राजपथ - जनपथ
सियासत की मैली गंगा
राजनीति में विपरीत विचारधारा के प्रवक्ताओं की नोंकझोंक और आरोप-प्रत्यारोप सामान्य बात है, लेकिन छत्तीसगढ़ में बीजेपी-कांग्रेस के प्रवक्ता एक दूसरे के खिलाफ ऐसे भिड़ते हैं, जैसे जानी-दुश्मन हों। दोनों एक दूसरे के खिलाफ हमला बोलने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। अखबारों से लेकर सोशल मीडिया में एक दूसरे के खिलाफ टिप्पणियां करने से नहीं चूकते। हाल ही में बीजेपी प्रवक्ता ने अपने फेसबुक पर लिखा कि शहर के बड़े अस्पताल में कांग्रेस के बड़बोला प्रवक्ता ने ब्लैकमेलिंग की कोशिश की। इस पोस्ट में पहले अस्पताल का नाम भी लिखा गया था। जिसे बाद में हटा दिया गया। चर्चा है कि अस्पताल प्रबंधन की ओर से कड़ी आपत्ति के बाद नाम हटा लिया गया। कहा जा रहा है कि अस्पताल प्रबंधन ने कानूनी कार्रवाई की चेतावनी दी थी। ब्लैकमेलिंग की कोशिश वाले इस पोस्ट में कांग्रेस प्रवक्ता का नाम तो नहीं लिखा गया है, लेकिन तमाम लोग समझ रहे हैं कि यह किसके लिए लिखा गया है। लेकिन फिर भी सत्ताधारी दल के किसी प्रवक्ता पर ऐसे आरोप लगे हैं, तो वो गंभीर मामला है। हालांकि जिसके खिलाफ आरोप की संभावना जताई जा रही है, उसने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और सरकार में बैठे लोगों को मामले से अवगत कराया है और मांग की है कि पार्टी को कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। बीजेपी प्रवक्ता पहले भी ऐसे सनसनीखेज पोस्ट के जरिए सुर्खियां बटोर चुके हैं। राजधानी के एक अपहरणकांड पर भी उन्होंने पोस्ट किया था, जिसमें उनके खिलाफ आईटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया था, फिर बाद में उन्होंने माफी मांगते हुए पोस्ट को हटा लिया था। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि सियासत में आरोप-प्रत्यारोप केवल जुबानीखर्च या छवि धूमिल करने का हथियार बन गया है। आरोप-प्रत्यारोप व्यक्तिगत लड़ाई और दुर्भावना तक पहुंच गए हैं, जिसके कारण उसकी गंभीरता भी कम हुई है। बीजेपी या कांग्रेस प्रवक्ता के पास कोई तथ्य हैं, तो उसे उजागर करना चाहिए, ताकि सियासत में अच्छे और साफ सुथरी छवि वाले लोग आएं, लेकिन यह सब बीते दिनों की बात हो गई। विपक्ष के साथ अपने भी आरोपों की बहती गंगा में हाथ धोने में लग जाते हैं। यहां भी कांग्रेस के ही कुछ लोग मामले को तूल देकर गंगा को मैली कर रहे हैं।
न्याय के खुलासे में अन्याय
भाजपा के नेता राजीव गांधी न्याय योजना को लेकर नुक्ताचीनी कर रहे थे कि कांग्रेस के लोगों ने एक सूची जारी कर दी। जिसमें खुलासा हुआ कि न्याय योजना के जरिए पूर्व सीएम रमन सिंह और उनके पुत्र अभिषेक सिंह के खाते में करीब 50 हजार रूपए जमा हुए। नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक के खाते में 25 हजार जमा किए गए। कुछ इसी तरह अन्य भाजपाई पूर्व मंत्री ननकीराम कंवर, पुन्नूलाल मोहिले, पूर्व सांसद दिनेश कश्यप, लच्छूराम कश्यप, बैदूराम कश्यप, लता उसेंडी, दयालदास बघेल और श्याम बिहारी जायसवाल के भी खाते में धान खरीद की अंतर राशि जमा हुई है।
चूंकि इन नेताओं का नाम किसान के रूप में प्राथमिक सोसायटियों में दर्ज है और सोसायटी के जरिए अपना धान बेचा है, तो न्याय योजना का फायदा मिलना ही था, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। कांग्रेस के किसान नेताओं को भी योजना का फायदा हुआ है और उनके खाते में भी राशि जमा हुई है। मगर सूची को लेकर भाजपा में हलचल ज्यादा है। वजह यह है कि रमन सिंह-संगठन में हावी खेमे के हितग्राही नेताओं की सूची जारी हुई है। सिर्फ ननकीराम कंवर और बस्तर के एक-दो नेताओं के नाम अपवाद स्वरूप सूची में जरूर हैं, लेकिन रमन विरोधी खेमे के नेताओं को न्याय योजना के जरिए कितनी राशि मिली है, इसका खुलासा नहीं किया गया। जबकि नारायण चंदेल, अजय चंद्राकर और शिवरतन शर्मा जैसे बड़े किसान हैं। कुल मिलाकर सूची के साथ न्याय नहीं किया गया।
किसानों को बेनिफिट- एक तीर से दो निशाना
राज्य सरकार ने कोरोना के संकट में किसानों के लिए न्याय योजना शुरु की है। किसानों के खातों में सीधे पैसे ट्रांसफर किए गए। योजना की लांचिंग के लिए कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी समेत तमाम आला नेता जुड़े थे। तमाम नेताओं ने योजना की खूब तारीफ की। राहुल गांधी ने कहा कि कोरोना के संकट में छत्तीसगढ़ सरकार ने किसानों के साथ न्याय किया है। उन्होंने प्रधानमंत्री से भी आग्रह किया था कि किसानों और मजदूरों के खातों में सीधे पैसे ट्रांसफर किया जाएगा तो उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी रहेगी। उन्होंने यह भी कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार की यह योजना पूरे देश के लिए रोल मॉडल है और देशभर में इसे लागू किया जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि योजना से किसानों का भला होगा और उनको बड़ी राहत मिली है, लेकिन कन्फ्यूजन यह है कि जब यह राशि कोरोना संकट के कारण दी जा रही है, जैसा कि राहुल गांधी ने कहा है, तो फिर धान के समर्थन मूल्य की बकाया राशि कब मिलेगी। हालांकि सरकार ने किसानों को समर्थन मूल्य की बकाया राशि देने के लिए 57 सौ करोड़ का प्रावधान बजट में कर दिया था और अभी जो पैसा दिया गया है, वो बकाया राशि का ही पैसा है। इस बीच कोरोना का संकट आ गया तो मुश्किल घड़ी में सरकारी मदद का नया एंगल आ गया। अब ऐसे में किसान इसे कोरोना रिलीफ मानें या 25 सौ रुपए समर्थन मूल्य की बकाया राशि, यह उनकी समस्या है, लेकिन सरकार ने तो एक तीर से दो निशाना साध दिया है।
पीएम के फोन का फायदा
पीएम ने पिछले दिनों जनसंघ के जमाने के दो पुराने नेता रजनीताई उपासने और देवेश्वर सिंह से फोन पर बातचीत की। रजनीताई वर्ष-77 में रायपुर शहर से विधायक रही हैं। जबकि देवेश्वर सिंह वर्ष-67 में सरगुजा जिले की लखनपुर सीट से जनसंघ के विधायक रहे। दोनों की उम्र अब 90 के आसपास हो चली है। पीएम का फोन आते ही दोनों के परिवारों में खुशी का ठिकाना नहीं रहा। पहले तो खुद दोनों नेताओं को एकाएक पीएम से बातचीत का भरोसा नहीं हुआ।
खैर, पीएम का फोन आने के बाद भाजपा में दोनों परिवार के लोगों की पूछपरख बढ़ गई है। पीएम से फोन पर बातचीत की सूचना पाते ही केन्द्रीय मंत्री रेणुका सिंह तो अगले दिन लॉकडाउन तोडक़र देवेश्वर सिंह से मिलने पहुंच गईं। देवेश्वर सिंह बरसों से सरगुजा में रेल सुविधाओं के लिए लड़ते रहे हैं। पीएम से पांच मिनट की बातचीत में भी उन्होंने अंबिकापुर से दिल्ली तक नई ट्रेन शुरू करने की गुजारिश की। देवेश्वर के पुत्र मनीष सिंह भाजपा के पार्षद हैं और अब उन्हें काफी महत्व मिल रहा है।
कुछ इसी तरह का हाल रजनीताई के पुत्र सच्चिदानंद उपासने का भी है। हालांकि राज्य में भाजपा की सरकार रहते उन्हें सबकुछ दिया गया जिसकी चाह पार्टी कार्यकर्ताओं को रहती है। सच्चिदानंद को पार्षद, महापौर और विधायक की टिकट मिली, लेकिन वे कोई चुनाव नहीं जीत पाए। बावजूद इसके उन्हें मलाईदार दारू निगम का दायित्व सौंपा गया। इसके बाद भी उपासने की शिकायत रही है कि उन्हें टीबी डिबेट में मौका नहीं दिया जाता है, न ही उनके नाम से कोई बयान जारी होता है। इसको लेकर वे कई बार मीडिया विभाग के प्रमुख नलिनेश ठोकने से भिड़ चुके हैं। वरिष्ठ नेताओं से ठोकने की शिकायत भी कर चुके हैं। मगर पीएम के फोन के बाद अब उनकी स्थिति बदल गई है। वे प्रमुख टीवी चैनलों में अलग-अलग मुद्दों पर पार्टी का पक्ष रखते नजर आते हैं, तो अब नियमित रूप से उपासने के नाम से बयान भी जारी होने लगा है। पीएम के फोन का बड़ा फायदा हुआ है।
