राजपथ - जनपथ
अफसर और सरकार
छत्तीसगढ़ में सरकार के मुखिया मीडिया से अच्छे रिश्ते रखना हैं. पंद्रह बरस बिपक्ष में रहते हुए भूपेश बघेल देर रात तक मीडिया के दफ्तरों में दोस्ताना-दौरा करते रहते थे. अब भी उनके चार सलाहकारों में से तीन तो भूतपूर्व पत्रकार हैं ही. लेकिन अफसरशाही है कि मीडिया के साथ कल्लूरी-काल का बर्ताव जारी रखे हुए है. खासकर जो बस्तर मीडिया के मामले में दुनिया की नजऱों के बीच बने ही रहता है, उस बस्तर के पत्रकारों के साथ टकराव बंद ही नहीं हो रहा. अब एक कलेक्टर ने पत्रकार से पुराना हिसाब चुकता करने के लिए उसके खिलाफ ें फज़ऱ्ी केस दर्ज करवा दिया. पुलिस तो कलेक्टर के मातहत रहती ही है, सो केस तो दजऱ् हो गया, लेकिन अब इस केस के चक्कर में पूरी दुनिया है कि बस्तर में सरकार के हेल्थ विभाग का क्या बुरा हाल है. यह दिख रहा है की आदिवासी पत्तों का मास्क लगा रहे हैं. जो कि बहुत बुरी बात भी नहीं है, सिवाय इसके कि यह सरकार की नाकामी का सुबूत है. जिले के एक अफसर की बददिमागी से पूरे राज्य की बदनामी हो रही है, पत्रकार तो खैर कोर्ट से छूट ही जाएंगे , बाकी तमाम पत्रकारों की तरह, लेकिन मीडिया के मुँह में कड़वाहट घुल रही है. मुख्य सचिव और डीजीपी का अपने अमलों पर कोई काबू ही नहीं रह गया।
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कोरोना का चक्कर...
कोरोना प्रकोप के चलते राजधानी रायपुर की कई कॉलोनियों में बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया गया है। रईसों की कॉलोनी स्वर्णभूमि में कुछ अलग तरह की व्यवस्था है। यहां के सभी लोगों की गाडिय़ों में सेंसर लगा हुआ है और जैसे ही गाड़ी कॉलोनी के गेट पर पहुंचती है, गेट ऑटोमेटिक खुल जाता है। बाहर से आई दूसरी गाडिय़ां बिना इजाजत के प्रवेश नहीं कर सकती हैं। कॉलोनीवासियों ने एक राय होकर अपने घरेलू नौकरों और काम वाली बाईयों को भी आने से मना कर दिया है।
ऐसे में घरेलू कामकाज की आदी न होने के कारण महिलाओं को दिक्कत होना स्वाभाविक है। ऐसे में कुछ लोगों ने इसका तोड़ भी निकाल लिया। वे अपनी गाडिय़ों को लेकर बाहर जाते थे, और कामवाली बाईयों को अपने घर ले आते थे। कामकाज निपटने के बाद उसी तरह छोड़ आते थे। महिलाओं के बीच यह बात छिपती तो है नहीं, वहां किसी ने कामवाली बाईयों को घर ले जाते कैमरे से फोटो निकालकर कॉलोनी के रहवासियों के वॉट्सएप ग्रुप में किसी ने डाल दिया। फिर क्या था बवाल मच गया। इसके बाद कॉलोनी के पदाधिकारियों ने ऐसा करने वालों को चेतावनी देते हुए बाहरी व्यक्तियों के आने पर पूरी तरह से रोक लगा दी और सख्त पहरा बिठा दिया। अब पार्टियों की शौकीन यहां की महिलाओं को मन मारकर चूल्हा-चौकी करना पड़ रहा है। कोरोना के चक्कर में सारी रईसी जाती रही।
अफसर भी बुरे फंसे
समाज में सरकारी अधिकारियों की धर्मपत्नी का बड़ा क्रेज है क्योंकि इसमें खूब ठाठ बाट जो हैं । सरकारी नौकर-चाकर, ड्राइवर, खानसामा सभी मेमसाहब के आगे पीछे रहते हैं। ये समझिए कि कार का दरवाजा खोलने से लेकर तमाम कामकाज के लिए लोग हुक्म के इंतजार में रहते हैं, लेकिन कोरोना ने सब ठाठ बाट छीन लिया। अब तो जान बचाने के लिए हर काम खुद करना पड़ रहा है। ऐसे में मेमसाहिबाओं की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। अगर, ये स्थिति लंबी खींच गई तो पता नहीं उनका क्या होगा, लेकिन इसके दो फायदे तो साफ नजर आ रहे हैं। पहला यह कि मेमसाहिबाओं को जिम और हेल्थ सेंटर्स में पसीना नहीं बहाना पड़ेगा और इससे उनके पैसों की भी बचत होगी। दूसरा बड़ा फायदा यह दिख रहा है कि सरकार चाहे तो अफसरों के खर्चों में कटौती कर सकती है, क्योंकि मेमसाहिबाओं को अपना काम खुद करने की आदत पड़ जाएगी। ऐसे में उन्हें काम करने वालों की जरुरत कम ही पड़ेगी। जिससे बंगलों में काम करने वाले सरकारी कर्मियों का दूसरा उपयोग किया जा सकता है। खैर, ये तो बाद की बात है, फिलहाल संकट की घड़ी में कई अफसर पत्नियों के कामकाज में हाथ बंटा रहे हैं। अगर, ये पीरियड लंबा खिंचा तो भी, और सरकार ने कर्मियों को हटा लिया तो भी अफसरों की हालत पतली होने वाली है।
कोरोना इफेक्ट वन
छत्तीसगढ़ में भी कोरोना को लेकर खौफ है, लेकिन खौफ के इस माहौल में वार्ड और शहर स्तर के कई नेता मास्क लगाकर घूम रहे हैं। इतना ही नहीं कोई दवा छिड़कने वाला मशीन टांग के घूम रहा है, तो गली गली में पाउडर छिड़क रहे हैं। कोई राशन का पैकेट लेकर घूम रहा है तो कोई मास्क बांटने का काम कर रहे हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि कोरोना को भगाना बड़ी चुनौती है और तमाम नेता इसमें अपने अपने हिसाब से भागीदारी निभा रहे हैं। वार्ड और शहर को साफ रखना जरुरी भी है, लेकिन एक नेताजी को उनके ही समर्थक ने निरुत्तर कर दिया। दरअसल, समर्थक का कहना था कि बड़े बड़े देश कोरोना वायरस से निपटने का तरीका ढूंढ नहीं पाए हैं और इस पर रिसर्च चल रहा है, और हम यहां डीटीटी और ब्लींचिंग पाउडर से कोरोना को भगा रहे हैं ? ये कैसे हो सकता है। नेताजी की थोड़ी देर के लिए बोलती बंद हो गई, फिर धीरे से उन्होंने अपने समर्थक को सझाया कि कोरोना के लिए यह उपाय कारगर हो या न हो, लेकिन नेतागिरी के लिए सौ फीसदी कारगर है।
कोरोना इफेक्ट टू
राजधानी में कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो सोशल डिस्टेंसिंग और लॉक डाउन का भरपूर पालन कर रहे हैं। केवल मोबाइल के जरिए वार्ड और शहर के लोगों से संपर्क में है। ऐसे समय में जब कुछ नेता घूम-घूमकर कोरोना के खिलाफ जंग में अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं, तो घर में दुबके नेताओं के बारे में तरह-तरह के किस्से चर्चा में है। चुनाव हारने वाले तो बड़ी राहत की सांस ले रहे हैं, लेकिन जीतने के बाद भी घर में रहने वाले नेताओं की परेशानी कुछ और है। उनकी दिक्कत है कि कुछ महीने पहले तो भारी भरकम खर्चा कर चुनाव लड़े थे, अब महामारी के डर से लॉकडाइन के कारण महंगाई के साथ किल्लत बढ़ रही है। ऐसे में लोग उनके पास मदद मांगने के लिए पहुंच रहे हैं। किसी को राशन की जरुरत है, तो कोई बीमारी के लिए खर्चा मांग रहा है। लिहाजा ऐसे नेता घर में दुबके रहने को बेहतर समझ रहे हैं। देखना यह होगा कि वे कितने दिन अपने आप को कोरोना के साइड इफेक्ट से अपने आप को बचाकर रख सकते हैं।
कोरोना इफेक्ट थ्री
कोरोना के कारण ऐसे लोगों की पोल पट्टी खुलने लगी है, जो घर परिवार की जानकारी के बगैर विदेश यात्रा के लिए निकल जाया करते थे, क्योंकि पुलिस और प्रशासन दोनों ने ऐसे लोगों की पहचान करके धर-पकड़ शुरू कर दी है। बेचारे दोनों तरफ से फंस रहे हैं। विदेश दौरे के बारे बताएंगे तो घर वालों के सामने शर्मिंदगी और नहीं बताएंगे तो पुलिस वाले से खतरा। इसमें व्यापारी, बड़े अधिकारी और नेताओं की संख्या ज्यादा है, जो साल में एक दो विदेश यात्रा को शान समझते थे। अब इसी शान के कारण उनकी बदनामी शुरु हो गई है। बेचारे क्या करें, ऐसी स्थिति में उन्हें भगवान ही सहारा लग रहे हैं, तो वे सभी मन्नत मांग रहे हैं कि इस बार बचा लो.. अगली बार से विदेश जाना तो दूर उसके बारे में बात भी नहीं करेंगे। संभव है कि भगवान के पास ऐसी अर्जियों की भरमार हो गई होगी। अब भगवान भी कितनों का भला कर पाते हैं, यह तो नहीं पता, लेकिन खुदा ना खास्ता पोल पट्टी खुल गई तब तो ऐसे लोगों को भगवान भी नहीं बचा पाएंगे।
दूसरी तरफ, कुछ जानकारों का यह भी कहना है की अपने बच्चों के विदेश में पढऩे की बात पैसे वाले इसलिए भी छुपाते थे कि कहीं इनकंप टैक्स पीछे न लगे। अब पता नहीं यह बात सही है या नहीं, लेकिन पिछले कई हफ्तों से लोग इस बात को छुपाने लगे हैं। ([email protected])
स्वास्थ्य विभाग, वनवे ट्रैफिक
कोरोना संक्रमण की वजह से प्रदेश में लॉकडाउन है। स्वास्थ्य विभाग के नीचे का अमला तो ठीक-ठाक काम करता दिख रहा है, मगर आला अफसरों की बेरूखी समझ से परे हैं। स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव मुंबई में फंस गए हैं। बावजूद इसके वहां से वे कामकाज पर निगरानी रखे हुए हैं, लेकिन विभागीय सचिव सुश्री निहारिका बारिक सिंह और संचालक नीरज बंसोड़ के कामकाज के तौर तरीकों पर सवाल खड़े हुए हैं। सांसद और कई अन्य जनप्रतिनिधियों की शिकायत है कि स्वास्थ्य सचिव फोन तक रिसीव नहीं कर रही हंै। यही हाल उनके अधीनस्थ नीरज बंसोड़ का भी है।
खुद 'छत्तीसगढ़' के संपादक और संवाददाता ने कई बार उनसे संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन दोनों अफसर फोन रिसीव नहीं कर रहे हैं, और यह बात कोरोना का खतरा बढऩे के बाद की नहीं है, पिछले कुछ हफ्तों से स्वास्थ्य विभाग के अफसर वनवे ट्रैफिक हो गए हैं। ऐसे समय में जब विपरीत परिस्थितियों से निपटने के लिए स्वास्थ्य मंत्री सिंहदेव जनप्रतिनिधियों और आम लोगों से सुझाव लेने से परहेज नहीं करते हैं। वे प्रदेश में न होने के बावजूद कोई कॉल मिस नहीं कर रहे हैं। यदि वे किसी वजह से फोन नहीं उठा पाते हैं तो कॉल बैक जरूर करते हैं। उनका निजी स्टॉफ भी फौरी प्रतिक्रिया देने से नहीं चूकता है। खुद सीएम भूपेश बघेल ने स्काइप-वॉट्सएप के जरिए कॉफ्रेंसिंग कर अखबार के संपादकों से चर्चा की और उनसे कोरोना को रोकने के उपायों पर राय ली। ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य सचिव और संचालक की कार्यशैली चर्चा का विषय बनी हुई है।
दो और रिटायरमेंट के करीब...
प्रदेश में आईएएस अफसरों की कमी है। ऐसे में 2 और अनुभवी अफसर डॉ. आलोक शुक्ला और नरेंद्र शुक्ला मई महीने में रिटायर हो रहे हैं। प्रमुख सचिव डॉ. आलोक शुक्ला को स्कूल शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी संभाले कुछ ही महीने हुए हैं, उन्होंने कम दिनों मेें ही विभाग के कामकाज में परिवर्तन लाने की दिशा में ठोस कोशिश की है। वैसे भी डॉ. आलोक शुक्ला को स्कूल शिक्षा विभाग का पुराना तजुर्बा रहा है, और जोगी सरकार के वक्त भी वे स्कूल-मंत्री सत्यनारायण शर्मा के साथ कई किस्म की टकराहट के बाद भी अच्छा काम कर रहे हैं। बीते बरसों में जब आलोक शुक्ला को सरकारी काम से अलग कर दिया गया था, तब भी वे लगातार शिक्षा की बेहतरी के लिए काम करते थे। और इस बार का उनका जिम्मा एक ऐसे वक्त आया जब छत्तीसगढ़ सरकार का स्कूल शिक्षा विभाग बुरी तरह की बदनामी का शिकार होकर पटरी से उतरा हुआ था, और उसे पटरी में लाने के लिए ही चार महीने का वक्त बहुत कम था, कम है।
उनके साथ-साथ रिटायर होने वाले एक दूसरे आईएएस नरेंद्र शुक्ला आवास एवं पर्यावरण आयुक्त पद पर हैं, वे छत्तीसगढ़ की ही माटी-संतान हैं और डिप्टी कलेक्टर से आगे बढ़ते हुए आईएएस बने हैं।
सुनते हैं कि रिटायरमेंट के बाद दोनों के अनुभवों का सरकार किसी न किसी रूप में उपयोग कर सकती है। वैसे तो केंद्र सरकार में छत्तीसगढ़ कैडर के आधा दर्जन से अधिक अफसर पदस्थ हैं, लेकिन इनमें से फिलहाल किसी के लौटने की संभावना नहीं है। अलबता, जुलाई महीने में सचिव स्तर की अफसर एम. गीता अध्ययन अवकाश से लौटेंगी। उनका महिला बाल विकास और समाज कल्याण विभाग में काम अच्छा रहा है, ऐसे में आने के बाद उन्हें कोई अहम दायित्व दिया जा सकता है। ([email protected])
लॉकडाउन के बीच एसपी बदले !
