राजपथ - जनपथ
मजबूत पकड़, पर चुनौती कायम...
ढेबर बंधु इन दिनों सुर्खियों में हैं। गुजराती मूल के ढेबर बंधुओं में सबसे छोटे एजाज ढेबर मौलाना अब्दुल रउफ वार्ड से चुनाव लड़ रहे हैं और उन्हें महापौर पद का दावेदार भी माना जा रहा है। कभी जोगी के करीबी रहे ढेबर बंधु अब सीएम भूपेश बघेल के करीबी माने जाते हैं। उनकी सत्ता के गलियारों में गहरी पकड़ है। कबाड़ के धंधे से आगे बढऩे वाले ढेबर बंधुओं को शहर के बड़े बिल्डरों में गिना जाता है। दो दिन पहले सीएम भूपेश बघेल और रायपुर जिले के प्रभारी मंत्री रविन्द्र चौबे ने एजाज ढेबर के समर्थन में सभा ली थी।
सभा में चौबे ने यह कहा कि एजाज में शहर का विकास करने की क्षमता है। प्रभारी मंत्री के इस बयान के राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं और यह कहा जा रहा है कि चुनाव जीतने पर उन्हें अहम जिम्मेदारी दी जा सकती है। धनबल से मजबूत होने के बावजूद एजाज की राह आसान नहीं है। वजह यह है कि उनके खिलाफ भाजपा से तीन बार के पार्षद सुनील बांद्रे चुनाव मैदान में हैं, जिन्हें बेहद विनम्र और मिलनसार माना जाता है। इससे परे ढेबर बंधु गलत वजहों से भी चर्चा में रहे हैं। एजाज के बड़े भाई याहया ढेबर को एनसीपी नेता रामअवतार जग्गी हत्याकांड प्रकरण में उम्रकैद की सजा हुई थी। खुद एजाज ढेबर बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ विधानसभा का चुनाव लडऩा चाहते थे और उसके लिए चुनाव के पहले कई महीने भूपेश बघेल के आसपास मेहनत भी की थी। जब टिकट नहीं मिली तो एजाज के समर्थकों ने राजीव भवन में तोडफ़ोड़ भी की थी, जिसकी बाद में उन्होंने मरम्मत करवाई थी।
ढेबर समर्थकों का मानना है कि उन्हें जग्गी हत्याकांड में फंसाया गया था। इस प्रकरण के बाद ही ढेबर बंधुओं ने अजीत जोगी से अपना नाता तोड़ लिया था। सुनते हैं कि गुजराती लिंक के कारण कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष अहमद पटेल से ढेबर बंधुओं की सीधी जान-पहचान है। यह भी प्रचारित हो रहा है कि यदि एजाज चुनाव जीतते हैं, तो अहमद पटेल से नजदीकियों के चलते आगे की राह आसान हो जाएगी। चाहे कुछ भी हो, एजाज को लेकर प्रचार-प्रसार के चलते उनका वार्ड हाईप्रोफाइल हो गया है।
राह आसान नहीं...
मौदहापारा वार्ड से कांग्रेस प्रत्याशी अनवर हुसैन किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। सात साल पहले उन्होंने इंदिरा गांधी कृषि विवि के कार्यक्रम में तत्कालीन सीएम रमन सिंह को किसानों की समस्या को लेकर खुली चुनौती दे दी थी। उस वक्त के केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार भी मौजूद थे। अनवर की चुनौती पर रमन सिंह अपना आपा खो बैठे फिर क्या था, पुलिस ने उन्हें पीट-पीटकर कार्यक्रम स्थल से बाहर निकाला था।
सीमित संसाधनों से चुनाव लड़ रहे अनवर की साख अच्छी है। उन्हें जुझारू माना जाता है। मगर कांग्रेस के कई स्थानीय नेता बागी उम्मीदवार को मदद कर रहे हैं। मौदहापारा परिवहन मंत्री मोहम्मद अकबर का निवास स्थान भी है। लिहाजा, उनकी भी प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। वैसे तो मौदहापारा हमेशा कांग्रेस का गढ़ रहा है, लेकिन बागी उम्मीदवार की दमदार मौजूदगी से अनवर की राह आसान नहीं रह गई है। हाल यह है कि खुद अकबर को नाराज नेताओं को मनाने के लिए आगे आना पड़ रहा है। ऐसे में कांग्रेस को अपना गढ़ बचाने के लिए इस बार तगड़ी चुनौती मिल रही है।
पुराने साथी आमने-सामने, पर साथ भी
स्कूल के दिनों के साथी नवीन चंद्राकर और मुकेश कंदोई रायपुर म्युनिसिपल चुनाव के चलते आमने-सामने हो गए हैं। नवीन और मुकेश, दोनों ही ने कालीबाड़ी स्कूल में एक साथ छठवीं से बारहवीं तक पढ़ाई की थी। नवीन कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता हैं और वे महापौर प्रमोद दुबे के सचिव हैं। जबकि मुकेश का अपना कारोबार है। मगर सदरबाजार वार्ड से दोनों की पत्नियां चुनाव लड़ रही हैं। अच्छी बात यह है कि दोनों पुराने दोस्त चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी से परहेज कर रहे हैं और सिर्फ अपनी पार्टी और अपना एजेंडा लेकर वोट मांग रहे हैं।
इसे देखकर कुछ दिन पहले फेसबुक पर पोस्ट की गई एक फोटो याद पड़ती है जिसमें राज्य सरकार के मीडिया सलाहकार और कांगे्रस में गए हुए रूचिर गर्ग, सीपीएम के संजय पराते, और आम आदमी पार्टी के डॉ. संकेत ठाकुर एक साथ दिख रहे हैं और तीनों रायपुर की कालीबाड़ी स्कूल में एक साथ पढ़े हुए भी हैं। तीन अलग-अलग पार्टियां, तीनों में चर्चित और जुझारू, और आज भी संबंध अच्छे।
जंगल में मंगल जारी...
नए साल में आधा दर्जन से अधिक आईएफएस अफसर पदोन्नत होने जा रहे हैं। इसके लिए डीपीसी की तैयारी चल रही है। वर्ष-2006 बैच के आधा दर्जन डीएफओ अब सीएफ के पद पर पदोन्नत हो जाएंगे। सीएफ के पद पर पदोन्नति के लिए न्यूनतम 14 साल की सेवा जरूरी है। इसके अलावा सीसीएफ स्तर के अफसर बीपी लोन्हारे और नरेन्द्र पाण्डेय 31 तारीख को रिटायर हो रहे हैं। उनके रिटायरमेंट के बाद सीसीएफ के दो रिक्त पदों पर भी पदोन्नति होगी।
एपीसीसीएफ से पीसीसीएफ के एक रिक्त पद के लिए सीनियर एपीसीसीएफ नरसिम्हा राव को पदोन्नति देने की तैयारी चल रही है। नरसिम्हा राव सबसे ज्यादा पर्यावरण संरक्षण मंडल के सदस्य सचिव रहे हैं। पिछली सरकार में विभागीय मंत्री ने मीटिंग में ही उनके खिलाफ टिप्पणी कर दी थी बाद में उन्हें पद से हटाकर वापस वन विभाग भेज दिया गया। हालांकि कई लोग नहीं चाहते कि वे पदोन्नत हो, लेकिन सरकार किसी से भेदभाव करते नहीं दिखना चाहती है। ऐसे में उन्हें हफ्ते-दस दिन में उन्हें पदोन्नत किया जा सकता है। ([email protected])
घर के लोगों को निपटाने के लिए...
कांग्रेस और भाजपा के महापौर पद के दावेदार नेता अपने ही दल के अन्य दावेदारों को निपटाने में जुटे हैं। कुछ को इसके प्रमाण भी मिले हैं। सुनते हैं कि कांग्रेस के महापौर पद के एक दावेदार अपने ही दल के एक अन्य प्रबल दावेदार के वार्ड से निर्दलीय उम्मीदवार खड़े करने की कोशिश में जुटे थे। जिस नेता को निर्दलीय उम्मीदवार बनाने की कोशिश की गई, उसे पहले के चुनाव में उसी वार्ड से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में अच्छे खासे वोट मिले थे। निर्दलीय उम्मीदवार को भारी भरकम फाइनेंस का वादा भी किया गया था, लेकिन बाद में उसने अधिकृत उम्मीदवार के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने से मना कर दिया। इसके बाद अब प्रबल दावेदार को निपटाने के लिए जोगी पार्टी के प्रत्याशी पर काफी दांव लगाया जा रहा है ताकि महापौर दावेदार वार्ड में ही निपट जाए।
कुछ ऐसा ही हाल भाजपा में भी है। भाजपा के महापौर पद के एक दावेदार के खिलाफ दल के ही बागी निर्दलीय उम्मीदवार ने मोर्चा खोले हुए हैं। निर्दलीय उम्मीदवार के चाचा को भाजपा ने टिकट भी दी है और चाचा के जरिए भतीजे निर्दलीय उम्मीदवार को बिठाने की कोशिश भी हुई। मगर इसमें सफलता नहीं मिली। सुनते हैं कि खुद चाचा ने अपने भतीजे को नाम वापस कराने में कोई ज्यादा पहल नहीं की। दल के अन्य नेताओं द्वारा दबाव बनाए जाने पर चाचा ने खुद मैदान छोडऩे की धमकी दे दी। भतीजे को बागी बनाने में पार्टी के लोगों की अहम भूमिका रही है।
और इधर घर के भीतर...
नगरीय निकाय चुनाव के तुरंत बाद पंचायत के चुनाव होंगे। पंचायत चुनाव मैदान में उतरने के इच्छुक नेताओं ने अपने इलाकों में सक्रियता बढ़ा दी है। भाजपा के एक पूर्व मंत्री के घर में चुनाव से पहले ही झगड़ा शुरू हो गया है। सुनते हैं कि मंत्री के पुत्र खुद जिला पंचायत का चुनाव लडऩा चाहते हैं। जबकि उनकी पत्नी और मंत्री की पुत्रवधु भी चुनाव लडऩे की इच्छुक हैं। बेटे-बहू में से किसको चुनाव लड़ाए, यह फैसला पूर्व मंत्री के लिए कठिन हो चला है। क्योंकि दोनों ही चुनाव लडऩा चाहते हैं। फिलहाल तो पूर्व मंत्री मान मनौव्वल में ही जुटे हैं।
खतरे का तजुर्बा
राजधानी नया रायपुर की जंगल सफारी में कल सैलानियों से भरी एक सुरक्षित गाड़ी खराब हो गई तो सिंहों-शेरों के डर में गाड़ी के लोग बेचैन हो गए। बात में दूसरी गाड़ी आई और इसे खींचकर ले गई, तब तक लोगों का रोमांच अगली दो पीढ़ी को बताने लायक किस्सों से भर गया। सुरक्षित जाली के भीतर लोग जितने बेचैन हुए, उन्हें अब आगे यह अहसास भी रहेगा कि जंगल विभाग के कर्मचारी ऐसे जानवरों के बीच कैसे काम करते हैं, और कैसे जंगली जानवरों के इलाकों के ग्रामीण वहां जीते हैं। इस थोड़ी सी देर में तमाम सुरक्षा के बीच भी खुले जंगलों के खतरों का थोड़ा सा अंदाज लगा होगा। ([email protected])
सबसे लोकप्रिय प्रत्याशी, चेपटी...
चुनाव प्रचार के दौरान ज्यादातर वार्ड प्रत्याशियों को नित नई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। बस्तियों में चेपटी की बड़ी मांग है, लेकिन इसकी पूर्ति करने में प्रत्याशियों को दिक्कत हो रही है। एक प्रत्याशी ने अपनी व्यथा सुनाई कि शराब दूकानों में दो-तीन बोतल से अधिक खरीदने पर बाहर सादे कपड़े में तैनात पुलिस कर्मी जब्त कर ले रहे हैं। बाद में उन्हीं पुलिस वालों से चेपटी लेना पड़ रहा है। यानी एक बोतल की कीमत दोगुनी हो जा रही है। कुछ प्रत्याशियों ने इसका तोड़ निकाल भी लिया है, वे अब नगद राशि दे रहे हैं। कुछ वार्डों में बिरयानी पार्टी चल रही है। इतना सब कुछ करने के बाद भी प्रत्याशी निश्चिंत नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि एक-एक वोटर कई लोगों से माल पा रहे हैं। खैर, अभी तो लोगों की निकल पड़ी है।
कद्दू कटने की उम्मीद...
वैसे तो 24 तारीख को नगरीय निकाय चुनाव के नतीजे घोषित हो जाएंगे। मगर पुलिस-प्रशासन का टेंशन खत्म नहीं होने वाला है। वजह यह है कि 30 तारीख तक महापौरों-अध्यक्षों के चुनाव होंगे। इसमें निर्वाचित पार्षदों के बीच चुनाव होगा। चूंकि दलबदल कानून निकायों में लागू नहीं है इसलिए खरीद-फरोख्त की आशंका जाहिर की जा रही है। भाजपा अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के विरोध में रही है। चाहे कुछ भी हो, किसी एक पार्टी के पार्षदों का बहुमत न होने की हालत में निर्दलियों के भाव काफी ऊं चे रहेंगे, क्योंकि बड़े शहरों और महंगे इलाकों में पार्षद बनना अपने आपमें काफी फायदे का काम रहता है, और जब उनके वोट से मेयर या अध्यक्ष बनने की नौबत आए, तो वे भी कद्दू का एक टुकड़ा चाहेंगे। पुरानी बात है कि कद्दू कटे, तो सबमें बंटे।
हारने वाले का इंतजार!
वैसे तो रायपुर समेत 10 जिला भाजपा अध्यक्षों के चुनाव स्थगित हो गए हैं। इन जिलों में अध्यक्ष की नियुक्ति प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव के बाद होंगे। राजधानी रायपुर के शहर अध्यक्ष पद को काफी अहम माना जाता है और पार्टी के सभी बड़े नेता अपने करीबी को अध्यक्ष बनाने की कोशिश में रहते हैं। रायपुर शहर में संगठन की कमान किसे सौंपी जाएगी, इसको लेकर पार्टी हल्कों में चर्चा चल रही है। संगठन के एक जानकार ने दावा किया कि जो पार्षद चुनाव में हारेगा उसे शहर जिला संगठन की कमान सौंपी जा सकती है।
यह तर्क दिया जा रहा है कि महापौर पद के दावेदार, जिलाध्यक्ष बनने की होड़ में रहे हैं। इतिहास भी बताता है कि हारे हुए नेता को संगठन की कमान सौंपने में परहेज नहीं रहा है। अविभाजित मध्यप्रदेश में बालू भाई पटेल शहर जिला के अध्यक्ष थे, जो कि पार्षद का चुनाव भी हार चुके थे। इसके बाद जगदीश जैन अध्यक्ष बने, जो कि पद पर रहते पार्षद का चुनाव नहीं जीत पाए। इसके बाद अध्यक्ष बने गौरीशंकर अग्रवाल को भी पार्षद चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। उनके बाद के अध्यक्ष सच्चिदानंद उपासने तो कभी कोई भी चुनाव नहीं जीत पाए। इसके बाद के अध्यक्ष राजीव अग्रवाल, अशोक पाण्डेय भी पार्षद चुनाव हार चुके हैं। ये दोनों फिर चुनाव मैदान में हैं।
राजीव अग्रवाल की जगह जिन नामों पर चर्चा चल रही है उनमें सुभाष तिवारी, संजय श्रीवास्तव, संजूनारायण सिंह ठाकुर और ओंकार बैस के नामों की चर्चा चल रही है। यह भी संयोग है कि ये सभी पार्षद का चुनाव भी लड़ रहे हैं। अगर इनमें से चुनाव हार चुके नेता को संगठन की कमान सौंपी जाती है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। क्योंकि इतिहास अपने आप दोहराता है।
चुनाव में मजदूरी क्या बुरी?
