना की जाए, तो प्रत्याशियों को एक-एक वोट के पीछे 2-3 हजार से अधिक खर्च करना पड़ा है। रायपुर उत्तर वार्ड के निर्दलीय प्रत्याशी को तो एक मत के पीछे 5 हजार से अधिक राशि खर्च करना पड़ा।
सट्टे का रेट उठता-गिरता रहा
खबर है कि म्युनिसिपल चुनाव में हाईप्रोफाइल भगवतीचरण शुक्ल वार्ड में महापौर प्रमोद दुबे की जीत-हार पर ही दो करोड़ से अधिक सट्टा लगा था। पहले प्रमोद दुबे को 70 पैसे का भाव दिया जा रहा था यानी प्रमोद दुबे की जीत आसान समझी जा रही थी। लेकिन पहली और दूसरी मतपेटी खुलने के बाद एक रूपए 70 पैसे तक भाव चला गया। तब प्रमोद दुबे करीब तीन सौ मतों से पीछे चल रहे थे। एक मौका ऐसा आया जब प्रमोद दुबे बढ़त भी बना चुके थे, लेकिन टीवी चैनलों में पिछडऩे की खबर ही चल रही थी।
कटोरा तालाब और कुछ अन्य इलाकों में तो सटोरिए प्रमोद दुबे की हार सुनिश्चित बताकर लोगों को रकम लगाने के लिए उकसाते रहे। बड़ी संख्या में लोग सटोरियों के झांसे में आ गए और दो करोड़ तक का सट्टा लग गया। शाम होते-होते तक भगवतीचरण वार्ड की तस्वीर साफ होती चली गई और प्रमोद दुबे सम्मानजनक बढ़त बना चुके थे। आखिर में उन्हें दो हजार से अधिक मतों से जीत हासिल हुई, जो कि उससे पहले के चुनावों में किसी भी कांग्रेस प्रत्याशी को उस वार्ड से इतनी बड़ी जीत नहीं मिली। प्रमोद दुबे की जीत पर सटोरियों ने जमकर चांदी काटी। ([email protected])
खुद दूल्हा बन बैठने का नुकसान
म्युनिसिपल चुनाव में इस बार रायपुर में वर्ष-1994 के चुनाव नतीजे रिपीट हुए हैं। उस समय महापौर बनने की चाह में अजेय माने जाने वाले विधायक तरूण चटर्जी, गौरीशंकर अग्रवाल, जगदीश जैन, राजीव अग्रवाल जैसे भाजपाई दिग्गज वार्ड चुनाव में उतर गए थे। लेकिन सभी को हार का सामना करना पड़ा। तरूण को रविशंकर शुक्ल वार्ड से दीपक दुबे ने बुरी तरह निपटा दिया। दिग्गजों के चुनाव मैदान में उतरने से भाजपा का चुनाव प्रबंधन बुरी तरह गड़बड़ा गया था। ये सभी खुद तो हारे और प्रबंधन कमजोर होने के कारण कई भाजपा प्रत्याशी भी पिट गए।
भाजपा नेताओं की हार से झल्लाए विधायक बृजमोहन अग्रवाल ने उस समय टिप्पणी की थी कि दुल्हन ढंूढने निकले थे और खुद ही दुल्हा बन गए...। उस समय म्युनिसिपल चुनाव में रायपुर में कांग्रेस को बहुमत मिला और कांग्रेस के बलवीर जुनेजा महापौर बने। अब 25 साल बाद भी भाजपा ने पिछली गलतियों से सबक नहीं सीखा। अपना वार्ड आरक्षित होने पर पार्टी के दिग्गज राजीव अग्रवाल, संजय श्रीवास्तव और सुभाष तिवारी, महापौर बनने की चाह में अड़ोस-पड़ोस के वार्ड से चुनाव मैदान में कूद गए। चूंकि छोटे चुनाव में स्थानीय कार्यकर्ताओं की काफी अपेक्षा रहती है और वे खुद चुनाव लडऩा चाहते हैं। ऐसे में इन सभी को अंतरविरोधों का सामना करना पड़ा। इसका प्रतिफल यह हुआ कि सभी कांगे्रस के नए नवेले युवाओं से हार गए।
लंबे भाषणों का दाम चुकाया?