लॉकडाउन के बीच पुलिस अफसरों के तबादले की जमकर चर्चा है। कुछ जिलों में एसपी की पदस्थापना को छह माह नहीं हुए हैं, उनका तबादला हो गया। मसलन, राजनांदगांव एसपी बीएस ध्रुव, कांकेर एसपी भोजराज पटेल और महासमुंद एसपी जितेन्द्र शुक्ला की छह माह के भीतर दूसरे जिले में पोस्टिंग हो गई। जितेन्द्र शुक्ला पहले आबकारी मंत्री कवासी लखमा के खिलाफ सोशल मीडिया पर टिप्पणी को लेकर चर्चा में रहे। उन्हें हटाकर पीएचक्यू में लाया गया और फिर कुछ समय बाद महासमुंद पोस्टिंग की गई। इसके बाद वे महासमुंद एसपी बनाए गए और फिर अब उनकी पदस्थापना राजनांदगांव में की गई। इसी तरह राजनांदगांव जैसे बड़े जिले के एसपी रहे कमललोचन कश्यप को बीजापुर का एसपी बनाया गया है। कमललोचन की पोस्टिंग को नक्सल गतिविधियों पर अंकुश लगाने की कोशिशों के रूप में भी देखा जा रहा है।
कमललोचन नक्सल क्षेत्रों में अच्छा काम कर चुके हैं। तबादला सूची में कबीरधाम एसपी डॉ. लालउम्मेद सिंह का नाम होने से किसी को हैरानी नहीं हुई। वे अकेले एसपी थे जिसकी पोस्टिंग पिछली सरकार ने की थी और मौजूदा सरकार ने उन्हें अब तक नहीं बदला। इन सबके बीच रायपुर एएसपी प्रफुल्ल ठाकुर की महासमुंद एसपी के पद पर पदस्थापना की भी जमकर चर्चा हो रही है। प्रफुल्ल पिछले कुछ समय से रायपुर में अच्छा काम कर रहे थे और उन्हें ईनाम स्वरूप महासमुंद जिले का एसपी बनाया गया। वे प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष वीरेश ठाकुर के छोटे भाई हैं। फिर भी कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि आखिर ऐसी क्या जल्दबाजी थी कि लॉकडाउन खत्म होने तक का इंतजार नहीं किया गया?
लेकिन कुछ जानकार लोगों का यह कहना है कि बस्तर के ताजा नक्सल हमले में 17 शहादतों के बाद सरकार कुछ जिलों के एसपी तो बदलना चाहती ही थी, कुछ और ने तरह-तरह की वजहें भी दे रखी थीं, कुछ और ने अच्छा काम करके एक हक हासिल किया हुआ था जिसका सम्मान करना था।
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घंटा बजाते घूमने वाले पीलीभीत के कलेक्टर बिलासपुर के...
उत्तरप्रदेश के पीलीभीत जिले से जब एक फोटो और वीडियो पोस्ट किया गया कि जनता कफ्र्यू के दिन किस तरह वहां के कलेक्टर और एसपी भीड़ लेकर सड़क पर निकले। वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस आव्हान को अपने अंदाज में पूरा कर रहे थे कि शाम 5 बजे लोग मेडिकल और दूसरी इमरजेंसी सेवाओं में लगे लोगों का आभार व्यक्त करें, थाली बजाएं, ताली बजाएं, शंख और घंटी बजाएं। प्रधानमंत्री ने न तो ऐसा कहा था कि लोग जुलूस निकालें, और न ही इसके लिए मना भी किया था। उन्हें संदेह का लाभ देना ठीक होगा कि ऐसी मूर्खता की शायद उन्होंने उम्मीद नहीं की होगी। लोग चारों तरफ भीड़ बनाकर, जुलूस बनाकर निकले।
लेकिन उत्तरप्रदेश के पीलीभीत में नजारा कुछ अधिक मजेदार था। कलेक्टर घंटा बजाते चल रहे थे, और एसपी शंख फूंकते हुए। जाहिर है कि उनके पीछे और लोग तो चल ही रहे होंगे। तस्वीर शुरू में फर्जी जानकारी के साथ पोस्ट की हुई लगी, लेकिन फिर जब पीलीभीत के भाजपा सांसद वरूण गांधी ने कलेक्टर और एसपी की इस हरकत पर उन्हें गैरजिम्मेदार कहते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की ट्वीट की, और उसका वीडियो भी डाला तो यह जाहिर था कि यह फेक-न्यूज नहीं है।
अब इस बारे में यह लिखना दिलचस्प होगा कि ये कलेक्टर छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से आईएएस बनकर उत्तरप्रदेश गए वैभव श्रीवास्तव हैं। उन्होंने बाद में एक वीडियो जारी करके खंडन किया कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया, जबकि चारों तरफ मौजूद वीडियो उनकी बात को गलत बता रहा है। उनके साथ मौजूद एसपी का नाम अभिषेक दीक्षित है। जय श्रीराम।
अब यह बात सामने आ रही है कि कलेक्टर-एसपी की इस हरकत से प्रधानमंत्री कार्यालय नाराज है, और उसने योगी सरकार से इनके खिलाफ कार्रवाई करने कहा है, क्योंकि इस एक वीडियो से प्रधानमंत्री का आव्हान बहुत बुरी रौशनी में देखा जा रहा है। और तो और ऐसा सुना जा रहा है कि सीएम योगी आदित्यनाथ भी इन दो अफसरों से बहुत खफा हैं। ([email protected])
सांसद नहीं पहुंच पाए संसद
कोरोना संक्रमण के चलते विमानसेवा रोक दी गई है। हाल यह रहा कि सुनील सोनी को छोड़कर कोई भी भाजपा सांसद संसद की कार्रवाई में हिस्सा लेने दिल्ली नहीं जा पाए। सभी सांसदों को दिल्ली पहुंचने के लिए कहा गया था। सुनील सोनी रविवार की देर शाम विस्तारा की नियमित फ्लाइट से दिल्ली पहुंच गए। जबकि बाकी सांसद सोमवार की सुबह दिल्ली रवाना होने वाले थे, लेकिन लॉक डाउन के चलते सारी फ्लाइट निरस्त कर दी गई हैं और भाजपा सांसद दिल्ली जाने से रह गए। दूसरी तरफ, दिल्ली का हाल यह रहा कि संसद की कार्रवाई में सवा तीन सौ भाजपा सांसदों में से सिर्फ 85 ही हिस्सा ले पाए। बाकी सांसद लॉक डाउन की वजह से दिल्ली नहीं पहुंच पाए।
स्प्रे वाला अखबार
देश के एक प्रमुख अखबार हिंदुस्तान टाईम्स ने दिल्ली की अपनी प्रेस का एक वीडियो जारी किया तो उससे अखबार लेने वालों में एक दहशत भी फैली, और बाकी अखबारों के सामने एक चुनौती भी खड़ी हो गई। अखबार में मशीन पर ही सेनिटाईजर का स्प्रे छपे हुए अखबारों पर हो रहा है। इस समूह का हिन्दी अखबार हिंदुस्तान ऐसे स्प्रे केे नीचे दिख रहा है। अब इससे बाकी बड़े अखबारों के संक्रामक होने की छवि भी बन रही है, और लोगों में यह दहशत भी हो रही है कि अखबार संक्रमण लेकर आ सकते हैं। लोगों को लग रहा है कि मशीन से लेकर बंडल और टैक्सी तक, एजेंट और हॉकर तक के हाथ तो लगते ही हंै। अभी तक देश के कई अखबार तरह-तरह के प्रयोग करते आए हैं। कुछ अखबार मशीन पर ही पन्नों को जोडऩे के लिए गोंद लगाते हैं जिससे पन्ने बिखरते नहीं। कुछ अखबार किसी खुशबू को छिड़ककर पेपर भेजते हैं जो कुछ लोगों को पसंद आती है, और कुछ लोगों को उससे एलर्जी भी होती है। अब सेनिटाईजर वाला पेपर सच में ही सेनिटाईजर सहित होगा, या कोई अखबार महज पानी ही स्प्रे करते हुए वीडियो बनाकर प्रचार पाएगा, इसका ठिकाना तो है नहीं। इसके लिए तो फिर अखबार आए तो उसे सूंघकर देखा जाए, लेकिन उसके भी अपने अलग खतरे होंगे।
दुनिया ने अभी तक ऐसे खतरे को देखा नहीं है जिसमें किसी बीमारी के संक्रमण के डर से अखबार न निकलें। कम से कम हिंदुस्तान के पिछली आधी सदी के इतिहास में ऐसा याद नहीं पड़ता। यह अलग बात है कि महीनों तक जनता, एक पूरे प्रदेश की जनता बिना अखबारों के रहे, ऐसा कश्मीर में हुआ है, और बाकी देश को उसकी खबर भी नहीं है। कश्मीर आधा बरस तक बिना इंटरनेट के भी रहा, बिना मोबाइल फोन के भी रहा, लेकिन बाकी देश को उसकी भी खबर नहीं है।
आने वाले दिन अगर और बुरे संक्रमण के होंगे, तो हो सकता है कि लोगों को इंटरनेट और फोन से मिलने वाले अखबार पर तसल्ली करनी पड़े। बीते कल आपका यह अखबार 'छत्तीसगढ़' भी नहीं छपा क्योंकि कोरोना-चेन के संक्रमण को रोकने की वैज्ञानिक कोशिश में भागीदार बनने के लिए इस अखबार ने छुट्टी रखी थी। असामान्य और असाधारण खतरे असाधारण समाधान भी खड़े करते हैं। अखबारों के पाठक ऐसी कई नौबतों के लिए तैयार रहें।
ठलहा लोगों की मौलिक सलाहें...
लोग सरकार-बाजार के करीब-करीब बंद हो जाने की वजह से, स्कूल-कॉलेज बंद हो जाने से खाली बैठे हैं। और ऐसे में उनकी कल्पनाशीलता आसमान पर पहुंच रही है। कुछ लोग वॉट्सएप पर कोरोना से बचने की तरह-तरह की मौलिक सलाहें भेज रहे हैं।
एक सलाह- रविवार की सुबह कब्ज की दवा का ओवरडोज ले लें। चार चम्मच जमालगोटा खा लेने पर आप दिन भर घर पर ही रहेंगे, और बार-बार साबुन से हाथ भी धुलता रहेगा।
एक दूसरी सलाह- अगर आप मोदी विरोधी हैं, तो भी 22 तारीख को घर पर ही रहें, क्योंकि विरोध करने के लिए भी जिंदा रहना जरूरी है।
एक तीसरी सलाह- जितने धर्म स्थानों पर चंदा देते आए हैं, वे सारे ईश्वर आज पट बंद करके दहशत में बैठे हैं। इसलिए चंदा उन अस्पतालों को दें जो आज मुसीबत के वक्त भी जान पर खेलकर आपके लिए खड़े हैं।
एक चौथी सलाह-लोग मास्क लगाना तो सीख गए हैं, लेकिन खांसते-छींकते वक्त मास्क हटाना नहीं है इसे भी सीख लें।
एक पांचवी सलाह- कोरोना के कान नहीं हैं, इसलिए तेज आवाज में भोजपुरी गानों से न उसे परेशान किया जा सकता, न ही उसे लहंगे वाले गानों से कोई शर्म आती, इसलिए ऐस गाने न बजाएं। ([email protected])
नंदकुमार साय फिर उम्मीद से
अनुसूचित जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष नंदकुमार साय का कार्यकाल खत्म हो गया है। साय की जगह लेने के लिए कई आदिवासी नेता लगे हुए हैं। सुनते हैं कि नंदकुमार साय की दोबारा नियुक्ति के लिए कोशिश भी हो रही है। केंद्रीय जनजाति मंत्री अर्जुन मुण्डा ने साय की दोबारा नियुक्ति के लिए फाइल प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी है, लेकिन इस पर निर्णय नहीं हो पाया है। इससे परे पूर्व केन्द्रीय मंत्री विष्णुदेव साय भी अजजा आयोग के अध्यक्ष बनने के इच्छुक बताए जाते हैं।
वैसे तो विष्णुदेव साय का नाम प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए चर्चा में है, लेकिन उनकी रूचि जनजाति आयोग के अध्यक्ष पद को लेकर ज्यादा है। छत्तीसगढ़ के अलावा ओडिशा, झारखंड व मध्यप्रदेश के भाजपा के आदिवासी नेता, आयोग के अध्यक्ष पद के लिए प्रयासरत हैं। अजजा आयोग के अध्यक्ष को केंद्रीय मंत्री का दर्जा है और अधिकार संपन्न भी हैं। ऐसे में आयोग के अध्यक्ष पद पर कई भाजपा नेताओं की निगाहें टिकी हुई है। चर्चा है कि कोरोना क्राइसिस के कारण नियुक्ति नहीं हो पा रही है। माना जा रहा है कि इसमें महीने भर का समय लग सकता है। देखना है कि नंदकुमार साय को दोबारा मौका मिल पाता है अथवा नहीं।
शहरी-संपन्न लोग ला रहे हैं...
कोरोना को लेकर केंद्र और राज्य सरकार गंभीर हैं, लेकिन शहरी और अभिजात्य तबके के लोग इससे बेपरवाह हैं। विदेश से आने वाले लोगों को कोरोना की जांच कराना अनिवार्य कर दिया गया है। मगर पढ़ा-लिखा तबका इससे बचने की हर संभव कोशिश कर रहा है। एयरपोर्ट पर उनकी जांच की व्यवस्था भी की गई है। बड़ी संख्या में कारोबारी-अफसरों के बच्चे और नजदीकी रिश्तेदार विदेशों में रहते हैं और वे वहां कोरोना फैलने के बाद लौट रहे हैं, लेकिन वे यहां जांच कराने से बच रहे हैं।
चर्चा है कि कुछ तो एयरपोर्ट में जांच न हो पाए, इसलिए सड़क मार्ग से रायपुर आ गए हैं। शासन-प्रशासन ने जांच को लेकर सख्ती दिखाई है और आम लोगों से आग्रह किया है कि किसी के भी विदेश से लौटने की सूचना मिले, तो टोल फ्री 104 नंबर पर सूचित करे। राजीव नगर में स्वास्थ्य विभाग के अमले ने एक व्यक्ति की इसी तरह जांच कराई। वॉलफोर्ट सिटी में 3 युवतियां लंदन से लौटी थीं, लेकिन उनकी भी जांच नहीं हो पाई थी। अब आसपास के लोगों की सूचना पर तीनों की कोरोना टेस्ट करा होम आइसोलेशन पर रखा गया है। खास बात यह है कि पढ़ा-लिखा और संपन्न तबका इस तरह की लापरवाही कर आम लोगों के जीवन को खतरे में डाल रहा है।
आज किसी ने इस अखबार को फोन करके बताया कि भिलाई की सबस संपन्न नेहरू नगर बस्ती के एक परिवार के तीन लोग अभी विदेश से लौटे हैं, उनकी तबीयत भी कुछ गड़बड़ दिख रही है, लेकिन सरकारी नंबरों पर शिकायत करने पर कोई जांच नहीं हो रही। यह जानकारी सही भी हो सकती है, और गलत भी।
अफसर महफूज हैं क्योंकि...
केन्द्र सरकार ने आदेश निकाला है कि आधे अधिकारी-कर्मचारी घर से काम करें ताकि दफ्तरों से भीड़ घटे। लेकिन ग्रुप ए के, वरिष्ठ, अफसरों को रोज आना जरूरी किया गया है। इसके बारे में कुछ कल्पनाशील अफसरों ने अटकल लगाई, तो उन्हें कई वजहें समझ आई हैं।
समझ आया है कि आला अफसरों को रोज आने की शर्त इसलिए रखी गई है कि वे अपने खुद के आइवरी टॉवर्स में रहते हैं, और लोग उनसे बिना अपाइंटमेंट मिल नहीं सकते, इसलिए कोरोना न उन तक पहुंच पाएगा, न उनसे मिलने का समय पा सकेगा।
आला अफसर न सिर्फ आम जनता से, बल्कि अपने दफ्तर के भी छोटे कर्मचारियों से फासले से मिला करते हैं, इसलिए भी उन्हें कोई खतरा नहीं है।
वे जिम्मेदारी में फंसाने वाले हर काम से हाथ धो लेने के आदी रहते हैं, इसलिए भी उनके हाथों तक कोरोना पहुंच नहीं सकता।
आला अफसरों की चमड़ी आमतौर पर मोटी होती है, इसलिए उनकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता आमतौर पर अधिक होती है।
बड़े अफसर कोई भी काम छूते नहीं हैं, इसलिए संक्रमण उन तक पहुंचने का खतरा नहीं रहता।
वे अपने से बड़े सरकारी बॉस या राजनीतिक मंत्री के चरणों में रहते हैं, इसलिए हाथ मिलाने का न कोई रिश्ता रहता, न कोई खतरा।
वैसे भी मातहत स्टाफ न रहे, तो वे कुछ करने की हालत में नहीं रहते, और न काम करेंगे, न खतरा रहेगा। ([email protected])
पुरानी आदतें देर से बदलती हैं...