म्युनिसिपल वार्डों के चुनाव खासे महंगे हो रहे हैं, जितनी महंगी बस्ती, जितने ताकतवर उम्मीदवार, उतने ही महंगे प्रचार का नजारा हो रहा है। शहर की एक महंगी कॉलोनी में हर दिन आधा दर्जन जुलूस निकल रहे हैं जिनमें सौ-दो सौ महिला-बच्चे किसी बुलंद आवाज वाले आदमी के नारों को दुहराते हुए, झंडे और पोस्टर लिए हुए, कैप लगाए हुए, और पर्चियां बांटते हुए चल रहे हैं। हो सकता है कि जुलूस में शामिल लोगों को रोजी मिल रही हो, लेकिन इसमें बुरा क्या है? कोई अगर भाड़े पर प्रचार करने वाले कहकर गाली देना चाहें, तो उन्हें याद दिलाना पड़ेगा कि इसी हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी म्युनिसिपल या पंचायत, देश की संसद में सवाल पूछने के लिए भाड़े के मुंह बाजार में खड़े थे, और संसद ने वह पूरी खरीद-बिक्री देखी हुई है। ऐसे में दिन भर मजदूरी करने, प्रचार करने के लिए अगर किसी को भुगतान मिलता है, तो वह सांसदों की बिक्री जैसा बदनाम धंधा नहीं है, वह मेहनत-मजदूरी का काम है जो कि मीडिया से जुड़े हुए कई नामी-गिरामी लोग भी चुनाव के वक्त करने लगते हैं। चुनाव के वक्त खासा कमाते हुए मीडिया वाले भी जिस तरह अपनी कलम बेचते हैं, उसके मुकाबले तो नारे लगाने वाले लोग महज मजदूर हैं, और सौ फीसदी ईमानदारी की मजदूरी ले रहे हैं।
मतदाताओं के सामने सवाल
म्युनिसिपल चुनाव छत्तीसगढ़ में वैसे तो चुनाव चिन्हों पर, पार्टी के आधार पर हो रहे हैं, लेकिन वोटरों के सामने सवाल बहुत सारे खड़े हैं। पसंद की पार्टी को वोट दें, या उसके नापसंद उम्मीदवार को वोट दें, या नापसंद पार्टी के पसंद आ रहे प्रत्याशी को वोट दें, या दिल्ली की तरह आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को वोट दें, और उम्मीद करें कि वार्ड का नक्शा उसी तरह बदल जाएगा जिस तरह केजरीवाल ने दिल्ली में अच्छे काम किए हैं? किसी पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को वोट दें, या उसकी टिकट न पाने वाले बेहतर-बागी उम्मीदवार को चुनें? ये सवाल छोटे नहीं हैं, खासे बड़े हैं, और न सिर्फ अपने वार्ड का, बल्कि पूरे शहर का अगले पांच बरस का भविष्य तय करने वाले सवाल हैं। लोगों को अपने आसपास के दूसरे वोटरों से भी बात करना चाहिए कि क्या किया जाए? कुछ पार्टियों और कुछ प्रत्याशियों के तो समर्पित न्यूनतम वोटर रहते ही हैं, उन पर वक्त खराब नहीं करना चाहिए, बात उनसे करनी चाहिए जो कि किसी से प्रतिबद्ध नहीं हैं, और किसी के नाम का झंडा-डंडा लेकर नहीं चल रहे हैं। यह भी सोचना चाहिए कि शहर के म्युनिसिपल पर किसी एक पार्टी का कब्जा होने देना चाहिए, या फिर हर वार्ड से सबसे अच्छे लगने वाले, सबसे काबिल, ईमानदारी की थोड़ी सी संभावना वाले, अच्छे बर्ताव वाले उम्मीदवार को चुना जाए और फिर देखा जाए कि अच्छे-अच्छे पार्षद वहां जाकर किस पार्टी का साथ देते हैं, किसे अध्यक्ष या महापौर बनाते हैं। समझदारी की एक बात यह लगती है कि किसी भी पार्टी से परे इस बात को सबसे महत्वपूर्ण माना जाए कि पार्षद का वोट जिसे दें, उसका अपना, या उसके जीवन-साथी का, चाल-चलन अच्छा हो, जिसके साथ बेईमानी के किस्से जुड़े हुए न हों, और जो सुख-दुख में लोगों के साथ आकर खड़े रहते हों। अब देखना है कि वोटर अपने क्या पैमाने तय करते हैं।
आने वाले दिनों में क्या होगा?
रायपुर नगर निगम में जोगी पार्टी ने 40 वार्डों में प्रत्याशी खड़े किए हैं। वैसे तो पार्टी सभी 70 वार्डों में प्रत्याशी उतारना चाहती थी, लेकिन बाकी वार्डों में तो प्रत्याशी तक नहीं मिल पाए। जोगी पार्टी का हाल यह है कि विधायक दल के मुखिया धर्मजीत सिंह प्रचार में रूचि नहीं ले रहे हैं। पार्टी के मुख्य सचेतक देवव्रत सिंह कांग्रेस के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। रायपुर और बिलासपुर जैसे बड़े नगर निगमों में जोगी पार्टी के एक-दो लोग भी चुनाव जीतकर आ जाते हैं, तो वह बहुत बड़ी बात होगी। यानी साफ है कि आने वाले दिनों में पार्टी की राह और भी कठिन होगी।
मीडिया मैनेजमेंट, कल और आज
मीडिया को मैनेज करना एक वक्त बड़ा आसान काम हुआ करता था। किसी बड़े विज्ञापनदाता के खिलाफ कोई खबर होती थी, तो उसकी विज्ञापन एजेंसी गिने-चुने दो अखबारों के दफ्तर चली जाती थी, और कई बार खबर रूक जाती थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक वक्त बस दो प्रमुख अखबार हुआ करते थे, और एक अखबार को यह भरोसा दिलाना होता था कि दूसरे अखबार में भी खबर नहीं छपेगी, और खबर रूकने की पूरी गुंजाइश रहती थी। फिर धीरे-धीरे अखबार बढ़ते गए, और यह गुंजाइश घटती चली गई, फिर टीवी चैनल आए, तो जब तक रोका जाए, तब तक उन पर प्रसारण हो चुका रहता था। और अब डिजिटल मीडिया आने के बाद, लोगों के सोशल मीडिया पर सक्रिय होने के बाद कुछ भी नहीं रूक सकता। धरती पर आज किसी की इतनी ताकत नहीं है कि सबको रोक सके। कश्मीर की तरह अगर इंटरनेट महीनों तक बंद रहे, तो बात अलग है, लेकिन लोकतंत्र अगर कायम रहे, तो हर बात कहीं न कहीं छप ही जाती है। यह लोकतंत्र की एक बिल्कुल नई ऊंचाई है कि खबरों को दबाना, विचारों को कुचल देना, अब नामुमकिन है। लेकिन खबरों से परे सोशल मीडिया पर इतने किस्म के आरोप भी अब तैरते हैं, और आम लोगों से लेकर खास लोगों तक लोग खबर और आरोप में फर्क भी नहीं कर पाते हैं। नतीजा यह होता है कि सनसनीखेज आरोप एक खबर की तरह फैलते रहते हैं, और यह लोकतंत्र के लचीलेपन का एक खतरनाक पहलू भी है कि कानून आखिर इतने वॉट्सऐप संदेशों का पीछा करके उनका उद्गम स्थल ढूंढ सकता है कि यह मैली गंगा किस गोमुख से निकली है? अब मीडिया मैनेजमेंट चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और रईस उम्मीदवारों के पैकेज तक सीमित रह गया है, बाकी घटनाओं की खबरें पूरी तरह कोई नहीं रोक सकते।
प्रमाण पत्र की तारीख का खतरा
तीन बार के पार्षद और महापौर पद के दावेदार सूर्यकांत राठौर फर्जी जाति प्रमाण पत्र की शिकायत पर मुश्किलों में घिर सकते हैं। राठौर पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित रमन मंदिर वार्ड से चुनाव लड़ रहे हैं। वैसे तो उनके विरोधियों ने जाति प्रमाण पत्र को लेकर आपत्ति की थी, लेकिन एसडीएम ने आपत्ति खारिज कर दी। मगर कांग्रेस नेताओं ने नई शिकायत एसएसपी को सौंपी है, जिसमें जाति प्रमाण पत्र से जुड़े तहसील के रिकॉर्ड भी हैं।
सुनते हैं कि राठौर ने वर्ष-1993-94 में 11 हजार 414 नंबर का पिछड़ा वर्ग का प्रमाण पत्र बनना बताया है। कांग्रेस नेताओं ने शिकायत में यह भी बताया कि उस साल कुल 2 हजार प्रमाण पत्र भी नहीं बने थे। शहर कांग्रेस अध्यक्ष गिरीश दुबे को पूरा भरोसा है कि मतदान से पहले इस पूरे मामले की जांच पूरी हो जाएगी और सच सामने आ जाएगा। सच्चाई चाहे जो भी हो, वार्ड में राठौर के खिलाफ माहौल दिख रहा है। पहले उनकी जीत आसान दिख रही थी, जो कि दिन-ब-दिन कठिन होती दिख रही है।
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मुदित कुमार की संभावना...
हर आईएफएस अफसर का सपना होता है कि वह डीजीएफ यानी डायरेक्टर जनरल ऑफ फारेस्ट बनकर रिटायर हो। केंद्र सरकार का यह पद केन्द्र सरकार में विशेष सचिव के समकक्ष होता है। प्रदेश के अब तक किसी भी वन अफसर को डीजीएफ तक पहुंचने का मौका नहीं मिला है। मगर पीसीसीएफ (प्रशासन) से हटाए जाने के बाद मुदित कुमार सिंह इस पद की दौड़ मेें हैं और उनका नाम पैनल में भी आ गया है।
सुनते हैं कि ओडिशा कैडर के अफसर डीजीएफ सिद्धांत दास की नियुक्ति नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में होने के कारण यह पद खाली हुआ है। इसके लिए देशभर के कुल 20 अफसरों ने आवेदन दिया था। इनमें वर्ष 83 बैच से लेकर 89 बैच तक के अफसर हैं। मुदित कुमार सिंह वर्ष-84 बैच के हैं। मुदित कुमार देहरादून वन अकादमी के डीजी पद पर नियुक्ति के लिए प्रयासरत रहे और उनका नाम पैनल में भी था, लेकिन उनकी नियुक्ति नहीं हो पाई। छत्तीसगढ़ में वे वन अनुसंधान संस्थान में हैं, जहां उनके पास कोई ज्यादा कामधाम नहीं रह गया है। ऐसे में वे भारत सरकार में डीजीएफ बनने के लिए भरसक कोशिश कर रहे हैं।
वार्ड चुनाव का जोर
नगरीय निकाय चुनाव में प्रचार तेज हो गया है। रायपुर नगर निगम में तो महापौर पद के मतदाताओं को रिझाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। एक वार्ड में तो पानी की दिक्कतों को दूर करने के लिए पार्षद प्रत्याशी ने सौ से अधिक घरों में पानी के पंप लगवा दिए।
महापौर पद के कुछ दावेदारों ने न सिर्फ अपने वार्ड बल्कि आसपास के वार्डों का भी खर्चा उठाना शुरू कर दिया है। इसके लिए उन्हें पार्टी से आदेश दिया गया है। दोनों ही पार्टियां इस बार अपने प्रत्याशियों पर खर्च नहीं कर रही हैं। उन्हें सिर्फ प्रचार सामग्री उपलब्ध करा रही है। प्रचार सामग्री भी सीमित मात्रा में है। ये बात अलग है कि कुछ मजबूत प्रत्याशियों को बिना मांगे चंदा मिलना शुरू हो गया है। चंदा देने वालों में स्मार्ट सिटी परियोजना से जुड़े और निगम के ठेकेदार, शहर के बड़े बिल्डर, कॉलोनाईजर, अवैध निर्माण करने वाले, अवैध कब्जा कर चुके लोग ज्यादा हैं। कई ऐसे लोग भी चंदा दे रहे हैं जिनको किसी नाराजगी की वजह से वर्तमान पार्षद को निपटाना है, और किसी दूसरे उम्मीदवार में जीत की संभावना दिख रही है। ([email protected])
विधायकों ने दिखाया दम
कांग्रेस के एक-दो को छोड़कर सभी विधायक अपने निकायों से पसंदीदा उम्मीदवार तय कराने में कामयाब रहे। वैसे तो दिखावे के लिए वार्ड और जिले में प्रत्याशी के नामों पर विचार के लिए कमेटी भी बनाई गई थी, लेकिन हुआ वही जो विधायकों ने चाहा। सबसे ज्यादा झंझट राजनांदगांव नगर निगम के वार्डों को लेकर हुआ।
सुनते हैं कि राजनांदगांव में जिलाध्यक्ष कुलबीर छाबड़ा के साथ-साथ पुराने कांग्रेस नेताओं और पूर्व सांसद करूणा शुक्ला ने अपनी अलग सूची तैयार कर रखी थी। इस वजह से यहां काफी खींचतान हुई। इससे परे विधायकों की राय के विपरीत कुछ वार्डों में सीएम ने हस्तक्षेप कर टिकट दिलाई। नागभूषण राव, अजीत कुकरेजा और बिलासपुर नगर निगम के वार्ड से बसंत शर्मा, ऐसे हैं जिनके लिए स्थानीय विधायक सहमत नहीं थे। मगर सीएम की दखल के बाद उन्हें टिकट दी गई।
दुर्ग नगर निगम के वार्ड प्रत्याशियों के चयन में स्थानीय विधायक अरूण वोरा की एकतरफा चली। चर्चा है कि वार्ड प्रत्याशी मदन जैन के नाम पर गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू को आपत्ति थी, लेकिन जैसे ही उन्हें बताया गया कि मदन जैन के लिए मोतीलाल वोरा ने सिफारिश की है, वे खामोश हो गए।
फिलहाल दुर्ग में एक ऐसा ऑडियो तैर रहा है जिसमें अरूण वोरा के बेटे को एक कांग्रेसी धमका रहा है, और बातचीत में धमकी और गाली-गलौज भी चल रही है कि उसका टिकट कटवा दिया गया। टिकट को लेकर यह टेलीफोन कॉल यह भी बताती है कि अब मोतीलाल वोरा की अगली की अगली पीढ़ी भी कांग्रेस की राजनीति में दखल रखने लगी है। इसके साथ-साथ लोगों के लिए यह सबक भी है कि टेलीफोन पर बातचीत अब सुरक्षित नहीं है क्योंकि इस कॉल पर यह बहस भी चल रही है कि फोन की बातचीत रिकॉर्ड करके फैलाने का काम किया जा रहा है, उसके बाद भी गर्मागर्म बातचीत जारी भी है।
विकास उपाध्याय को फटकार
रायपुर नगर निगम के वार्ड प्रत्याशियों के चयन के दौरान विधायक विकास उपाध्याय ने एक वार्ड प्रत्याशी के नाम का विरोध करते हुए कहा कि उन्हें पिछली बार मैंने ही टिकट दिलाई थी। इस पर सीएम ने उन्हें फटकार लगाई और कहा कि टिकट आपने नहीं, कांग्रेस ने दी थी। इसके बाद विकास खामोश हो गए। हालांकि उनके अपने विधानसभा क्षेत्र में उन्हीं की पसंद से ही प्रत्याशी तय किए गए। सुनते हैं कि रायपुर शहर जिलाध्यक्ष गिरीश दुबे को तीनों विधायकों ने अपनी पसंद बता दी थी। इसलिए गिरीश दुबे ने वही नाम रखे, जो विधायकों को पसंद थे। रायपुर दक्षिण में प्रमोद दुबे और सत्यनारायण शर्मा की राय पर प्रत्याशी तय किए गए। ([email protected])
आगे-आगे देखें होता है क्या...