धमतरी में राज्य बनने के बाद पहली बार भाजपा पिछड़ी है। इस बार भी भाजपा नेताओं को पूरी उम्मीद थी कि निगम में पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल जाएगा। यहां प्रचार की कमान पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर ने संभाल रखी थी। प्रचार के शुरूआती दौर में ऐसा लग रहा था कि भाजपा को आसानी से बहुमत मिल जाएगा। मगर आखिरी दो दिनों में प्रबंधन गड़बड़ा गया।
पार्टी के एक रणनीतिकार बताते हैं कि रमन सिंह के रोड शो-सभा के बाद माहौल बिगड़ गया। इसके लिए पार्टी संगठन के नेता जिम्मेदार हैं। हुआ यूं कि सभी 48 वार्ड के प्रत्याशियों को 5-5 हजार रूपए दिए गए थे। उन्हें भीड़ लाने के लिए कहा गया था। भीड़ तो काफी जुट गई, लेकिन हरेक प्रत्याशियों के 15-20 हजार रूपए खर्च हो गए।
चुनाव के वक्त में निचली बस्तियों के लोगों का समय काफी कीमती होता है। उन्हें एक दिन में कई रैलियों-प्रदर्शन में जाना होता है और बदले में अच्छी खासी कमाई हो जाती है। मगर लोगों के कीमती वक्त को इंदर चोपड़ा और विजय साहू जैसे नेताओं ने बर्बाद कर दिया। दोनों ने एक घंटा लंबा भाषण दे दिया। हाल यह रहा कि रमन सिंह के भाषण सुनने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं रह गई और उनका गुस्सा वार्ड प्रत्याशियों पर निकला। धमतरी को मैनेज करने के चक्कर में अजय चंद्राकर अपने विधानसभा क्षेत्र कुरूद को ही भूल गए और वहां भी कांग्रेस का कब्जा हो गया। ([email protected])
मतगणना के बाद तीर्थयात्रा?
वैसे तो छत्तीसगढ़ के म्युनिसिपल चुनाव नतीजे मंगलवार की देर शाम तक घोषित हो जाएंगे, लेकिन प्रदेश भर में महापौर-अध्यक्ष पद के लिए रस्साकसी 29 तारीख तक जारी रहेगी। इसके लिए कांग्रेस और भाजपा में मंथन चल रहा है। कांग्रेस में प्रभारी मंत्री कमान संभाल रहे हैं। जिन निकायों में बहुमत रहेगा वहां दिक्कत नहीं है, लेकिन जहां बहुमत नहीं है वहां निर्दलीय व अन्य को तोड़कर महापौर अथवा अध्यक्ष बनाने की कोशिश होगी। ऐसी स्थिति में पार्षदों को प्रदेश से बाहर पिकनिक पर भेजने की रणनीति बनाई जा रही है।
कांग्रेस के एक बड़े नेता ने कहा कि यह फैसला स्थानीय स्तर पर परिस्थितियों को देखकर लिया जाएगा। भाजपा में भी इसको लेकर कोर ग्रुप की बैठक में चर्चा हुई है। भाजपा नेता अपने पार्षदों को तोड़-फोड़ से बचाने के लिए पुरी और अन्य जगहों पर टूर प्लान कर रहे हैं। भाजपा के एक नेता का कहना है कि बहुमत नहीं होने पर संबंधित निकायों के पार्षदों को अपने साथ जोड़कर ज्यादा दिन तक नहीं रखा जा सकता। क्योंकि अविश्वास प्रस्ताव के जरिए उन्हें हटाया जा सकता है। वैसे भी जिनकी सरकार रहती है, उनके पास धन-बल और प्रशासन सबकुछ नियंत्रण में रहता है। ऐसे में यह मुहावरा फिट बैठता है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस।
झारखंड का असर होगा?