कुछ आदतें एकदम से नहीं बदलती हैं। पुलिस ने एक कार के शीशों से काली फिल्म निकलवा दी तो कार में चलने वाले की आदत एकदम से ढली नहीं। काले शीशे नीचे करके गुटखे की पीक बाहर थूकने की आदत बनी हुई थी, फिल्म हट गई थी, लेकिन शीशा चढ़ा हुआ था। बाहर का नजारा दिख रहा था तो भीतर से शीशा उतरा हुआ समझकर थूक दिया, सब कुछ कार की खिड़की के भीतर ही टपकने लगा। कुछ ऐसा ही हाल उन लोगों का हो रहा है जिन्होंने कोरोना की वजह से मास्क लगा रखे हैं, लेकिन मुंह पीक से भरा रहता है। सड़क पर दुपहिया चलाते एक तरफ सिर झुकाकर पीक थूक रहे हैं, तो बड़ी मुश्किल से बाजार में मिला मास्क बर्बाद हो जा रहा है, पान-तम्बाकू के दाग वाला मास्क धोकर भी पहनना मुमकिन नहीं है। इससे बचने के लिए कुछ लोग पीक के रंग का मास्क भी चाह सकते हैं, और उत्तर भारत के कारोबारियों को इस सांस्कृतिक-जरूरत के बारे में सोचना चाहिए, हल्के नीले-सफेद मास्क के बजाय कत्थई मास्क अधिक कामयाब रहेगा।
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आरएसएस का कब्जा बरकरार
कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर आरएसएस से जुड़े बलदेव भाई शर्मा की नियुक्ति को लेकर विवाद चल रहा है। एनएसयूआई ने इसके विरोध में प्रदर्शन भी किया है। इस नियुक्ति को लेकर राजभवन और सरकार के बीच मतभेद उभर आए हैं। 'छत्तीसगढ़Ó के पास कुलपति चयन से जुड़े कुछ दस्तावेज भी मौजूद हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि कुलपति की नियुक्ति को लेकर राजभवन और सरकार के बीच किसी एक नाम पर सहमति नहीं बन पाई थी।
कुलपति चयन के लिए तीन सदस्यीय सर्च कमेटी बनाई गई थी। जिसमें यूजीसी द्वारा कुलदीप चंद अग्निहोत्री, विवि के कार्यपरिषद द्वारा वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी और राज्य शासन द्वारा डॉ. के सुब्रमण्यिम को सदस्य के रूप में नामांकित किया गया था। सर्च कमेटी ने देशभर से आए आवेदनों का परीक्षण कर 11 नवम्बर 2019 को 6 नामों का पैनल तैयार किया था। इसमें बलदेव भाई शर्मा, दिलीप मंडल, जगदीश उपासने, लवकुमार मिश्रा, मुकेश कुमार और उर्मिलेश के नाम थे।
दस्तावेज बताते हैं कि राजभवन में सर्च कमेटी द्वारा अनुशंसित नामों के पैनल पर राज्य सरकार से अभिमत मांगा था। राज्य शासन द्वारा कुलपति पद के लिए उर्मिलेश का नाम सुझाया गया। इस पर राज्यपाल ने राज्यशासन के परामर्श से असहमत होते हुए बलदेव भाई शर्मा की नियुक्ति कर दी। छत्तीसगढ़ में पहली बार ऐसा हुआ है जब कुलपति की नियुक्ति को लेकर राजभवन और राज्यशासन के बीच एक राय नहीं दिखी।
पिछली सरकार में भी राज्यपाल एक-दो मौके पर अपनी पसंद से कुलपति की नियुक्ति कर चुके हैं, लेकिन तब विवाद की स्थिति नहीं बनी थी। एक बार तत्कालीन राज्यपाल ईएलएस नरसिम्हन ने पैनल में अपने स्तर पर नाम छांटकर रविवि में कुलपति पद पर प्रो. एसके पाण्डेय की नियुक्ति की अनुशंसा कर दी थी। राज्य शासन ने तुरंत इसमें हामी भर दी।
प्रो. पाण्डेय का कार्यकाल इतना बढिय़ा रहा कि राज्य शासन के परामर्श पर उन्हें दोबारा कुलपति नियुक्त किया गया। मगर इस बार मामला कुछ अलग था। यह पत्रकारों के साथ-साथ विचारधारा से भी जुड़ा था। ऐसे में राज्य शासन नहीं चाहती थी कि आरएसएस के कट्टर समर्थक और उसके मुखपत्र के संपादक बलदेव भाई शर्मा जैसे की कुलपति पद पर नियुक्ति हो, मगर ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में विवाद होना तो स्वाभाविक है। जानकारों का अंदाजा यह भी है कि आने वाले दिनों में नियुक्ति और अन्य विषयों को लेकर राजभवन और सरकार के बीच खींचतान बढ़ सकती है, मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों एक अनौपचारिक चर्चा में सरकारी बेबसी के बारे में कहा भी था, और राज्य सरकार राजभवन के सामने अपनी इस बेबसी को खत्म करने के लिए तैयारी भी कर रही है। कुल मिलाकर पिछले 15 बरस से इस विश्वविद्यालय पर आरएसएस का कब्जा अब भी जारी है, और भूपेश सरकार हक्का-बक्का है।
एक नजारा रायपुर का
राजधानी रायपुर के पंडरी इलाके की यह तस्वीर फेसबुक पर अभी दोपहर को मनमोहन अग्रवाल ने पोस्ट की है। यह महसूस कर पाना मुश्किल है कि इस तस्वीर को देखकर मुस्कुराया जाए, या रोया जाए। सफाई करने के बीच दो पल को बैठीं ये दोनों महिलाएं अपने-अपने मोबाइल पर जुट गई हैं। दोनों के पास स्मार्टफोन दिख रहे हैं जो कि मुस्कुराने की बात हो सकती है। लेकिन दोनों के चेहरे या गले बिना मास्क के दिख रहे हैं। वे सड़कों पर सफाई कर रही हैं, लेकिन कोई बचाव उनके पास नहीं है। आम लोग आज सुबह रायपुर में कोरोना का एक पॉजिटिव मामला मिलने के बाद दहशत में हैं, घरों में आना-जाना कम कर रहे हैं, बाजार के काम टाल रहे हैं, और ये महिलाएं बिना मास्क सफाई में लगी हैं। अब जनसुविधा के ऐसे कामों में लगे हुए लोगों के बचाव की जिम्मेदारी म्युनिसिपल की है जो कि शहर को स्मार्ट बनाने के नाम पर करोड़ों खर्च कर रहा है, और दसियों लाख रूपए तो दीवारों पर सफाई अभियान के नारे लिखवाने पर खर्च हो रहे हैं। सबको मालूम है कि सफाई कर्मचारी गंदगी और धूल में काम करते हैं, लेकिन उन्हें एक मास्क भी नसीब नहीं है, दस्ताने भी नहीं।
और एक नजारा इंदौर का भी...
लेकिन यह हाल महज सफाई कर्मचारियों का है ऐसा भी नहीं, सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों को भी न दस्ताने मिले हैं, न मास्क। लोग जान पर खेलकर कोरोना जैसी बीमारी से जूझ रहे हैं। अब एक दिक्कत यह है कि धीरे-धीरे शवयात्रा में जाने वाले लोग भी कम होने लगेंगे। अभी एक अंतिम संस्कार में कुल 19 लोग जुटे, जिसमें दो ब्राम्हण थे, और दो नाबालिग। कंधा देने वाले कुल 15 लोग थे, जो बुरी तरह कम पड़ रहे थे। ऐसे में इंदौर के एक अखबार प्रजातंत्र में आज छपी यह तस्वीर देखने लायक है जिसमें एक पूर्व विधायक के परिवार में निधन के बाद शवयात्रा में आए तमाम लोगों को मास्क दिए गए ताकि उन्हें पहनकर ही वे चलें। लेकिन जैसा कि इस तस्वीर में दिख रहा है, शवयात्रा के सामने चल रहे बैंडपार्टी के लोग बिना मास्क के हैं। यह सामाजिक फर्क अब तक लोगों पर हावी है जिसमें महज अपनी नाक ढांक लेने को पूरी हिफाजत मान लिया जा रहा है, और आसपास काम करने वाले लोगों के लिए लोग अब भी बेफिक्र हैं।
विदेश प्रवास महंगा पड़ा...
कोरोना के साए में दुबई प्रवास से लौटे कांग्रेस नेता रमेश वल्र्यानी को वाट्सएप ग्रुप में काफी भला-बुरा कहा जा रहा है। वल्र्यानी ने विदेश प्रवास से लौटने की जानकारी छिपा ली थी और अब विदेश प्रवास का पता लगने पर स्वास्थ्य विभाग ने उन्हें चिकित्सकीय निगरानी में घर में रहने के लिए कहा है। सुनते हैं कि वल्र्यानी और उनके साथियों ने चार महीने पहले होली के मौके पर दुबई की टिकट बुक करा ली थी। जब वे दुबई यात्रा के लिए रवाना हो रहे थे, तो कोरोना दुनियाभर में कहर मचा रहा था।
दुबई सरकार ने भारतीयों को छोड़कर बाकी देशों के यात्रियों को प्रतिबंधित कर दिया था। यहां भी वल्र्यानी और उनके साथियों को कई शुभचिंतकों ने सलाह दी कि वे विदेश यात्रा टाल दें। कुछ लोग तैयार भी थे मगर यात्रा स्थगित होने से होटल-टिकट के 25 हजार रूपए नुकसान हो रहा था। इससे बचने के लिए वे दुबई चले गए। लौटकर आए, तो कोरोना को लेकर एडवायजरी को नजरअंदाज कर घूमने लग गए। बात फैली, तो जिला प्रशासन और पुलिस में शिकायत हुई। आखिरकार वल्र्यानी समेत सभी 70 लोगों को होमआईसोलेसन में रखा गया है। सीएम भूपेश बघेल भी वल्र्यानी से बेहद नाराज बताए जाते हैं। थोड़े नुकसान के चक्कर में वल्र्यानीजी अपना बहुत कुछ नुकसान करा चुके हैं। ([email protected])
बाहर की रणनीति सदन में
छत्तीसगढ़ विधानसभा के इतिहास में पहला मौका है जब किसी सदस्य ने नाराजगी दिखाते हुए आसंदी पर कागज फाड़कर फेंक दिया। वैसे तो, उत्तरप्रदेश के विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण को फाड़कर आसंदी पर फेंकने की घटनाएं कई बार हो चुकी हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ विधानसभा में इस तरह की घटनाएं पहले कभी नहीं हुई थीं। अब जब सदन की कार्रवाई स्थगित करने के विरोध में बृजमोहन अग्रवाल और अजय चंद्राकर ने कार्यसूची फाड़कर आसंदी की तरफ फेंकी, तो मामला तूल पकड़ रहा है।
सत्तापक्ष के सदस्यों ने विधानसभा सचिवालय को विशेषाधिकार हनन की सूचना देकर बृजमोहन और अजय के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। दोनों के खिलाफ कार्रवाई के लिए दबाव बन रहा है। दूसरी ओर, चर्चा है कि यह घटना पूर्व नियोजित थी। यह तय था कि कोरोना के चलते सदन की कार्रवाई नहीं चलेगी। ऐसे में बृजमोहन खेमे ने कार्यसूची फाड़कर फेंकने की रणनीति पहले ही बना ली थी।
चूंकि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष की नियुक्ति होनी है और पार्टी हाईकमान इसके लिए तेजतर्रार नेता की तलाश कर रहा है। अब जब कोरोना के चलते पार्टी की गतिविधियां विज्ञप्तियों तक सीमित होकर रह गई है, ऐसे मौके पर सदन में अपने को आक्रामक साबित करने का इससे बेहतर मौका नहीं था। दोनों विधायकों ने इस मौके को भुनाया भी। अब देखना है कि हाईकमान के प्रदेश अध्यक्ष चयन के मापदण्ड में दोनों नेता खरे उतरते हैं, या नहीं।
हिन्दी में ब्लैकह्यूमर के खतरे...
बहुत से हौसलामंद लोग इन दिनों सोशल मीडिया पर कोरोना का मजाक उड़ा रहे हैं। ये लोग कोरोना-मौतों से भी न डर रहे हैं, न हिचक रहे हैं। दरअसल अंग्रेजी में मौतों से जुड़े लतीफों को ब्लैक-ह्यूमर कहा जाता है, जिसका चलन हिन्दी में न के बराबर है। हिन्दी में तो मरने वाले को तुरंत ही स्वर्ग अलॉट करके स्वर्गीय लिखना शुरू हो जाता है, फिर चाहे हर किसी को यह गारंटी हो कि मृतक अपनी हरकतों की वजह से नर्क में भी मुश्किल से भी ईडब्ल्यूएस क्वार्टर ही पाएगा। ऐसे में कोरोना के मजाक कुछ लोगों को बुरे भी लग रहे हैं क्योंकि मौत के खतरे के साथ मजाक अच्छी नहीं लगती। हमेशा सिर्फ सफेद कपड़े पहनने वाले एक आदमी ने बिल्कुल सफेदी की चमकार वाला कोरोना-मास्क पहन लिया तो लोगों ने कहा कि रूबिया मैचिंग हाऊस से लेकर आया है। दूसरे ने मजाक को आगे बढ़ाया कि ये बाकी जिंदगी भी सफेद ही पहनेंगे, और गुजर जाएंगे, तो भी (कफन में) यही रंग जारी रहेगा। यहां तक तो बात फिर भी चल गई, लेकिन कोरोना-वैराग्य के बीच किसी ने इस ब्लैकह्यूमर को और दो कदम आगे बढ़ाया, और कहा कि गुजर जाने पर इनका भी यही रंग जारी रहेगा, और इनकी जीवनसंगिनी का भी।
ऐसे काले मजाक फिर चाहे वे कितने ही सफेद रंग पर टिके हुए हों, लोगों को एकदम से भड़का सकते हैं। इसलिए अंग्रेजी का ब्लैकह्यूमर हिन्दी में कुछ सोच-समझकर, खतरा तौलकर ही इस्तेमाल करना चाहिए।
कोरोना और सांस्कृतिक-विज्ञान
कोरोना से बचाव के चक्कर में लोग कई किस्म की परंपरागत बातों में विज्ञान ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। घर-परिवार के बीच अधिक समय गुजारने की मजबूरी लोगों के बीच कई किस्म की चर्चा छेड़ रही है। एक किसी ने कहा कि पहले लोग जब पखाने जाते थे, और साबुन का चलन नहीं था तो मिट्टी से तीन बार हाथ धोने का रिवाज था। तीन बार हाथ धोते-धोते कोरोना जैसे तमाम कीटाणु-जीवाणु निकल जाते रहे होंगे। दूसरे ने कहा कि राख का भी इस्तेमाल होता था, और राख से तो तेल वाले बर्तनों की चिकनाहट भी निकल जाती थी, और हाथों को भी वैसा नुकसान नहीं होता था जैसा आज लिक्विड सोप से हाथों को होता है। एक ने कहा कि राख से तो कोरोना भी खत्म हो जाता होगा, तो एक ने सुझाया कि जब तक कोई वैज्ञानिक रिसर्च ऐसा साबित न करे, तब तक ऐसी बात को आगे बढ़ाना खतरनाक होगा। कुल मिलाकर कोरोना से पैदा हुआ एकाकी जीवन लोगों को कहीं भूले-बिसरे दिन याद दिला रहा है, तो कहीं दार्शनिक बना रहा है, तो कहीं सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय कर रहा है। ([email protected])
कोरोना और लालबत्ती
मोतीलाल वोरा के करीबी पूर्व विधायक रमेश वल्र्यानी से पार्टी के नेता छिटक रहे हैं। ऐसा नहीं है कि बाबूजी का संसदीय जीवन खत्म होने के कारण वल्र्यानी की पार्टी के भीतर हैसियत में कमी आई है, और इसके कारण पार्टी के लोग वल्र्यानी से कन्नी काट रहे हैं। बल्कि कुछ दिन पहले ही वे दुबई प्रवास से लौटे हैं। पूरी दुनिया में कोरोना का खौफ है। ऐसे में कोरोना के साए में विदेश प्रवास से लौटने पर वल्र्यानीजी को भी शक की नजर से देखा जा रहा है।
भारत के बाहर विदेशों में कोरोना वायरस बुरी तरह फैला हुआ है। विदेश से आने वाले लोगों की विशेष रूप से जांच-निगरानी की जा रही है। वल्र्यानीजी सिंधी समाज के 70 लोगों के साथ होली के मौके पर सैर-सपाटे के लिए दुबई गए थे। दुबई में भारत को छोड़कर अन्य देशों से आने वाले लोगों को प्रतिबंधित कर दिया गया है। वैसे दुबई में समस्या भी नहीं है, लेकिन लौटते ही वल्र्यानीजी की समस्याएं शुरू हो गई।
दिल्ली एयरपोर्ट पर हेल्थ चेकअप हुआ। वैसे तो वल्र्यानी और उनके साथियों ने कोरोना से बचने के लिए हर संभव तैयारी कर रखी थी। वे पूरी यात्राभर मास्क लगाए रहे और जेब में सैनिटाइजर लेकर चलते थे। रायपुर एयरपोर्ट में भी वल्र्यानीजी और उनके साथियों से फार्म भरवाए गए और दोबारा चेकअप हुआ। सभी स्वस्थ हैं बावजूद इसके वे सभी चिकित्सकीय निगरानी में हैं। रायपुर आने के बाद सभी के घर डॉक्टरों की टीम जा चुकी है। उन्हें हिदायत दी गई है कि 14 दिन तक किसी भी तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्या हो तो तुरंत सूचित करें। किसी को कोई समस्या नहीं आई, लेकिन जिसे भी वल्र्यानी और उनके साथियों के विदेश प्रवास से आने की सूचना मिल रही है, ज्यादातर लोग दूर-दूर हो रहे हैं। अब अगले कुछ दिनों में निगम मंडलों में नियुक्तियां होनी हैं और वल्र्यानीजी को भी उम्मीदें हैं, लेकिन कोरोना के चक्कर में लाल बत्ती में देरी हो जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
मिसालों की शौकीन मीडिया...