सीएस की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने डीकेएस घोटाले पर अपना प्रतिवेदन सरकार को सौंप दिया है। जांच प्रतिवेदन में भारी धांधली की पुष्टि होने पर प्रकरण ईओडब्ल्यू को सौंप दिया है। प्रारंभिक जांच में पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह के दामाद डॉ. पुनीत गुप्ता की घोटाले में संलिप्तता साबित हुई है। प्रतिवेदन में यह कहा गया कि आउटसोर्सिंग सर्विसेस के लिए पुनीत गुप्ता ने अलग-अलग कंपनियों को बिना सक्षम अधिकारी के अनुमोदन के आशय पत्र जारी कर दिया।
प्रतिवेदन में एक और गंभीर टिप्पणी की गई है कि डीकेएस पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीस्ट्यूट एण्ड रिसर्च सेंटर की परिकल्पना से क्रियान्वयन तक अलग-अलग सेवाओं के लिए आउटसोर्सिंग के कार्य में पाई गई विभिन्न कमियां, पर्याप्त सही पर्यवेक्षण और समीक्षा के अभाव के लिए सभी स्तर के विभागीय अफसर जिम्मेदार हैं। यानी अब गेंद ईओडब्ल्यू के पाले में आ गई है। देखना है कि वह किस स्तर के अफसरों को पूछताछ के लिए बुलाती है, अथवा कार्रवाई करती है। यानी विभाग के उस समय के सभी छोटे-बड़े अफसरों पर गाज गिरना तय माना जा रहा है, जिनमें से कुछ आज सरकार में महत्वपूर्ण जगहों पर बैठे हुए हैं, आगे-आगे देखें होता है क्या।
काटजू ने लिखा था कि मुल्ला ने लिखा था...
हैदराबाद में बलात्कार के आरोपियों को एक पुलिस मुठभेड़ में मारने को लेकर देश भर में बहस छिड़ी हुई है कि पुलिस के ऐसा करने की छूट मिलनी चाहिए या नहीं? लोकप्रिय प्रतिक्रिया कानून से परे है क्योंकि मारे जाने वाले लोग ऐसे नाचते लोगों के सगे नहीं हैं। ऐसे में लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज मार्कन्डेय काटजू का एक ट्वीट दुबारा पोस्ट किया है जिसमें उन्होंने लिखा था- जस्टिस अवध नारायण मुल्ला ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले में लिखा था- मैं जिम्मेदारी के पूरे एहसास के साथ कह रहा हूं कि पूरे देश में मुजरिमों का ऐसा कोई भी गिरोह नहीं है जिसके जुर्म का रिकॉर्ड भारतीय पुलिस कहे जाने वाले संगठित मुजरिम गिरोह के रिकॉर्ड के आसपास भी आता हो। ([email protected])
अपने बारे में पता न हो तो...
नगरीय निकायों में चुनावी माहौल गरमा रहा है। रायपुर नगर निगम की बात करें, तो यहां कांग्रेस और भाजपा के दिग्गज नेता, बागियों की मान मनौव्वल में जुटे हैं। वार्ड के इस चुनाव में गड़े मुद्दे उठाकर प्रतिद्वंदी को पीछे ढकेलने की कोशिश खूब होती है। एक वार्ड में तो महिला प्रत्याशी को सिर्फ इसलिए नुकसान उठाना पड़ सकता है कि उनके पति ने जमीन संबंधी विवाद पर एक सरकारी कर्मचारी की पिटाई कर दी थी। दो साल पुराना प्रकरण स्थानीय लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है।
ऐसे ही एक पुराने प्रकरण को लेकर एक वार्ड के पार्षद प्रत्याशी को चुनाव में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पार्षद प्रत्याशी तीन-चार साल पहले भिलाई-3 के एक होटल में रंगरेलियां मनाते पकड़े गए थे। उस समय भिलाई के अखबारों में खबरें भी छपी थी। अब विरोधी पुरानी कतरनें निकालकर पार्षद प्रत्याशी के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। एक अन्य वार्ड में तो महापौर पद के दावेदार को अपने रसिक मिजाज भाई की वजह से नुकसान उठाना पड़ सकता है। कहावत है यदि आपको अपने बारे में कुछ नहीं पता, तो चुनाव लड़ लीजिए। विरोधी सारी जानकारी सामने ले आएंगे। जितना छोटा चुनाव होता है, उतनी ही बड़ी चुनौती भी होती है, लोगों को याद है कि राजधानी में अजीत माने जाने वाले बेताज बादशाह तरूण चटर्जी अपने वार्ड का चुनाव हार गए थे, और उसके साथ-साथ शहर में उन पर भरोसा रखने वाले दर्जनों लोग मोटी-मोटी शर्त भी हार गए थे।
पुलिस में फेरबदल बाकी
नए साल में आईपीएस अफसरों के प्रभार बदले जा सकते हैं। बिलासपुर आईजी प्रदीप गुप्ता प्रमोट होकर एडीजी बनेंगे। इसके अलावा सरगुजा आईजी केसी अग्रवाल 31 दिसंबर को रिटायर होंगे। ऐसे में बिलासपुर और सरगुजा आईजी के पद पर नई पदस्थापना संभव है। सुनते हैं कि बस्तर की तरह बिलासपुर और सरगुजा आईजी का प्रभार डीआईजी स्तर के अफसर को दिया जा सकता है।
प्रभारी आईजी पद के लिए जिन नामों की चर्चा है उनमें रतन लाल डांगी, डीआर मनहर, संजीव शुक्ला और आरपी साय शामिल हैं। वैसे तो 97 बैच के अफसर दीपांशु काबरा के पास पिछले दस-ग्यारह महीनों से कोई काम नहीं है। वे रायपुर, बिलासपुर आईजी रह चुके हैं, फिर भी पता नहीं क्यों, अब तक सरकार की नजरें उन पर इनायत नहीं हुई है। वे निलंबित एडीजी मुकेश गुप्ता के करीबी माने जाते हैं, शायद यही वजह हो सकती है कि उन्हें कोई काम नहीं दिया जा रहा है। बीच में ऐसी चर्चा थी कि उन्हें दुर्ग का आईजी फिर से बनाया जाएगा, लेकिन सरकार के भीतर कुछ लोगों ने इसे रोक दिया। फिलहाल एसआरपी कल्लूरी भी बिना किसी काम के हैं।
बुरे कामों और बद्दुआ का असर
राज्य के नगरीय प्रशासन विभाग के सामने एक दिलचस्प मामला आया है जिसमें दुर्ग म्युनिसिपल के एक अफसर की बर्खास्तगी की तैयारी चल रही है। इस अफसर के खिलाफ भ्रष्टाचार के दो मामले थे, जिनमें से एक में उसे अदालत से सजा हो गई, और दूसरे मामले में अदालत से स्थगन मिल गया।
सरकारी रिकॉर्ड में इसमें से एक मामला दिखाकर और दूसरा मामला छुपाकर वह अब तक नौकरी में बना हुआ है। अब दोनों मामलों के कागज एक साथ सामने आए, तो नौकरी खतरे में पड़ी। छोटे-छोटे गरीब कर्मचारियों से रिश्वत लेने की बद्दुआ कभी तो असर करती ही है।
इंसान और मशीन की बुद्धि
इन दिनों दुनिया में आर्टिफिशियल इटेंलीजेंस, एआई, की जमकर चर्चा है कि कम्प्यूटर और मशीनें इंसानों को टक्कर देने वाले हैं, और जल्द ही उनकी कृत्रिम बुद्धि इंसानों की बुद्धि को पार कर जाएगी। फिलहाल आज सुबह गूगल क्रोम पर जब उन्नाव बलात्कार के खिलाफ यूपी में कल हुए कांग्रेस के प्रदर्शन में पुलिस महिलाओं को पीट रही थी, तो इस तस्वीर को सर्च करने पर गूगल इसका संभावित क्लू, फन, बता रहा था, फन यानी मजा। अब सोचने-विचारने पर समझ आया कि पुलिस की प्रदर्शनकारी महिला पर लाठियों के बजाय वह पीछे दीवार के पोस्टर में हॅंसते हुए योगी आदित्यनाथ और दूसरे मंत्रियों के चेहरों से यह नतीजा निकाल रहा था। इंसान की बुद्धि और मशीन की बुद्धि में भी खासा फासला खासे अरसे तक बने रहने वाला है।
सड़क पर खतरनाक हमला
अधिकतर धर्मों में धर्म का प्रचार किया जाता है ताकि उसे मानने वाले बढ़ें। ईसाई धर्म का प्रचार आधी सदी पहले से रेडियो सीलोन पर शुभ समाचार या ऐसे ही किसी नाम से सुनाई पड़ता था, बाद में आदिवासी इलाकों में ईसाई धर्म प्रचारक बहुत काम करते थे, और लोगों को यह समझाते थे कि ईसा मसीह ही उनका कल्याण कर सकते हैं। हाल के बरसों में हिन्दुस्तान के अनगिनत शहरों में हरे कृष्ण आंदोलन कहे जाने वाले इस्कॉन के संन्यासी किसी भी भीड़ भरी सड़क पर एकमुश्त टूट पड़ते हैं, और गीता या धर्म की दूसरी किताबों को बेचने के लिए गाडिय़ां रोकने लगते हैं। यह इतने बड़े पैमाने पर किसी एक जगह किया जाता है कि आती-जाती गाडिय़ां रूकने को मजबूर हो जाएं। आधा-एक दर्जन संन्यासी अपनी भगवा-पीली वर्दी में सड़क के बीच खड़े गाडिय़ां रोकने लगते हैं, और इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की सड़कों पर जगह-जगह इस्कॉन का यह हल्ला बोल चल रहा है। कई मौकों पर इस्कॉन की गाड़ी सड़क किनारे रोककर पैदल घूमते लोगों के बीच किताबें बेची जाती हैं, वहां तक तो ठीक है, लेकिन तेज रफ्तार गाडिय़ों के सामने कूदकर जिस तरह अभी कृष्ण को लोकप्रिय किया जा रहा है, उसमें गाडिय़ों के आपस में टकराने का खतरा भी है, और किसी संन्यासी के स्वर्गवासी होने का भी। जो संगठन दुनिया के कई देशों में काम करता है, उसे कोई बेहतर और अधिक सभ्य तरीका इस्तेमाल करना चाहिए, न अपने लिए खतरा खड़ा करें, न दूसरों के लिए।
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रायपुर में बना एक विश्व रिकॉर्ड...
नगरीय निकाय टिकट वितरण के बीच कईयों की गुटीय निष्ठा भी साबित हुई है। डॉ. चरणदास महंत के करीबी माने जाने वाले बिलासपुर के जिला अध्यक्ष विजय केशरवानी का रूख बदला-बदला सा रहा। वे डॉ. महंत के बजाए सीएम समर्थकों के साथ खड़े दिखे। यही वजह है कि बिलासपुर नगर निगम के टिकट वितरण में महंत समर्थक गच्चा खा गए।
रायपुर के नेताओं ने अपेक्षाकृत होशियारी दिखाई। कुलदीप जुनेजा, विकास उपाध्याय, पंकज शर्मा और प्रमोद दुबे व गिरीश दुबे एक राय होकर आए थे। सब एक-दूसरे का साथ देते नजर आए। प्रमोद दुबे को भगवती चरण शुक्ल वार्ड से प्रत्याशी बनाने की बात आई, तो सबने समर्थन कर दिया। किसी ने भी बाहरी जैसा मुद्दा नहीं बनाया। कुलदीप को अजीत कुकरेजा के नाम पर आपत्ति थी, लेकिन सीएम भूपेश बघेल ने वीटो कर अजीत को टिकट दिलवा दी।
लंबे समय तक कांग्रेस में रहे और अब जोगी कांग्रेस के भीतर या बाहर, पता नहीं कहां खड़े विधान मिश्रा ने कल प्रमोद दुबे के वार्ड चुनाव लडऩे पर प्रतिक्रिया दी, और कहा राजधानी रायपुर से आज प्रमोद दुबे के नाम एक गिनीज रिकॉर्ड बना है। लोकसभा सांसद का चुनाव लडऩे के बाद वार्ड पार्षद का चुनाव लडऩे वाले वे समूचे ब्रम्हांड के प्रथम व्यक्ति बन गए हैं।
सौदान सिंह की मेहरबानी से...
भाजपा की पूर्व मंत्री सुश्री लता उसेंडी और पूर्व विधायक डॉ. सुभाऊ कश्यप को केंद्र सरकार की कमेटियों मेें रखा गया है। दोनों ही बस्तर से हैं। लता को कोल और कश्यप को पेट्रोलियम सलाहकार समिति का सदस्य बनाया गया है। सुनते हैं कि दोनों को सदस्य बनवाने में सौदान सिंह की भूमिका अहम रही है। जबकि विधानसभा चुनाव में बुरी हार के बाद पार्टी के भीतर यह चर्चा थी कि सौदान सिंह की पूछ-परख कम हो गई है। मगर नई नियुक्तियों के बाद सौदान सिंह की पकड़ साबित हुई है।
लता और सुभाऊ कश्यप, दोनों लगातार दो चुनाव हार चुके हैं। लेकिन वे पार्टी संगठन के पसंदीदा बने हुए हैं। चुनाव में हार के बाद भी विशेषकर लता के लिए खुशी का क्षण आया है। उनके नाम पर नगरनार में पेट्रोल पंप की लॉटरी निकली है। नगरनार का पेट्रोल पंप कमाई के लिहाज से काफी बेहतर माना जा रहा है। इसके अलावा उनका नाम प्रदेश अध्यक्ष के रूप में प्रमुखता से उभरा है। नए अध्यक्ष के चयन में सौदान सिंह की राय अहम रहेगी।
आखिरी पल की टिकटें बेहतर...