झारखंड चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा संगठन में सौदान सिंह की हैसियत कम हो सकती है। पार्टी हाईकमान ने सौदान सिंह को एक तरह से फ्री हैंड दे दिया था। सौदान की सिफारिश पर ही राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम को वहां का प्रभारी बनाया गया, लेकिन दोनों असफल साबित हुए। झारखंड के नतीजों का छत्तीसगढ़ में भी प्रभाव पडऩे की संभावना जताई जा रही है। प्रदेश में संगठन के चुनाव हो चुके हैं और अगले कुछ दिनों में प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव होंगे।
ऐसे में माना जा रहा था कि झारखंड में सफल होने पर सौदान सिंह की सिफारिश पर ही छत्तीसगढ़ में अध्यक्ष की नियुक्ति हो सकती है। मगर इसकी संभावना अब कम हो गई है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दुर्ग और अन्य स्थानों में विधानसभा चुनाव में हार की समीक्षा बैठक के दौरान कार्यकर्ताओं ने खुलकर सौदान सिंह और रमन सिंह को जमकर कोसा था। झारखंड चुनाव में विफलता से सौदान विरोधी काफी खुश हैं और उन्हें भरोसा है कि देर सवेर उन्हें छत्तीसगढ़ के प्रभार से मुक्त कर दिया जाएगा। वाकई ऐसा होता है या नहीं, नए अध्यक्ष की नियुक्ति में स्पष्ट हो पाएगा।
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महापौर के दावेदारों की संभावना
मतदान के बाद अंदाजा लगाया जा रहा है कि रायपुर नगर निगम के कांग्रेस से महापौर पद के दावेदार एन-केन प्रकारेण जीत जाएंगे। महापौर पद के दावेदार प्रमोद दुबे, एजाज ढेबर, अजीत कुकरेजा को दिक्कत नहीं है। ज्ञानेश शर्मा, श्रीकुमार मेनन जरूर त्रिकोणीय मुकाबले में फंसे हैं, लेकिन चर्चा है कि वे भी मैदान मार सकते हैं। सुनते हैं कि महापौर के दावेदार आपस में ही एक-दूसरे को निपटाने के लिए दमखम लगा रहे थे। इसलिए कुकरेजा को छोड़कर सभी कड़े मुकाबले में फंस गए थे। इन्हीं सब बातों को लेकर चुनाव प्रचार के दौरान एक प्रमुख दावेदार की तो दूसरे के भाई से तीखी बहस भी हुई थी।
छोटे चुनाव की खासियत यह है कि निपटने-निपटाने के खेल में कभी-कभी तीसरे को फायदा हो जाता है। बरसों पहले बैजनाथ पारा वार्ड चुनाव में लाल बादशाह को कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं ने निर्दलीय चुनाव मैदान में उतारा। और उन्हें भाजपा के लोगों ने भी साधन-सुविधाएं मुहैया कराई। ताकि कांग्रेस के अंदरूनी झगड़े का फायदा भाजपा को मिल सके, लेकिन निर्दलीय लाल बादशाह को इतना साधन संसाधन मिल गया कि वे खुद चुनाव जीत गए। कुछ इसी तरह की स्थिति प्रमोद दुबे के लिए भी बन गई थी। प्रमोद दुबे के खिलाफ लड़ रहे भाजपा प्रत्याशी सचिन मेघानी, निर्दलीय अप्पू वाडिया और जोगी पार्टी के राउल रउफी को काफी मदद मिली।
हल्ला तो यह भी है कि अप्पू को प्रमोद से जुड़े लोगों ने मदद की थी। ताकि सिंधी वोटों का बंटवारा हो सके, लेकिन अप्पू की स्थिति मजबूत लगातार होते चली गई। प्रचार के अंतिम दिनों में प्रमोद की टेंशन बढ़ गई थी। ऐसे मौके पर प्रमोद को पूर्व मंत्री विधान मिश्रा, जगदीश कलश, संता सिंह कोहली और तेज कुमार बजाज की चौकड़ी का साथ मिला। जगदीश तो वहां के पार्षद भी रह चुके हैं। संता सिंह कोहली चुनाव लड़ चुके हैं और बजाज इस बार कांग्रेस टिकट की होड़ में थे। अनुभवी चौकड़ी के खुलकर साथ आने से प्रमोद की राह आसान हो पाई। दावेदारों में अजीत के सबसे ज्यादा वोट से जीतने का अनुमान लगाया जा रहा है। छोटे से तेलीबांधा वार्ड के तकरीबन हर मतदाता को हर संभव 'मदद' की गई। ऐसे में अजीत के नाम सर्वाधिक वोटों से जीत का रिकार्ड बन जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
निर्दलियों की जरूरत पड़ेगी?