लोगों को मिसालें ढूंढने में बहुत मजा आता है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ी तो सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने उनकी तस्वीर के साथ छत्तीसगढ़ के टी.एस. सिंहदेव और राजस्थान के सचिन पायलट की तस्वीर जोड़कर यह अटकल पोस्ट करना शुरू कर दी कि सिंधिया के बाद अब दूसरे कांग्रेसी राज्यों में भी बगावत हो सकती है, और सीएम बनने के महत्वाकांक्षी भाजपा जा सकते हैं। यह बात टी.एस. सिंहदेव के लिए अपमानजनक थी, जो कि कांग्रेस से परे कुछ नहीं देखते। अभी जब ऐसी अटकलों को लेकर उनको घेरा गया, तो मीडिया के सामने उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि लोग ऐसे दावे कर सकते हैं, लेकिन वे कभी भाजपा नहीं जाएंगे, अगर सौ जिंदगियां मिलेंगी, तो भी वे भाजपा की विचारधारा से कभी नहीं जुड़ेंगे। सिंधिया पर उन्होंने कहा कि ऐसा व्यक्ति जो मुख्यमंत्री न बनाए जाने की वजह से पार्टी छोड़ता है, उसे कभी भी मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहिए।
राजनीति में ऐसी अटकलें लगाना कुछ लोगों के बारे में सही भी हो सकता है, और लोग सिंधिया के बाद पायलट की अटकल लगा रहे हैं, लेकिन टी.एस. सिंहदेव के बारे में ऐसी अटकल कल्पना की जंगली उड़ान लगती है। ([email protected])
शराबियों से हमदर्दी जारी...
सोशल मीडिया पर छत्तीसगढ़ की शराब दुकानों पर लगी भीड़ की सेहत की फिक्र अभूतपूर्व है। पहले किसी ने यह ध्यान नहीं दिया कि यह गरीब राज्य दारूखोरी में सबसे ऊपर का गरीब राज्य है, और तो और यहां की महिलाएं भी शराबी महिलाओं के मामले में देश में चौथे नंबर पर हैं। लेकिन अब अचानक जब लोगों का सिनेमा जाना, जिम या लाइब्रेरी जाना सरकार ने बंद करवा दिया है, तो लोगों को शराबियों की भीड़ खटकने लगी है। सरकारी शराब दुकानों पर मेला सा लगे रहता है, और भुगतान करके भी दारू लेकर निकलने वाले शराबी उसी अंदाज में बोतल लेकर भीड़ से बाहर आते हैं जिस अंदाज में वन-डे सिरीज जीतने के बाद कप्तान कप लेकर निकलते हैं। ऐसे शराबियों को सरकारी रेट से अधिक भुगतान करना पड़ रहा था, तो भी किसी की हमदर्दी नहीं थी, नशेड़ी से कैसी हमदर्दी? लेकिन अब अचानक लोगों को शराबियों की सेहत की फिक्र होने लगी है, और मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में उनके लिए बड़ी हमदर्दी उमड़ी पड़ रही है। ऐसा भी हो सकता है कि जो लोग दारू नहीं पीते हैं, उनको यह हमदर्दी अधिक हो रही हो, कि जब उनकी जिंदगी से सब तरह के मजे छिन गए हैं, तो शराबियों के ही मजे क्यों जारी रहें? दारू का धंधा ही ऐसा मजबूत होता है कि सरकार के लिए किसी एक दिन भी दुकान बंद करवाना मुश्किल हो जाता है, एक पूरा पखवाड़ा भला कैसे बंद हो जाएगी शराब दुकानें?
कोरोना से सबकी निकल पड़ी...
कोरोना को लेकर बाबा लोगों की भी निकल पड़ी है। कई बाबा ताबीज बेचने लगे हैं, कई बाबा धागा बांधने लगे हैं, रातों-रात पोस्टर छप गए, और चिपकने लग गए हैं। ऐसे माहौल में कोरोना और रजनीकांत की टक्कर के लतीफे बनने लगे हैं, भोजपुरी वीडियो गानों की इंडस्ट्री की निकल पड़ी है, और वयस्क गाने चारों तरफ छा गए हैं। छत्तीसगढ़ी का भी एक गाना कोरोना पर बनकर आ गया है, लेकिन उस ऑडियो रिकॉर्डिंग के साथ अभी नाम नहीं मिला है कि उसे गाया किसने है। दूसरी तरफ ऐसे कई वीडियो आ रहे हैं जिनमें मारवाड़ी महिलाएं कोरोना को भगाने के लिए गीत-संगीत के साथ धमकियां गा रही हैं। कुल मिलाकर कोरोना की वजह से कुछ अधिक ही ठलहा और बेरोजगार हो गया यह देश तरह-तरह से अपनी कल्पनाशीलता बता रहा है। मेडिकल साईंस की सीमा है, लेकिन कल्पनाओं की कोई सीमा नहीं है। फिलहाल इसी दौर में कई किस्म के झूठे इलाजों की अफवाह फैल रही है, यूनिसेफ और सरकारों की तरफ से कई किस्म की ऐसी चेतावनियां फैल रही हैं जिन्हें फर्जी बताया जा रहा है।
जानवरों में भी भेदभाव...
कुछ लोगों को लगता है कि भेदभाव महज इंसानों में ही होता है, धर्म का, जाति का, और अमीरी-गरीबी जैसी बातों का। लेकिन रायपुर के एक ऑटोरिक्शा से यह पता लगता है कि भेदभाव जानवरों में भी होता है, और घोड़े गधों को हिकारत की नजर से देखते हैं, वे गधों को अपनी दौड़ में शामिल नहीं करते। ठीक है, अभी कोरोना घोड़ों में फैला नहीं है, जिस दिन फैलेगा सब घुड़दौड़ धरी रह जाएगी। ([email protected])
मोबाइल कोरोनाग्रस्त?
दिल्ली से लौटने के बाद सीएम भूपेश बघेल ने कोरोना को लेकर आपात बैठक बुलाई, तो इसमें सरकार के दो मंत्री रविंद्र चौबे और मोहम्मद अकबर मौजूद थे। मगर स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव को बैठक की सूचना नहीं मिल पाई और वे रायपुर में रहने के बावजूद बैठक में शामिल नहीं हो पाए। सिंहदेव इससे खफा बताए जा रहे हैं। उन्होंने खुले तौर पर अपनी नाराजगी का इजहार किया और इसके लिए सीएम सचिवालय के अफसरों पर दोषारोपण किया। सिंहदेव की नाराजगी को भाजपा ने लपक लिया और नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने यहां तक कह दिया कि भविष्य में छत्तीसगढ़ से भी कोई सिंधिया निकल जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
कुछ नेता तो इसको भूपेश और सिंहदेव के बीच मतभेद से जोड़कर देखने लगे। मगर अंदर की खबर यह है कि स्वास्थ्य मंत्री सिंहदेव रायपुर में हैं, इसकी जानकारी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को नहीं दी गई थी। बैठक में स्कूलों को भी बंद करने का फैसला लिया गया, लेकिन स्कूल शिक्षामंत्री डॉ. प्रेमसाय सिंह को भी बैठक की जानकारी नहीं थी। जबकि वे भी रायपुर में थे। बाद में प्रेमसाय ने संसदीय कार्यमंत्री रविंद्र चौबे से बैठक की सूचना नहीं मिलने की बात कही, तो संसदीय कार्यमंत्री ने उनसे कहा कि वे (स्कूल शिक्षामंत्री) रायपुर में हैं, इसकी जानकारी नहीं थी। विभाग के लोगों ने भी नहीं बताया। चूंकि कोरोना को लेकर भय का वातावरण बन रहा है। इसलिए आनन-फानन में बैठक बुलाकर विभागीय मंत्री की गैर मौजूदगी में कुछ फैसले ले लिए गए। प्रेमसाय तो संतुष्ट हो गए, लेकिन सिंहदेव को कोई यह बात बता पाता, इससे पहले उनकी नाराजगी छलक गई। अब आज मोबाइल के वक्त में भी अगर अफसर कुछ दूरी पर बैठे मंत्रियों का पता नहीं लगा पाए, तो यह फोन के कोरोनाग्रस्त होने का मामला लगता है। सिंहदेव ने भी जिम्मेदार अफसरों को ही माना है।
निगम-मंडल की तैयारी
अपै्रल में निगम-मंडलों में नियुक्ति हो सकती है। इसको लेकर दावेदार काफी सक्रिय भी हैं और इसके लिए बड़े नेताओं के चक्कर काट रहे हैं। सुनते हैं कि मलाईदार खनिज निगम के लिए कांग्रेस के दो ताकतवर पदाधिकारियों में रस्साकसी चल रही है। नई रेत नीति प्रभावशील होने के बाद खनिज निगम के चेयरमैन का पद काफी पावरफुल हो गया है।
खास बात यह है कि दोनों ही पदाधिकारी सीएम के खास माने जाते हैं। एक पदाधिकारी तो राज्यसभा टिकट के दावेदार थे। और उन्हें पूरी उम्मीद है कि राज्यसभा टिकट न मिलने की भरपाई पार्टी उन्हें जरूर करेगी। जबकि दूसरे पदाधिकारी अपने आपको अनुभवी बता रहे हैं। दरअसल, इस पदाधिकारी के नजदीकी रिश्तेदार रमन सरकार में निगम के पदाधिकारी रह चुके हैं। ऐसे में वहां के सारे खेल-तिकड़म से परिचित हैं। चर्चा तो यह भी है कि भाजपा नेता के नजदीकी रिश्तेदार कांग्रेस पदाधिकारी ने पार्टी के रणनीतिकारों को खबर भिजवाई भी है कि यदि उन्हें निगम की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो पार्टी को इसका भरपूर लाभ मिलेगा। देखना यह है कि पार्टी निगम की कमान किसे सौंपती है।
कब्र फाड़कर निकला इतिहास
लोग कहते हैं कि किसी की जिंदगी को नंगा करना हो तो उसे चुनाव लड़वा दो। और जब इतने से भी हसरत पूरी न हो, तो उसका दलबदल करवा दो। बहुत से लोग जो पुराने दल के हमदर्द हैं, वे धोखे की शिकायत करते हुए दलबदलू के खिलाफ सौ किस्म की बातें लिखने लगते हैं, और जो लोग गंदगी पाने वाले दल के लिए हमदर्दी रखते हैं, वे ऐसी आती हुई गंदगी के खिलाफ सौ किस्म की दूसरी बातें लिखने लगते हैं। अब सिंधिया के भाजपा में जाने से लोगों को सिंधिया के इतिहास की इतनी याद आई कि हद हो गई। सिंधिया राजघराने ने अंग्रेजों का साथ दिया था जिसकी वजह से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई शहीद हो गई थी, यह जानकारी इतिहास से निकालकर लोगों ने सोशल मीडिया पर पोस्ट की, और खूब लड़ी मर्दानी कविता को स्कूली किताबों से निकालकर पोस्ट किया जिसमें सिंधिया की अंग्रेजों से यारी का जिक्र चले आ रहा है। कुछ लोगों ने मध्यप्रदेश की शिवराज-भाजपा सरकार के वक्त के चुनाव अभियान का जिक्र किया जिसका निशाना सिंधिया थे। कई लोगों ने इतिहास की यह जानकारी निकालकर दी कि महाराष्ट्र का एक प्रचलित सरनेम शिंदे, अंग्रेजों ने बिगाड़कर सिंधिया कर दिया था, और तब से सिंधिया लोग उसी कुलनाम को ढो रहे हैं, अपना खुद का मूल कुलनाम शिंदे फिर वापिस नहीं लाए। इतिहास के किताबों में भी ऐसा ही जिक्र मिलता है कि 1755 तक इस वंश के मुखिया जयप्पाराव शिंदे थे, जो कि इसके तुरंत बाद जानकोजी राव सिंधिया हो गए। सन् 1755 के आसपास अंग्रेजों ने शिंदे को सिंधिया बना दिया, और तब से यह नाम वैसा ही चले आ रहा है। ऐसी तमाम बातें एक दलबदल के साथ कब्र फाड़कर निकलकर सामने आ रही है। अब दलबदलू को कुछ तो भुगतना ही होता है।
नया रायपुर और एक मजाक...
पिछले दिनों मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने विधानसभा में बजट पेश किया, तो उसी शाम संपादकों को चाय पर बुलाया। बातचीत की अधिकतर बातें तो छप गईं, कुछ उनके नाम से, कुछ अनौपचारिक चर्चा की तरह बिना नाम के, लेकिन उनकी कही एक बात कुछ अधिक गहरी थी, और वह कहीं चर्चा में नहीं आई। न सोशल मीडिया पर लिखा गया, और न ही उस पर समाचार दिखे।
दरअसल जब यह चर्चा चल रही थी कि नया रायपुर कब तक बसेगा, तो भूपेश बघेल का कहना था कि वे तो जल्द से जल्द मंत्री-मुख्यमंत्री के बंगले बनवा रहे हैं, और तुरंत वहां रहने चले जाएंगे। उनका कहना था कि वे जाएंगे तो अफसर भी जाएंगे, और धीरे-धीरे, तेजी से नया रायपुर बस जाएगा। उन्होंने इस बसाहट की एक ऐसी मिसाल दी जो बातचीत के बीच में खो गई, लेकिन वह थी बहुत मजेदार। उन्होंने बहुत शरारत के अंदाज में यह कहा कि फिल्म मंडी याद है या नहीं?