पत्रकारिता विवि, पत्रकारिता नहीं, राजनीति
मध्य प्रदेश में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में संजय द्विवेदी की कुलपति के रुप में ताजपोशी हो गई है। ताजपोशी, इसलिए क्योंकि मध्यप्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने के ठीक दो महीने के भीतर संजय द्विवेदी की नियुक्ति हो गई है। इन दो महीनों में उन्हें दो बार प्रमोशन की सौगात मिली है। पहले उन्हें रजिस्ट्रार बनाया गया फिर अब कुलपति। पत्रकारिता विवि में इस त्वरित नियुक्ति का महत्व इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि मध्यप्रदेश में कोरोना ने कोहराम मचाकर रखा है और सरकार का भी गठन नहीं हो पाया है। इसके बावजूद वहां धड़ाधड़ नियुक्तियां और विवादित फैसले से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार की प्राथमिकता में पत्रकारिता विवि कितना ऊपर है, जबकि इसके उलट छत्तीसगढ़ में पूर्ण बहुमत वाली कांग्रेस सरकार में पत्रकारिता विवि में कुलपति की नियुक्ति भी सरकार की पसंद के खिलाफ हुई, पूरे एक साल तक तो कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलपति ही तय नहीं हो पाए, जबकि सर्कार में कई भूतपूर्व पत्रकार बैठे हुए थे, और हैं. ।
मध्यप्रदेश में पत्रकारिता विवि को प्राथमिकता दिए जाने के पीछे कई तरह की कहानियां सामने आती हैं । कहा जाता है कि साल 2018 के विधानसभा चुनाव में विवि का अमला बीजेपी के पक्ष में काम करता रहा। विवि के प्रोफेसर्स से लेकर स्टॉफ के कर्मचारी-अधिकारियों ने मीडिया, सोशल मीडिया से लेकर प्रचार-प्रसार में खूब बढ़-चढक़र हिस्सा लिया था। जिसका इनाम लगातार संजय द्विवेदी को मिल रहा है। संजय द्विवेदी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को कड़वा खुला पत्र लिखकर भी चर्चा में आए थे। खैर, जो भी बात हो सभी सरकारों की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं होती हैं, जिसके मुताबिक वे काम करती हैं। लेकिन कई बार प्राथमिकताओं को नजर अंदाज करने से विरोधी हावी भी हो सकते हैं। यही स्थिति छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता विवि की है, जहां सरकार विरोधी हावी होते दिखाई दे रहे हैं। विवि से जुड़े लोगों का मानना है कि पत्रकारिता विवि पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले दिनों में वहां कट्टर हिन्दूवादी सोच वालों का ही राज चलेगा। उधर, कुछ लोगों को उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ सरकार एक्शन में आएगी और यहां के पत्रकारिता विवि का चिठ्ठी खुलेगा। इसी भरोसे में एक छत्तीसगढिय़ा और चंडीगढ़ के चितकारा विवि के प्राध्यापक आशुतोष मिश्रा ने राष्ट्रपति, यूजीसी, सीएम और राज्यपाल को ई-मेल के जरिए पत्र लिखा है, जिसमें संजय द्विवेदी की नियुक्ति रद्द करने की मांग की गई है। उन्होंने कहा है कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों के पत्रकारिता विवि में ही उनकी नियुक्ति के खिलाफ हाईकोर्ट में मामले चल रहे हैं। छत्तीसगढ़ में संजय द्विवेदी की नियुक्ति की जांच की गई तो दोनों राज्यों के विवि पर असर पड़ेगा। हालांकि भोपाल के विवि में किसी भी नियुक्ति का सीधा कनेक्शन छत्तीसगढ़ से नहीं है, लेकिन संजय द्विवेदी दोनों राज्यों में काम कर चुके हैं, इस लिहाज से यहां असर दिखाई पड़ता है। यही कराण है कि वहां के किसी भी धमाके का असर यहां भी होता है। लोग तो इस बात से घबराए हुए हैं कि भोपाल में धमाके से रायपुर में विस्फोट न हो जाए।
एक चिठ्ठी से गड़बड़ हुआ मामला
सरकारी पत्र व्यवहार में कभी-कभी जरूरत से ज्यादा शालीनता भी भारी पड़ जाता है। कई अफसर बुरा मान जाते हैं और काम रूक भी जाता है। ऐसा ही एक प्रकरण आईएएस सुश्री रीना बाबा साहेब कंगाले से भी जुड़ा है। सचिव स्तर की रीना बाबा साहेब कंगाले वर्तमान में राज्य चुनाव आयोग में पदस्थ हैं। उनके पास आदिमजाति कल्याण मंत्रालय के साथ-साथ जीएसटी कमिश्नर का प्रभार था।
सरकार ने जब आयोग में मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुब्रत साहू की जगह रीना बाबा साहेब की पोस्टिंग के लिए अनुशंसा की गई, तो साथ ही साथ केन्द्रीय चुनाव आयोग से आग्रह किया गया था कि रीना को आयोग के साथ-साथ जीएसटी कमिश्नर के पद पर काम करने की अनुमति दे दें। वैसे भी चुनाव के समय को छोड़ दें, तो बाकी समय में आयोग में कुछ ज्यादा काम नहीं होता है, ऐसे में मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी को अतिरिक्त जिम्मेदारी संभालने की अनुमति मिल जाती है। सुब्रत साहू भी लोकसभा चुनाव निपटने के बाद आयोग की अनुमति से मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के साथ-साथ पंचायत विभाग का दायित्व संभाल रहे थे।
सुनते हैं कि केन्द्रीय मुख्य चुनाव आयुक्त को लिखे पत्र में एक शब्द ऐसा था, जो कि मुख्य चुनाव आयुक्त को पसंद नहीं आया। चर्चा है कि पत्र में मुख्य चुनाव आयुक्त को रिस्पेक्टेड सर की जगह डियर सर संबोधित किया गया था। जिसको लेकर वे काफी खफा हो गए और उन्होंने सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। हालांकि सरकार की तरफ से अफसरों की कमी को देखते हुए एक सीनियर अफसर ने व्यक्तिगत तौर पर चर्चा की, मगर वे नहीं माने। आखिरकार रीना बाबा साहेब की जगह जीएसटी कमिश्नर के पद पर रमेश शर्मा की पोस्टिंग करनी पड़ी। चर्चा है कि मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त के रिटायर होने के बाद ही रीना को अतिरिक्त पद पर काम करने की अनुमति मिल सकती है।
शुरुआती हड़बड़ी के बाद अब...
अलग-अलग प्रदेशों से मजदूरों की आवाजाही उम्मीद से अधिक बढऩे वाली नहीं है, उम्मीद से अधिक घटने वाली है। कई अलग-अलग राज्यों से आ रही खबरें बताती हैं कि जहां-जहां काम शुरू हो गए हैं, मजदूर वहां से अपने गृह प्रदेश लौटने का इरादा छोड़ रहे हैं। एक तो उन्हें मालिक या ठेकेदार से बकाया वसूलना है, और दूसरी बात यह कि आगे काम भी तो करना है। अपने प्रदेश लौटकर, गांव पहुंचकर किसी काम के मिलने की गारंटी तो है नहीं। इसलिए कई प्रदेशों की ट्रेनें पर्याप्त मुसाफिर नहीं पा रही हैं। उन प्रदेशों को छोडक़र लोग जरूर जा रहे हैं जहां पर कोरोना का प्रकोप बहुत अधिक है। यह जाना बीमारी के डर से अधिक है, भूख और बेरोजगारी से कम। इसलिए तमिलनाडू या महाराष्ट्र जैसे भारी कोरोनाग्रस्त इलाकों से तो मजदूर लौटते रहेंगे, लेकिन बाकी इलाकों में वे काम जारी रख सकते हैं। छत्तीसगढ़ से ही देहरादून लौटने के लिए तय की गई ट्रेन रायपुर स्टेशन पर खाली खड़ी रही, रजिस्ट्रेशन कराने वाले उत्तराखंडी भी नहीं पहुंचे, और ट्रेन रद्द करनी पड़ी।
किसी भी बड़ी बात का ऐसा ही असर होता है। शुरू में भयानक माहौल बनता है, और बाद में वह ठंडा पड़ जाता है। छत्तीसगढ़ में शराब दुकानें खुलीं, तो लाठीचार्ज की नौबत आ गई, अब हाल यह है कि वैसी भीड़ खत्म हो चुकी है, और अधिकतर शराब दुकानों पर लोग धक्का-मुक्की नहीं झेल रहे। राजधानी रायपुर के एक सबसे व्यस्त इलाके, पंडरी की शराब दुकान दोपहर को एक वक्त में बस एक-दो ग्राहक पा रही थी। शुरुआती हड़बड़ी के बाद ऐसा लगता है कि जो मजदूर अब तक लौट नहीं चुके हैं, वे एक बार और सोचेंगे कि अभी लौटें, या काम के इन महीनों में काम में लगें।
मुसीबत में मजे भी कम नहीं है..