नगरीय निकाय चुनाव में कांग्रेस का दबदबा कायम रहने का अनुमान लगाया जा रहा है। दुर्ग, राजनांदगांव और अंबिकापुर में कांग्रेस को स्पष्ट जीत मिल सकती है। जबकि भाजपा को चिरमिरी और रायगढ़ में सफलता मिल सकती है। रायपुर और बिलासपुर में अंदाजा लगाया जा रहा है कि दोनों नगर निगमों में महापौर बनवाने में निर्दलियों की भूमिका अहम रहेगी।
रायपुर नगर निगम का हाल यह रहा कि पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के विधानसभा क्षेत्र रायपुर दक्षिण में भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है। पिछले चुनाव में भी रायपुर दक्षिण से कांग्रेस को ज्यादा सफलता मिली थी। भाजपा के एक पूर्व विधायक यह कहते सुने गए कि यह भी रणनीति का हिस्सा है। हार में भी जीत छिपी होती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बृजमोहन के क्षेत्र में तो भाजपा का एक भी नेता विधानसभा स्तर का नहीं है।
चुनाव में बस्तर संभाग में कांग्रेस को ज्यादा सफलता मिलने का अनुमान है। जबकि बिलासपुर संभाग में भाजपा अच्छी स्थिति में आ सकती है। कांग्रेस में टिकट को लेकर विवाद काफी ज्यादा था और इस वजह से नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों में कई जगहों पर नुकसान उठाना पड़ सकता है। इन सबके बावजूद पिछले निकाय चुनाव की तरह ही कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रह सकता है।
शक्कर मिलेगी या नहीं?
रायपुर नगर निगम के एक निर्दलीय प्रत्याशी ने मतदाताओं को रिझाने के लिए अनोखा तरीका अपनाया। प्रत्याशी ने वार्ड के ज्यादातर लोगों की राशन कार्ड की छाया प्रति लेकर एक अलग कार्ड बनवाया। इस कार्ड के जरिए लोगों को यह सुविधा दी गई कि वे प्रत्याशी के डिपार्टमेंटल स्टोर से 20 रूपए किलो में पांच किलो शक्कर ले सकते हैं। बड़ी संख्या में लोगों ने कार्ड भी बनवाए। प्रत्याशी ने यह भी वादा किया था कि चुनाव जीतने पर कार्डधारियों को पहली बार पांच किलो शक्कर मुफ्त दिए जाएंगे। अब देखना है कि चुनाव नतीजे आने के बाद लोगों को रियायती शक्कर मिल पाता है या नहीं, क्योंकि इतना सबकुछ करने के बावजूद इस निर्दलीय प्रत्याशी के जीतने की संभावना बेहद कम है।
ऐसे वक्त त्रिपुरा छोड़ रायपुर में!
त्रिपुरा के राज्यपाल रमेश बैस रायपुर में डटे हैं। उनकी निगाह स्वामी आत्मानंद वार्ड में टिकी है, जहां से उनके सगे भतीजे ओंकार बैस चुनाव लड़ रहे हैं। वे पार्टी के लोगों से चुनाव का हाल भी सुन रहे हैं। बैस की निकाय चुनाव में दिलचस्पी को लेकर पार्टी के भीतर कानाफूसी हो रही है। उनका दौरा ऐसे वक्त में हुआ है जब पूर्वोत्तर राज्य नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ जल रहा है। यह कहा जा रहा है कि विपरीत परिस्थितियों में बैस को त्रिपुरा में रहकर वहां की सरकार का मार्गदर्शन करना चाहिए था।
वैसे भी ओंकार नए नवेले नहीं हैं। वे एक बार पार्षद रह चुके हैं। उनके सगे छोटे भाई सनत अभी पार्षद हैं। ओंकार अनुभवी भी हैं। ऐसे में रमेश बैस को उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मगर बैस के विरोधियों को कौन समझाए कि 40 साल की सक्रिय राजनीति से एकाएक अलग होना आसान नहीं होता है। वैसे भी प्रदेश में बैस की पार्टी की सरकार नहीं है। ऐसे में बैसजी अपने लोगों का थोड़ा बहुत मार्गदर्शन कर रहे हैं, तो इसको गलत नहीं कहा जा सकता। उत्तर-पूर्व तो वैसे भी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ही देख रहे हैं, और वे देख ही लेंगे।
भाजपा में कार्रवाई शुरू
भाजपा ने अपने बागियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी है। उन लोगों के खिलाफ भी कार्रवाई की गई है, जो अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ काम कर रहे हैं। पार्टी ने पूर्व विधायक श्रीचंद सुंदरानी के कट्टर समर्थक श्याम चावला को निलंबित कर दिया है। सुंदरानी की भूमिका को लेकर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं।