श्याम बेनेगल की फिल्म मंडी जिन्हें याद हो वे इसकी कहानी का वह हिस्सा भूल नहीं सकते जिसमें म्युनिसिपल कमेटी चकलाघर को शहर के बाहर भेजने का फैसला लेती है, और जब चकलाघर बाहर वीरान जगह पर जाकर शुरू होता है, तो धीरे-धीरे आबादी भी उसी तरफ बढऩे लगती है। अब ऐसी बात खुद मुख्यमंत्री तो बोल सकते थे, कोई और तो ऐसा मजाक कर नहीं सकता था। ([email protected])
केटीएस तुलसी का नाम कैसे आया?
बीती कल दोपहर के पहले छत्तीसगढ़ में किसी को यह अंदाज नहीं था कि सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े वकील के.टी.एस. तुलसी को यहां से राज्यसभा भेजा जाएगा। कांग्रेस ने मोतीलाल वोरा की जगह इस नामी वकील को भेजना तय किया, तो लोग हैरान हुए। ऐसा तो लग रहा था कि उम्र को देखते हुए वोराजी को अब कांग्रेस मुख्यालय में बैठने के लिए राजी कर लिया जाएगा, और राज्यसभा में किसी ऐसे को भेजा जाएगा जिसकी सक्रियता अधिक हो। नब्बे बरस से अधिक के होने की वजह से राज्यसभा में बाकी लोग वोराजी से एक सम्मानजनक फासला भी बनाकर चलते थे, और कांग्रेस को वहां मेलजोल का फायदा नहीं मिल पा रहा था। वोराजी खुद भी आश्वस्त नहीं थे कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल उनका नाम सुझाएंगे, हालांकि ऐसी चर्चा है कि टी.एस. सिंहदेव, चरणदास महंत, और ताम्रध्वज साहू वोराजी के नाम के साथ थे। ताम्रध्वज को वोराजी का अहसान भी चुकता करना था जिन्होंने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपना सारा दमखम लगा दिया था, और सोनिया गांधी को लेकर राहुल के घर तक चले गए थे। खैर, वोरा के संसदीय कार्यकाल का एक बहुत लंबा अध्याय पूरा हुआ, और वे अपनी ताकत संगठन में लगा सकेंगे।
अब के.टी.एस. तुलसी की बात करें, तो एक वक्त था जब 2007 में वे गुजरात सरकार के वकील थे, लेकिन उन्होंने शोहराबुद्दीन मुठभेड़ मौतों में गुजरात सरकार की तरफ से खड़े होने से इंकार कर दिया था। एक वक्त वे अमित शाह को बचाने के लिए अदालत में खड़े होते थे। और आगे जाकर एक वक्त ऐसा आया जब वे सीबीआई के वकील थे, और अमित शाह के खिलाफ खड़े थे, तो सुप्रीम कोर्ट ने ही तुलसी को कहा था कि वे चूंकि शाह के वकील रह चुके हैं, इसलिए उनके खिलाफ खड़े होना ठीक नहीं है, वे अपना नाम वापिस लें, और तुलसी ने नाम वापिस ले लिया था।
यह एक दिलचस्प बात है कि जिस शोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ हत्या/मौत मामले में के.टी.एस. तुलसी वकील नहीं बने, उस केस में शोहराबुद्दीन के एक करीबी सहयोगी की भी हत्या हुई थी, और उसका भी नाम तुलसी (प्रजापति) था।
7 नवंबर 1947 को पंजाब के होशियारपुर में पैदा तुलसी ने पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट से वकालत शुरू की थी। फिर सुप्रीम कोर्ट तक आते-आते वे कई राज्य सरकारों और सुप्रीम कोर्ट के बड़े चर्चित मामले लड़ चुके थे। वे राजीव हत्याकांड से जुड़े मामलों में भी भारत सरकार की ओर से खड़े हुए, और तमिलनाडू सरकार की तरफ से शंकराचार्य के खिलाफ केस लड़ा। सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा के जमीन-जायदाद के मामले भी उन्होंने लड़े हैं। 2014 में यूपीए सरकार ने उन्हें राष्ट्रपति के कोटे से राज्यसभा में भेजा था।
के.टी.एस. तुलसी महंगी पार्टियां देने के शौकीन हैं, और पुरानी कारों को जमा करने के भी। 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक वे हर पेशी पर खड़े होने की पांच लाख रूपए फीस लेते थे, लेकिन जरूरतमंद लोगों को मुफ्त में भी मदद करते हैं। वे एक ऐसे क्रिमिनल लॉयर हैं जो कि सरकारों की तरफ से भी केस लडऩे का काम करते हैं।
उनका नाम छत्तीसगढ़ की तरफ से भेजना कैसे तय हुआ, यह बात कुछ दिनों में सामने आएगी, लेकिन वे राजीव गांधी से लेकर रॉबर्ट वाड्रा तक के केस लड़ते हुए गांधी परिवार के करीब रहे हैं, और अपने खुद के दमखम से देश के प्रमुख वकीलों में उनका नाम है। छत्तीसगढ़ सरकार आज जितने तरह की कानूनी कार्रवाई में हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक व्यस्त है, वैसे में राज्यसभा सदस्य के रूप में के.टी.एस. तुलसी की सलाह उसके काम भी आ सकती है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत राज्यसभा की दोनों सीटों पर जीत की गारंटी है, और यहां कांग्रेस पार्टी में न कोई मतभेद हैं, न कोई बागी महत्वाकांक्षी हैं, ऐसे में यहां से राज्य के बाहर के तुलसी को उम्मीदवार बनाने में कोई दिक्कत नहीं थी। पहले भी मोहसिना किदवई यहां से दो बार राज्यसभा की सदस्य रह चुकी हैं, यह एक और बात है कि उनका कोई योगदान न राज्य में रहा, न संसद में।
एमपी में सिंहदेव की मदद से...
ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोडऩे का थोड़ा-बहुत असर छत्तीसगढ़ की राजनीति में भी पड़ सकता है। सिंधिया के करीबी और मप्र सरकार में मंत्री महेन्द्र सिंह सिसोदिया, स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के समधी हैं। सिसोदिया की पुत्री ऐश्वर्या की शादी सिंहदेव के भतीजे आदित्येश्वरशरण सिंहदेव से हुई है। सिसोदिया उन 20 कांग्रेस विधायकों में शामिल हैं, जिन्होंने सिंधिया के साथ भाजपा में जाने का फैसला लिया है। हालांकि अभी सिसोदिया के मान-मनौव्वल की कोशिश हो रही है।
सुनते हैं कि कांग्रेस के रणनीतिकार टी.एस. सिंहदेव के छोटे भाई (और आदित्येश्वरशरण सिंहदेव के पिता) एएस सिंहदेव के जरिए सिसोदिया को मनाने की कोशिश हो रही है। फिलहाल तो सिसोदिया को मनाने में कामयाबी नहीं मिल पाई है। दूसरी तरफ, छत्तीसगढ़ में सिंधिया के चुनिंदा समर्थक हैं। इनमें दुर्ग के दीपक दुबे भी हैं।
दीपक के अलावा खैरागढ़ राजघराने के सदस्य देवव्रत सिंह भी सिंधिया के करीबी माने जाते हैं। वैसे तो देवव्रत जनता कांग्रेस में हैं और वे कांग्रेस से निकटतता बढ़ा रहे हैं लेकिन बदली परिस्थियों में वे धीरे-धीरे भाजपा के करीब आ जाएं, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे भी जनता कांग्रेस के दो अन्य विधायक धर्मजीत सिंह और प्रमोद शर्मा ने नगरीय व पंचायत चुनाव में भाजपा का साथ दिया था। ऐसे में माना जा रहा है कि सिंधिया के चलते भाजपा मजबूत हो सकती है।
प्रियंका की नामंजूरी
अब जब पूरे देश के राज्यसभा उम्मीदवारों के नाम सामने आ चुके हैं, तब यह साफ हो गया है कि प्रियंका गांधी राज्यसभा नहीं जा रहीं। वे चाहतीं तो कई राज्यों से उनका नाम जा सकता था, छत्तीसगढ़ से भी, लेकिन सोनिया गांधी ने छत्तीसगढ़ के कुछ नेताओं से यह कहा था कि प्रियंका राज्यसभा जाना पसंद नहीं करेंगी। दरअसल सोनिया और राहुल लोकसभा में हैं, और अगर प्रियंका राज्यसभा जातीं, तो कुनबापरस्ती की बात एक बार और जोर पकड़ती। छत्तीसगढ़ के कुछ बड़े नेताओं ने सोनिया गांधी से यह अनुरोध जरूर किया था, लेकिन इस पर कोई जवाब नहीं मिला था।
कल की कांग्रेस की लिस्ट में अखिल भारतीय कांग्रेस के संगठन प्रभारी के.सी. वेणुगोपाल को राजस्थान से राज्यसभा का उम्मीदवार बनाया गया है। पहले उनका नाम छत्तीसगढ़ से चल रहा था, लेकिन फिर उन्हें राजस्थान की लिस्ट में रखा गया।
फोन रिकॉर्डिंग की दहशत
सरकारों के लिए लोगों के मन में शक रहता ही है कि किसके फोन रिकॉर्ड किए जा रहे हैं। लोगों को याद होगा कि मुख्यमंत्री बनने के बाद जल्द ही भूपेश बघेल ने रायपुर के साईंस कॉलेज के एक कार्यक्रम में मंच पर ही माईक से कहा था कि ढांढ सर भी पिछली सरकार के वक्त उनसे वॉट्सऐप कॉल पर ही बात करते थे क्योंकि उन्हें आशंका थी कि उनके कॉल रिकॉर्ड हो रहे हैं। इस वक्त स्टेज पर विवेक ढांड भी मौजूद थे जो कि रमन सरकार में अपने कार्यकाल के आखिरी दिन तक मुख्य सचिव थे, और बाद में राज्य की सबसे ताकतवर कुर्सी रेरा पर काबिज हुए। क्योंकि उन्होंने इस बात का कोई खंडन नहीं किया, इसलिए जाहिर है कि भूपेश बघेल की कही बात सही थी। अब जब राज्य के कुछ नए-पुराने अफसरों और कुछ कारोबारी-नेताओं पर आयकर छापे पड़े, और बहुत बड़ा बवाल हुआ, तो यह बात सामने आई कि इन लोगों के टेलीफोन शायद इंटरसेप्ट किए जा रहे थे, और आयकर विभाग पूरी जानकारी लेकर आया था। अफसरों ने छापे के बाद इन तमाम लोगों के फोन पर से जानकारी भी निकाल ली थी, और लोगों को अब यह खतरा दिख रहा है कि फोन पर कोई भी बात सुरक्षित नहीं है, और वॉट्सऐप जैसे मैसेंजर की जानकारी भी फोन हाथ आने पर वापिस निकाली जा सकती है। इसका नतीजा यह हुआ कि लोग बड़ी तेजी से वॉट्सऐप से ऐसी दूसरी मैसेंजर सेवाओं पर जाने लगे हैं जो कि लोग वॉट्सऐप से अधिक सुरक्षित मान रहे हैं।
अभी तीन दिन पहले ऐसी ही एक दूसरी मैसेंजर सर्विस का पेज खोलने पर उन लोगों को बड़ा दिलचस्प नजारा देखने मिला जिनकीफोनबुक पर ऐसे तमाम लोगों के फोन नंबर दर्ज थे। सिग्नल और टेलीग्राम जैसे दूसरे मैसेंजरों के पेज पर यह दिखता है कि फोनबुक के और कौन-कौन लोग उस सर्विस को शुरू कर रहे हैं। तीन दिन पहले दोपहर के दो घंटों में ही छापों से प्रभावित लोगों में से आधा दर्जन ने सिग्नल शुरू किया, और उनके नाम दूसरों की स्क्रीन पर एक के बाद एक दिखते रहे, इनमें अफसर, भूतपूर्व अफसर, कारोबारी सभी किस्म के लोग थे।
अब वॉट्सऐप या ये दूसरी सेवाएं कितनी सुरक्षित हैं, और कितनी नाजुक हैं, इसका ठीक-ठीक अंदाज कम से कम आम लोगों को तो नहीं है। लेकिन एक दूसरा खतरा यह खड़ा हो रहा है कि किसी मैसेंजर सर्विस को पूरी तरह महफूज मानने वाले लोग उस पर अंधाधुंध संवेदनशील बातें करने लगते हैं, और यह भरोसा पता नहीं कितनी मजबूत बुनियाद पर है।
फिलहाल राजनीति, मीडिया, सरकार, और कमाऊ-कारोबार के बड़े लोग फोन पर बात हिचकते हुए कर रहे हैं, कुछ को राज्य सरकार की एजेंसियों से खतरा दिखता है, और कुछ को केन्द्र सरकार की एजेंसियों से। बहुत से लोगों को यह भी लगता है कि रमन सरकार के दौरान चर्चित अघोषित-गैरकानूनी इंटरसेप्टर का इस्तेमाल आज भी कोई सरकारी या कोई गैरसरकारी लोग कर रहे हैं। फिलहाल इस खतरे के चलते हुए ही सही, लोग फोन पर बकवास कम करने लगें, वही बेहतर है।
सिंधिया ने नीयत को मौका दिया
लोगों को राजनीतिक-सार्वजनिक जीवन के वीडियो और उसकी तस्वीरें अपनी नीयत की बात लिखने का मौका देते हैं। अभी ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में गए, तो जाहिर है कि दस-बीस मिनट के कार्यक्रम में किसी पल वे मुस्कुरा रहे होंगे, किसी पल भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा मुस्कुरा रहे होंगे, और किसी पल दोनों खुश होंगे, या दोनों उदास होंगे। ऐसे में हर किसी को अपने मन की बात लिखने के लिए एक उपयुक्त फोटो या वीडियो हाथ लग ही गए, और लोगों ने उसकी व्याख्या करते हुए मन की बात लिख डाली। लोगों ने ट्विटर और फेसबुक पर तरह-तरह की भड़ास निकाली, और इस दलबदल से जुड़े, या उसके लिए जिम्मेदार, हर नेता-पार्टी को निशाना बनाया। होली का मौका था, जिस त्यौहार पर लोग आमतौर पर दारू या भांग पीकर मन की बात निकालते हैं, तो लोगों को इस बड़ी राजनीतिक हलचल के बहाने, और इस मौके पर भड़ास का मौका बढिय़ा मिला।
आज सुबह जब लोगों ने टीवी की खबरों पर ज्योतिरादित्य सिंधिया को केन्द्रीय रक्षा मंत्री, भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मिलते देखा, तो फिर लिखने का मौका मिला। राजनाथ सिंह अपने शिष्ट मिजाज के मुताबिक ठीक से बैठे थे, और ज्योतिरादित्य सिंधिया पांव मोड़कर झूलते हुए दिख रहे थे। फिलहाल भोपाल में क्या होगा इसे लेकर लोगों को सट्टा लगाने का एक बढिय़ा मौका मिला है, और सट्टा बाजार से कोरोना वायरस को थोड़ी सी छुट्टी मिलेगी।
बंजारा कुत्तों का बुरा मानना तय
जिस तरह मध्यप्रदेश के कांग्रेस और भाजपा के विधायक झुंड में कहीं बेंगलुरू, तो कहीं हरियाणा ले जाकर छुपाए जा रहे हैं, उससे लोगों को बहुत मजा आ रहा है। पार्टियों के कुछ तेज और तजुर्बेकार विधायक ऐसे बागी हो चुके, या बागी होने से बचाए जा रहे विधायकों को घेरकर चल रहे हैं उन्हें देखकर एक जानकार ने कहा- जब भेड़ों के रेवड़ लेकर लंबा सफर किया जाता है, तो गड़रिए बंजारा नस्ल के कुछ तेज कुत्तों को साथ लेकर चलते हैं। ऐसे दो-चार कुत्ते ही दो-चार सौ भेड़ों को दाएं-बाएं होने से रोककर रखते हैं। थोक में दलबदल की नौबत आने पर अतिसंपन्नता वाले ऐसे माहिर नेताओं को विधायकों की खरीदी के लिए, या उन्हें बिक्री से बचाने के लिए तैनात किया जाता है। हालांकि यह बात तय है कि बंजारा नस्ल के कुत्तों को उनकी यह मिसाल अच्छी नहीं लगेगी, फिर भी बात को सरल तरीके से समझाने के लिए यही उदाहरण अभी सबसे सही लग रहा है। ([email protected])
भाजपा प्रदेशाध्यक्ष मंथन जारी
प्रदेश भाजपा अध्यक्ष को लेकर पार्टी में मंथन चल रहा है। सुनते हैं कि पूर्व सीएम रमन सिंह, धरमलाल कौशिक और सौदान सिंह के बीच गंभीर चर्चा भी हुई है। यह चर्चा सौदान सिंह के दिल्ली के भाजपा के पुराने दफ्तर स्थित कक्ष में हुई। रमन सिंह और धरमलाल कौशिक, पूर्व केन्द्रीय मंत्री विष्णुदेव साय को ही अध्यक्ष बनाने के पक्ष में बताए जाते हैं। मगर प्रदेश के सांसद इससे संतुष्ट नहीं हैं। यह भी चर्चा है कि रमन, धरम और सौदान मिलकर शिवरतन शर्मा का नाम आगे बढ़ा सकते हैं, लेकिन ये नेता आदिवासी वोटबैंक को लेकर भी चिंतित हंै। ऐसे में राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम के नाम पर भी चर्चा हुई है। हल्ला है कि रामविचार के लिए सौदान तो तैयार हैं, लेकिन रमन-धरम की जोड़ी सहमत नहीं है। ऐसे में सभी धड़ों के बीच तालमेल रखने वाले नेता के नाम को आगे किया जा सकता है। ऐसे में कोई नया नाम आ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भाजपा के एक बड़े नेता ने पार्टी के भीतर चल रही इस मशक्कत पर कहा- समुंद्र मंथन तो कई दिनों से चल रहा है, देखें छत्तीसगढ़ के हाथ अमृत लगता है, या विष...