मुसीबत का कोई भी दौर सरकार में काम करने वालों के लिए मजे का भी होता है। खतरे और परेशानी के माहौल में किस रेट पर क्या काम करवाया जा रहा है, किस रेट पर कितनी खरीदी हो रही है इसका पता नहीं चलता। कितने फूड पैकेट बांटे गए, कितने जूते-चप्पल बंटे, इसका भी पता नहीं चल रहा है। ओडिशा चूंकि हिन्दुस्तान में समुद्री तूफान झेलने वाला हमेशा ही पहला राज्य रहता है, इसलिए वहां सरकारी मशीनरी को बचाव और राहत के काम में अतिरिक्त खर्च करने का लंबा तजुर्बा। लेकिन सिर्फ इतना नहीं होता, जो अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठन ऐसी प्राकृतिक विपदा में काम करते हैं वे भी एयरपोर्ट से तबाही के रास्ते पर सबसे पहले दिखना चाहते हैं ताकि वहां आने वाले मीडिया को भी वे सबसे पहले दिखे, और उन्हें चंदा भी मिले। आज पूरे देश में मजदूरों को राहत में जो अनाज दिया जा रहा है, वह बहुत सी जगहों पर इतना सड़ा हुआ है कि उसको जानवर को भी नहीं खिलाया जा सकता। कर्नाटक में तो मजदूरों को मिले चावल में इल्लियां घूम रही थीं, और उनकी बदबू बर्दाश्त करना भी मुश्किल था। आज यूपी की एक तस्वीर आई है जिसमें राहत में मिले अनाज के चनों पर फफूंद लगी हुई है, और उन्हें जानवरों को भी नहीं खिलाया जा सकता।
बच्चों की पढ़ाई बंद, डॉक्टरों की शुरू
पिछले कुछ दिनों इस अखबार में कई बार यह छपा कि लॉकडाऊन के इस दौर में कैसे लोग अपने आपको बेहतर बना सकते हैं, और कैसे कोई नया हुनर भी सीख सकते हैं। अभी पता लगा कि छत्तीसगढ़ के शिशु रोग विशेषज्ञों की एक संस्था ने ऐसा ही किया। उन्होंने इंटरनेट पर एक एप्लीकेशन के माध्यम से ऐसी वीडियो कांफ्रेंस कराई जिसमें देश के सबसे उम्दा शिशु रोग विशेषज्ञों, और सर्जनों के व्याख्यान करवाए, उनसे सवाल-जवाब का मौका भी शायद मिला ही होगा। इसमें देश-विदेश से कई जगह संपर्क हुआ, और बिना मरीजों के या कम मरीजों के साथ बैठे हुए डॉक्टरों को नया सीखने का मौका मिला, उनका ज्ञान बढ़ा।
एक तो लोग कुछ दहशत में हैं कि वे बिना बहुत जरूरी हुए डॉक्टरों के पास जाना नहीं चाहते, और कुछ तो लोगों के लगातार घर में रहने से उनका किसी भी किस्म का संक्रमण का शिकार होना भी घट गया है। लोग मोटेतौर पर डॉक्टरों की नौबत तक पहुंचना न चाह रहे हैं न पहुंच रहे हैं। ऐसे में खाली बैठे हुए डॉक्टरों ने अपना मेडिकल ज्ञान बढ़ाना तय किया, तो टेक्नालॉजी ने उसके लिए रास्ता खोल दिया। जहां चाह, वहां राह। अभी कल-परसों में ही हमने इस अखबार के संपादकीय में सुझाया था कि जिनकी नौकरी जाने का खतरा हो, या जिनकी नौकरी लगी न हो, उन्हें अपने काम को बेहतर बनाना चाहिए, या कोई नया हुनर सीखना चाहिए। एक बुरा वक्त एक अच्छा अवसर बनकर भी आता है।
ये हैं चलते-फिरते मानव बम
राजधानी रायपुर के जीई रोड पर विवेकानंद आश्रम के सामने सडक़ किनारे सब्जी बाजार लगने लगा है। आज सुबह कपड़ों के ऊपर हल्का भूरा कोट पहनी हुई कुछ महिलाएं घूम रही थीं। उन्होंने पास से निकलते हुए एक साइकिल चालक को भी रोकने की कोशिश की। फिर दिखा कि वे मास्क न लगाए हुए लोगों को रोककर समझा रही हैं, और सब्जीवालियों में भी जिन्होंने मास्क नहीं लगाए हैं, उन्हें भी समझा रही हैं।
जाहिर तौर पर ये स्वास्थ्य कर्मचारी या सरकार के किसी दूसरी अमले की महिलाएं थीं जो कि अपनी सेहत को जोखिम में डालकर उन्हीं लोगों से बात कर रही थीं, जिन्होंने मास्क नहीं लगाए थे। ऐसे लापरवाह लोगों की मदद करते हुए जब सरकारी अमले को अपने आपको एक निहायत गैरजरूरी खतरे में डालना पड़ता है तो अफसोस होता है। सरकारी नौकरी की अपनी मजबूरी तो है लेकिन उन्हें अगर कोई इंसान भी न माने, और अपनी जिद, अपनी लापरवाही से ऐसे जिये कि उन्हें बचाने के लिए सरकारी अमला खतरे में पड़े, तो ऐसे लोगों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। जो लोग बिना मास्क लगाए दिख रहे हैं, उन्हें सडक़ों पर ही किनारे कम से कम घंटे भर बिठा देना चाहिए। आज इंटरनेट और सोशल मीडिया पर ऐसे अनगिनत वीडियो मौजूद हैं जिनमें किसी पुराने टी-शर्ट या पुराने अंडरवियर से मास्क बनाना दिखाया गया है। अब शहरों में जो पेट्रोल से चलने वाले दुपहिया पर चल रहे हैं, उनके पास घर पर फटा-पुराना कपड़ा न हो ऐसा तो हो नहीं सकता। इसके बावजूद लोग अगर अपनी जिद पर अड़े हुए हैं तो सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए। जाति और धर्म के आधार पर जिस देश में कुछ लोगों को चलता-फिरता मानव बम कहा जाता है, उस देश में बिना जाति-धर्म के ऐसे चलते मानव बम पर जरूर कार्रवाई करनी चाहिए।
समाज के जिम्मेदार लोग भी इस नौबत को सुधार सकते हैं, अगर वे ऐसे फेरीवालों या दुकानदारों से सामान लेना बंद कर दें जिन्होंने मुंह ढका हुआ नहीं है।
गरीब की गाय शिक्षक
सरकार ने शिक्षकों को भी कोरोना मरीज ढूंढने के काम में लगाया है। चूंकि स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या तो अपेक्षाकृत कम है। ऐसे में दूसरे विभाग के कर्मचारियों की स्वास्थ्य सेवाओं में उपयोग करना गलत भी नहीं है। अमूमन आपातकालीन स्थिति में ऐसा किया जाता है। मगर शिक्षकों में इसको लेकर बेचैनी साफ दिख रही है। दो दिन पहले रायपुर के रेडक्रास सोसायटी भवन में शिक्षकों और दूसरे विभाग के कर्मचारियों की ट्रेनिंग भी हुई।
उन्हें बताया गया कि गांवों में जाकर सर्दी-खांसी पीडि़त लोगों की जानकारी जुटाना है। साथ ही साथ ग्रामीणों को मास्क पहनने और सैनिटाइजर का उपयोग करने के लिए जागरूक करना भी है। यह भी कहा गया कि ब्लडप्रेशर और शुगर के मरीजों का भी ब्यौरा इक_ा करना होगा। क्योंकि सबसे ज्यादा कोरोना का संक्रमण का खतरा ब्लडप्रेशर-शुगर पीडि़त लोगों को है। ऐसे लोगों को आपातकालीन स्थिति को छोडक़र किसी भी दशा में घर से बाहर नहीं निकलने की सीख भी देनी है।
यह सुनकर कई शिक्षक खड़े हो गए, और उनमें से कई ने खुद को ब्लडप्रेशर और कुछ ने शुगर पीडि़त बताया। इन शिक्षकों ने खुद पर कोरोना का खतरा बताते हुए ड्यूटी से अलग करने की गुजारिश की, लेकिन ट्रेनरों ने हाथ जोड़ असमर्थता जता दी। दिलचस्प बात यह है कि कोरोना बचाव की इस ट्रेनिंग में न तो सामाजिक दूरी और शारीरिक दूरी का पालन किया गया और न ही वहां सैनिटाइजर की व्यवस्था थी।
मुखियाओं का नो रिस्क चैलेंज
छत्तीसगढ़ के प्रशासनिक, पुलिस और जंगल विभाग के मुखिया प्राय: सभी कार्यक्रमों में एक साथ दिखाई देते हैं। राज्य शासन की प्रमुख बैठकों में भी इस तिकड़ी को खास तवज्जो मिलती है, लेकिन कोरोना काल में इन अधिकारियों ने अपने आपको सीमित कर लिया है। संकट के इस दौर में जब पूरा अमला कोरोना से निपटने में लगा है तो प्रशासनिक मुखिया राम वनगमन पथ, खारुन रिवर फ्रंट या बूढ़ातालाब की सफाई जैसे प्रोजेक्ट्स में ज्यादा सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। हालांकि ये तमाम सरकार की महत्वाकांक्षी योजनायें हैं। प्रशासनिक मुखिया के बारे में कहा भी जाता है कि वे टारगेट ओरिएटेंड काम में काफी निपुण हैं, लिहाजा उन्हें इन योजनाओं की मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी दी गई होगी, लेकिन संकट के इस समय में उनका बहुआयामी उपयोग किया जा सकता है। इसी तरह पुलिस प्रमुख भी फास्ट एक्शन टेकिंग अफसर के रुप में जाने जाते हैं। पुलिस में सुधार की बात हो या फिर अपराध पर नियंत्रण का मामला हो। आम लोगों की समस्याओं का तुरंत समाधान करना भी उनकी प्राथमिकता में होता है। वे भी पुराने पुलिस मुख्यालय में टेंट लगाकर अपने तरीके से काम कर रहे हैं। इसी तरह वन प्रमुख की छवि फील्ड में बेहतर रिजल्ट देने वाले अफसर के रुप में है। इसके बाद भी इन काबिल अफसरों की सीमित भूमिका पर लगातार चर्चा होती है। इनके कामकाज को करीब से जानने वाले इस बात से वाकिफ हैं कि अगर इन्हें फ्री हैंड दिया जाए, तो और बेहतर काम कर सकते हैं। दरअसल, प्रशासनिक मुखिया के पास समय कम है वे इस साल सितंबर में रिटायर हो जाएंगे, जबकि पुलिस और वन मुखिया के रिटायरमेंट में समय है। पुलिस मुखिया साल 2023 में और वन प्रमुख साल 2022 में सेवानिवृत्त होंगे। सभी रिटायरमेंट तक पद पर बने रहना चाहते हैं, लिहाजा वे भी ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते, जिसकी वजह से उनकी कुर्सी पर किसी प्रकार का खतरा हो। लगता है कि तीनों अफसर नो रिस्क नो चैलेंज के मोड पर चल रहे हैं।