सुनते हैं कि सुंदरानी की सिफारिश पर तेलीबांधा के मंडल अध्यक्ष की टिकट काटकर दीपक भारद्वाज को प्रत्याशी बनाया गया। तेलीबांधा मंडल के तीनों प्रत्याशियों की हालत खस्ता है। इसके लिए अप्रत्यक्ष रूप से सुंदरानी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसके अलावा संजय श्रीवास्तव, प्रफुल्ल विश्वकर्मा और राजीव अग्रवाल, तीनों वार्ड का चुनाव लड़ रहे हैं। ये तीनों जीत कर आते हैं, तो ये रायपुर उत्तर विधानसभा टिकट के भी दावेदार हो जाएंगे। ऐसे में श्रीचंद के लिए दिक्कतें बढ़ सकती हैं।
फंड के रास्ते पर झगड़ा
नगरीय निकाय चुनाव में साधन-संसाधन को लेकर राजनांदगांव में दो नेताओं के बीच झड़प की गूंज रायपुर तक सुनाई दी है। सुनते हैं कि निकाय चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों का फंड पहुंचाने का जिम्मा एक बड़े कारोबारी के करीबी नेता को दिया गया। इसकी भनक लगने पर वहां के जिले के एक प्रमुख पदाधिकारी ने आपत्ति की और फंड पहुंचा रहे नेता से बहस शुरू कर दी।
कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशियों को 'आर्थिक संकट' से उबारने गए नेता ने झगड़े का मुंहतोड़ जवाब देते 'ऊपरÓ से मिले आदेश का पालन की जानकारी दी। इसके बाद भी पदाधिकारी का गुस्सा कम नहीं हुआ। पदाधिकारी अपने जरिए प्रत्याशियों को फंड आबंटन चाहते थे। बढ़ते झगड़े के बीच दोनों नेता ने एक-दूसरे को धमकी दी। सुनते हैं कि आर्थिक मदद करने गए नेता सीधे पदाधिकारी के घर धमक गए। घर में भी दोनों में जमकर तकरार हुई। विवाद के बीच पदाधिकारी के पिता ने बीच-बचाव कर दूसरे को पुराने रिश्ते का हवाला देकर शांत किया। बताते है कि इस मामले को लेकर शीर्ष नेतृत्व को जानकारी दी गई।
साल भर बाद महज शिकायत !
रायपुर की मेयर रही हुईं, और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की करीबी सहयोगी किरणमयी नायक ने आरडीए के अध्यक्ष रहे हुए और अभी भाजपा के वार्ड प्रत्याशी संजय श्रीवास्तव के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का एक पुलिंदा एसीबी-ईओडब्ल्यू जाकर दिया तो मामला पहली नजर में बहुत बड़ा लगा। लेकिन प्रदेश में कांगे्रस की सरकार बनने की सालगिरह के बाद आज महज आरोप म्युनिसिपल-मतदान के 48 घंटे पहले आना कुछ अटपटा इसलिए है कि ये आरोप तो विधानसभा चुनाव के पहले से चर्चा में थे और राज्य की कांगे्रस सरकार चाहती तो इसकी जांच करके अब तक इस पर एफआईआर हो चुकी रहती, गिरफ्तारी हो चुकी रहती, और बहुत संभावना है कि बाकी कई मामलों की तरह हाईकोर्ट से जांच पर स्टे भी मिल गया होता। लेकिन ऐसा कुछ भी न होकर आज शिकायत होना थोड़ा सा अटपटा है, और यह वोटरों के गले कितना उतरेगा इस पर अटकल ही लगाई जा सकती है। ([email protected])
इधर सिंधी तो उधर मुस्लिम
नागरिक संशोधन कानून से नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा को बड़े फायदे की उम्मीद है। पाकिस्तान से आए सिंधी समाज के लोग दसियो हजार की संख्या में छत्तीसगढ़ में बसे हुए हैं और उन्हें नागरिकता नहीं मिल पा रही है। नए कानून के प्रभावशील होने के बाद उन्हें नागरिकता मिलने की उम्मीद है। भाजपा इस कानून को अपने पक्ष में भुनाने में लगी है और बाकी सिंधी वोटरों को लामबंद करने के लिए तगड़ी कोशिश चल रही है। खुद बृजमोहन अग्रवाल इस मुहिम में जुटे हुए हैं।
बृजमोहन ने सिंधी समाज के अलग-अलग लोगों के साथ बैठकें की। सिंधी समाज के लोगों के लिए पापड़-पानी का खास इंतजाम भी किया गया था। पार्टी के रणनीतिकारों का अनुमान है कि सिंधी वोटर एकजुट होकर भाजपा के पक्ष में मतदान करते हैं, तो दर्जनभर वार्डों में पार्टी उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित हो सकती है। इन वार्डों में सिंधी वोटर निर्णायक भूमिका में हैं। मगर इस कानून के चलते नुकसान का भी अंदेशा है।
और फिर सिख भी तो हैं...