सरकारी अस्पताल को चुनौती
छत्तीसगढ़ में अंधविश्वास के खिलाफ अकेले अभियान चलाते हुए डॉ. दिनेश मिश्रा ने देश-विदेश में सब जगह नाम कमाया है, और नीयत नाम कमाने की नहीं थी लोगों को जागरूक करने की थी। अब समाज में जागरूकता को नापने-तौलने की कोई मशीन तो होती नहीं, इसलिए यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि उनकी मेहनत के बाद अंधविश्वास कितना घटा, और जागरूकता कितनी बढ़ी।
बलौदाबाजार जिले के बिलाईगढ़ के ग्राम नरधा में सरकारी उपस्वास्थ्य केंद्र के सामने ही एक बाबा का घर है, और लोग बीमारियों के साथ ही अन्य तकलीफों से मुक्ति पाने झाड़-फूंक और तंत्र-मंत्र वाले बाबा का सहारा ले रहे हैं। इलाज कराने आए लोगों का कहना है बाबा के पास आस्था लेकर लोग काफी दूर-दूर से आते हैं और इलाज कराते हैं। बाबा मां दुर्गारानी के समक्ष मंत्रोच्चार कर हर व्यक्ति का इलाज करते हैं और इसके एवज में पैसा नहीं केवल नारियल और अगरबत्ती लेते हैं।
दिक्कत यह है कि अनपढ़ समझे या कहे जाने वाले लोग ही ऐसे बाबा के शिकार नहीं होते, पढ़े-लिखे कहे जाने वाले लोग भी अंधविश्वास में कहीं कम नहीं हैं। ऐसे बाबा बीमारियों के साथ-साथ बुरे सायों को हटाने का दावा भी करते हैं, और सरकारी अस्पताल के ठीक सामने सरकार और विज्ञान दोनों को चुनौती दे रहे हंै। अब लोकप्रियता की एक वजह यह भी हो सकती है कि बाबा इलाज के एवज में पैसा नहीं केवल नारियल और अगरबत्ती लेते हैं। दूसरी तरफ सरकारी अस्पतालों में क्या लिया जाता है, इस तकलीफ को पूरी जनता जानती है।
वहां इलाज कराने आए मरीज रजिस्टर में एंट्री कराकर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। बाबा बहादुर सिंह प्रधान उर्फ ननकी प्रधान का कहना है कि इनके इलाज से लोग ठीक हो रहे हैं तभी यहां इलाज कराने आ रहे हैं। बाबा ने आगे बताया कि जब वह 7 साल का था तब उनको दुर्गा देवी ने आशीर्वाद के रूप में उन्हें ये प्रदान किया है। तब से लेकर आज तक इलाज करते आ रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में सरकारी डॉक्टरों की बड़ी कमी है, और ऐसे में स्वास्थ्य विभाग ऐसे बाबा लोगों की सेवाएं ले सकता है, डॉ. दिनेश मिश्रा का क्या है, वे तो वैज्ञानिक सोच की बात करते हैं, जो कि आज एक अवांछित चीज है।
कोरोना का खौफ-1
कोरोना वायरस का खौफ बढ़ता ही जा रहा है। दिल्ली और अन्य बड़े शहरों में कोरोना को लेकर डर कुछ ज्यादा ही है। कोरोना के चलते रायपुर के कई लोगों ने दिल्ली और विदेश यात्रा भी स्थगित कर दी है। पिछले दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के यहां विवाह कार्यक्रम था। प्रदेश के दर्जनभर से अधिक भाजपा नेता कोरोना के खौफ के साये में दिल्ली गए।
चूंकि राष्ट्रीय अध्यक्ष के यहां कार्यक्रम था, तो जाना ही था। विवाह का रिसेप्शन नड्डा के दिल्ली बंगले में था। बताते हैं कि कोरोना के चलते रिसेप्शन में अतिरिक्त सतर्कता बरती गई थी। मेहमानों की अगुवानी केन्द्रीय मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान, भूपेन्द्र यादव और बीएल संतोष कर रहे थे। कार्यक्रम स्थल में प्रवेश से पहले मुख्य द्वार पर मेहमानों का हाथ सेनिटाइजर से साफ कराया गया। अंदर में भी किसी तरह के इंफेक्शन से बचने के लिए काफी बंदोबस्त किया गया था। एक अलग से काउंटर पर सेनिटाइजर रखा हुआ था। भोजन के काउंटर पर तैनात वेटर मुंह पर मास्क लगाए हुए थे।
खाने की प्लेट लेने से पहले फिर मेहमानों के हाथ पर सेनिटाइजर लगवाया जाता था। पूरे रिसेप्शन के दौरान ज्यादातर मेहमान एक-दूसरे से हाथ मिलाने से परहेज कर रहे थे और हाथ जोड़कर अभिवादन करते नजर आए। इस समारोह में पीएम समेत पूरा कैबिनेट और अन्य राज्यों के राज्यपाल-सीएम समेत भाजपा के तमाम दिग्गज नेता मौजूद थे। लौटते समय कई नेता तो काउंटर से सेनिटाइजर लेकर निकलते भी नजर आए।
कोरोना का खौफ-2
छत्तीसगढ़ में कोरोना के दो-तीन ही संदिग्ध मिले हैं, लेकिन इसको लेकर जनता में खौफ साफ दिख रहा है। कोरोना के चलते राजधानी रायपुर में ज्यादातर नेताओं ने होली मिलन के कार्यक्रम भी निरस्त कर दिए हैं। रायपुर में सबसे पहले सांसद सुनील सोनी ने इसकी शुरूआत की। उन्होंने कटोरा तालाब-सिंचाई कॉलोनी स्थित अपने सरकारी बंगले में रविवार को होली मिलन का कार्यक्रम रखा था, इसमें पूरे लोकसभा क्षेत्र से करीब 5 हजार लोगों को न्यौता भेजा गया था। सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, लेकिन उन्होंने पीएम के संदेश के बाद होली मिलन का कार्यक्रम स्थगित कर दिया।
कोरोना के चलते सतर्कता बरतने के इरादे से सुनील सोनी के होली मिलन कार्यक्रम निरस्त होने की सूचना चारों तरफ फैल गई। बृजमोहन अग्रवाल और कई नेताओं ने उनका अनुसरण कर अपने यहां कार्यक्रम निरस्त कर दिए। सीएम भूपेश बघेल और संसदीय कार्यमंत्री रविन्द्र चौबे ने भी फैसला लिया है कि वे होली मिलन के कार्यक्रम से दूर रहेंगे। कुल मिलाकर सुनील सोनी ने अपने यहां का कार्यक्रम निरस्त कर कोरोना से सतर्क रहने के लिए दूसरों को भी प्रेरित किया।
कोरोना का खौफ-3
विधानसभाध्यक्ष चरण दास महंत की नातिन अभी पांच हफ्तों की हुई है, और वह अमरीका से भारत आई, तो एक दावत तो बनती ही थी। कोरोना के चलते बहुत से समारोह रद्द हो रहे हैं, लेकिन यह निजी कार्यक्रम था, इसलिए हुआ। महंतजी को कुछ निजी शुभचिंतकों ने यह भी सुझाया कि छोटी बच्ची को लोगों की शुभकामनाओं से कुछ दूर घर के भीतर रखें, लेकिन उत्साही मेहमानों के जोश के सामने ऐसी कोई रोक खड़ी ही नहीं हो पाई, टिकना तो दूर की बात थी। फिर भी अधिकतर लोग साफ-साफ बोलकर एक-दूसरे से हाथ मिलाने से कतराते रहे और वह सावधानी असर करते दिखी जो कि भारत सरकार कल सुबह से मोबाइल फोन पर सुना रही है। फोन करते ही खांसने की आवाज आती है, और कोरोना से बचाव की तरकीब सुनाई जाती है। लोग सावधान हो रहे हैं, मेरा देश बदल रहा है। ([email protected])
महंत के कामयाब दिन
छत्तीसगढ़ विधानसभा ने कार्य-संचालन के मामले में देश में अलग ही पहचान बनाई है। विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ने विधानसभा के कार्य संचालन को लेकर कई नियम बनाए, जिनसे सदन की कार्रवाई अच्छी तरह से चल रही है। शुक्ल ने सदन की कार्रवाई के दौरान गर्भगृह में जाने पर सदस्य के निलंबित होने का नियम बनाया था, जिसका अब भी पालन हो रहा है। भाजपा शासनकाल में प्रेमप्रकाश पांडेय के अध्यक्षीय कार्यकाल को बेहतर आंका जाता है। उनके बाद धरमलाल कौशिक और गौरीशंकर अग्रवाल भी अध्यक्ष रहे, लेकिन मौजूदा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत अपने पूर्ववर्ती राजेंद्र प्रसाद शुक्ल और प्रेमप्रकाश पांडेय की तरह मजबूत पकड़ वाले नजर आए। उन्होंने अपने छोटे से कार्यकाल में सदन के कार्य संचालन मामले में अलग ही छाप छोड़ी है।
डॉ. महंत पहली बार अविभाजित मप्र में वर्ष-1980 में विधायक बने। वे लोकसभा के भी सदस्य रहे हैं। उन्हें संसद और विधानसभा का गहरा अनुभव है और इसकी झलक उनकी कार्यपद्धति में भी नजर आती है। पिछले दिनों उन्होंने हल्के सवाल पूछने पर एक सदस्य को टोक दिया। उन्होंने कहा कि विधायकों के एक सवाल के जवाब पर 10 लाख रुपये खर्च होते हैं। कॉलेज में कितने पद खाली हैं और खाली पद कब तक भरे जाएंगे, जैसे एकदम सामान्य सवालों का जवाब वे मंत्री से व्यक्तिगत तौर पर मिलकर ले सकते हैं। आसंदी के सुझाव की संसदीय कार्यमंत्री रविंद्र चौबे और पूर्व सीएम अजीत जोगी ने भी तारीफ की। इसी तरह उन्होंने एक सवाल के परिशिष्ट में 170 पेज के जवाब पर चिंता जताई। उन्होंने फिजूलखर्ची की तरफ सरकार और सचिवालय का ध्यान आकृष्ट कराया। डॉ. महंत के कार्यकाल में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर 2 दिन का विशेष सत्र हुआ। जिसमें सत्ता और विपक्ष के सदस्य एक ही तरह के पोशाक में आए थे और सदन में महात्मा गांधी के जीवन-दर्शन पर यादगार चर्चा हुई। इस तरह का आयोजन देश में पहली बार किसी विधानसभा में हुआ था। अब तक के तौर-तरीकों से महंत कई मामले में अपने पूर्ववर्तियों से भी बेहतर दिख रहे हैं।
पिछले दिनों अमरीका के दौरे पर गए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल महंत को साथ ले गए थे। वहां हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मुख्य कार्यक्रम में सीएम से सवाल किया गया कि उन्होंने एक दलित को मुख्य सचिव बनाया है, और एक कबीरपंथी को विधानसभाध्यक्ष, तो भूपेश ने महंत की तारीफ करते हुए उनके लंबे और कामयाब चुनावी और राजनीतिक इतिहास को इस रफ्तार से गिना दिया था कि मानो वे इस जवाब की तैयारी करके गए थे।
म्युनिसिपल में कोई सुनने वाले हैं?