टिकट को लेकर कांग्रेस में विवाद ज्यादा था लेकिन प्रचार भाजपा का ज्यादा हुआ। कांग्रेस नेताओं ने होशियारी दिखाई और नामांकन दाखिले के अंतिम दिन प्रत्याशियों की सूची जारी की। भाजपा एक दिन पहले जारी कर चुकी थी इसलिए टिकट कटने से खफा नेताओं को धरना-प्रदर्शन करने के लिए पर्याप्त समय मिल गया।
एकात्म परिसर में टिकट कटने से नाराज नेता ने दो सौ समर्थकों के साथ डेरा डाल दिया। बाहर से आने वाले नेताओं को परिसर में घुसने में कठिनाई हो रही थी। तनावपूर्ण माहौल के बीच उकसाने वाले नारे लग रहे थे। पुलिस सुरक्षा तो थी नहीं, ऐसे में किसी तरह की अप्रिय स्थिति को टालने के लिए सांसद सुनील सोनी आगे आए और सूझबूझ दिखाते हुए नाराज नेता को बताया कि उन्हें टिकट दी जा रही है। फिर क्या था, तीन घंटे के धरना-प्रदर्शन के बाद माहौल बदल गया। तब कहीं जाकर बाकी प्रत्याशी नामांकन दाखिले के लिए रवाना हो सके।
खुफियागिरी अब गैरजरूरी...
एक वक्त था जब लोगों के मन की टोह लेने की बात होती थी। कुछ लोग इसे मन की थाह लेना कहते थे, कुछ कहते थे कि उसके दिल-दिमाग को भी टटोल लो। लेकिन अब वक्त बदल गया। अब सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोग ट्विटर और फेसबुक पर अपने दिल-दिमाग को नुमाइश पर ही बिठा देते हैं, और किसी के मन को टटोलने की जरूरत ही नहीं रह जाती। लोग अपनी पसंद-नापसंद, अपनी हिंसा और अपनी नफरत, इन सबको इतना खुलकर लिखते हैं कि किसी के मन में झांकने की कोई जरूरत ही नहीं रहती। जो लोग सोशल मीडिया पर हैं उनकी उंगलियां दिमाग से अधिक रफ्तार से कुलबुलाती हैं, और दिल से अधिक बेचैन रहती हैं कि अपनी बात कहें। नतीजा यह होता है कि एक वक्त लोगों की जासूसी करने की जरूरत रहती थी, और अब सोशल मीडिया को लेकर यह मजाक बनता है कि अब सरकार ने अपनी खुफिया एजेंसियों का बजट आधा कर दिया है कि लोग तो अपने आपको खुद ही सोशल मीडिया पर उजागर कर रहे हैं, खर्च किस बात का?
सत्तारूढ़ कांग्रेस में जोरदार किचकिच
काफी किचकिच के बाद रायपुर, बिलासपुर और दुर्ग नगर निगम के वार्ड प्रत्याशियों की कांग्रेस की सूची नामांकन दाखिले के आखिरी दिन जारी हो सकी। प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया, सीएम भूपेश बघेल और अन्य नेताओं के साथ तडक़े 5 बजे तक बैठक करते रहे। पुनिया के दिल्ली उडऩे के बाद तीनों नगर निगम के वार्ड प्रत्याशियों की सूची जारी की गईं। सुनते हैं कि बिलासपुर में सर्वाधिक विवाद हुआ है। चर्चा है कि जिन नामों पर सहमति बनी थी, उनमें से कई नाम बदलकर सूची जारी कर दी गई।
बिलासपुर में अटल श्रीवास्तव और विधायक शैलेष पाण्डेय अपने-अपने समर्थकों को ज्यादा से ज्यादा टिकट दिलाने के लिए प्रयास करते रहे। मगर सूची में हेर-फेर होने से अटल के कई लोग टिकट पा गए। सूची जारी होने के बाद इसको लेकर कानाफूसी शुरू हो गई है। इस पूरे मामले को लेकर पीसीसी अध्यक्ष मोहन मरकाम पर उंगलियां उठ रही है और समिति के एक-दो सदस्य इसको लेकर काफी खफा हैं। इसको लेकर पार्टी के भीतर घमासान होने के संकेत हैं और मामला दिल्ली दरबार तक ले जाने की तैयारी चल रही है। यह साफ है कि मोहन मरकाम को पहली बार पार्टी के भीतर मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है।
सरोज की एकतरफा चली
तेजतर्रार सांसद विजय बघेल और पूर्व मंत्री प्रेमप्रकाश पाण्डेय व वैशाली नगर के विधायक विद्यारतन भसीन की तिकड़ी ने राज्यसभा सदस्य सरोज पाण्डेय के खिलाफ लड़ाई लड़ी और गड़बड़ी का आरोप लगाकर संगठन चुनाव रूकवाने में सफल रहे। मगर निकाय चुनाव के टिकट वितरण में उन्हें बुरी तरह शिकस्त खानी पड़ी। दुर्ग नगर निगम में तो सरोज की एकतरफा चली।
सुनते हैं कि दुर्ग नगर निगम के एक वार्ड से प्रेमप्रकाश-विजय बघेल, दिवंगत पूर्व मंत्री हेमचंद यादव के पुत्र को प्रत्याशी बनाना चाहते थे। चुनाव समिति के कई सदस्य भी इसके पक्ष में थे, लेकिन सरोज की सूची में नाम नहीं होने के कारण उन्हें टिकट नहीं मिल पाई। जिन निकायों में सरोज हस्तक्षेप करना चाहती थी, वहां उन्हें पूरा मौका मिला। यह सब देखकर माना जाने लगा है कि संगठन में भी सरोज का दबदबा रहेगा।
अब ट्रांसफर से दूर, बहुत दूर...
छत्तीसगढ़ की राज्य सेवा से आगे पढ़कर आईएएस तक पहुंचने वाले चन्द्रकांत उइके का कल एक बीमारी के चलते निधन हो गया। वे राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे, और इसलिए उनका अलग-अलग विभागों में तबादला होते रहता था। लेकिन जहां बाकी अफसरों का तबादला दो-तीन बरस में एक बार होता है, चन्द्रकांत का तबादला औसतन हर बरस होता था। वे बहुत हॅंसमुख थे, खुशमिजाज थे, और तबादलों का बुरा भी नहीं मानते थे। जनसंपर्क विभाग में तैनाती के बाद वे जब इस अखबार के दफ्तर में मिलने आए तो गर्मजोशी के साथ उन्होंने खुद ही मजा लेते हुए बताया कि वे अधिक समय इस कुर्सी पर नहीं रहेंगे, क्योंकि वे अधिक समय तक किसी भी कुर्सी पर नहीं रहे। न उन्होंने खुद होकर कहीं जाने की कोशिश की, न खुद होकर कहीं से जाने की कोशिश की, लेकिन अलग-अलग कई सरकारों ने उनको 21 बरस की नौकरी में 20 बार इधर-उधर किया। उनका हाल देखकर हरियाणा के एक आईएएस, अशोक खेमका की याद आती है कि चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, औसतन हर बरस उनका एक बार तबादला हो ही गया।
चन्द्रकांत उइके ने बताया था कि एक बार उनकी पोस्टिंग लोक आयोग में हो गई, और जब वे वहां पहुंचे, तो लोकायुक्त ने उन्हें देखते ही नापसंद कर दिया, और कहा कि वे अपना तबादला कहीं और करवा लें। लोकायुक्त ने इस अफसर से बात करते हुए कुर्सी पर बैठने भी नहीं कहा, और इस तरह चन्द्रकांत उइके इस दफ्तर से कुर्सी पर एक बार बैठे बिना ही निकल आए, और उनका दूसरी जगह तबादला हो गया। लेकिन उन्होंने आदतन इसका बुरा नहीं माना, और अगली पोस्ट पर फिर साल भर के लिए चले गए। अब यह हॅंसमुख अफसर राज्य सरकार की पहुंच से दूर ट्रांसफर पर चले गया है, और अब उसे सरकार कहीं नहीं भेज सकेगी।
नड्डा के नाम पर भी टिकट नहीं...
सुनील सोनी के सांसद बनने के बाद शहर जिला भाजपा की राजनीति में बड़ा बदलाव आया है। पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को सुनील सोनी से काफी बल मिला है। इसका नमूना रायपुर नगर निगम के वार्ड पार्षदों के प्रत्याशी चयन में देखने को मिला। रायपुर के वार्ड पार्षदों के प्रत्याशी चयन में बृजमोहन का दबदबा रहा। आधे से अधिक वार्डों में सुनील सोनी और बृजमोहन की पसंद के प्रत्याशी तय किए गए।
सुनते हैं कि महानंद नाम के एक वार्ड टिकट के दावेदार के लिए पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा के ऑफिस से सिफारिश आई थी, लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिली। प्रत्याशी चयन में शहर जिला अध्यक्ष राजीव अग्रवाल भी अपना दमखम दिखाने में कामयाब रहे। भाजपा टिकट के दावेदार सिंधी नेताओं को श्रीचंद सुंदरानी से काफी उम्मीदें थी। सुंदरानी की सलाह पर समाज के एक प्रतिनिधि मंडल ने पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह से भी मुलाकात की थी, लेकिन प्रतिनिधि मंडल के एक भी दावेदार को टिकट नहीं मिल पाई है। 66 वार्डों की सूची में एकमात्र सचिन मेघानी को ही टिकट मिली, उनके नाम की सिफारिश सुंदरानी के बजाए बृजमोहन अग्रवाल ने की थी।
श्रीचंद सुंदरानी के विरोधियों का मानना है कि खुद सुंदरानी ने सिंधी समाज के दावेदारों को टिकट दिलाने में रूचि नहीं ली। वे नहीं चाहते कि भाजपा में किसी और सिंधी नेता का कद बढ़े। ताकि उनका दबदबा कायम रहे। चेम्बर ऑफ कामर्स के उपाध्यक्ष भरत बजाज ने सोशल मीडिया में पहले ही ऐलान कर दिया था कि प्रतिनिधि मंडल में गए किसी भी नेता को टिकट नहीं मिलेगी। बजाज की भविष्यवाणी सही साबित हुई और समाज के नेता श्रीचंद को कोस रहे हैं।
एक न्यौता ऐसा भी
शादियों पर होने वाले अंधाधुंध खर्च के साथ-साथ अब रायपुर जैसे शहर में सड़कों पर मेहमानों की गाडिय़ां ऐसे ट्रैफिक जाम कर रही हैं कि पुलिस और प्रशासन महज चेतावनी देते रह जाते हैं, और शादियों के महूरत पर लगता है कि मैरिज गार्डन वाले ही इस शहर के माई-बाप हैं। अभी एक शादी में जब एक मेहमान परिवार बाहर निकला तो पाया कि उनकी गाड़ी सड़क किनारे चारों तरफ गाडिय़ों के बीच फंसी हुई है। काफी देर तक इंतजार के बाद भी जब रास्ता नहीं खुला, तो उन्होंने फोन करके टैक्सी बुलवाई, और उसमें एक दूसरी शादी में चले गए। वहां से निपटाकर निकले तो फिर टैक्सी बुलवाई और पहली शादी में आए कि अपनी गाड़ी ले जाएं। लेकिन तब तक भी रास्ता नहीं खुला था, तो गाड़ी वहीं छोड़कर टैक्सी से ही घर चले गए, और अगली सुबह ड्राइवर भेजकर गाड़ी बुलवाई।
जो विवाह स्थल दस-दस, बीस-बीस लाख रूपए वसूलते हैं, उन पर पुलिस और प्रशासन का कोई काबू नहीं है। शादियों के मौसम के पहले हर बार बैठक ली जाती है, चेतावनी दी जाती है, और फिर हर बार की तरह मौके पर भैंस पानी में चली जाती है। ऐसी फिजूलखर्ची और ऐसी दिक्कतों के बीच अभी एक किसी परिवार का शादी का कार्ड वॉट्सऐप पर मिला जिसमें पिछले हफ्ते हुई शादी का अलग किस्म का न्यौता था। परिवार ने लिखा कि उनके बेटे ने यह सोच-समझकर तय किया कि वह रजिस्टर्ड पद्धति से शादी करना चाहता है, और शादी पर मां-बाप का पसीने का पैसा फिजूल खर्च करना नहीं चाहता है। शादी में आने वाले रिश्तेदार दस मिनट के समारोह के लिए तीन-तीन दिन का सफर, समय, और पैसा खर्चते हैं जिसकी जरूरत नहीं है। इसलिए आपसे अनुरोध है कि 28 नवंबर 2019 को शुभ समय पर हम घर पर ही चंद लोगों की मौजूदगी में रजिस्टर्ड विवाह करने जा रहे हैं, आप जहां भी हों वहीं से हमें आशीर्वाद दीजिए, हमारी भावनाओं का सम्मान कीजिए।
एकतरफा मोहब्बत में सावधान...
इन दिनों मोबाइल फोन पर तरह-तरह के मैसेंजर की मेहरबानी से लोग एक-दूसरे से बड़ी अंतरंग बातचीत भी करने लगते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि ऐसे सारे संदेश किसी ऐसे के फोन पर दर्ज होते रहें जो कि उनसे नाखुश हो, तो उनका भांडाफोड़ भी किया जा सकता है। मैसेंजर पर परेशान करने वाले कुछ लोगों के लिए आए दिन कोई न कोई महिला फेसबुक पर यह लिखते दिखती है कि वह जल्द ही कुछ लोगों के संदेशों के स्क्रीनशॉट उजागर करेगी। ऐसा ही एक स्क्रीनशॉट अभी सामने आया है जो एक समर्पित एकतरफा आशिक का दिख रहा है। इसलिए किसी को अंतरंग संदेश भेजते हुए लोग सावधान रहें कि वे किसी पर बोझ तो नहीं हैं, वरना किसी भी दिन सरेआम कपड़े उतर जाएंगे। ([email protected])
दिल मिलने की ओर?
पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह की वीरेन्द्र पाण्डेय के साथ बैठक की राजनीतिक हल्कों में जमकर चर्चा है। अटकलें यह भी लगाई जा रही हैं कि वीरेन्द्र पाण्डेय भाजपा में शामिल हो सकते हैं। पाण्डेय पिछले 11 साल से भाजपा से बाहर हैं और उन्होंने विचारक गोविंदाचार्य के मार्गदर्शन में स्वाभिमान पार्टी का गठन किया है। इन सबके बावजूद रमन सिंह की वीरेन्द्र पाण्डेय से मेल मुलाकात के राजनीतिक निहितार्थ हैं।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि रमन सिंह और वीरेन्द्र पाण्डेय के बीच सामान्य बोलचाल भी करीब एक दशक से बंद थी। वीरेन्द्र पाण्डेय, रमन सिंह के बड़े आलोचक रहे हैं और पिछली सरकार के भ्रष्टाचार के प्रकरणों को लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाईयां लड़ीं। अविभाजित मप्र की जनता पार्टी सरकार में संसदीय सचिव रह चुके वीरेन्द्र पाण्डेय, भाजपा के संस्थापक सदस्य रहे हैं। आज भले ही उनके पास अपेक्षाकृत जनसमर्थन नहीं है, लेकिन उन्हें राजनीतिक-प्रशासनिक हल्कों में गंभीरता से लिया जाता है। करीब 2 साल पहले रमन सिंह के एक मंत्री के खिलाफ सिर्फ इस बात को लेकर शिकायत केन्द्रीय नेतृत्व से हुई थी कि वे वीरेन्द्र पाण्डेय को मदद कर रमन सिंह के लिए परेशानी खड़ी कर रहे हैं।
खैर, रमन सिंह ने वीरेन्द्र पाण्डेय के साथ अपनी खटास को दूर करने के लिए खुद पहल की है। दिवंगत नेता ओमप्रकाश पुजारी की श्रद्धांजलि सभा में दोनों की मुलाकात हुई। रमन सिंह ने उनसे गर्मजोशी से मुलाकात की और फिर चाय पर घर आने का न्यौता दिया। इसके बाद डॉ. कमलेश अग्रवाल, वीरेन्द्र पाण्डेय को लेकर डॉ. रमन सिंह के घर गए और तीनों के बीच करीब 2 घंटे तक राजनीतिक और अन्य विषयों पर सामान्य चर्चा हुई।
सुनते हैं कि रमन सिंह अच्छी छवि वाले नेताओं को साथ लाना चाहते हैं। ताकि भूपेश सरकार के खिलाफ लड़ाई मजबूती से लड़ी जा सके। वे कुछ मामलों को लेकर कानूनी लड़ाई भी लडऩा चाहते हैं। ऐसे में वीरेन्द्र पाण्डेय जैसे नेता उनके लिए मददगार हो सकते हैं।
अभी हाल यह है कि नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने नान प्रकरण की जांच रोकने के लिए दायर जनहित याचिका की जिसको लेकर काफी किरकिरी हो रही है। बिलासपुर हाईकोर्ट की स्थापना के बाद अपनी तरह की पहली जनहित याचिका है, जो कि किसी जांच को रोकने के लिए लगाई गई है। रमन समर्थकों का मानना है कि इस तरह की याचिका वीरेन्द्र पाण्डेय जैसे लोगों ने लगाई होती, तो इसका कुछ अलग ही वजन होता। अब वीरेन्द्र पाण्डेय, रमन सिंह की मुहिम का हिस्सा बनते हैं या नहीं, यह देखना है।
जितनी ऊंची जाति, उतना जुर्माना...
छत्तीसगढ़ की राजधानी के एक पेट्रोल पंप पर दो दिन पहले की एक तस्वीर सरकार के नियम-कायदे को धता बताते हुए अपने जातिगत अहंकार का सुबूत भी है। मामला तब और गंभीर हो जाता है जब यह पेट्रोल पंप प्रदेश के आरटीओ मंत्री मो. अकबर का हो। राजधानी की पुलिस कमजोर लोगों को पकडऩे का काम तो रोज करती है, लेकिन ऐसे दुस्साहसी लोग महंगी और तेज आवाज करती मोटरसाइकिलों को अनदेखा ही करते चलते हैं कि जिसकी इतनी हिम्मत हो, उससे क्यों उलझा जाए। लेकिन नंबर प्लेट पर अहंकार का यह अकेला मामला नहीं है, कांग्रेस-भाजपा से लेकर मीडिया तक के लोग नंबर की जगह अपना घमंड लिखाकर चलते हैं। कुछ लोग इस घमंड को गाडिय़ों के शीशों पर लिखवा लेते हैं, जो कि नंबर प्लेट के मुकाबले तो फिर भी बेहतर जगह है। अभी कुछ हफ्ते पहले भिलाई की एक फोटो आई जिसमें एक कार पर स्टिकर लगा था- भीतर कुर्मी है।
ऐसे स्टिकर दिल्ली की याद दिलाते हैं जहां- भीतर जाट है जैसे स्टिकर दिख ही जाते हैं। महंगी मोटरसाइकिलों को छूने से रायपुर की ट्रैफिक पुलिस हीनभावना की शिकार दिखती है, और उनसे दूर रहती है। इन दिनों जितनी महंगी गाड़ी, उतना ही अधिक ट्रैफिक नियमों को तोडऩा। लेकिन पुलिस बड़े लोगों से उलझने के बजाय बाकी कामों में लगी दिखती है, और ऐसी नंबर प्लेटों वाली गाडिय़ां चौराहों को धड़ल्ले से पार करती रहती हैं। जो जितनी ऊंची जाति समझी जाती है, उस पर नंबर प्लेट देखकर उतना ही बड़ा जुर्माना लगाना चाहिए।
भाजपा टिकट के लिए राज्यपाल की भी सिफारिश?
भाजपा में नगरीय निकाय पार्षद टिकट के लिए जमकर खींचतान चल रही है। चर्चा है कि कुछ दावेदारों के लिए राज्यपालों की भी सिफारिशें आई हैं। सुनते हैं कि एक विवाह समारोह में जिले के एक बड़े पदाधिकारी से एक राज्यपाल ने पूछ लिया कि उनके नामों का क्या हुआ? चर्चा तो यह भी है कि बिलासपुर के दो वार्डों में राज्यपाल की सिफारिश पर प्रत्याशी तय किए गए। रायपुर नगर निगम से लेकर बलौदाबाजार और अन्य जगहों पर भी एक राज्यपाल ने अपनी तरफ से नाम भेजे हैं। इनमें से कई नामों पर सहमति नहीं बन पाई है, लेकिन टिकट काटने की हिम्मत भी पार्टी नेता नहीं जुटा पा रहे हैं। ([email protected])
सवाल महंगा पड़ गया?
पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह ने नान प्रकरण में महंगे वकीलों की सेवाएं लेने पर सवाल क्या खड़े किए, बवाल मच गया। सुनते हैं कि सीएम सदन में जवाब देने से पहले ब्रीफिंग ले रहे थे, तो उनके पास भुगतान को लेकर ऐसी-ऐसी जानकारियां आईं कि वे चकित रह गए। रमन सरकार में तो कई वकीलों ने जमकर चांदी काटी थी। ऐसे ही एक प्रकरण की जांच भी चल रही है। हुआ यूं कि रमन सरकार की तेंदूपत्ता नीति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हुई थी और इसमें सरकार की पैरवी तत्कालीन महाधिवक्ता ने की थी। चूंकि महाधिवक्ता सरकार के विधि अधिकारी होते हैं। उनका वेतन भत्ता तय रहता है। ऐसे में उन्हें शासन की पैरवी के लिए अतिरिक्त भुगतान नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके महाधिवक्ता को 13 लाख रूपए लघु वनोपज संघ से भुगतान कर दिया गया। सरकार बदलने के बाद एक आरटीआई कार्यकर्ता ने इसकी पूरी जानकारी निकलवाई और अलग-अलग स्तरों पर इसकी शिकायत की। संघ ने इस पूरे मामले में विधि विभाग से मार्गदर्शन मांगा है। विधि विभाग में पिछले छह महीने से फाइल पड़ी है, अब विधानसभा में सवाल उठा, तो इस पर भी निगाहें गईं।
एक प्रकरण में तो एक जूनियर वकील को स्टैंडिंग कॉउंसिल बनाने पर विधि विभाग ने विपरीत टिप्पणी की थी, बावजूद इसके उनकी नियुक्ति कर दी गई। कमल विहार योजना के खिलाफ तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में दर्ज प्रकरणों की पैरवी के लिए वकीलों पर ही करीब 13 करोड़ रूपए खर्च कर दिए गए। ऐसे ही ढेरों वकीलों को पिछली सरकार के दौरान भुगतान की जानकारी वर्तमान सीएम के पास पहुंची, तो वे पहले से ही भरे थे और जब पूर्व सीएम ने सरकार पर सरकारी खजाना लुटाने का आरोप लगाया, तो भूपेश बघेल भड़क गए। उनके तेवर देख पुराने सीएम भी ज्यादा कुछ नहीं बोल पाए और उल्टे उन्हें सीएम सर, सीएम मैडम के नाम पर काफी कुछ सुनना पड़ गया।
आईएएस बिरादरी खफा...
पूर्व सीएम रमन सिंह के एक और सवाल को लेकर आईएएस बिरादरी गुस्से में है। उन्होंने पूछ लिया कि पिछले पांच साल में कितने आईएएस अफसर विदेश यात्रा पर गए थे। सबसे ज्यादा यात्राएं ऋचा शर्मा ने की, वे 24 बार विदेश प्रवास पर रहीं। कुल मिलाकर 63 आईएएस अफसर 129 बार विदेश टूर पर गए। दिलचस्प बात यह है कि खुद रमन सिंह ने इसकी अनुमति दी थी।
आईएएस के वाट्सएप ग्रुप में पूर्व सीएम के सवाल पर तीखी प्रतिक्रियाएं आई है। एक आईएएस ने लिखा कि विदेश यात्रा पर आपत्ति थी, तो उन्होंने (रमन सिंह) ने अनुमति क्यों दी? सबसे ज्यादा खफा ऋचा शर्मा बताई जा रही हैं, जिन्हें नियम-कायदे मानने वाली और ईमानदार अफसर माना जाता है। उनके पति राजकमल दुबई में एक निजी कंपनी में हैं। वे भी छत्तीसगढ़ कैडर के आईएएस रहे हैं, जिन्होंने बाद में नौकरी छोड़कर निजी कंपनी ज्वाईन कर ली। सुनते हंै कि ऋचा जब भी विदेश गई, उन्होंने सीएम से अनुमति ली। चूंकि उनका परिवार दुबई में रहता है, यह तत्कालीन सीएम की जानकारी में था और हर बार उन्होंने अनुमति दी। ऐसे में उनकी निजी यात्राओं को सार्वजनिक तौर पर उठाने से उनकी नाराजगी स्वाभाविक है। इनमें से हर यात्रा उन्होंने अपने निजी खर्च से की थी।
एक अन्य आईएएस ने पोस्ट किया कि निजी यात्राओं के लिए आईएएस अफसरों को अब परमिशन की जरूरत नहीं रह गई है। एक अन्य अफसर ने लिखा कि निजी कंपनी के लोग एक साल में कई बार विदेश प्रवास पर जाते रहते हैं, ऐसे में आईएएस अफसरों की निजी यात्राओं पर सवाल खड़े करना पूरी तरह गलत है। वैसे भी दुबई और अन्य एशियाई देशों में आने-जाने में कोई ज्यादा खर्च नहीं होता। चर्चा तो यह भी है कि एक-दो अफसर पूर्व सीएम के राडार पर हैं, और उनकी विदेश यात्राओं पर सवाल उठाकर उन्हें घेरने की रमन सिंह की रणनीति है। चाहे कुछ भी हो, पूर्व सीएम अब आईएएस अफसरों के पसंदीदा नहीं रह गए हैं, कम से कम आईएएस अफसरों के मैसेज देखकर तो यही लगता है।
कुछ आईएएस अफसरों का यह कहना है कि अगर वे निजी विदेश प्रवास पर जा रहे हैं, तो यह जानकारी निजी है, और सरकार को इसे बाहर किसी को देने का कोई हक भी नहीं है, यह निजता का उल्लंघन है। सरकार खुद चाहे तो इस खर्च का हिसाब मांग ले, लेकिन बाकी दुनिया को यह जानने का हक क्यों होना चाहिए कि वे निजी प्रवास पर किस-किस देश जाते हैं?
केंद्र और राज्य की बदली तस्वीरें
बस्तर में 2012 में सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के सुरक्षाकर्मियों ने जिस तरह 17 बेकसूर आदिवासियों को थोक में मार डाला था, वह मामला आज राज्य में एकदम गर्म है। एक अजीब सी बात यह है कि उस वक्त राज्य में तो भाजपा की रमन सरकार थी, लेकिन केंद्र में यूपीए की सरकार में कांगे्रस के पी चिदंबरम गृहमंत्री थे जो कि सीआरपीएफ को नियंत्रित करने वाला मंत्रालय भी था। अब आज राज्य की भूपेश सरकार अगर इस हत्याकांड के हत्यारों को सजा दिलाती है, तो उस वक्त के गृहमंत्री के नाम पर भी आंच तो आएगी। लेकिन चिदंबरम आज जेल में हैं, और यूपीए की उस वक्त की सरकार के गृहमंत्री की छवि बचाना भूपेश सरकार की प्राथमिकता भी नहीं है। सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ मीडिया और कांगे्रस के छत्तिसगढिय़ा नेताओं का दबाव कार्रवाई के लिए है, और कार्रवाई करने की बात मुख्यमंत्री ने कल ही सार्वजनिक रूप से कही भी है। छत्तीसगढ़ में उस वक्त के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने इस फर्जी मुठभेड़ को पूरी तरह सही करार दिया था, और अब उनका वह सार्वजनिक बयान राजनीतिक रूप से उनके लिए भारी पड़ रहा है क्योंकि उन्हीं की शुरू करवाई गई न्यायिक जांच ने मुठभेड़ को फर्जी और मारे गए लोगों को बेकसूर बताया है। ([email protected])
गुरू का संदेश या सामाजिक खिचड़ी
सियासत में गुरू-चेले की परंपरा बरसों पुरानी है। सूबे के मुखिया भूपेश बघेल के राजनीतिक गुरु दिग्विजय सिंह पिछले दिनों रायपुर प्रवास पर आए थे। कहा गया कि वे यहां सामाजिक और व्यक्तिगत कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आए थे। यही वजह है कि उन्होंने काफी संजीदगी से अपने कामकाज निपटाए, लेकिन जाते-जाते उनकी सूबे के पूर्व मुखिया डॉ. रमन सिंह से मुलाकात कार्यक्रम ने राजनीतिक हलकों को नया मुद्दा दे दिया। यह मुलाकात इस लिहाज से भी अहम हो जाती है, क्योंकि वे यहां के मुखिया के राजनीतिक गुरू माने जाते हैं और उन्होंने अपने चेले के धुर विरोधी से मुलाकात की। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखरी ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि उन्हें विरोधियों से मिलने के लिए होटल से लेकर रमन सिंह के घर तक पैदल चलना पसंद किया। खैर, जो भी बात रही होगी, लेकिन इससे विरोधी खेमे का उत्साह बढ़ा है। दूसरी तरफ यह चर्चा भी है कि ये मुलाकात सामाजिक कार्यक्रम के संबंध में थी और वे यहां पूर्व मुखिया को न्यौता देने गए थे। वाकई ऐसा है तो बात दूर तलक जाएगी और चर्चा शुरू हो गई कि विपक्षी दल के नेताओं के बीच कुछ सामाजिक खिचड़ी तो नहीं पक रही। अब जब बात धर्म, जाति, या किसी आध्यात्मिक संबंध पर आकर टिकती है, तो फिर राजपूत-राजपूत एक हो जाते हैं, और दिग्विजय का रमन सिंह के घर जाना हो सकता है कि महज यही एक मुद्दा रहा हो।
शुतुरमुर्ग और अफसरों में समानता
छत्तीसगढ़ के पूर्व सीएम ने एक बार अफसरों को शुतुरमुर्ग बताया था। उन्होंने किस संदर्भ में कहा ये तो वे ही बेहतर बता सकते हैं, लेकिन राज्य के एक वरिष्ठ आईएएस ने शुतुरमुर्ग और अफसरों के बीच कई समानताओं के बारे में बताया। इतना तो तय है कि शुतुरमुर्ग-अफसर संबंध की व्याख्या करने वाले आईएएस का संदर्भ एकदम साफ है। दरअसल, छत्तीसगढ़ में नई सरकार के गठन के बाद यहां के अफसरों को पूरा भरोसा था कि अब मंत्रालय की ताकतवर कुर्सियों पर नए नए चेहरे नजर आएंगे, लेकिन साल भर भी ऐसा हुआ नहीं तो बेचारे मन मसोस कर बैठ गए हैं। तब आईएएस साहब ने इसका जिक्र करते हुए किस्सा सुनाया कि जब सृष्टि की रचना हो रही थी, तो आग की रखवाली का जिम्मा शुतुरमुर्ग को दिया गया था, क्योंकि शुतुरमुर्ग ईमानदार और अनुशासित माना जाता है। अफसर भी ईमानदारी और अनुशासन की शपथ लेते हैं। इस बीच पहले आदिमानव ने शुतुरमुर्ग को एक सपना दिखाकर आग को चुरा लिया। आदिमानव ने शुतुरमुर्ग से कहा कि वह उड़ सकता है, चूंकि शुतुरमुर्ग की प्रबल इच्छा थी कि वो भी दूसरे पक्षियों की तरह खुले आकाश में उड़ सके, वह तुरंत झांसे में आ गया और आग की रखवाली से दूर हो गया। जिसका फायदा आदिमानव ने उठाया। राज्य के अफसरों ने भी सरकार बदलते ही खुले आकाश में उडऩे का सपना पाल लिया था, लेकिन ये भी शुतुरमुर्ग के सपने की तरह हवा हवाई निकला, क्योंकि शुतुरमुर्ग की तरह अफसरों को भी विशालकाय माना जाता है और वह किसी भी कीमत में उड़ नहीं सकता। शुतुरमुर्ग तेज भागने वाला माना जाता है, अफसर भी तेज भागने में भरोसा करते हैं। शुतुरमुर्ग के बारे में एक बात और प्रचलित है कि वह दुश्मन को देखकर रेत में अपना सिर छिपा लेता है, उसे लगता है कि दुश्मन देख नहीं पाएगा, इसी तरह अफसरों को भी लगता है कि उनके बारे में किसी को पता नहीं चलेगा, जबकि ऐसा होता नहीं। जिस तरह रेत में सिर छुपाए शुतुरमुर्ग सोचता है कि उसका विशालकाय शरीर भी छुप गया है, वैसे ही अफसरों के कारनामों की चर्चा तो नहीं होती, लेकिन उसके बारे में सभी को सबकुछ पता होता है। फिलहाल, हवा में उडऩे का सपना पाले बैठे अफसरों के लिए यही सलाह है कि जो काम यानी भागना आता है, तो उसी में ध्यान देंगे, तो ज्यादा बेहतर होगा। उडऩे के चक्कर में भागने की आदत छूट जाएगी, तो मुश्किल तो होगी ही है ना।
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जंगल में मंगल का दौर...