फटाफट अंदाज में शुक्ला
छत्तीसगढ़ के स्कूल शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव आलोक शुक्ला का रिटायरमेंट नजदीक है, लेकिन वे तेजी से काम कर रहे हैं। साफ है कि वे रिटायरमेंट के बाद भी काम करते रहेंगे। लॉकडाउन पीरियड में ही उन्होंने ऑनलाइन पढ़ाई के लिए वेब पोर्टल डेवलप किया। इसी तरह 40 उत्कृष्ट स्कूल शुरू करने का प्रोजेक्ट भी उन्हीं का है। वे आईटी के एक्सपर्ट माने जाते हैं। उन्हें स्कूल शिक्षा विभाग में कसावट लाने की जिम्मेदारी दी गई है। वे सीएस आरपी मंडल से एक साल सीनियर हैं, लेकिन नान मामले के कारण वे प्रमुख सचिव तक ही पहुंच पाए हैं। नई सरकार में पोस्टिंग के वक्त विभाग के लोगों को लगा था कि उन्हें काम करने के लिए ज्यादा वक्त नहीं मिलेगा, तो उनकी योजनाएं लटक जाएंगी। लेकिन ऐसा होगा, इसकी संभावना नहीं दिखती, क्योंकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनने के साथ ही उनकी वापसी इसी भरोसे के साथ हुई थी कि इस सरकार में रिटायर नहीं होंगे। यही वजह है कि काम संभालते ही उन्होंने फटाफट क्रिकेट की तरह अपनी पारी शुरु की और टारगेट को पूरा करने बड़े शॉट्स भी लगा रहे हैं।
नांदगाव में महंत का दबदबा
राजनांदगांव के कांग्रेस संगठन में विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत के समर्थकों का दबदबा बढ़ा है। जिले के कांग्रेस विधायक दलेश्वर साहू को डॉ. महंत का करीबी माना जाता है। महंत की सिफारिश पर शाहिद भाई और डॉ. थानेश्वर पाटिला की महासचिव पद पर नियुक्ति की गई। शाहिद भाई को कोरबा का प्रभारी महासचिव बनाया गया है। कोरबा संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व डॉ. महंत की पत्नी ज्योत्सना महंत करती हैं। यही नहीं, कुलबीर छाबड़ा को राजनांदगांव शहर का दोबारा अध्यक्ष बनवाने में डॉ. महंत की भूमिका रही है।
पार्टी हल्कों में चर्चा है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा का संसदीय जीवन खत्म होने के बाद से राजनांदगांव की राजनीति में महंत खेमे का दखल बढ़ा है। इससे पहले तक राजनांदगांव में जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में वोरा की सिफारिशों को ही महत्व मिलता था। वोराजी राजनांदगांव से एक बार सांसद रहे हैं। राजनांदगांव जिले की सीटों से तेजकुंवर नेताम और भोलाराम साहू विधायक रहे, ये दोनों वोरा के समर्थक रहे। तेजकुंवर को विधानसभा में टिकट नहीं मिली, दूसरी तरफ भोलाराम साहू लोकसभा चुनाव हार गए। इसके बाद से वोरा के समर्थक महंत से जुड़ गए, ऐसे में महंत का दबदबा बढऩा स्वाभाविक है।
कांग्रेस प्रदेश कार्यालय
प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस में बड़ा फर्क आया है। सत्ता के लिए संघर्ष करती कांग्रेस में पुराने नेताओं की जगह लेने के लिए एक नई पौध तैयार हो गई। जबकि भाजपा में अभी भी नए चेहरों को आगे लाने की कोशिश ही हो रही है। कांग्रेस संगठन में कुछ समय पहले जिम्मेदारी बदली गई है, जिसका बेहतर नतीजा देखने को मिल रहा है। कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष के बाद प्रभारी महामंत्री का पद पॉवरफुल है। पहले बरसों तक इस पद पर मोतीलाल वोरा के करीबी सुभाष शर्मा रहे और बाद में गिरीश देवांगन ने महामंत्री की कमान संभाली।
गिरीश ने पिछले पांच सालों में महामंत्री के दायित्व को बेहतर ढंग से निभाया और अब उनकी जगह अब चंद्रशेखर शुक्ला व रवि घोष संगठन व प्रशासन की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। लॉकडाउन के बाद भी कांग्रेस संगठन की गतिविधियां कम नहीं हुई है। आम कार्यकर्ताओं के लिए दफ्तर भले ही बंद है, लेकिन यहां प्रवासी मजदूरों को लाने और दूसरे जगह भेजने के काम चंद्रशेखर और अन्य के देखरेख में बेहतर ढंग से हो रहे हैं। खास बात यह है कि प्रदेश में सरकार होने के बावजूद सरकारी तंत्र का बेजा इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है, बल्कि कांग्रेस संगठन, स्थानीय नेताओं के सहयोग से मजदूरों के आने-जाने का खर्च उठा रहा है।
झारखंड के 50 से अधिक मजदूर फंसे हुए थे, जिसे कांग्रेस संगठन ने अपने खर्च से झारखंड की सीमा तक पहुंचाने का बंदोबस्त किया। इसी तरह बस्तर और अन्य जगहों में भी फंसे मजदूरों को भेजने का काम बेहतर ढंग से किया गया। जिसमें पार्टी के विधायक विक्रम मंडावी ने भी सहयोग किया। यह सब हल्ला-गुल्ला और प्रचार से दूर रहकर किया जा रहा है। ऐसे समय में जब कई जगहों पर प्रशासनिक अफसरों से मदद नहीं मिल रही है, उत्साही कांग्रेस नेता लोगों की भरपूर मदद कर रहे हैं। ऐसे में जहां बाकी राज्यों में प्रवासी मजदूर, शासन-प्रशासन के लिए परेशानी का कारण बने हुए हैं, तो यहां अपेक्षाकृत बेहतर काम हो रहा है।
कांग्रेस प्रदेश कार्यालय के अधिकतर कर्मचारियों को दफ्तर आने मना कर दिया गया है, और सबको दो-दो महीने की तनख्वाह देकर घर पर सुरक्षित रहने कह दिया गया है।
न सांसद निधि, न सांसद की पूछ
प्रदेश के भाजपा सांसद इन दिनों परेशान हैं। उनकी पूछपरख काफी कम हो गई है। पार्टी के नेता भी अब पहले जितना महत्व नहीं दे रहे हैं। वजह यह है कि सांसदों ने केन्द्र सरकार को अपने तीन साल की सांसद निधि की राशि कोरोना रोकथाम के लिए खर्च करने की अनुमति दे दी है। हर साल सांसद निधि के मद में मिलने वाली 5 करोड़ राशि का उपयोग मनमर्जी विकास कार्यों में खर्च कर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र के कार्यकर्ताओं-आम लोगों को संतुष्ट कर सकते थे, पर अब वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। भाजपा के जांजगीर-चांपा के सांसद गुहाराम अजगल्ले को छोड़ दें, तो बाकी सभी पहली बार सांसद बने हैं।
अब सांसद निधि नहीं है, तो नए कार्यकर्ता भी उनसे जुड़ नहीं पा रहे हैं। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। यहां भाजपा सांसदों की सिफारिशों को महत्व मिलेगा, इसकी उम्मीद पालना भी गलत है। हाल यह है कि शासन-प्रशासन तो दूर, बड़े कारोबारी भी नए नवेले भाजपा सांसदों को महत्व नहीं दे रहे हैं। सुनते हैं कि पिछले दिनों एक उद्योगपति ने सद्भावनावश प्रदेश के एक भाजपा सांसद के घर सैनिटाइजर से भरा बक्सा भिजवाया ताकि वे अपने क्षेत्र के लोगों को बांट सके। सांसद महोदय ने पार्टी कार्यकर्ताओं को बंटवाया भी। उनकी इच्छा थी कि विधानसभा क्षेत्र के सभी कार्यकर्ताओं को सैनिटाइजर और मास्क दिया जाए, इसके लिए उन्होंने उद्योगपति को फोन लगाया। मगर इस बार उद्योगपति ने फोन तक नहीं उठाया। क्षेत्र के कार्यकर्ता सैनिटाइजर-मास्क मांग रहे हैं, लेकिन सांसद महोदय ने खामोशी ओढ़ ली है।
कोरोना के हिसाब से ड्रेस डिजाईन
कोरोना के खतरे के बीच ही अगर लंबा जीना पड़े, तो लोगों को अपने तौर-तरीकों से लेकर फैशन तक सबमें तब्दीली की जरूरत है। अब चूंकि काम से लौटकर हर दिन कपड़े धोने की डॉक्टरी सिफारिश है, तो लोगों को मोटी जींस के बजाय पतले कपड़े पहनना चाहिए जिन्हें धोना आसान हो, साबुन और पानी भी कम लगे। इसके अलावा ड्रेस डिजायनरों के लिए भी एक चुनौती है कि लोगों के कपड़ों में लिक्विड सोप और सेनेटाइजर की छोटी बोतलों के लिए जगह निकाले। और यह जगह ऐसी जटिल भी नहीं होनी चाहिए कि डंडे या संक्रमित हाथ वहां तक आसानी से न पहुंच पाएं। वैसे भी बहुत से लोगों के पास अब एक से अधिक मोबाइल भी रहने लगे हैं, और ऐसे में जेबों का पुराना रिवाज कम पड़ रहा है। अब तो यह भी हो सकता है कि अधिक चौकन्ने लोग एक एक्स्ट्रा मास्क भी लेकर चलें कि कहीं मास्क गिर जाए, या उसका इलास्टिक टूट जाए, या डोरी टूट जाए, तो तुरंत दूसरा मास्क मौजूद रहे।