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर का सबसे अधिक इस्तेमाल हो चुका श्मशान ऐसे बुरे हाल में है कि देखते नहीं बनता। जाने किस वक्त इसका नाम किस वजह से मारवाड़ी श्मशान रखा गया था। अब वहां अर्थियों के साथ आ जाने वाले गद्दे-तकियों से लेकर दूसरे कपड़ों तक के ढेर भीतर लगे हुए हैं जिनसे लगता है कि हफ्तों से यहां की सफाई नहीं हुई है। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा जब किसी न किसी अंतिम संस्कार में म्युनिसिपल के पार्षद या वहां के अफसर न पहुंचते हों, लेकिन जिस शहर में दसियों लाख रुपये खर्च करके स्मार्ट सिटी के नाम पर सफाई की तस्वीरों से दीवारों को भर दिया जा रहा है, उस शहर में ऐसी गंदगी को हटाने में दिलचस्पी नहीं दिखती क्योंकि वॉल राईटिंग का महंगा ठेका होता है, और कचरा हटाने में वैसी कमाई शायद नहीं रहती है। पता नहीं केंद्र सरकार के दिल्ली से आने वाले लोग मरघट तक जाने की जहमत उठाते हैं या नहीं, लेकिन अगर शहर के बीच के इस बहुत पुराने श्मशान की गंदगी वे देखें तो इसका दर्जा और नीचे चले जाना तय है। फिर यह भी है कि रोजाना इस जगह पर पहुंचने वाले हजारों लोगों को कम से कम घंटे भर ऐसी ही गंदगी के बीच बैठना पड़ता है। म्युनिसिपल में कोई सुनने वाले हैं? ([email protected])
धरना खत्म करवाने का राज
छत्तीसगढ़ सहित देश के बहुत से हिस्सों में इस बात को लेकर हैरानी है कि राजधानी रायपुर के बीच चौक किनारे खाली जगह पर रोज रात चलने वाले शाहीन बाग धरने को जिला प्रशासन ने वहां से हटा दिया। यह धरना पूरी तरह शांतिपूर्ण चल रहा था, और मुख्यमंत्री सहित कांग्रेस पार्टी इस बात को लेकर शाहीन बाग धरने की मांग के साथ भी थे कि नागरिकता-संशोधन के नए कानून को लागू नहीं करना चाहिए। ऐसे में अचानक एक रात इस धरने को पुलिस के खत्म करवाने से लोगों को कुछ हैरानी हुई है। लेकिन इसके पीछे की कहानी राज्य में कानून व्यवस्था को बचाने से जुड़ी हुई है। इस शाहीन बाग धरने के जवाब में कुछ हिन्दू संगठनों ने हनुमान चालीसा पाठ जैसा एक मुकाबला शुरू कर दिया था, और इन दोनों को एक साथ देखने पर शासन-प्रशासन को यह समझ आ रहा था कि राज्य में एक निहायत ही गैरजरूरी और नाजायज साम्प्रदायिक तनाव खड़ा हो सकता है। इस राज्य की गौरवशाली धर्मनिरपेक्ष परंपरा को जारी रखने के लिए तय किया गया कि सभी किस्म के धरनों को खत्म करवाया जाए। ([email protected])
सरकार और पार्टी की राहत
छत्तीसगढ़ में हाल ही में पड़े आयकर छापों पर कांग्रेस पार्टी और छत्तीसगढ़ सरकार दोनों ने केन्द्र सरकार से जमकर विरोध तो जाहिर किया है कि एक केन्द्रीय सुरक्षा बल, सीआरपीएफ, को साथ लाकर ये छापे डाले गए जो कि देश की संघीय व्यवस्था के खिलाफ है। जो लोग कुछ चुनिंदा टीवी चैनलों पर समाचार देखते हैं, वे अपने समझ के स्तर के मुताबिक इस संघीय ढांचे को संघ यानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का ढांचा समझ रहे हैं, और इस बात पर हैरान हो रहे हैं कि मोदी सरकार अगर संघ के ढांचे के मुताबिक काम नहीं करेगी, तो और किस तरह करेगी? लेकिन छापों का दौर खत्म हो जाने के बाद अब सरकार और कांग्रेस पार्टी कम से कम सार्वजनिक रूप से तो राहत की सांस लेते दिख रही हैं क्योंकि छापों में जो नगदी बरामद हुई है, वह बड़ी-बड़ी चर्चाओं में रहने वाले लोगों की बेइज्जती खराब कर रही है। अब इतना बुरा वक्त किसने सोचा था कि महापौर एजाज ढेबर के घर खुद से 25 हजार रूपए मिलेंगे, और उनकी मां के पास से चार लाख रूपए। कांग्रेस पार्टी का कहना है कि जिस मां के चार-पांच कारोबारी बेटे हों, उसके पास इतनी रकम में हैरानी की कोई बात तो है नहीं। आबकारी विभाग के सबसे खास अफसर त्रिपाठी के पास नोटों से भरी आलमारियां मिलने की खबरें फैली थीं, लेकिन ऐसी सारी आलमारियों की हकीकत 60 हजार रूपए तक सिमट गई। रेरा चेयरमैन विवेक ढांड के घर पर करीब तीन लाख रूपए नगद मिले हैं जो कि उनकी और उनकी पत्नी की एक महीने की तनख्वाह से भी कम रकम है। कांग्रेस के एक पार्षद अफरोज अंजुम से छापे में 18 सौ रूपए मिले हैं, और पार्टी ने उन्हें गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाला बताया है। कांग्रेस का यह भी कहना है कि गुरूचरण होरा के घर और दफ्तर से एक करोड़ रूपए से कुछ अधिक रकम मिली है, और वे भाजपा के सदस्य हैं। अब कांग्रेस पार्षद से 18 सौ, और भाजपा सदस्य से एक करोड़ से अधिक! कोई हैरानी नहीं कि ऐसे में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल यह सुझा रहे हैं कि आयकर विभाग को अपना विशेष विमान का खर्च निकालने के लिए भाजपा के लोगों पर ही छापा डालना चाहिए।
पड़ोस का भी फायदा
छत्तीसगढ़ के कल के बजट में किसानों को धान का बाकी भुगतान करने का इंतजाम कर दिया गया है जिसे मिलाकर उन्हें 25 सौ रूपए के रेट से भुगतान पूरा हो जाएगा। धान खरीदी के समय केन्द्र सरकार के नियमों की वजह से राज्य सरकार समर्थन मूल्य से अधिक दाम नहीं दे पाई, इसलिए फर्क का पैसा अब दिया जाना है। लेकिन राज्य सरकार का कुछ या अधिक नुकसान इसमें भी हो रहा है कि छत्तीसगढ़ से लगे हुए दूसरे राज्यों से सरहद पार करके धान यहां लाया गया, और इस राज्य के अधिक रेट पर बेचा गया। हालांकि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि कड़ी चौकसी की वजह से ऐसा धान अधिक नहीं आया है, लेकिन उनकी अपनी जानकारी यह है कि राज्य की सरहद के जिलों में फसल कम हुई थी, लेकिन हर किसान प्रति एकड़ 15-15 क्विंटल धान बेच रहे हैं। अब इस अधिकतम सीमा तक धान की बिक्री कम फसल की उपज से तो हो नहीं सकती थी, इसलिए पड़ोसी राज्यों से धान आया ही आया है।
मुख्यमंत्री का चमकदार जोश
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बजट की शाम अखबारों के संपादकों को नाश्ते पर बुलाया था, और उनका जोश एक लखपति बजट पेश करने वाले मुख्यमंत्री-वित्तमंत्री जैसा था। दूसरी तरफ मीडिया के चेहरों पर झेंप थी क्योंकि पिछले हफ्ते भर में आयकर छापों को लेकर उसकी खबरों के गुब्बारे की हवा निकल गई थी। हवा भरे गुब्बारे जितने बड़े आंकड़ों से घटते हुए हकीकत हवा निकले गुब्बारे के आकार की बच गई थी, और भूपेश बघेल इस नौबत का मजा तो ले रहे थे, लेकिन उन्होंने कोई जुबानी हिसाब-किताब भी चुकता नहीं किया जो कि उनके आम मिजाज से कुछ हटकर था, और वहां से निकलते हुए मीडिया भी राहत की सांस ले रहा था। दरअसल इस बार के आयकर छापों के दौरान और उसके बाद भी आयकर विभाग ने कोई ठोस आंकड़े जारी नहीं किए, और जिन पर छापे पड़े थे, उनसे जब्त नगदी निराशाजनक थी। ऐसे में सरकार के करीबी कहे और समझे जाने वाले इन लोगों के बारे में प्रकाशित और प्रसारित गलत जानकारी और अटकलों ने मीडिया की कमजोरी उजागर कर दी थी। नौबत यह थी कि जितने सवाल मीडिया कर रहा था, उससे अधिक पैने सवाल मुख्यमंत्री के पास थे, लेकिन वे अपने सवालों की धार को हवा में लहरा नहीं रहे थे।
भूकंप के पहले की फाल्टलाईन
छत्तीसगढ़ के पंडित सुंदरलाल शर्मा खुले विश्वविद्यालय के पिछली सरकार के नियुक्त कुलपति अब भी जारी रखे गए हैं। और दूसरी तरफ कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में किसी वामपंथी या कम से कम धर्मनिरपेक्ष कुलपति की नियुक्ति का इंतजार किया जा रहा था, उस जगह पर भी संघ परिवार के एक जाने-माने व्यक्ति को कुलपति बना दिया गया। दो दिनों में ऐसी दो नियुक्तियों से छत्तीसगढ़ राजभवन और केन्द्र सरकार के बीच में, भूगोल की भाषा में, फाल्टलाईन उजागर हो गई है, जहां पर धरती के नीचे चट्टानों के खिसकने से किसी दिन भूकंप आ सकता है। कुलपति नियुक्त करने का सारे का सारा अधिकार पिछली सरकार ने राजभवन को दे दिया था, और वह इस सरकार पर बहुत भारी पड़ा है। बाहर आम जनता यह तो नहीं समझती है कि सरकार और राजभवन के अधिकारों में कहां पर सीमा रेखा है, लोग तो यही समझ रहे हैं कि भूपेश सरकार के चलते संघ के दो-दो कुलपति बन गए। राजभवन अगर बीच का कोई रास्ता निकाल पाता, और दोनों पक्षों की बर्दाश्त के लायक नाम तय किए जाते तो ऐसी नौबत नहीं आती कि राज्य सरकार कानून बनाकर राज्यपाल से अधिकार वापिस लेने की सोचने लगती। मौजूदा राज्यपाल अनुसुईया उइके के साथ शुरूआती महीनों के परस्पर-सम्मान के संबंधों के बाद अब राज्य सरकार एक संवैधानिक चुनौती के दौर में खड़ी हो गई है, या कर दी गई है।
कांग्रेस संगठन पर चर्चा
प्रदेश कांग्रेस में फेरबदल की तैयारी है। प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया इस सिलसिले में प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम और सीएम भूपेश बघेल के साथ ही अन्य प्रमुख नेताओं से लगातार चर्चा भी कर रहे हैं। सुनते हैं कि मरकाम के करीबी कोंडागांव के रवि घोष को गिरीश देवांगन की जगह प्रभारी महामंत्री बनाया जा सकता है। गिरीश सीएम भूपेश बघेल के करीबी हैं और चर्चा है कि पार्टी उन्हें राज्यसभा में भेज सकती है। यह भी कहा जा रहा है कि यदि राज्यसभा में नहीं गए, तो उन्हें निगम-मंडल में जगह मिल सकती है।
चर्चा यह भी है कि मप्र के पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह ने अपनी तरफ से दो-तीन नामों की सिफारिश की है। इनमें से एक अल्पसंख्यक नेता भी है। हल्ला तो यह भी है कि प्रदेश संगठन में हिसाब-किताब रखने की पोजिशन में मरकाम अपने किसी विश्वस्त नेता को चाहते थे। उन्होंने मौजूदा व्यवस्था में बदलाव के लिए दबाव भी बनाया था। इसके लिए मरकाम को एक प्रभावशाली मंत्री का साथ भी मिला। मगर चर्चा है कि पार्टी के कई और प्रभावशाली नेताओं के दबाव के चलते उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पा रही है। यानी हिसाब-किताब के लिए किसी नए पर भरोसा नहीं किया जाएगा। मौजूदा व्यवस्था कायम रहेगी।
भाजपा संगठन, और अटकलें
प्रदेश भाजपा का मुखिया कौन होगा, इसको लेकर अटकलें लगाई जा रही है। यह तकरीबन तय हो गया है कि सर्वमान्य नेता को ही प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी जाएगी। चर्चा है कि प्रदेश के सांसदों ने पार्टी हाईकमान को साफ तौर पर बता दिया कि जाति समीकरण को ध्यान में रखकर प्रदेश अध्यक्ष बनाने से पार्टी को नुकसान हो सकता है। अभी पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा हुआ है। ऐसे में पार्टी को खड़ा करने के लिए तेजतर्रार अध्यक्ष की जरूरत है। सांसदों की सलाह पर पूर्व केन्द्रीय मंत्री विष्णुदेव साय के नाम को नजर अंदाज कर नए नाम पर विचार हो रहा है। अब तेजतर्रार होने के पैमाने पर खरा माने जाने वाले एक सवर्ण नेता से जब कहा गया कि उन्हें अध्यक्ष बनना चाहिए, तो उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने 15 बरस सरकार चलाई है, वे ही लोग विपक्ष के इन दिनों में संगठन भी चलाएं, उनको पार्टी अगर आखिरी दो बरस में प्रदेश अध्यक्ष बनने कहेगी, तो वे सोचेंगे।
आंदोलन कितना उग्र हो?