नागरिक संशोधन कानून को मुस्लिम विरोधी प्रचारित किया गया है। यह सब देखकर रायपुर दक्षिण विधानसभा के एक वार्ड का भाजपा के लोगों ने सर्वे भी कराया। जिसमें यह बात उभरकर सामने आई कि एक भी मुस्लिम, भाजपा को वोट देने के पक्ष में नहीं है। जबकि उस वार्ड में भाजपा के अल्पसंख्यक नेता काफी सक्रिय भी हैं। भाजपा को सिख वोटों का झटका भी लग सकता है। पार्टी ने एक भी सिख उम्मीदवार नहीं खड़ा किया है, इससे उनमें काफी नाराजगी है। सिख समाज के प्रमुख नेताओं की बैठक भी हुई है। हाल यह है कि सिख-पंजाबी वोटर कांग्रेस के पक्ष में लामबंद होते दिख रहे हैं। खैर, कौन-किसके पक्ष में है, यह तो चुनाव नतीजे आने के बाद ही साफ हो पाएगा। रायपुर शहर में ही कम से कम तीन-चार वार्ड ऐसे हैं जिनमें सिख वोट नाराजगी की हालत में संतुलन बिगाड़ सकते हैं।
यह बात मोटे तौर पर तो रायपुर को लेकर लिखी जा रही है लेकिन बाकी छत्तीसगढ़ में भी जगह-जगह इन तीन समुदायों की सघन बसाहट है, उन वार्डों के नतीजे वार्ड के बाहर के मुद्दों से प्रभावित होंगे, कई वार्डों में राष्ट्रीय मुद्दों का असर होगा।
धान को पसीने छूट रहे हैं...
धान खरीद नियम में बार-बार बदलाव से कांग्रेस को नगरीय निकाय चुनाव में नुकसान उठाना पड़ सकता है। नगर पालिका और नगर पंचायतों में खेतिहर लोग ज्यादा संख्या में रहते हैं। नियमों में बदलाव से उन्हें काफी असुविधा का सामना करना पड़ा है। जिसके चलते उनमें नाराजगी है। जबकि विधानसभा चुनाव में नगर पालिका और नगर पंचायतों में कांग्रेस के पक्ष में एकतरफा माहौल था। सरकार से जुड़े एक उच्च पदस्थ व्यक्ति ने आपसी बातचीत में कहा कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का धान खरीदी का तुरूप का पत्ता अफसरों ने चिड़ी की दुक्की बनाने में कोई कसर नहीं रखी, अब बाद का डैमेज कंट्रोल कितना काम आता है, यह किसान आबादी के वोट गिने जाने पर पता लगेगा।
धान खरीदी की बदइंतजामी, और पारे की तरह अस्थिर नियमों-शर्तों के चलते जो नुकसान हो रहा था, उस पर कांग्रेस के रणनीतिकारों ने डैमेज कंट्रोल की पूरी कोशिश की है और इसका कुछ फर्क भी पड़ा है। मगर कर्जमाफी और 25 सौ क्विंटल धान खरीद के बाद जिस तरह छोटे-बड़े किसान कांग्रेस के पक्ष में लामबंद रहे हैं। वह स्थिति अब छोटे निकायों में देखने को नहीं मिल रही है। यहां भाजपा फिर से मजबूत दिख रही है। बस्तर और सरगुजा संभाग में तो कुछ निकायों को छोड़ दें, तो यहां कांग्रेस के पक्ष में माहौल दिख रहा है। बस्तर में भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
सौदान सिंह की सक्रियता फिर...