लोगों को घर से निकलते हुए सारी चीजों को ठीक से जांच लेने के लिए दस मिनट का समय अलग से रखना चाहिए, इसी तरह लौटने के बाद अपने को साफ करने के लिए कपड़े धोने डालने के लिए, मास्क धोने के लिए भी दस मिनट अलग से रखना चाहिए। हड़बड़ी हुई और चूक से खतरा बढ़ा। लोगों को अपने मोबाइल फोन हर बार लौटने पर ठीक से सेनेटाईज करने की भी आदत डालनी चाहिए, और बच्चों को मोबाइल फोन देना बंद भी करना चाहिए।
फिर एक बात यह भी है कि आज कोरोना के खतरे में लोगों को बचाव के लिए चौकन्ना भी कर दिया है, इसलिए लोगों के बीच एक बार रोग-प्रतिरोधक क्षमता की भी चर्चा होने लगी है। विटामिन सी से भरपूर सस्ते फल हिन्दुस्तान में बहुत से हैं। आंवले से लेकर इमली तक, और नींबू से लेकर संतरे तक कई तरह की चीजें सस्ती हैं, आसानी से मिल जाती हैं। लोगों को इलाज के लिए चाहे आयुर्वेद पर पूरा भरोसा न हो, लेकिन रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का काम आयुर्वेद में शायद एलोपैथी से बेहतर है। लोग केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा जारी की गई भरोसेमंद जानकारी पर अमल कर सकते हैं, और कोरोना से परे-परे चलते हुए जिंदगी गुजार भी सकते हैं।
रणनीति पर भाजपा में विरोधाभास
क्या भाजपा में रमन सिंह अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं? कम से कम हाल के दिनों के घटनाक्रमों को देखकर तो यही लगता है। जिस तरह कोरोना प्रकोप के बीच वे दारूबंदी और मजदूरों की बेहाली को लेकर राज्य सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं, उससे पार्टी का एक बड़ा खेमा असहमत है। यह खेमा फिलहाल सरकार के कामकाज के तौर तरीके से कुछ बिंदुओं पर असहमत होने के बावजूद किसी तरह मोर्चा खोलने के सख्त खिलाफ दिख रहा है।
रमन सिंह दो दिन पहले यह कहते सुने गए, कि कोरोना संक्रमण और प्रवासी मजदूरों की समस्याओं की वापसी को लेकर सरकार विपक्ष को विश्वास में नहीं ले रहा है। दूसरी तरफ, पार्टी के दो सीनियर विधायकों ने उसी दिन मुख्यमंत्री निवास में भूपेश बघेल के साथ बैठक कर मजदूरों की वापसी से लेकर सरकारी इंतजामों पर विस्तार से चर्चा की और अपनी तरफ से सुझाव भी दिए। ये अलग बात है कि इन विधायकों ने जानकारी शायद रमन सिंह को न दी हो।
पार्टी के एक नेता अनौपचारिक चर्चा में दारूबंदी की रमन सिंह की मांग से असहमत दिखे। वे कहते हैं कि रमन सिंह के सीएम रहते एक बड़े दारू कारोबारी की कार बिना चेकिंग के सीएम हाऊस में जाती थी। रमन सरकार में दारू कारोबारियों की धमक रही। ये बातें कम से कम राजनीतिक और कारोबार के क्षेत्र से जुड़े तकरीबन सभी लोग जानते हैं। ऐसे में जब प्रदेश कोरोना संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, रमन सिंह का दारूबंदी का विरोध फिलहाल उचित नहीं है।
छुट्टी का दिन और बड़ी-बड़ी गाडिय़ां
सरकारी दफ्तरों में कामकाज का हाल कामकाज के दिनों में तो दिखता ही है, छुट्टी के दिनों में भी दिखता है। रायपुर में जमीनों के काम से जुड़े एक दफ्तर में दूसरे भी कई प्रशासनिक काम हैं। कल वहां जब मीडिया से जुड़े कुछ लोग दूसरे जिले या प्रदेश जाने के पास बनवाने खड़े थे, मुख्यमंत्री के एक बहुत पुराने परिचित और कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी खड़े थे, तब डिप्टी कलेक्टर रैंक के इस अफसर के साथ कमरे में कई लोग बैठे हुए थे जिनके नाम और चेहरे जानना जरूरी नहीं है, बाहर उनकी 50-50 लाख से अधिक की कारें खड़ी हुई थीं जो बता रही थीं कि छुट्टी के दिन इस तरह बैठने में किसे प्राथमिकता है। मीडिया के लोग बाहर खड़े रहे, और अधिक हॉर्सपॉवर के लोग भीतर इत्मिनान से साहब के साथ बैठे थे। सत्तारूढ़ पार्टी जरूर बदली है लेकिन अफसरों के तौर-तरीके जरा भी नहीं बदले हैं। जिनके खिलाफ सत्तारूढ़ लोग भी शिकायत करते रहे, उनका भी कुछ बिगड़ता नहीं है।
लालबत्ती के दावेदार फिर उम्मीद से
छत्तीसगढ़ में लालबत्ती के दावेदार नेताओं के बीच उम्मीद की किरण जगी है। चर्चा है कि इस महीने के आखिर तक निगम-मंडल की एक छोटी सूची जारी हो सकती है। हालांकि इसकी अधिकृत पुष्टि नहीं है, लेकिन दावेदार सक्रिय हो गए हैं। उनका मानना है कि छत्तीसगढ़ में कोरोना की स्थिति नियंत्रण में है। ऐसे में 10-12 लोगों को लालबत्ती की सौगात मिल सकती है। लेकिन जिस तरह से सरकार कोरोना के कारण खर्च में कटौती कर रही है। ऐसे में नई नियुक्तियों की संभावना कम ही दिखती है। इन चर्चाओं को सच मान भी लिया जाए, तो केवल 10-12 लोगों को उपकृत करने का जोखिम सरकार उठाएगी, इसके आसार भी कम ही दिखाई देते हैं। छत्तीसगढ़ में 15 साल बाद कांग्रेस की सरकार बनी है। पार्टी का हर दूसरा-तीसरा नेता लालबत्ती का सपना संजोए हुए है। इस स्थिति में असंतोष बढ़ सकता है। सरकार से जुड़े लोगों का तो कहना है कि कोरोना युग में नियुक्ति करने से असंतोष के साथ संदेश भी अच्छा नहीं जाएगा। जबकि दावेदार नेताओं का कहना है कि हाल फिलहाल में नियुक्ति नहीं की गई तो वे ठीक से लालबत्ती का सुख भी नहीं भोग पाएंगे, क्योंकि डेढ़ साल से ज्यादा का समय तो बीत गया है और कोरोना से पूरी तरह से निजात मिलने की संभावना तो दूर-दूर तक दिख नहीं रही है। सरकार की शुरुआत का पहला एक साल और आखिरी का एक साल तो चुनाव में बीत जाता है। बचे तीन साल ही कुछ काम करने को मिलते हैं, उसमें भी कटौती हो ही रही है। दावेदारों को लगता है कि तत्काल नियुक्ति होगी तभी दो-ढाई साल काम करने का मिल पाएगा। इसलिए वे कोरोना युग में भी लालबत्ती के लिए दबाव बनाए हुए हैं, लेकिन सरकार की समस्या यह है कि एक अनार हैं और बीमार सौ हैं। एक भी बीमार छूटता है तो बवाल मचना तय है। लिहाजा सरकार भी समय काट रही है। अब देखना यह है कि लालबत्ती के किस-किस दावेदार को सेहत सुधारने का मौका मिलता है या फिर वे बीमार ही बने रहते हैं।
छोटे अफसर का हाल..
लॉकडाउन के बाद राज्य से बाहर तो दूर, रायपुर से बाहर जाने की अनुमति के लिए लोगों को भारी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। बाकी जिले में अनुमति के लिए इतनी समस्या नहीं है, जितनी कि रायपुर में है। इसके लिए एसडीएम प्रणव सिंह को ज्यादा जिम्मेदार माना जा रहा है। प्रशासन ने यात्रा की अनुमति के लिए उनका मोबाइल-टेलीफोन नंबर सार्वजनिक किया है, लेकिन आम लोग तो दूर, कई अफसरों की शिकायत है कि एसडीएम उनका फोन तक नहीं उठाते। एक पूर्व अफसर ने कलेक्टर को फोन किया, तब कहीं जाकर कलेक्टर का मैसेज मिलने के बाद उन्होंने फोन उठाया।
प्रणव सिंह की हरकतों की अलग-अलग स्तरों पर रोजाना शिकायतें हो रही हैं, मगर उनके तेवर नहीं बदले। ताजा मामला एक पेट्रोल पंप कर्मचारी से जुड़ा हुआ है। हुआ यूं कि पेट्रोल पंप कर्मी की बेटी विशाखापटनम के एक स्कूल में पढ़ती है, और वहां छात्रावास में रहती है। लॉकडाउन के बाद छात्रावास में रहने वाले बच्चों के पालक उन्हें किसी तरह निकालकर अपने घरों में ले गए. पेट्रोल पंप कर्मी की बेटी अकेली ही रह गई। स्कूल बंद हो चुका है, लेकिन एक शिक्षिका और एक-दो स्टॉफ सिर्फ अकेली छात्रा के लिए वहां हैं । स्कूल स्टाफ लगातार पेट्रोल पंप कर्मी से बेटी को ले जाने के लिए कह रहा है और अल्टीमेटम भी दे चुका है। मगर पेट्रोल पंप कर्मी का पास नहीं बन पा रहा।
एसडीएम तो पहुंच के बाहर थे, तो उन्होंने किसी तरह एक प्रभावशाली व्यक्ति के जरिए उन्होंने गृह सचिव उमेश अग्रवाल के पास गुहार लगाई। गृह सचिव ने तुरंत इसको संज्ञान में लिया और खुद अनुमति देकर एसडीएम को पास जारी करने कहा। एसडीएम का काम देखिए, अनुमति पास तो जारी हुआ, लेकिन यात्रा का कारण निधन कार्यक्रम में जाना लिखा था। चूंकि आंध्रप्रदेश पुलिस काफी सख्त है। ऐसे में गलत कारण बताकर यात्रा करना जोखिम भरा था।
आखिरकार पेट्रोल पंप कर्मी को यात्रा टालनी पड़ी। एक पूर्व आईएएस कहते हैं कि प्रशासनिक अफसरों का फोन कभी बंद नहीं होना चाहिए। ट्रेनिंग में इसकी सीख भी दी जाती है। पता नहीं कब, किसको जरूरत पड़ जाए है। वैसे भी महामारी के समय प्रशासन को 24 घंटा चौकस रहना चाहिए। मगर एसडीएम की ट्रेनिंग हुई भी है या नहीं, यह समझ से परे है।
राजधानी की पुलिस का रिस्पांस टाईम!