आईएफएस अफसर आरबीपी सिन्हा की सम्मानजनक बिदाई हो गई। उन्हें रिटायरमेंट के दिन ही पीसीसीएफ के पद पर पदोन्नति मिल गई। यह सब सीएस आरपी मंडल और पीसीसीएफ (मुख्यालय) राकेश चतुर्वेदी के प्रयासों से ही संभव हो पाया। उनसे सीनियर पीसी मिश्रा, आरबीपी सिन्हा जैसे भाग्यशाली नहीं रहे। उन्हें इस बात का मलाल रहा कि सरकार चाहती, तो उन्हें पीसीसीएफ के पद पर पदोन्नत कर सकती थी। तब सीके खेतान जैसे कड़क अफसर वन विभाग के प्रभार पर थे, जिन्होंने पीसीसीएफ के दो अतिरिक्त पद को ही खत्म कर दिया था।
सिन्हा के साथ-साथ संजय शुक्ला भी पदोन्नत हुए हैं। संजय को लघु वनोपज संघ का एमडी का दायित्व सौंपा गया है। वर्तमान में चतुर्वेदी ही लघु वनोपज संघ के एमडी का अतिरिक्त प्रभार संभाल रहे थे। वैसे संजय की पदस्थापना के बाद से वे संघ के कामकाज को लेकर निश्ंिचत हो गए थे। संजय ने कम समय में लघु वनोपज संघ में काफी काम किया है, और इसको सरकार ने भी नोटिस में लिया। यही वजह है कि पीसीसीएफ के पहले खत्म किए गए पदों को फिर निर्मित किया गया और केन्द्र से इजाजत लेकर संजय व आरबीपी सिन्हा को पदोन्नत किया गया।
चूंकि सिन्हा अब रिटायर हो चुके हैं, ऐसे में अगले दो-तीन दिनों में फिर पीसीसीएफ पद के लिए पदोन्नति होगी और नरसिंह राव को पीसीसीएफ के पद पदोन्नति दी जाएगी। यही नहीं, नरसिंह राव के पीसीसीएफ बनने के साथ ही रिक्त एपीसीसीएफ के पद के लिए भी डीपीसी होगी। इसमें सुनील मिश्रा को एपीसीसीएफ के पद पर पदोन्नति दी जाएगी। इसके अलावा सीसीएफ के दो रिक्त पदों के लिए भी पदोन्नति होगी। कुल मिलाकर एक साथ पीसीसीएफ, एपीसीसीएफ और सीसीएफ के पद पर पदोन्नति होगी।
दीपक को शुरू से अक्ल की जरूरत...
देश भर में बलात्कार खबरों में है, और कई समझदार लोग यह भी लिख रहे हैं कि बेटियों को शामढले या रात में बाहर न निकलने की नसीहत न देने वाले लोग बलात्कार करने की आशंका रखने वाले अपने बेटों को ही घर के भीतर ही कैद रखें तो बेहतर होगा। इसके पहले भी लोग इस बात की तरफ ध्यान खींचते आए हैं कि हिन्दुस्तान में बलात्कार की शिकार के बारे में यह माना जाता है कि उसकी इज्जत लुट गई, जबकि उसने तो कोई जुर्म किया नहीं होता। इज्जत तो बलात्कारी-मुजरिम की लुटती है, और समाज की भाषा में इसकी कोई जगह होती नहीं है। सामाजिक भाषा हमेशा से महिलाओं के खिलाफ रहती आई है, और उसका एक नमूना यह निमंत्रण पत्र भी है जिसमें बेटा ही कुल का दीपक हो सकता है, लड़की तो एक मोमबत्ती भी नहीं हो सकती। परिवार के भीतर लड़कों को जब एक अलग दर्जा देकर बड़ा किया जाता है तो उनके भीतर ऐसी सोच भी बढ़ते चलती है कि वे लड़कियों से जैसा चाहें वैसा सुलूक कर सकते हैं, और यही सोच बढ़ते-बढ़ते जब अधिक हिंसक होती है, तो वह बलात्कारी हो जाती है। इसलिए जो लोग अपनी आल-औलाद को बलात्कार के जुर्म में कैद काटते या फांसी पर चढ़ते देखना नहीं चाहते, उनको चाहिए कि परिवार के भीतर ही लड़के और लड़कियों को बराबरी का दर्जा दें, ताकि लड़कों की सोच हिंसक न हो सके, बलात्कारी न हो सके।
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चुनाव के बरसों पहले से लगे हैं...
छत्तीसगढ़ के म्युनिसिपलों में वार्ड मेंबर बनने की हसरत वाले लोग अभी से मतदाताओं पर मेहरबानियां उंडेल रहे हैं। आचार संहिता लगी उसके पहले ही कहीं कोई तीर्थयात्रा कराने ले गए, तो कहीं किसी ने कोई छोटा-मोटा उपहार बांटना शुरू किया। राजधानी रायपुर में समता कॉलोनी-चौबे कॉलोनी इलाका संपन्न लोगों का है, इसलिए वहां के लोगों को तीर्थयात्रा पर ले जाना तो मुमकिन नहीं है, इसलिए वहां उम्मीदवारी के एक उम्मीदवार ने अपनी अर्जी के साथ घर-घर एक बड़ी सी कॉपी बांटी है जिस पर उसकी तस्वीरें हैं। जाहिर है कि कम से कम गृहिणी या बच्चे उसका इस्तेमाल करेंगे, और वोट के दिन किसी न किसी को यह कॉपी दिख भी सकती है। ये प्रत्याशी कई बरस से इस इलाके में सफाई करवाने में लगे हुए थे, और कई ट्रैक्टर-ट्रॉलियां दीवाली के पहले से कचरा उठाने में लगी थीं, और वे इस काम में बरसों से लगे हुए हैं, मोदी के प्रधानमंत्री बनने के समय से, या उसके भी कुछ पहले से। जिस इलाके में इतनी मेहनत करने वाले गैरपार्षद हों, वहां उनके पार्षद बनने की संभावना तो अधिक हो सकती है, लेकिन वे जिस भाजपा से टिकट चाहते हैं, उस भाजपा की टिकट बताते हैं कि बृजमोहन अग्रवाल के छोटे भाई भी चाहते हैं। ऐसे में पहली जीत तो भाजपा के भीतर ही हासिल करनी पड़ेगी, तब पार्टी के बाहर मतदाताओं के बीच जीत-हार की नौबत आएगी। वैसे यह बात अच्छी है कि इस उम्मीदवार ने बरसों से अपनी नीयत उजागर कर रखी है, और मेहनत जारी रखी है।
सरकार गई, पर लड़ाई जारी...
छत्तीसगढ़ में सत्ता के भ्रष्टाचार के कुछ मुद्दों को लेकर मीडिया से कोर्ट तक लगातार लडऩे वाली मंजीत कौर बल ने आज सुबह पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग के एक ऐसे अफसर का मामला उठाया है जो अभी दुर्ग में तैनात हैं। मंजीत ने इस बारे में फेसबुक पर लिखा है- 2011 में इस अफसर के खिलाफ एक गंभीर मामले में एफआईआर दर्ज हुई, और उस वक्त के पंचायत मंत्री की मेहरबानी से वे फरार रहते हुए जमानत के लिए हाईकोर्ट तक पहुंचे लेकिन अर्जी खारिज हो गई। फिर 2013 में पंचायत मंत्री की मेहरबानी से इस अफसर की सत्ता में वापिसी हुई, और फरारी के दौरान ही मंत्रालय में पोस्टिंग मिली, इसी पोस्टिंग के दौरान प्रमोशन भी मिला, और उसके अपने गृहस्थान में विशेष पोस्टिंग दी गई। मंजीत ने लिखा है कि पुलिस ने इसी मामले में यह हलफनामा दिया कि यह अभियुक्त कमलाकांत तिवारी व उसके अन्य सहभागी फरार हैं, जिन्हें पकडऩे की कोशिश की जा रही है। पिछले पंचायत मंत्री अजय चंद्राकर के कार्यकाल का यह मामला भूपेश सरकार बनते ही नए पंचायत मंत्री टी.एस. सिंहदेव को भी दिया गया, लेकिन चारसौबीसी और एसटीएससी एक्ट के तहत मामले दर्ज होने के बावजूद अफसर दुर्ग जिला पंचायत में संयुक्त संचालक है।
छत्तीसगढ़ के लोग मंजीत कौर बल को अच्छी तरह जानते हैं क्योंकि वे बरसों से उस वक्त के मंत्री रहे अजय चंद्राकर के खिलाफ कई आयोगों और कई अदालतों में लगातार लड़ाई लड़ती रहीं। अब सत्ता बदलने के बाद भी हाईकोर्ट में पुलिस के लिए हलफनामे के खिलाफ एक अफसर प्रमोशन पाकर तैनात है, और अदालत में कहा जा रहा है कि वह फरार है। कुल मिलाकर मतलब यह कि सरकार बदली, मंत्री बदले, लेकिन मंजीत कौर बल की लड़ाई नहीं बदली, लडऩे की जरूरत जारी है।
कौन है घर का भेदी?