भाजपा संगठन के बड़े नेता सौदान सिंह छत्तीसगढ़ में एक बार फिर सक्रिय दिख रहे हैं। उन्होंने सभी जिले के प्रभारियों और प्रमुख नेताओं से चर्चा कर चुनाव का हाल जाना और छोटी मोटी समस्याओं को हल करने के लिए खुद पहल की है। दिलचस्प बात यह है कि हाल ही में बस्तर में दो विधानसभा के उपचुनाव हुए थे, लेकिन उन्होंने झारखण्ड चुनाव में व्यस्तता का हवाला देकर दूरियां बना ली थी। दोनों में ही भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। और तो और सौदान सिंह ने संगठन चुनाव से भी खुद को दूर रखा और यहां झगड़े को निपटाने के लिए भी कोई पहल नहीं की। ये अलग बात है कि झारखंड चुनाव के बीच में ही रायपुर आए और एक विवाह समारोह में शामिल होने चार दिन तक डटे रहे। अब झारखंड चुनाव के बीच में ही छत्तीसगढ़ में नगरीय निकाय चुनाव की सुध ले रहे हैं, तो उसको लेकर पार्टी नेताओं में कानाफूसी हो रही है। कुछ का अंदाजा है कि विधानसभा चुनाव की तुलना में नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन बहुत बेहतर रहेगा, इसलिए सौदान सिंह रूचि ले रहे हैं, वहीं कुछ का कहना है कि वे दिलचस्पी ले रहे हैं इसलिए नतीजे बेहतर होंगे। ([email protected])
योगी-मोदी क्या सोचेंगे?
देश के कई प्रदेशों में उत्तर भारत को अनपढ़, निकम्मा, या मुजरिम मान लिया जाता है और वहां के लोगों के खिलाफ आमतौर पर एक साथ तोहमत जड़ दी जाती है। हिन्दी इलाकों में कई जगह मुजरिमों का जिक्र करने के लिए यूपी-बिहार वाले कह दिया जाता है। रायपुर शहर भाजपा अध्यक्ष राजीव कुमार अग्रवाल म्युनिसिपल के वार्ड का चुनाव लड़ रहे हैं। एक वार्ड चुनाव के हिसाब से वे खासे बड़े नेता हैं, और उनके वार्ड के लोगों को भी इस बात का अहसास है कि वे पार्षद नहीं शायद मेयर चुन रहे हैं, अगर शहर में भाजपा के पार्षदों का बहुमत रहे। आज सुबह उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट किया है- हमें जानकारी मिली है कि महर्षि वाल्मीकि वार्ड, वार्ड नंबर 32 में बूथ लूटने का प्लान भी विरोधी पक्ष करने वाला है। वे यह जान लें कि यह छत्तीसगढ़ है, यूपी, बिहार, या बंगाल नहीं। यह शांतिप्रिय प्रदेश है, अशांति फैलाने वालों को यह प्रदेश बर्दाश्त नहीं करता।
अब राजीव अग्रवाल ने यह लिख तो दिया है, लेकिन अगर कोई यह बात उन्हीं की भाजपा के यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बताए, तो उन्हें यह बात अपनी बेइज्जती लगेगी कि उनके रामराज के बारे में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ऐसे ख्याल रखते हैं। दूसरी तरफ बिहार में भी भाजपा सत्ता में है, और पता नहीं उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी इस बारे में क्या सोचेंगे। रहा बंगाल का सवाल तो वहां कानून व्यवस्था के बदहाल को लेकर ऐसी बात कहना भाजपा का हक है। राजीव अग्रवाल के बयान से शहर के किनारे औद्योगिक क्षेत्र में बसे हुए यूपी-बिहार के लाखों लोगों के बीच भी भाजपा के उम्मीदवारों से कोई सवाल कर सकता है।
हाई वोल्टेज वार्ड