राजधानी रायपुर की एक सबसे पुरानी और संपन्न कॉलोनी, चौबे कॉलोनी में बड़े-बड़े नेता रहते हैं, कई पत्रकार, और बड़े-बड़े कारोबारी रहते हैं। इसके बावजूद कॉलोनी के बीच के अकेले दशहरा-मैदान में दस-बीस लोग रोज इक_ा होकर शाम से रात तक दारू पीते बैठे रहते थे। यह सिलसिला कई साल से चल रहा था, और इस खुले शराबखाने के बगल से सैकड़ों महिलाएं भी गालियां और बेहूदी बातें सुनते हुए शाम की सैर पर निकलती थीं, और सैकड़ों आदमी भी। लेकिन जब-जब किसी ने इसका विरोध करने के लिए पुलिस को खबर की, तो पुलिस ने सबसे पहले इन शराबियों को ही सावधान किया, और शिकायत करने वाले का नाम-नंबर इनको बता दिया। नतीजा यह हुआ कि कॉलोनी के लोग इन मवालियों को बर्दाश्त करने के आदी हो गए, और मामला यहां तक बढ़ गया कि शराब दुकान के कोचिये इनको इसी मैदान पर शराब भी पहुंचाने लगे, और पानी की बोतलें भी। खुलेआम शराबखोरी के बाद दो दिन पहले शराबी सडक़ पर अपने दुपहिए रोककर वहीं पेशाब करने लगे। इसे देखकर कॉलोनी के एक आदमी ने विरोध किया, तो शराबियों ने उसे धमकाना शुरू किया, लेकिन जब रायपुर एसपी को फोन करके इसकी शिकायत की तो भी वे धमकाते हुए खड़े रहे क्योंकि पुलिस की गाड़ी 20 मिनट तक पहुंची नहीं। एसपी बताते रहे कि उन्होंने सरस्वती नगर थाने को कह दिया है, गाड़ी पहुंच रही होगी, लेकिन दो किलोमीटर दूर के थाने की गाड़ी एसपी के कहने के बाद भी 20 मिनट तक नहीं पहुंची। उसके बाद एक किसी दूसरे थाने की गाड़ी पहुंची तब तक शराबी भाग निकले।
इस पूरे मामले की शिकायत डीजीपी डी.एम. अवस्थी से की गई जो कि इसी शहर में एडिशनल एसपी हुआ करते थे। कल उन्होंने खुद फोन करके जब पुलिस अफसरों को भेजा, और वहां पुलिस आकर खड़ी रही, तो शराबियों के हौसले पस्त हुए। हालत यह है कि थाने से दो मिनट की दूरी पर जो सार्वजनिक जगह है, वहां पर शराबियों की भीड़ को पकडऩे के लिए भी पुलिस का रिस्पांस टाईम करीब 25 मिनट था। दुनिया में शायद ही कोई मुजरिम इतना इंतजार करते होंगे। यह हाल राजधानी का है, और पुलिस से अच्छी खासी पहचान वाले आदमी ने एसपी को बार-बार फोन किया, जिसका इतना असर हुआ। अब कितने लोग किसी सार्वजनिक दिक्कत को लेकर डीजीपी को फोन कर सकते हैं, और रायपुर के लोगों की शिकायत के लिए डीजीपी ने पुलिस मुख्यालय में एक सेल बनाया हुआ है, वहां तक रात में कितने लोग पहुंच सकते हैं? वैसे राजधानी के हाल के एक जानकार ने बाद में इस शिकायतकर्ता को कहा कि अगर शराब पीने का जिक्र न किया जाता, और सिर्फ गुंडों की मौजूदगी कही जाती तो शायद पुलिस जल्दी पहुंचती क्योंकि सरकारी धंधे को मंदा करने की कोई नीयत सरकारी विभागों की है नहीं। फिर आते-जाते लोग शराबियों की इस भीड़ के बीच कई बार वायरलैस की आवाज भी सुनते रहते हैं, जो कि जाहिर तौर पर पुलिस की मौजूदगी का सुबूत है।
महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकार और पुलिस के बड़े-बड़े दावे कॉलोनी की सडक़ पर शराबी-मवालियों की पेशाब में बह गए हैं।
कोरोना से बचाव की मौलिक कोशिशें
कोरोना से बचने के लिए लोग तरह-तरह के मौलिक प्रयोग कर रहे हैं। ऐसा ही एक प्रयोग छत्तीसगढ़ राजस्व मंडल के अध्यक्ष सी.के. खेतान के कोर्ट में देखने मिला। इस महीने पहले हफ्ते में जब राजस्व मंडल का काम फिर से शुरू हुआ तो बिलासपुर में उन्होंने अपनी अदालत में वकीलों पर अपने बीच कांच का एक पार्टीशन खड़ा कर दिया ताकि संक्रमण आरपार न आ सके। कांच के नीचे से कागज और फाईल लेने-देने की जगह भी बनी हुई है। उन्होंने अपने रायपुर के दफ्तर में भी ऐसा ही इंतजाम कर रखा है ताकि लोगों से जरूरी मिलने-जुलने से परहेज भी न करना पड़े, और दोनों तरफ के लोगों की सेहत को कोई खतरा भी न हो।
यह शीशा कुछ उसी तरह का है जिस तरह 15 अगस्त के भाषण में लालकिले पर प्रधानमंत्री के सामने बुलेटप्रूफ शीशा लगाया जाता है। कोरोना के लिए बुलेटप्रूफ की जरूरत तो नहीं है, लेकिन कांच का यह पार्टीशन खतरे को कम करने वाला लगता है।
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर लोगों ने देखा होगा कि किसी तरह एक किसी बैंक में एक काऊंटर पर बैठा व्यक्ति एक इलेक्ट्रिक आयरन और चिमटा लेकर बैठा है, मिलने वाले चेक चिमटे से थामकर टेबिल पर रखता है, और उस पर गर्म आयरन चलाकर उसके बाद उसे थामता है। चूंकि कोरोना के साथ लंबा जीना है, और कम से कम मरना है, इसलिए ऐसी तमाम सूझबूझ से काम लेना ही होगा।
सबसे ऊपर बने रहना आसान नहीं...
सरकार में कुछ गिनी-चुनी कुर्सियां ऐसी रहती हैं जिनके एक से अधिक दावेदार रहते हैं। और सबसे ऊपर तो एक ही अफसर को बिठाया जा सकता है, इसलिए चाहे मुख्य सचिव हो, या डीजीपी, या वन विभाग के प्रमुख, इनकी कमजोरी, गलती, या गलत काम ढूंढने वाले खासे लोग रहते हैं।
अब डीजीपी डी.एम. अवस्थी ने लॉकडाऊन के बाद से पुलिस मुख्यालय जाना बंद करके पुराने रायपुर में पुराने पुलिस मुख्यालय के अहाते में हरी जाली का एक तम्बू बनवाया और उसी में बैठकर काम कर रहे हैं। नए रायपुर के पुलिस मुख्यालय में तो निजी गाडिय़ों वाले लोग ही जा सकते थे, सरकारी बसें बंद होने के बाद, ऑटोरिक्शा बंद होने के बाद आम लोग तो जा नहीं सकते, इसलिए बिना एसी के तम्बू में बैठकर डी.एम. अवस्थी काम कर रहे हैं। इस बीच कांग्रेस पार्टी में इन दिनों अकेला साधु-संन्यासी चेहरा बने हुए आचार्य प्रमोद कृष्णन ने कहीं यह खबर पढ़ी तो उन्होंने सोशल मीडिया पर इसकी जमकर तारीफ कर दी, और साथ-साथ छत्तीसगढ़ पुलिस की भी जो कि बहुत काम कर रही है। अब टीवी पर कांग्रेस पार्टी के अकेले हिन्दू संन्यासी आध्यात्मिक गुरू ने अगर यह तारीफ कर दी तो कुछ लोग डी.एम. अवस्थी के खिलाफ जुट गए, और तम्बू को नाटक करार देने लगे। अब यह नाटक है या नहीं, यह तो पता नहीं लेकिन पुलिस के छोटे-छोटे कर्मचारियों के परिवार जो दिक्कत लेकर डीजीपी से मिलने जाते हैं, उन्हें तो पुराने पुलिस मुख्यालय का यह तम्बू सुहा रहा है।
बाज़ार और सत्ता की राजनीति
आखिरकार सराफा और मोबाइल कारोबारियों को दूकान खोलने की अनुमति के लिए कांग्रेस नेताओं के यहां मत्था टेकना पड़ा। पहले ये कारोबारी सुनील सोनी और श्रीचंद सुंदरानी के भरोसे थे और उनके मार्फत जिला प्रशासन पर दबाव बनाने के कोशिश कर रहे थे, लेकिन उन्हें तगड़ा झटका लगा। बाकी कारोबारियों को सशर्त अनुमति मिल गई, लेकिन सराफा-मोबाइल कारोबारी रह गए।
चूंकि सरकार कांग्रेस की है, तो कांग्रेस नेता ज्यादा मददगार हो सकते हैं, यह समझने में इन कारोबारियों को थोड़ी देर लगी। खैर, ये सब सत्यनारायण शर्मा और कुलदीप जुनेजा के साथ कलेक्टर से चर्चा के लिए पहुंचे। सत्यनारायण शर्मा ने चित परिचित अंदाज में एक कारोबारी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि यह हमेशा सेवा के लिए तत्पर रहता है। आपकी भी करेगा। यह सुनकर कलेक्टर समेत अन्य अफसर हंस पड़े। कलेक्टर ने कारोबारियों को आश्वस्त किया कि सोमवार से उनकी दिक्कतें दूर हो जाएंगी। इसके बाद कारोबारियों ने राहत की सांस ली।
धंधा मंदा है
लॉकडाउन के बाद धार्मिक संस्थानों की आय में भी बेहद कमी आई है। एक प्रतिष्ठित धर्मगुरू के संस्थान में तो कर्मचारियों को वेतन देने में दिक्कतें हो रही है। गुरूजी का प्रवचन कार्यक्रम बंद है। इससे अच्छी खासी आय हो जाती थी। इसके अलावा दानदाता भी खुले हाथ से दान करते थे। इससे संस्थान के आश्रम और अन्य सामाजिक कार्य स्कूल आदि अच्छे से चल रहे थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद आमदनी एकदम कम हो गई। बड़े दानदाताओं ने हाथ खींच लिए हैं। एक पूर्व आईएएस, जो कि हमेशा गुरूजी के कार्यक्रम में शोभा बढ़ाते थे, वे भी खामोश हैं। संस्थान से जुड़े लोगों का मानना है कि लॉकडाउन लंबा चला, तो समाज सेवा से जुड़ी कई योजनाओं को बंद करना पड़ सकता है।
मशहूर का काम बढ़ गया
लॉकडाउन के बाद भी कुछ फेमस लोगों के खाने-पीने की दूकानें काफी चली। हुआ यूं कि इन लोगों ने घर से कारोबार शुरू कर दिया। नाम तो था ही। बिक्री भी पहले से ज्यादा हुई। कोतवाली-सदर बाजार के दो कचौरी वालों को तो फुर्सत ही नहीं थी। एक दिन पहले ऑर्डर देना होता था, तब दूसरे दिन लोगों को कचौरी मिल पाती थी। कुछ इसी तरह एक बड़े पान भंडार का भी हाल रहा। शहर के प्रतिष्ठित लोग उनकी दूकान में पान खाने आते थे, लॉकडाउन के बाद दूकान बंद हुई , तो पान के आदी हो चुके लोगों को काफी दिक्कतें हुई।
पान दूकान के संचालक ने ग्राहकों को संतुष्ट करने के लिए एक नया तरीका अपनाया। वे ग्राहकों से पान की पत्ती लाने के लिए कहते थे और फिर उसे बनाकर वापस दे देते थे। पान के शौकीन लोग पत्ती लेकर दूकान के पिछवाड़े में खड़े देखे जा सकते थे। इसी तरह कुछ दिन पहले एक प्रतिष्ठित मल्टीनेशनल कंपनी के कुछ अफसर रायपुर पहुंचे। उनमें से कुछ विशेष किस्म के पान मसाले के शौकीन थे। वे इसके लिए भारी भरकम कीमत देने के लिए तैयार थे। जब कंपनी के डिस्ट्रीब्यूटर उनके लिए दर्जनभर डिब्बा पान मसाला लेकर पहुंचे, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। डिस्ट्रीब्यूटर ने पैसे लेने से मना किया तो वे भावुक हो गए और डिस्ट्रीब्यूटर को गले लगा लिया।
अंग्रेजों का छोड़ा टोकरा...