सरकार के भीतर एक बड़ा सवाल यह तैर रहा है कि कई किस्म की जांच का सामना कर रहे निलंबित एडीजी मुकेश गुप्ता की मदद करने के लिए वे कौन लोग हैं जो तरह-तरह की ऐसी कार्रवाई कर रहे हैं जिनसे सुप्रीम कोर्ट में मुकेश गुप्ता का सरकार के खिलाफ केस मजबूत हो। इसके अलावा वे कौन लोग हैं जो सरकार की गोपनीय जानकारी निकालकर मुकेश गुप्ता तक पहुंचा रहे हैं। अब तक की पुलिस की जांच के बारे में दो अलग-अलग निष्कर्ष पता लग रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि मुकेश गुप्ता की बेटियों के फोन टैप करने का गोपनीय आदेश रायपुर आईजी दफ्तर के एक कम्प्यूटर से डाऊनलोड किया गया, और वह उन तक पहुंचा। यह जानकारी बताने वाले लोग बताते हैं कि कम्प्यूटर के भीतर यह जानकारी दर्ज रहती है कि उससे कब कौन सा दस्तावेज डाऊनलोड किया गया। एक दूसरी जानकारी हवा में यह तैर रही है कि रायपुर एसपी दफ्तर का एक जूनियर कर्मचारी इस कागज को मुकेश गुप्ता तक पहुंचाने वाला है। ऐसा कहा जा रहा है कि उसने ये गोपनीय दस्तावेज वॉट्सऐप पर एक अफसर को भेजे, और फिर उस अफसर ने मुकेश गुप्ता को पहुंचाए। जो भी हो फिलहाल सरकार इस जानकारी को सार्वजनिक करने की हड़बड़ी में नहीं दिख रही है, और इस पर अगर कोई कार्रवाई हुई है तो उसे भी सार्वजनिक करने की हड़बड़ी नहीं दिख रही क्योंकि इनमें से कोई जानकारी फिर मुकेश गुप्ता के हाथ मजबूत न कर जाए।
डाला भैया की मिस्टर विनम्र छवि
छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ विधायक को जान से मारने की धमकी मिलने की जानकारी मिलने पर तमाम जनप्रतिनिधि एकजुट हो गए। सभी ने राज्य कानून व्यवस्था पर सवाल उठाने शुरू कर दिए और बात भी सही है, अगर माननीय ही सुरक्षित नहीं है, तो आम लोगों का क्या होगा। टीवी, मीडिया और सदन में सरकार को घेरने के लिहाज से सभी ने गंभीर और एक स्वर में मुद्दा उठाया, लेकिन विधायक महोदय को पहले से जाने वाले सदस्य और उनके पुराने दिनों के साथियों की अलग ही चिंता है। उनका कहना है कि वे जब विधायक-मंत्री नहीं बने थे, तब भी उनकी पहचान थी और वे डाला भैया के नाम से जाने जाते थे। वो दौर था धमकी-चमकी का। यह अलग बात है कि उन्हें परवाह तो उस समय भी नहीं थी, लेकिन ऐसा करने से पहले इलाके के दादा लोग भी सोचते थे, लेकिन अब माननीय बनने के बाद उन्हें धमकी लोगों को कुछ हजम नहीं हो रही है। नेताजी को जानने वाले एक दूसरे नेता ने टिप्पणी की कि लगता है धमकी देने वाला उनके पुराने तेवर से परिचित नहीं है या फिर डाला भैया मिस्टर विनम्र की छवि बना चुके हैं।
मानव बम का खौफ
छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके से कांग्रेस के एक विधायक से सत्ता और विपक्ष के बड़े बड़े दिग्गज घबराने लगे हैं। ऐसा नहीं है कि वे राजनीति में पॉवरफुल हो गए हैं, बल्कि विधायक बनने के बाद भी सामान्य तौर तरीके से रहते हैं और लोगों से मिलते हैं। ऐसे सहज सरल जनप्रतिनिधि मानव बम के नाम से प्रचलित हो गए हैं। लोग बाग उन्हें दूर से ही देखकर ऐसे भागते जैसे वो कोई बम-वम लेकर घूमते हों। हालांकि ऐसा बिल्कुल नहीं है, लोगों से जब इस बारे में पूछा गया तो किसी ने साफ तौर पर कुछ बताया तो नहीं, लेकिन इतना जरूर कहा कि इसके लिए आपको कुछ देर उनके साथ रहना पड़ेगा। उनके साथ रहने का मौका तो नहीं मिला, लेकिन उनके बारे में जो कानाफूसी होती है, उससे यह बात समझ आई कि उनका हाजमा गड़बड़ रहता है, जिसके कारण उन्हें मानव बम की उपाधि दी गई है।
कुलसचिव ने ऐसे बढ़वाए नंबर
दिल्ली के जेएनयू में आंदोलन की धमक छत्तीसगढ़ में भी दिखाई दी। यहां के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि के छात्रों ने गेट के बाहर प्रदर्शन किया। छात्र नेताओं और कई नुमाइंदों ने भाषण दिया। विवि में फिलहाल कुलपति का पद खाली है और कुलसचिव ही सर्वेसर्वा हैं। उनको इस बात की जानकारी मिली कि विवि के बाहर जेएनयू के समर्थन में प्रदर्शन की तैयारी है तो उन्होंने मीडिया में बयान दिया कि ऐसे किसी भी प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गई है और इसमें भाग लेने वाले छात्रों पर कार्रवाई की जाएगी, लेकिन प्रदर्शन वाले दिन उनका रवैया ठीक उलटा था। वे पूरे समय प्रदर्शन स्थल के पास ही कुर्सी लगाकर बैठे रहे और तो और छात्रों को भी प्रेरित करते रहे कि आंदोलन में शामिल हों। हद तो तब हो गई जब उन्होंने प्रदर्शन में शामिल प्रमुख लोगों के लिए अपने सरकारी आवास में दावत का इंतजाम किया। उधर, सोशल मीडिया में इसकी खूब चर्चा हो रही है और प्रदर्शन स्थल पर कुर्सी लगाए बैठे उनकी तस्वीर भी खूब वायरल हो रही है। लोगों ने यह भी लिखा है कि धरने के लाऊडस्पीकर के लिए बिजली भी विश्वविद्यालय से दी गई। हालांकि इससे उनकी सेहत पर कुछ असर पड़ेगा, इसकी संभावना तो कम ही है, क्योंकि उन्होंने अपना नंबर तो बढ़वा लिया है। ([email protected])
ये गेड़ी, भौंरा की मस्ती है...
छत्तीसगढ़ में इन दिनों दो बातें खूब चर्चा में है। पहली बात किसानों की धान खरीद और दूसरी सूबे के मुखिया भूपेश बघेल का ठेठ देसी अंदाज। कभी वो गेड़ी चढ़ते नजर आते हैं, तो कभी भौंरा चलाते या फिर नदी में आकर्षक डुबकी लगाते सुर्खियों में रहते हैं। इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि वे अपने इस अंदाज के कारण खूब वाहवाही बटोर रहे हैं। इस बीच धान खरीद को लेकर भी खूब सियासत हो रही है। कांग्रेस बीजेपी दोनों एक दूसरे पर बरस रहे हैं। मामला कुछ भी हो लेकिन किसान की चिंता बढ़ गई है, क्योंकि धान खरीद 1 दिसंबर शुरू होगी। ऐसे में किसान को रोजमर्रा के कामकाज और खर्च के लिए धान बेचना ही पड़ता है। दिक्कत ये है कि समर्थन मूल्य से कम कीमत पर कोचिया या व्यापारी को धान बेचने में भी खतरा बना हुआ है। खेत-खलियान से जैसी ही गाड़ी निकलती है, पुलिस और प्रशासन की पैनी नजर उस पर टूट पड़ती है। कोई किसान सपड़ा गया तो समझो गए काम से, क्योंकि उनका सीआईडी दिमाग कहता है कि हो सकता है कि धान की तस्करी हो रही हो? पुलिस और प्रशासन को समझाने-बुझाने और कागज दिखाने में कम से कम दो तीन दिन का समय बीत जाता है। जैसे तैसे गाड़ी छूटती है तो मंडी में और व्यापारियों से जूझना पड़ता है। ऐसे ही परेशानी से जूझने के बाद एक किसान ने अपनी व्यथा इलाके के बड़े नेता को बताई तो उन्होंने तपाक से छत्तीसगढ़ी में कहा कि रुक अभी गेड़ी, भौंरा और डुबकी लगाए के बाद सोचबो धान के का करना हे। इतना सुनते ही किसान समझ गया कि अभी कुछ बोलना बेकार है।
खुद का माल बेचने के लिए...
रमन सरकार के समय इस रोक के पीछे सोच बताई जा रही थी कि ऐसी तमाम बिक्री पर रोक लगने से ही नया रायपुर के भूखंड, कमल विहार के भूखंड, और हाऊसिंग बोर्ड के मकान बिक सकेंगे। सरकार ने खुद ने इन सबका ऐसा दानवाकार आकार खड़ा कर दिया था कि उसे बेचना भारी पड़ रहा था, और अब साल भर गुजारने के बाद भी भूपेश सरकार इस बोझ से उबर नहीं पा रही है। पिछली सरकार के समय हाऊसिंग बोर्ड ने इस बड़े पैमाने पर गैरजरूरी निर्माण कर लिया था जिसमें चवन्नी दिलचस्पी जरूर थी, लेकिन बोर्ड का कोई फायदा नहीं था, घाटा ही घाटा था। उस समय हाऊसिंग बोर्ड के खाली मकानों को ठिकाने लगाने के लिए सरकार के सबसे ताकतवर सचिव पुलिस महकमे के पीछे लगे थे, और डीजीपी ए.एन.उपाध्याय और हाऊसिंग बोर्ड के एमडी डी.एम. अवस्थी पर लगातार दबाव डाला गया था कि वे पुलिसवालों के लिए मकान बनाने के बजाय हाऊसिंग बोर्ड के मकान ही खरीद लें। लेकिन उन्होंने हाऊसिंग बोर्ड के निर्माण को कमजोर बताते हुए और उनका दाम अधिक बताते हुए उस पर पुलिस का पैसा खर्च करने से मना कर दिया था। उसके बजाय पुलिस हाऊसिंग कार्पोरेशन ने अपने मकान बनाए थे जो कि शहर के अलग-अलग इलाकों में, थानों के आसपास, और पुलिस लाईन के आसपास बने, और छोटे पुलिस कर्मचारियों के अधिक काम भी आए।
छोटे प्लॉटों की छूट से जनता का भला
छोटे भू-खण्डों की रजिस्ट्री की अनुमति देने के फैसले को अच्छा प्रतिसाद मिला है। चार-पांच महीने में ही एक लाख से अधिक छोटे भू-खण्डों की रजिस्ट्री हो चुकी है। सरकार के इस फैसले से निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों को बड़ा फायदा हुआ है, जो कि सरकारी नियमों के चलते मकान नहीं बना पा रहे थे, या अपनी निजी जरूरतों के लिए भी निजी जमीन को बेच नहीं पा रहे थे। पिछली सरकार में भी 22 सौ वर्गफीट से कम भू-खण्डों की रजिस्ट्री पर से रोक हटाने की मांग उठी थी। तब कैबिनेट की बैठक में दो मंत्रियों के बीच इसको लेकर काफी विवाद हुआ था। विवाद इतना ज्यादा हुआ था कि सीएम रमन सिंह को हस्तक्षेप करना पड़ा। रमन सिंह भी छोटे भू-खण्डों की रजिस्ट्री पर से रोक हटाने के पक्ष में थे, लेकिन एक अन्य मंत्री ने जब इसका विरोध किया तो वे भी पीछे हट गए। इसका नुकसान विधानसभा चुनाव में भाजपा को उठाना पड़ा और परंपरागत शहरी वोट कांग्रेस की तरफ खिसक गए।
लोग बड़े-बड़ेे महान लोगों की किताबों में जिंदगी के राज ढूंढते हैं। हकीकत यह है कि जिंदगी के कई किस्म के फलसफे ट्रकों के नीचे लिखे दिख जाते हैं, और कई बार लोगों के टी-शर्ट भी कड़वी हकीकत बताते हैं।
स्मार्ट पुलिस के राज में किस्मत कारगर
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की पुलिस स्मार्ट और हाईटेक होने का दावा करती है और यहां के पुलिस कप्तान की स्मार्ट पुलिसिंग का डंका देश-विदेश में भी बजता है, लेकिन शहर में चोरी के एक ताजा मामले में कहानी कुछ और ही कह रही है। हम जिस चोरी की बात कह रहे हैं, वह है तो एक मामूली सी चोरी, लेकिन राजधानी की स्मार्ट और हाइटेक पुलिसिंग की पोल खोलने के लिए काफी है। रायपुर के फूल चौक से करीब 15 दिन पहले एक महिला डॉक्टर की एक्टिवा बाइक चोरी हो गई थी, जिसकी रिपोर्ट मौदहापारा थाने में लिखवाई गई। जैसा कि आमतौर पर होता है कि पुलिस ने खानापूर्ति के लिए काफी जद्दोजहद के बाद रिपोर्ट तो लिख ली, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की, जबकि आपको आश्चर्य होगा कि यह चोरी की गाड़ी शहर के दूसरे थाने में ही पड़ी मिली। वो तो गनीमत है कि महिला डॉक्टर के परिचित का, जो किसी काम से थाने गए तो उन्होंने बाइक को पहचान लिया।
राजधानी रायपुर में बाइक चोरी, उठाईगिरी और सूने घरों के ताले टूटने की दर्जनों रिपोर्ट रोजाना थाने में दर्ज होते हैं, लेकिन उसमें से अधिकांश मामलों में पुलिस शायद ही किसी नतीजे तक पहुंच पाती है। पीडि़त लोग भी यह मानकर चलते हैं कि उनका चोरी हुए सामान का मिलना मुश्किल है, फिर भी पुलिस से उम्मीद लगाए लोग थाने के चक्कर जरूर काटते हैं, हालांकि पुलिस थानों के चक्कर काटते-काटते उनकी आखिरी उम्मीद भी टूट जाती है। किसी किस्मत वाले को ही उसका चोरी हुआ सामान वापस मिल पाता है। ऐसे ही फूल चौक की इस महिला डॉक्टर का भाग्य ने साथ दिया तो उसकी चोरी हुई बाइक 15 दिन के भीतर मिल गई। रायपुर की सुयश हास्पिटल की डॉक्टर की गाड़ी 8 नवंबर को फूल चौक स्थित घर से चोरी हो गई। उन्होंने 9 तारीख को मौदहापारा में इसकी रिपोर्ट लिखवाई। यह अलग बात है कि रिपोर्ट लिखवाने के लिए भी उन्हें खूब पापड़ बेलने पड़े। इसके बाद वो अपनी बाइक की खबर लेने रोजाना थाने जाती थीं, लेकिन पुलिस वाले उन्हें डॉटकर भगा देते थे कि रोज रोज परेशान न करें। गाड़ी के बारे में जानकारी मिलने पर फोन कर दिया जाएगा। महिला डॉक्टर ने आसपास के सीसीटीवी कैमरा के फुटेज भी पुलिस को उपलब्ध कराए थे, जिसमें सुबह 4 बजे के आसपास चोर गाड़ी ले जाते दिखाई दे रहा था, लेकिन इसके बाद भी पुलिस ने कोई खोजबीन नहीं की।
महिला डॉक्टर का 15 दिन में उत्साह धीरे धीरे ठंड़ा हो रहा था, इस बीच शुक्रवार को उनके एक रिश्तेदार किसी काम से टिकरापारा थाने पहुंचे तो उन्हें वहां एक्टिवा बाइक खड़ी दिखी। उन्होंने इसकी सूचना महिला डॉक्टर को दी तो उसने टिकरापारा थाने जाकर देखा तो वह उनकी ही गाड़ी निकली। इसके बाद उन्होंने इसकी सूचना मौदहापारा पुलिस को दी। थाने वालों ने पता करवाया तो जानकारी मिली कि गाड़ी लावारिस हालत में पड़ी मिली थी, तो उसे थाने में रखवा दिया गया था। अब सोचने वाली बात यह है कि शहर में एक थाने से दूसरे थाने के बीच सूचनाओं का आदान प्रदान नहीं हो रहा है, तो कैसी स्मार्ट पुलिसिंग का दावा किया जा रहा है। महिला डॉक्टर को किस्मत और रिश्तेदार की तत्परता के कारण गाड़ी कोर्ट से वापस मिल जाएगी, लेकिन हर किसी की किस्मत ऐसा हो जरूरी नहीं है।
खास बात यह है कि महिला डॉक्टर ने अपनी गाड़ी को आकर्षक बनाने के लिए तरह-तरह के ग्राफिक्स बनवाए थे, इसीलिए रिश्तेदारों ने उसकी पहचान कर ली, वरना तो गाड़ी थाने में पड़े-पड़े सड़ जाती। एक और बात यह भी कि उनकी गाड़ी में पेट्रोल कम था, तो पेट्रोल खत्म होने पर चोर ने गाड़ी को लावारिस छोडऩा ही सही समझा। इस पूरे वाकये से ये सबक तो मिलता है कि गाड़ी में ज्यादा पेट्रोल न रखें और कुछ ऐसा निशान बनाकर रखें, ताकि गाड़ी और सामानों को कोई भी पहचान सके, क्योंकि रायपुर की स्मार्ट पुलिस ने शहर को किस्मत के भरोसे छोड़ दिया है।
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भ्रष्टाचार निजी स्टाफ से होकर...