वैसे तो जोगी पार्टी रायपुर नगर निगम के 40 वार्डों में चुनाव लड़ रही है, लेकिन उनके एक-दो प्रत्याशी ही मुख्य मुकाबले में दिख रहे हैं। ऐसे में जोगी पिता-पुत्र ज्यादातर वार्डों में प्रचार के लिए नहीं जा रहे हैं। उन्होंने सिर्फ एकमात्र मोतीलाल नेहरू वार्ड पर ध्यान केन्द्रित किया हुआ है। यहां से उनकी पार्टी से पन्ना साहू चुनाव मैदान में हैं। पन्ना साहू धरसींवा से विधानसभा चुनाव लड़े थे और करीब 15 हजार वोट हासिल किए थे। यहां पूर्व मंत्री सत्यनारायण शर्मा और पूर्व विधायक देवजी पटेल की प्रतिष्ठा भी दांव पर है।
सत्यनारायण शर्मा ने विधानसभा चुनाव में उनकी मुखालफत करने वाले दो बार के पार्षद अनवर हुसैन की टिकट कटवा दी। इससे बौराए अनवर हुसैन न सिर्फ खुद निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं, बल्कि उन्होंने उन सीटों पर भी निर्दलीय उम्मीदवार खड़े किए हैं जहां से सत्यनारायण शर्मा की पसंद पर कांग्रेस ने प्रत्याशी तय किए हैं।
मोतीलाल नेहरू वार्ड से सत्यनारायण शर्मा के करीबी तेज तर्रार वीरेन्द्र टंडन उर्फ अब्बी चुनाव मैदान में हैं। जबकि भाजपा ने पहले गोपेश साहू को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन बाद में देवजी की सिफारिश पर अशोक सिन्हा को टिकट दे दी गई। इससे नाराज गोपेश साहू निर्दलीय चुनाव मैदान में उतर गए हैं। अब गोपेश न सिर्फ अपने वार्ड में बल्कि पड़ोस के पड़ोस के वार्ड से चुनाव लड़ रहे राजीव अग्रवाल के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं। कुल मिलाकर जोगी पिता-पुत्र की आक्रामक रणनीति, सत्यनारायण के तेज प्रचार और निर्दलियों के दमखम से यहां चुनावी मुकाबला रोचक हो गया है।
भाजपा से लडऩा दिक्कत बन गया
तीन बार के निर्दलीय पार्षद मृत्युंजय दुबे इस बार सुंदरनगर वार्ड से भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। मृत्युंजय न सिर्फ सुंदरनगर बल्कि अगल-बगल के वार्डों में भी प्रभाव रखते हैं। मगर भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लडऩे से उनके लिए दिक्कतें पैदा हो गई है। क्योंकि वे हमेशा से कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को कोसते रहे हैं। उनके बड़े भाई अनिल दुबे छत्तीसगढ़ समाज पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हैं, जो कि भाजपा नेताओं के खिलाफ कड़वे वचन के लिए पहचाने जाते हैं।
दुबे बंधु कई मायनों में अन्य नेताओं से अलग हैं। वे धूम्रपान नहीं करते और शुद्ध शाकाहारी भी हैं। मृत्युंजय तो कभी किसी से हाथ नहीं मिलाते। कोई हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाता है, तो वे दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार कर देते हैं। ऐसा नहीं कि वे कोई छुआ-छूत जैसी सामाजिक विकृतियों पर विश्वास रखते हैं, उनका परिवार आनंदमार्गी संप्रदाय से जुड़ा हुआ है और उनकी परम्पराओं पर विश्वास करते हैं। मगर उनके हाथ न मिलाने को भी विरोधी चुनाव प्रचार में उनके खिलाफ उपयोग कर रहे हैं। इससे परे अनिल दुबे, मृत्युंजय जितने कट्टर नहीं है। उनकी खासियत यह है कि वे जेब में हाथ नहीं डालते। उनका शहर के महंगे होटलों में डेरा रहता है। उनसे मेल मुलाकात के लिए आए लोगों का अनिल दुबे हमेशा चाय-जलपान से स्वागत करते हैं। उन्हें कभी किसी होटल में बिल देने के लिए जेब में हाथ डालते नहीं देखा गया। उनका इतना प्रभाव-सम्मान है कि होटलवाले भी कभी उन्हें कोई बिल नहीं देते। ([email protected])