सुप्रीम कोर्ट ने कल तय किया है कि वीडियो कांफ्रेंस से होने वाली सुनवाई में वकील अपने घर से सफेद कपड़ों में कैमरे के सामने पेश हो सकते हैं। अब तक देश में व्यवस्था यह है कि वकीलों को काले कोट में ही पेश होना पड़ता है, और सुप्रीम कोर्ट में तो वकील जादूगरों जैसे काले लबादों में भी देखे जाते हैं। जज भी काले लबादे पहनकर बैठते हैं। सुप्रीम कोर्ट से लेकर नीचे की अदालतों तक यही व्यवस्था चलते रहती है।
बड़ी अदालतों के अधिक फीस वाले बड़े वकीलों का तो हाल फिर भी ठीक रहता है कि वे एसी कारों में पहुंचते हैं, लेकिन छोटी अदालतों के दुपहियों में पहुंचने वाले वकीलों का हाल बहुत खराब रहता है। हिन्दुस्तान की 45 डिग्री की गर्मी में भी वे काले कोट में पहुंचते हैं, और पसीने के दाग कोट के कॉलर पर समंदर किनारे लहरों के छोड़े गए झाग की तरह दिखते रहते हैं।
अदालतों के जानकार बेहतर बता पाएंगे, लेकिन हमारा अंदाज यह है कि अंग्रेज के वक्त से छोड़ी गई परंपरा को हिन्दुस्तान उसी तरह ढो रहा है, जिस तरह इस देश के सफाई कर्मचारी आज भी सिर पर मैला ढोते हैं। रेलगाडिय़ों और रेल्वे स्टेशनों पर गर्मी में सब कुछ खौलते रहता है, लेकिन वहां टीटीई काले कोट में चलते हैं मानो उनके बदन की बैटरी सोलर चार्जिंग वाली हो।
यह सही मौका है जब पूरे हिन्दुस्तान की अदालतों से, रेल्वे से काले कोट खत्म किए जाएं जिन्हें कि गर्मियों में देखना भी भारी पड़ता है।
आज दुनिया भर में यह भी माना जा रहा है कि बदन पर जितने गैरजरूरी कपड़े पहने जाते हैं, वे किसी संक्रामक रोग को बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं। हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट को भी अभी केन्द्र सरकार की तरफ से बताया गया है कि कोट पहनने से या काले लबादे पहनने से संक्रमण का खतरा अधिक रहता है।
दुनिया के कई विकसित देशों में रिसर्च में यह भी पाया गया है कि मरीजों को देखने वाले डॉक्टर अगर टाई पहनते हैं, तो वह टाई संक्रमण का एक बड़ा जरिया बन जाती है। डॉक्टर हर भर्ती मरीज को देखने के लिए झुकते हैं, और उनकी टाई मरीज के बिस्तर को या मरीज को छूती ही है। ऐसी टाई संक्रमण को आगे बढ़ाने का काम भी करती है। '
अजय चंद्राकर का धरना
दारूबंदी के लिए भाजपा के अनोखे धरने की काफी चर्चा रही। और जब पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर, धरना देने रमन सिंह के घर गए, तो पार्टी के भीतर खुसुर-फुसुर शुरू हो गई। रमन सिंह के साथ अजय चंद्राकर के धरने को पार्टी की अंदरूनी राजनीति से जोडक़र भी देखा जाने लगा। अजय चंद्राकर प्रदेश अध्यक्ष बनने की दौड़ में है। चर्चा है कि कुछ समय पहले उनका नाम तय भी हो गया था, लेकिन रमन सिंह खेमे के विरोध के चलते नियुक्ति रूक गई। और जब अजय, रमन सिंह के घर धरने पर बैठे तो पार्टी नेताओं की निगाहें उन पर टिकी रही।
रमन सिंह के साथ धरने पर संगठन के कर्ताधर्ता सौदान सिंह और पवन साय भी थे। कोरोना संक्रमण के बीच दारूबंदी और मजदूरों की बेहाली को लेकर तेज गर्मी में कूलर की ठंडी हवा लेते अजय और अन्य दिग्गज नेता सोफे पर धरने में बैठे। संपन्न किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले अजय चंद्राकर की गिनती तेजतर्रार नेताओं में होती है। वे संसदीय मामलों के जानकार हैं, और शौकीन मिजाज भी हैं। वे भाजपा की गुटीय राजनीति में बृजमोहन अग्रवाल खेमे के माने जाते हैं। बृजमोहन अपने निवास में धरने पर बैठे थे।
पहले चर्चा थी कि अजय, बृजमोहन अग्रवाल के घर धरने के लिए जा सकते हैं। वहां धरने के लिए आरामदेह गद्दा-तकिया बिछाया गया था, लेकिन अजय वहां नहीं गए। अब जब अजय, बृजमोहन के घर नहीं गए, तो उनके बृजमोहन खेमे से छिटकने की चर्चा भी होने लगी। हालांकि उनके करीबियों का मानना है कि चूंकि अजय चंद्राकर का घर भी रमन सिंह के घर के नजदीक ही है। ऐसे में रमन के निवास पर धरना देना ज्यादा सुविधाजनक भी था। वैसे भी संगठन के कर्ता-धर्ता भी रमन निवास में थे। अब अजय को रमन निवास में धरने का फायदा मिलता है, या नहीं देखना है।
भोपाल से छत्तीसगढ़ी मजदूरों के लिए मदद जुटाने में लगी हैं रात-दिन
भोपाल में लगातार छत्तीसगढ़ के मजदूरों की मदद में लगी हुईं लेखिका तेजी ग्रोवर ऐसे सैकड़ों लोगों की तकलीफों से लगातार विचलित हैं, और यातना पाते हुए भी वे जुटी हुई हैं। फेसबुक पर उन्होंने अभी पोस्ट किया है- क्या कोई छत्तीसगढ़ की एक दंपत्ति के लिए टिकटों का इंतजाम कर सकते हैं जिसमें करीब 3 हजार रुपये लगेंगे, वहां घर पर बाप मर गया है और माँ बहुत बीमार है। वे रात-दिन अपनी पूरी ताकत से लोगों के खाने-पीने के इंतजाम में लगी हंै, और लोगों से कह-कहकर मदद भिजवा रही हैं, ऐसे लोगों के फोन रीचार्ज करवा रही हैं ताकि व कम से कम संपर्क में रह सकें। उन्होंने फेसबुक पर यह भी लिखा है कि बहुत से राज्यों में फंसे हुए छत्तीसगढ़ के लोगों को मदद की जरूरत है और अगर फोन पर बात करने के लिए कोई वालंटियर तैयार हो तो वे उनके नंबर भेज सकती हैं। वे छत्तीसगढ़ के प्रवासी मजदूरों के खातों में लोगों से कुछ-कुछ रकम भी डलवाने की कोशिश कर रही हैं।
धरना तेरी किस्में अनेक...