मोदीजी की तरह दाऊजी, यानी भूपेश बघेल भी अपने और साथी मंत्रियों की निजी स्थापना पर नजर रखे हुए हैं। आम धारणा है कि भ्रष्टाचार मंत्री के स्टाफ से होकर गुजरता है। यही वजह है कि इस पर नकेल कसने की कोशिश हो रही है और सरकार के 11 महीने के कार्यकाल में अब तक दर्जनभर अफसर-कर्मी सीएम-मंत्री स्टाफ से निकाले जा चुके हैं। तकरीबन सभी तेज बैटिंग कर रहे थे। खुद दाऊजी अपने स्टाफ से दो को बाहर कर चुके हैं।
शुरूआत उन्होंने अपने ओएसडी प्रवीण शुक्ला से की थी, जो कि उद्योग अफसर हैं और वे भी इन्हीं सब शिकायतों के चलते बाहर हुए। उन्हें रविंद्र चौबे के यहां भेजा गया, लेकिन वहां भी वे ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। इसके बाद हाल ही में सीएम हाउस से अजीत मढ़रिया को भी मूल विभाग में भेज दिया गया। अजीत सीएम भूपेश बघेेल के सबसे पुराने सहयोगी थे। चर्चा है कि दाऊजी के सीएम बनने के बाद उनके अपने निवास में समानांतर जनदर्शन चल रहा था। ये बात किसी को हजम नहीं हुई और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
स्कूल शिक्षा मंत्री प्रेमसाय सिंह का पूरा स्टाफ बदल दिया गया। लेकिन इससे पहले तक मंत्री की जानकारी के बिना तबादला-पोस्टिंग के नाम पर प्रदेशभर से काफी कुछ बटोरकर निकल गए। जयसिंह अग्रवाल के दो पीए बदले जा चुके हैं। रूद्रकुमार गुरू के पीए पंकज देव को भी हाल में मूल विभाग में भेज दिया गया। कवासी लखमा के यहां भी छोटा सा फेरबदल हुआ है। पुराने मंत्री मोहम्मद अकबर, रविन्द्र चौबे के यहां पुराने लोग काम कर रहे हैं।
अकबर के यहां एस के सिसोदिया तो पिछली सरकार में भ्रष्टाचार के खिलाफ धरने पर बैठ गए थे। रविंद्र चौबे के यहां डीपी तिवारी की साख अच्छी है। उमेश पटेल के यहां तो उनके पिता के पुराने सहयोगी जेके शर्मा ही काम संभालते हैं। उनकी छबि भी साफ-सुथरी है। अनिला भेडिय़ा के यहां स्टाफ पर उनके पति, रिटायर्ड आईजी रविंद्र भेडिय़ा, की पैनी निगाहें रहती हंै। इसलिए उनके यहां जो कुछ भी होता है, वह रविंद्र भेडिय़ा की जानकारी में रहता है।
टीएस सिंहदेव के स्टाफ में उनके ओएसडी आनंद सागर सिंह का दबदबा है। आनंद भी सिंहदेव के जांचे-परखे हुए हैं। आनंद के पिता, सिंहदेव के पिता के सहायक थे। आनंद भी सिंहदेव के मिजाज से पूरी तरह वाकिफ हैं। वे ऐसा कोई काम करने से परहेज करते हैं, जो सिंहदेव को पसंद नहीं है। यही वजह है कि इन मंत्रियों के यहां भारीभरकम तबादलों के बावजूद लेन-देन की चर्चाओं मेें पुराने स्टाफ के लोगों का नाम नहीं आया। इन मंत्रियों के यहां भारी भरकम तबादलों के बाद भी गरिमा कायम रही।
रमन सिंह के वक्त भी...
पिछली सरकार में तो रमन सिंह और उनके कुछ मंत्रियों के सहयोगियों ने ऐसे-ऐसे कारनामे किए थे, जिनके खिलाफ पीएमओ तक शिकायत हुई थी। रमन सिंह खुद शालीन रहे, लेकिन अरूण बिसेन जैसों के कारनामों को अनदेखा करना उन्हें भारी पड़ा। खुद रमन सिंह की छवि पर असर पड़ा। मंत्रियों के स्टाफ का हाल यह रहा कि दो के खिलाफ तो यौन उत्पीडऩ की शिकायत भी अलग-अलग स्तरों पर हुई थी, लेकिन मामले दबा दिए गए। यही नहीं, एक मंत्री के करीबी अफसर की प्रताडऩा से एक जूनियर इंजीनियर ने आत्महत्या तक कर ली थी, लेकिन उन पर कार्रवाई तो दूर, कुछ समय बाद प्रमोशन तक हो गया।
रमन सरकार के एक मंत्री के ओएसडी की तो एक जूनियर अफसर ने बंद कमरे में जमकर पिटाई भी की थी। चूंकि कमरे के बाहर सिर्फ आवाज ही सुनाई दे रही थी और बाहर निकलकर ओएसडी ने किसी तरह चूं-चपड़ नहीं की इसलिए तूल नहीं पकड़ सका। केदार कश्यप के पीए आरएन सिंह के खिलाफ तो दिल्ली के एक प्रकाशक ने बकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर खुलेतौर पर कमीशन मांगने का आरोप लगाया था। आरएन सिंह की तो बृजमोहन अग्रवाल के शिक्षा मंत्री रहने से लेकर केदार कश्यप के कार्यकाल तक शिक्षा विभाग में तूती बोलती थी कुछ लोग तो उन्हें अघोषित मंत्री तक कहते थे। भाजपा के पुराने नेता कहते हैं कि यदि मोदी सरकार की तरह मंत्री स्टाफ पर नजर रखी जाती, तो भाजपा का इतना बुरा हाल नहीं होता। जाहिर है कि मंत्रियों का उन्हें संरक्षण था, ऐसे में बुरा होना ही था।
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सारी सिफारिशें किनारे करके...
वैसे तो प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी पीएल पुनिया ने कहा था कि निकाय- पंचायत चुनाव के बाद निगम-आयोगों में नियुक्ति होगी, फिर भी अल्पसंख्यक आयोग में नियुक्ति कर दी गई। महेन्द्र छाबड़ा को आयोग का अध्यक्ष बनाने का फैसला चौंकाने वाला था, क्योंकि इसमें प्रदेशभर के बड़े मुस्लिम-सिख नेताओं की नजर लगी थी। पार्टी के कई राष्ट्रीय नेताओं ने भी अपनी तरफ से अलग-अलग नामों की सिफारिशें की थी। इन सबको दरकिनार कर महेन्द्र छाबड़ा को अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई।
सुनते हैं कि छाबड़ा को अध्यक्ष बनाने में मोहम्मद अकबर की भूमिका अहम रही है। छाबड़ा राजीव भवन में मंत्रियों के मेल-मुलाकात कार्यक्रम के प्रभारी थे और मीडिया विभाग में भी अपनी जिम्मेदारी बाखूबी से निभा रहे थे। ऐसे में अकबर ने उनके नाम का सुझाव दिया, तो सीएम ने फौरन हामी भर दी। आयोग में दो सदस्यों में से एक अनिल जैन की नियुक्ति में भी अकबर की चली है।
अनिल, अकबर के कॉलेज के दौर के सहयोगी हैं। जबकि राजनांदगांव के हाफिज खान की नियुक्ति में करूणा शुक्ला का रोल रहा है। हाफिज खान ने विधानसभा चुनाव में राजनांदगांव में करूणा का जमकर प्रचार किया था। और करूणा ने जब उनका नाम आगे किया, तो सीएम ने बिना किन्तु-परन्तु के सदस्य के रूप में नियुक्ति कर दी। दोनों सदस्यों को राज्यमंत्री का दर्जा रहेगा।
जब सीधा आदमी अड़ जाए...
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी सीधे-सरल माने जाते हैं। मगर कांकेर जिलाध्यक्ष पद पर अपने समर्थक विजय मंडावी को बिठाने के लिए सभी बड़े नेताओं की नाराजगी मोल ले ली। कांकेर में रमन सिंह, रामप्रताप सिंह और पवन साय व धरमलाल कौशिक एकमतेन किसी गैर आदिवासी विशेषकर सामान्य वर्ग से अध्यक्ष बनाने के पक्ष में थे। क्योंकि जिले की सारी विधानसभा सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित है। मौजूदा जिलाध्यक्ष हलधर साहू पिछड़ा वर्ग से रहे हैं, लेकिन वे कोई परिणाम नहीं दे सके। कांकेर जिले में हर चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है।
सुनते हैं कि विक्रम को समझाने की कोशिश की गई, किन्तु वे नहीं माने। अपेक्स बैंक के पूर्व अध्यक्ष महावीर सिंह राठौर के साथ तो उनकी तीखी नोंक-झोंक भी हुई। वे अपनी पसंद का अध्यक्ष बनाने के लिए इतने अड़े थे कि पार्टी को कांकेर का 22 तारीख को होने वाला चुनाव स्थगित करना पड़ा। पार्टी नेताओं को आशंका थी कि विक्रम अपनी पसंद का अध्यक्ष न होने पर पद से इस्तीफा तक दे सकते हैं। ऐसे में पार्टी नेताओं ने फिलहाल चुनाव टालने में समझदारी दिखाई। ([email protected])
सहकर्मी से समधी तक...
दो आईएफएस अफसर संजय शुक्ला और जयसिंह म्हस्के की दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदलने जा रही है। संजय जल्द ही पीसीसीएफ बनने वाले हैं, और म्हस्के वन मुख्यालय में एपीसीसीएफ की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। वैसे तो म्हस्के, संजय शुक्ला से एक साल जूनियर हैं, लेकिन दोनों लंबे समय तक पंचशील नगर में एक-दूसरे के पड़ोसी रहे हैं। दोनों ही रायपुर के ही रहने वाले हैं। संजय के पिता कान्यकुब्ज सभा के अध्यक्ष भी रहे हैं और म्हस्के के परिवार के लोग राजनीति में है। और अब संजय के पुत्र सूर्यांश का विवाह अगले महीने म्हस्के की पुत्री से होने जा रहा है। दोनों का परिवार एक-दूसरे से बरसों से परिचित रहा है।
ऐसे में दोनों परिवारों ने आपसी रजामंदी से दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने का फैसला लिया। संजय के पुत्र सूर्यांश की पढ़ाई विदेश में हुई है और उनका अपना खुद का कारोबार है। संजय और म्हस्के, छत्तीसगढ़ के पहले आईएफएस हैं, जो पद पर रहते आपस में रिश्तेदार बनने जा रहे हैं। इससे पहले अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे शरदचंद बेहार ने अपने पुत्र का विवाह अपने जूनियर अफसर एस के मिश्रा की पुत्री के साथ किया था। मिश्रा बाद में छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव बने और रिटायरमेंट के बाद कई अहम पदों पर रहे।
हक तो बनता है...
प्रदेश भाजपा संगठन के कर्ता-धर्ता माने जाने वाले गौरीशंकर अग्रवाल अपनी ही पार्टी के प्रमुख नेताओं की आंखों की किरकिरी बन गए हैं। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष होने के नाते गौरीशंकर को तमाम सरकारी सुविधाएं हासिल हैं। वे पूरे लाव-लश्कर के साथ पार्टी दफ्तर आते हैं। वे वैसे तो किसी अहम पद पर नहीं है, लेकिन उनके मंच पर बैठने को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं।
सुनते हैं कि प्रदेश पदाधिकारियों की बैठक में दो वरिष्ठ नेताओं ने महामंत्री (संगठन) पवन साय को पर्ची भेजकर जानना चाहा कि गौरीशंकर को किस आधार पर मंच पर बिठाया गया। इससे पार्टी में हलचल मच गई। पिछले दिनों जिला अध्यक्ष की रायशुमारी के लिए वरिष्ठ नेताओं की बैठक में भी गौरीशंकर मौजूद थे, तब भी कुछ प्रमुख नेताओं ने उनकी मौजूदगी पर आपत्ति की थी।
गौरीशंकर भले ही किसी पद पर न हो, पार्टी में साधन-संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी उन पर रहती है। लोगों को याद है कि जब पार्टी लगातार विपक्ष में थी तब भी रायपुर में भाजपा कार्यालय गौरीशंकर अग्रवाल ने ही खड़े रहकर बनवाया था, और तब से लेकर विधानसभा अध्यक्ष रहने तक भी राजनीतिक और चुनावी खर्च की तमाम इंतजाम बैठकों में वे रखे ही जाते थे। ऐसे में मंच पर बैठने का हक तो बनता ही है, लेकिन पार्टी दिग्गज नेताओं की नाराजगी को भी अनदेखा नहीं कर पा रही है। चूंकि पार्टी विपक्ष में है, ऐसे में दिग्गजों को साथ लेना मजबूरी भी है। इन सबको देखते हुए तोड़ निकाला गया कि मंच पर कुर्सी में अब नेताओं का नाम चिपका दिया जाता है। जिनका नाम होता है, वे ही मंच पर कुर्सी में बैठ सकते हैं। इससे सभी का सम्मान रह जाता है।
संभावनाएं अभी बाकी हैं...
आरपी मंडल के मुख्य सचिव बनने के साथ ही उनके बैचमेंट चित्तरंजन खेतान मंत्रालय से बाहर हो गए क्योंकि आमतौर पर लोग अपने बराबर के, या अपने से जूनियर अफसर के मातहत काम नहीं करते। खेतान के राजस्व मंडल जाने के अलावा इन दोनों से वरिष्ठ एक अफसर, पूर्व मुख्य सचिव अजय सिंह भी सरकार के बाहर हैं, लेकिन वे राजस्व मंडल से नया रायपुर, योजना आयोग में उपाध्यक्ष के पद पर आ गए हैं, जहां अध्यक्ष मुख्यमंत्री होते हैं। एक और सीनियर अफसर एन. बैजेंद्र कुमार केंद्र सरकार के एनएमडीसी में सीएमडी के बहुत महत्वपूर्ण और ताकतवर पद पर हैं, लेकिन उनका रिटायरमेंट भी कुछ ही महीने दूर है। ऐसे में अभी ऊपर के ये चारों नाम कुछ महीनों से लेकर डेढ़ बरस तक अलग-अलग जगह काम भी करेंगे, लेकिन लोगों की नजरें इस पर भी हैं कि क्या मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इनमें से किसी को सलाहकार भी बनाएंगे? पिछली भाजपा सरकार में शिवराज सिंह और सुनिल कुमार दो रिटायर्ड मुख्य सचिव सलाहकार बने थे, और भूपेश सरकार में कोई भी रिटायर्ड अफसर सलाहकार नहीं है। कुछ लोगों को लगता है कि भूतपूर्व अफसर भी काम के हो सकते हैं, हालांकि भूपेश बघेल ने जो चार गैरसरकारी पृष्ठभूमि वाले सलाहकार बनाए हैं, वह अपने-आपमें एक अनोखा और महत्वपूर्ण प्रयोग है। इनमें से तीन तो अखबारी दुनिया से आगे बढ़े हुए हैं, और एक राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए हैं। अब जो अफसर मुख्य सचिव बन गए, या नहीं बन पाए, उनके सामने सलाहकार बनने की एक दूर की संभावना दिखती है।