धान खरीद मसले पर भाजपा एक बड़ा आंदोलन खड़ा करना चाहती थी। सरकार ने बात मान ली, तो आंदोलन का फैसला वापस ले लिया गया। मगर आंदोलन से पहले ही भाजपा नेताओं में आपसी मतभेद उभरकर सामने भी आ गए। सुनते हैं कि आंदोलन की तैयारी बैठक में एक तेजतर्रार पूर्व मंत्री ने यह सुझाव दिया कि कम से कम एक बेरिकेड्स तोड़कर आगे बढऩा होगा, तब कहीं जाकर माहौल बनेगा। इस पर किसान मोर्चा के एक पदाधिकारी ने उन्हें यह कहकर चुप करा दिया कि आंदोलन की अगुवाई उन्हें (पूर्व मंत्री) ही करना होगा, क्योंकि तोडफ़ोड़ की स्थिति में पुलिस कार्रवाई को सहने के लिए आम कार्यकर्ता तैयार नहीं है। उन्होंने पूर्व मंत्री की यह कहकर खिंचाई की कि पहले भी वे इस तरह की सलाह दे चुके हैं और खुद गायब हो जाते थे। किसान नेता की तीखी प्रतिक्रिया के बाद बैठक में थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई। ( [email protected])
राज्यसभा, चर्चा नहीं, अटकलें शुरू
राज्यसभा के चुनाव 26 मार्च के लिए तय हुए हैं और महीना भर बाकी रहने पर भी अटकलें तो हर जगह लगती ही हैं क्योंकि राज्यसभा पहुंचना बहुत बड़ी बात होती है, छह बरस के लिए जिंदगी का सुख, दिल्ली में असर, और बाकी जिंदगी की पेंशन-सहूलियतें सब तय हो जाती हैं। छत्तीसगढ़ से अभी दो सीटें खाली हुई हैं जिनमें एक मोतीलाल वोरा की भी है। दूसरी सीट रणविजय सिंह जूदेव की है, लेकिन भाजपा इस बार विधायकों की कमी से किसी को राज्यसभा भेज नहीं पाएगी, और वह किसी नाम को छांटने की फिक्र से भी मुक्त है। दोनों नाम कांग्रेस के तय होना है, और एक अनार सौ बीमार वाली नौबत है।
मोतीलाल वोरा कांग्रेस पार्टी के लिए इतनी अधिक अहमियत रखते हैं कि वे दिल्ली में सोनिया गांधी के सबसे करीबी लोगों में तो हैं ही, वे नेशनल हेरल्ड जैसे पार्टी-कारोबार को भी सम्हालते हैं, और यह जिम्मा सम्हालते हुए वे सोनिया और राहुल के साथ अदालती कटघरे में भी पहुंचे हुए हैं। एक नाव में सवार इन तमाम लोगों की एक-दूसरे पर निर्भरता भी मायने रखती है। जानकारों का कहना है कि वोराजी एक बार और राज्यसभा जाने के लिए बिल्कुल तैयार हैं, उनकी सेहत भी उम्र के विपरीत, किसी जवान नेता के टक्कर की है, और वे छत्तीसगढ़ में पैदा न होने पर भी पूरी जिंदगी से छत्तीसगढ़ की राजनीति करते आए हैं। दूसरी तरफ दिल्ली के जानकार कुछ लोगों का यह भी कहना है कि केरल के के.सी. वेणुगोपाल का नाम भी छत्तीसगढ़ से राज्यसभा के लिए तय हो सकता है, इनके लिए पार्टी अतिरिक्त कोशिश करेगी क्योंकि राहुल गांधी केरल से ही विशाल बहुमत से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए हैं, और केरल ने कांग्रेस की लोकसभा में इज्जत बचाकर रखी है। लेकिन ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जिस तरह छत्तीसगढ़ी-राजनीति कर रहे हैं, एक नाम खालिस छत्तीसगढ़ी का होगा। अब इसमें उनके पास संगठन के अपने सहयोगी गिरीश देवांगन, और राजनीतिक सलाहकार विनोद वर्मा के नाम हो सकते हैं, दोनों ही छत्तीसगढ़ी माटीपुत्र हैं, दोनों ही ओबीसी तबके के हैं। हालांकि इस बारे में मुख्यमंत्री के कुछ करीबी लोगों से पूछने पर उनका कहना है कि अभी मुख्यमंत्री के आसपास राज्यसभा को लेकर कोई चर्चा भी शुरू नहीं हुई है, और लोग अपने-अपने अंदाज से अटकलें लगा रहे हैं।
जब अटकल की ही बात आती है तो मध्यप्रदेश में सिंधिया और दिग्विजय सिंह दोनों को राज्यसभा भेजने की तैयारी बताई जाती है, लेकिन अगर दिग्विजय सिंह को वहां से न भेजकर छत्तीसगढ़ से राज्यसभा में भेजा जाएगा, तो भी छत्तीसगढ़ के तमाम कांग्रेस विधायक खुश होंगे, क्योंकि सारे ही विधायक उन्हीं के साथी और प_े रहे हुए हैं। लेकिन यह बात सिर्फ राजनीतिक संबंधों के आधार पर है, यह अटकल की दर्जे की बात भी नहीं है। फिलहाल जो एक नाम अधिक संभावना रखता है वह मोतीलाल वोरा का है, क्योंकि वे खुद तैयार हैं, दूसरा नाम प्रदेश के भीतर या बाहर कहीं का भी हो सकता है।
पुराने गुरू काम आए
पूर्व सीएम अजीत जोगी और नगरीय प्रशासन मंत्री डॉ. शिवकुमार डहरिया के बीच चोली-दामन का साथ रहा है। जोगी, डहरिया के राजनीतिक गुरू माने जाते हैं। मगर जोगी ने कांग्रेस छोड़ी तो डहरिया ने उनका साथ छोड़ दिया। इसके बाद दोनों के रिश्तों में खटास आ गई। डहरिया अभी भी जोगी को लेकर सहज नहीं दिखते हैं। इसका नजारा विधानसभा में उस वक्त देखने को मिला जब भाजपा सदस्यों ने डहरिया की टिप्पणी से खफा होकर उनके विभागों के सवालों का बहिष्कार कर दिया।
पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर ने तो डहरिया के प्रति अपनी नाराजगी का इजहार करते हुए यहां तक कह दिया कि आसंदी चाहे तो उनके (चंद्राकर) खिलाफ कार्रवाई कर दे, लेकिन वे नगरीय प्रशासन मंत्री से सवाल नहीं पूछेंगे। फिर क्या था, अजीत जोगी, भाजपा सदस्यों और डहरिया के बीच सुलह सफाई के लिए आगे आए। उन्होंने डहरिया के प्रति अपना प्रेम दिखाते हुए छत्तीसगढ़ी में गुजारिश की कि मैं तोर संरक्षक हौं, तोर अभिभावक रहैंव। हॉस्टल से यहां (विधानसभा) लाए हौं। मोर बात मान ले, एक लाईन मीठा बोल दे। सब कुछ ठीक हो जाही। कखरो मन में कोई बात नहीं रहई। डहरिया खड़े हुए और सफाई दी कि चंद्राकर और अन्य विपक्षी सदस्यों का वे सम्मान करते हैं।
उन्होंने आगे कहा कि वे जोगीजी का भी सम्मान करते हैं। छात्र राजनीति के दौर में जोगीजी जब कलेक्टर थे, तब एक बार हॉस्टल में उनका घेराव भी कर चुके हैं। वे जोगी से जुड़े रहे हैं, लेकिन बोचकने (अलग होने) में काफी समय लगा। उनकी टिप्पणी से जोगी समेत बाकी सदस्य भी हंस पड़े।
रमन सिंह का बदला मिजाज
पूर्व सीएम रमन सिंह अब बाकी भाजपा सदस्यों को साथ लेने के लिए आतुर दिख रहे हैं। वे अब हरेक मुद्दे पर अपने विरोधी माने जाने वाले पार्टी विधायकों से चर्चा में परहेज नहीं कर रहे हैं। दरअसल, नेता प्रतिपक्ष के चयन के बाद से रमन सिंह और बृजमोहन-ननकीराम कंवर खेमे के बीच दूरियां बढ़ गई थीं। हाल यह रहा कि ननकीराम कंवर ने रमन सिंह के पीएस रहे अमन सिंह और मुकेश गुप्ता के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा सीएम भूपेश बघेल को सौंप दिया था और सरकार ने जांच के लिए एसआईटी बिठा रखी है।
कंवर की तरह पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर, नारायण चंदेल भी रमन सिंह से छिटके रहे हैं। शीतकालीन सत्र में तो रमन सिंह वकीलों की फीस से जुड़े सवाल पूछकर उलटे घिर गए थे। सीएम भूपेश बघेल और सत्तापक्ष के सदस्यों ने उन पर बुरी तरह चढ़ाई कर दी थी। हालांकि नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक और शिवरतन शर्मा ने थोड़ा बहुत सत्ता पक्ष के सदस्यों का प्रतिकार किया, लेकिन यह काफी नहीं था। बाकी भाजपा सदस्य खामोश रहे। धरमलाल कौशिक को तो बाकी भाजपा सदस्यों का साथ मिल रहा है, लेकिन रमन सिंह के साथ ऐसा नहीं था। सुनते हैं कि यह सब भांपकर रमन सिंह ने अपने खिलाफ नाराजगी को दूर करने के लिए खुद पहल की है।
विधानसभा में ननकीराम कंवर के पास जाकर उनसे किसानों से जुड़े विषयों पर चर्चा की। यही नहीं, वे अजय और बाकी सदस्यों से भी लगातार बतियाते दिखे। इसका कुछ असर भी हुआ और भाजपा सदस्य विधानसभा में पिछले सत्रों के मुकाबले ज्यादा मुखर दिखे। ( [email protected])
जयदीप जर्मनी चले...
छत्तीसगढ़ कैडर के आईपीएस अफसर जयदीप सिंह की पोस्टिंग जर्मनी के भारतीय दूतावास में हो गई है। 97 बैच के आईपीएस जयदीप सिंह लंबे समय से आईबी में पदस्थ हैं। पिछले कुछ समय से वे छत्तीसगढ़ में आईबी का काम देख रहे हैं। जयदीप सिंह स्वास्थ्य सचिव निहारिका बारिक सिंह के पति हैं। चूंकि पति की विदेश में पोस्टिंग हो गई है, तो संभावना जताई जा रही है कि निहारिका बारिक सिंह भी केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर जा सकती हैं। हालांकि अभी तक उन्होंने इसके लिए आवेदन नहीं किया है। करीबी जानकारों का कहना है कि अभी तुरंत उन्होंने ऐसा कुछ सोचा नहीं है।
अमितेष चुप नहीं रह पाए...
राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान विपक्ष की तरफ से टोका-टाकी की आशंका जताई जा रही है, लेकिन सबकुछ शांतिपूर्ण चल रहा था। तभी अमितेष शुक्ल खड़े हुए और उन्होंने राज्यपाल का अभिभाषण शांतिपूर्वक सुनने के लिए विपक्षी सदस्यों को साधुवाद दे दिया। यानी टोका-टाकी की शुरूआत खुद सत्तापक्ष के सदस्य ने कर दी। अमितेश की टिप्पणी पर सदन में ठहाका लगा। पिछले बरस अक्टूबर में जब गांधी पर विधानसभा का विशेष सत्र हुआ तो अमितेष शुक्ल ने तमाम विधायकों की तरह विशेष कोसा-पोशाक पहनने से इंकार कर दिया था, और नतीजा यह हुआ था कि विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरण दास महंत ने दो दिन के उस सत्र में अमितेष को बोलने नहीं दिया था, और वे नाराजगी से सदन के बाहर चले गए थे। इस बार उन्हें बोलने का मौका मिला। बाद में अभिभाषण खत्म होने के बाद भाजपा सदस्य बृजमोहन अग्रवाल ने धान खरीदी बंद होने से किसानों की परेशानी का मुद्दा उठाया।
आडंबर से उबरना भी जरूरी...
अभी-अभी महाशिवरात्रि के मौके पर एक बार फिर यह सवाल उठा कि कुपोषण के शिकार इस देश में जहां बच्चों को पीने के लिए दूध नसीब नहीं है, वहां पर क्या किसी भी प्रतिमा पर इस तरह दूध बर्बाद करना चाहिए? और बात महज हिन्दू धर्म के किसी एक देवी-देवता की नहीं है, यह बात तो तमाम धर्मों के लोगों की है जिनमें कहीं भी, किसी भी शक्ल में सामान की बर्बादी होती है, और लोग उससे वंचित रह जाते हैं। कई धर्मों को देखें, तो हिन्दू धर्म में ऐसी बर्बादी सबसे अधिक दिखती है। शिवलिंग पर चढ़ाया गया दूध नाली से बहकर निकल जाता है, और ऐसे ही मंदिरों के बाहर गरीब भिखारी, औरत और बच्चे भीख मांगते बैठे रहते हैं। जाहिर है कि ऐसे गरीबों को दूध तो नसीब होता नहीं है।
लेकिन समाज अपने ही धार्मिक रिवाजों से कई बार उबरता भी है। अभी सोशल मीडिया पर एक तस्वीर आई है जिसमें शिवलिंग पर दूध के पैकेट चढ़ाए गए हैं, और उसके बाद ये पैकेट गरीब और जरूरतमंद बच्चों को बांट दिए जाएंगे। धार्मिक रीति-रिवाजों में पाखंड खत्म करके इतना सुधार करने की जरूरत है कि ईश्वर को चढ़ाया गया एक-एक दाना, एक-एक बूंद गरीबों के लिए इस्तेमाल हो। जब ईश्वर के ही बनाए गए माने जाने वाले समाज में बच्चे भूख और कुपोषण के शिकार हैं, तो दूध को या खाने-पीने की किसी भी दूसरी चीज को नाली में क्यों बहाया जाए? यह भी सोचने की जरूरत है कि जब कण-कण में भगवान माने जाते हैं, तो ऐसे कुछ कणों को भूखा क्यों रखा जाए? धार्मिक आडंबर में बर्बादी क्यों की जाए? ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनके जवाब लोगों को ढूंढने चाहिए, और चूंकि धार्मिक आस्था तो रातोंरात घट नहीं सकती, नई तरकीबें निकालकर बर्बादी घटाने का काम करना चाहिए। धर्म के नाम पर पहले से मोटापे के शिकार तबके को और अधिक खिला देना उन्हें मौत की तरफ तेजी से धकेलने का काम है, उससे कोई पुण्य नहीं मिल सकता। खिलाना तो उन्हें चाहिए जिन्हें इसकी जरूरत हो। अभी की शिवरात्रि तो निकल गई लेकिन अगली शिवरात्रि तक समाज के बीच यह बहस छिडऩी चाहिए कि दूध को इस तरह चढ़ाया जाए कि वह लोगों के काम आ सकें, जरूरतमंदों के काम आ सके। ([email protected])
किस्सा भूतों..., मतलब भूतपूर्वों का
राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष अजय सिंह 29 तारीख को रिटायर हो रहे हैं। उन्हें नाराजगी के चलते सरकार ने सीएस के पद से हटाकर राजस्व मंडल भेज दिया था। बाद में उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया। अब चूंकि वे रिटायर हो रहे हैं, तो उनकी पोस्टिंग को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। यह संकेत हैं कि अजय सिंह योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर आगे भी बने रहेंगे। वैसे भी, राज्य बनने के बाद जितने भी सीएस रहे हैं, उनमें से आरपी बगई और पी जॉय उम्मेन को छोड़ दें, तो बाकी सभी को रिटायरमेंट के बाद कुछ न कुछ जिम्मेदारी सौंपी गई थी। आरपी बगई और पी जॉय उम्मेन को भी पद का ऑफर दिया गया था, लेकिन दोनों ने यहां सरकार में काम करने से मना कर दिया।
बगई को पीएससी चेयरमैन का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया। बगई का सोचना था कि पीएससी चेयरमैन का पद प्रमुख सचिव के समकक्ष है। वे कोई अहम जिम्मेदारी चाह रहे थे, जिसके लिए रमन सरकार तैयार नहीं थी। बाद में वे दुबई चले गए और एक निजी कंपनी में नौकरी करने लगे। जबकि जॉय उम्मेन को सीएस के पद से हटाने के बाद सीएसईबी और एनआरडीए चेयरमैन के पद पर यथावत काम करने के लिए कहा गया था, लेकिन वे सीएस के पद से हटाए जाने के बाद इतने नाखुश थे कि वे रिटायरमेंट के बाद अपने गृह प्रदेश केरल चले गए, जहां केरल सरकार में वे राज्य वित्त निगम के चेयरमैन हो गए थेे। बाद में वे एक मंत्रालय के सलाहकार बनाए गए थे और जब भ्रष्टाचार के चलते उस मंत्रालय के मंत्री की कुर्सी चली गई, तो उम्मेन का काम भी खत्म हुआ।
राज्य के पहले सीएस अरूण कुमार प्रशासनिक सुधार आयोग के अध्यक्ष बनाए गए। उनका बनना भी बहुत दिलचस्प है। सीएस रहते हुए उन्होंने कोई काम नहीं किया, फाईलें उनके कमरे में जाती थीं, वहां से वापिस नहीं आती थीं। लेकिन रिटायर होने के बाद उन्हें पुनर्वास की बहुत तलब थी। अजीत जोगी मुख्यमंत्री थे, और सुनिल कुमार उनके सचिव थे। रिटायर होने के बाद उन्होंने सुनिल कुमार की ऐसी घेरेबंदी की कि आखिर में थक-हारकर उन्होंने जोगीजी से कहा कि इन्हें कहीं भी कुछ भी बना दें, ताकि परेशान करना बंद करें। ऐसे में एक प्रशासनिक सुधार आयोग बनाकर अरूण कुमार को एक साल के लिए उसमें रखा गया। जिसने नौकरी में रहते काम नहीं किया, उसे प्रशासनिक सुधार का काम दिया गया। सरकार में इस किस्म की बर्बादी को अधिक गंभीर नहीं माना जाता है, और हर सरकार में ऐसे कई पद बर्बाद होते ही हैं।
उनके बाद के सीएस एस के मिश्रा राज्य विद्युत नियामक आयोग के चेयरमैन बनाए गए। इसके बाद भी वे कई अहम पदों पर काम करते रहे। वे रिटायरमेंट के बाद सबसे लंबी पारी खेलने वाले अफसर रहे। एसके मिश्रा के उत्तराधिकारी एके विजयवर्गीय राज्य के पहले मुख्य सूचना आयुक्त बने। उनके बाद शिवराज सिंह भी पहले राज्य निर्वाचन आयुक्त फिर राज्य योजना आयोग और राज्य पावर कंपनी के चेयरमैन रहे, वे सीएम के सलाहकार के पद पर भी काम करते रहे। शिवराज सिंह के बाद जॉय उम्मेन और फिर सुनिल कुमार सीएस बने। सुनिल कुमार ने भी योजना आयोग के उपाध्यक्ष, और मुख्यमंत्री के सलाहकार के पद पर काम किया। उनके बाद विवेक ढांड रिटायरमेंट के पहले ही इस्तीफा देकर रेरा के चेयरमैन बने और वे इस पद पर काम कर रहे हैं। विवेक ढांड के बाद अजय सिंह सीएस बनाए गए थे। भूपेश बघेल सरकार ने आते ही अजय सिंह को हटाकर सुनील कुजूर को सीएस बनाया गया। कुजूर को रिटायरमेंट के बाद वर्तमान सरकार ने सहकारिता आयोग के अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी। अब अजय सिंह को उनके पूर्ववर्तियों की तरह कोई जिम्मेदारी सौंपी जाती है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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