दारूबंदी की मांग को लेकर भाजपाई अपने घरों पर धरने पर बैठे। बड़े नेता रमन सिंह, बृजमोहन अग्रवाल, रामविचार नेताम और अजय चंद्राकर के धरने को मीडिया में जगह जरूर मिली, लेकिन इसके लिए पार्टी के मीडिया सेल को भरपूर मेहनत करनी पड़ी। बृजमोहन को छोडक़र ज्यादातर बड़े नेता शहर के बाहरी इलाके मौलश्री विहार में रहते हैं। और यहां लोगों की आवाजाही भी कम रहती है। ऐसे में लोगों तक इस अनोखे धरने की जानकारी के लिए मीडिया ही एकमात्र स्त्रोत रह गया था।
दूसरी तरफ, प्रेमप्रकाश पाण्डेय के धरने को मीडिया कवरेज ज्यादा नहीं मिला, लेकिन वह यहां आम लोगों की निगाह में रहा। प्रेमप्रकाश का बंगला शंकर नगर में है और बंगले के ठीक सामने ट्रैफिक सिग्नल है।प्रेमप्रकाश अपने बंगले के पोर्च में डॉ. सलीम राज और आकाश विग के साथ कुर्सी डालकर बैठे थे। बंगले का दरवाजा खोल दिया गया था और ट्रैफिक सिग्नल के पास लोगों की जमा भीड़ प्रेमप्रकाश का हाथ जोडक़र-हिलाकर अभिवादन करते दिखी। खुद सीएम भूपेश बघेल का काफिला प्रेमप्रकाश के बंगले के सामने से होकर गुजरा। भूपेश ने प्रेमप्रकाश और थोड़ी दूर आगे बृजमोहन के धरने को देखा। बाकी के धरने का हाल जंगल में मोर नाचा...जैसा रहा। मगर प्रेमप्रकाश और बृजमोहन का धरने का नजारा सबने देखा वाला रहा।
दारू या मज़दूर ?
दारूबंदी के खिलाफ धरने से भाजपा का एक बड़ा खेमा असहमत था। यह खेमा लॉकडाउन के चलते मजदूरों की बेहाली, क्वॉरंटीन सेंटर की बदहाली जैसे मुद्दे को उठाने के पक्ष में था। मगर दारूबंदी को धरना-प्रदर्शन का मुख्य विषय बनाने पर कुछ बड़े नेताओं के बीच आपस में किचकिच भी हुई। पार्टी के एक बड़े नेता का कहना था कि दारू का सरकारीकरण भाजपा की सरकार ने किया। हर चुनाव में मतदाताओं को रिझाने के लिए दारू का खुलकर इस्तेमाल करती थी।
विधानसभा चुनाव का हाल तो यह रहा कि सरकारी दबाव के चलते बाकी दल के प्रत्याशियों को दारू जुटाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी।और यह तमाम बातें आम जनता की जानकारी में भी थीं. जबकि भाजपा प्रत्याशियों और समर्थकों की दारू तक आसान पहुंच थी। विधानसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर दारू पकड़ी भी गई। ऐसे में जब कोरोना प्रकोप के चलते लोगों की नौकरियां जा रही है, देश-प्रदेश में भय का वातावरण बना हुआ है। ऐसे में तात्कालिक मुद्दों को नजर अंदाज करने से कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। चूंकि धरने का मुद्दा संगठन में हावी खेमा ने तय किया था, इसलिए ज्यादातर नेता औपचारिकता ही निभाते दिखे।
ऑनलाइन पढ़ाई के रिस्क
लॉकडाउन पीरियड में स्कूल-कॉलेजों में ऑनलाइन क्लासेस चल रही हैं। यह कितना उपयोगी होगा यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन ऑनलाइन क्लासेस से गुरुजी खासे परेशान हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनको पढ़ाने में दिक्कत हो रही है या वे पढ़ाना नहीं चाह रहे हैं, बल्कि वे इसके रिस्क से घबराए हुए हैं। घर से क्लास के लिए शिक्षकों को सुबह से मशक्कत करनी पड़ती है। क्लास शुरु करने से आधा घंटा पहले वे सभी स्टूडेंट्स को कनेक्ट होने के लिए संदेश भेजते हैं या फोन करते हैं। इस दौरान कुछ बच्चे एंड्राइड फोन नहीं होने की बात कह कर बंक मार देते हैं। गिने-चुने बच्चों के साथ क्लास शुरु होते ही पढ़ाई की बात कम व्यक्तिगत समस्याएं ज्यादा होती हैं। कुछ बच्चे तो शिक्षक से पहले ही कह देते हैं कि उनके पास एक केवल एक जीबी का डाटा है और उसको भी पूरे दिन चलाना है, तो आप अपनी बात लिमिटेड समय में खत्म कर दीजिए। ये समस्या स्कूल नहीं बल्कि कॉलेज के बच्चों के साथ भी है। जो थोड़े-मोड़े बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई में दिलचस्पी दिखाते भी है, तो नेटवर्क की प्राब्लम आ जाती है। बच्चों को क्लास शुरु होने से आधा घंटे पहले अपने घर से दूर तालाब किनारे या पेड़ पर चढऩा पड़ता है। ताकि नेटवर्क मिल सके।ऐसे बच्चों को पढ़ाते समय में शिक्षक की चिंता रहती है कि कहीं घर से बाहर निकले स्टूडेंट्स को पुलिस न पकड़ ले या पेड़ से गिर न पड़े। कुल मिलाकर ऑनलाइन पढ़ाई तो ठीक है लेकिन उसके रिस्क और समस्याएं भी कम नहीं।
कोरोना के डर ने बनाया आत्मनिर्भर
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंगलवार को अपने संदेश में आत्मनिर्भर बनने पर खासा जोर दिया। उनका इशारा रोजगार और व्यवसाय को लेकर था, लेकिन लॉकडाउन और कोरोना संक्रमण के डर ने लोगों को कुछ हद तक आत्मनिर्भर बना दिया है। लोगों की छोटे-मोटे कामकाज के लिए आत्मनिर्भरता कम हुई है और उन्होंने खुद काम करने की आदत डाल ली है। वरना नेताओं से लेकर सरकारी अधिकारियों के पास हर काम के लिए अलग-अलग कर्मचारियों की तैनाती हुआ करती था। मसलन, घर के गार्डन की देखभाल के लिए माली, खाना बनाने के लिए बावर्ची, साफ-सफाई के लिए सफाई कर्मी, गाड़ी के लिए ड्राइवर और घर के दूसरे कामों के लिए अलग कर्मचारी। अब ये सब काम घर के लोग आपस में बांट कर रहे हैं। इसका फायदा यह हुआ कि बंगला ड्यूटी की परंपरा कुछ कम हुई है। इन सरकारी कर्मचारियों का मूल काम में उपयोग हो रहा है। कुल मिलाकर जिस परंपरा को कोई नहीं रोक पाया, उसे कोरोना के खौफ ने तो रोक दिया है। कहते हैं ना कि हमारे देश में भय और लालच से कोई भी काम करवाए जा सकते हैं। यहां भी भले ही भय के कारण, लेकिन बरसो से चली आ रही परंपरा पर विराम तो लगा है। अब देखने वाली बात यह है कि यह भय कितने दिनों तक रहता है।
‘अ’सरदार लोग
लॉकडाउन में फंसे मजदूरों की वापसी शुरु हो गई है, लेकिन अभी भी रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों में गए मजदूर परिवार सहित पैदल और ट्रकों में लद कर लौट रहे हैं। शहर टाटीबंध में इसका नजारा देखा जा सकता है। हालत यह है कि भूखे-प्यासे मजदूर लौट रहे हैं। यहां उनके गंतव्य तक पहुंचने की न कोई व्यवस्था है और न ही उनके खाने-पीने का कोई इंतजाम है। मजदूर जैसे-तैसे अपनी मंजिल तक पहुंचने में लगे हैं। इस दौरान सरकारी अमला पूरा गायब है। वो तो गनीमत है कि इलाके के सिख समाज के लोग वहां मजदूरों की सेवा के लिए डटे हुए हैं। उनके लिए पानी और खाने-पीने के सामान के साथ घर पहुंचाने के लिए नि:स्वार्थ मदद कर रहे हैं। उनके सेवा भाव और मजदूरों की तकलीफ को देखकर किसी का भी दिल पसीज जाएगा। समाज के लोगों की जितनी तारीफ की जाए कम है, क्योंकि वे दिन-रात थके हारे मजदूरों और परिवार जिसमें छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल हैं, उनकी तीमारदारी कर रहे हैं। इस समाज के लोगों की सेवा भावना पूरी दुनिया में मशहूर है, इस संकट के इस समय में भी इसके लोगों ने मिसाल पेश की है।
बाजार और धर्मसंकट
लॉकडाउन के बीच दूकान खोलने की अनुमति के लिए नेतागिरी करना कुछ कारोबारियों को भारी पड़ गया। हुआ यूं कि रायपुर के रेड जोन में होने के कारण सिर्फ जरूरी वस्तुओं के कारोबार की अनुमति है। राज्य शासन व्यापारियों की दिक्कतों को देखकर केन्द्र की राय के विपरीत कुछ और अनुमति देने पर विचार कर रहा था कि चेम्बर के राजनीति में हासिए पर चल रहे श्रीचंद सुंदरानी ने नाराज व्यापारियों को एकजुट करना शुरू कर दिया।
सुंदरानी को सांसद सुनील सोनी का भी साथ मिला। सुनील सोनी की कोशिश थी कि शादी-ब्याह के सीजन के चलते सराफा और कपड़ा कारोबार को अनुमति मिल जाए। सुंदरानी ने पहले रमन सिंह के मार्फत केन्द्र सरकार पर रायपुर को रेड जोन से बाहर निकालने के लिए दबाव बनाया। सुनील सोनी ने भी इसके लिए कोशिश की। मगर नतीजा सिफर रहा। अब गेंद राज्य शासन के पाले में आ गई। श्रीचंद के विरोधी कांग्रेस के व्यापारी नेता भी सक्रिय हो गए और फिर नतीजा यह हुआ कि सराफा और मोबाइल को छोडक़र बाकी सारे कारोबार के लिए सशर्त अनुमति जारी कर दी गई। सुनील सोनी और श्रीचंद की दिक्कत यह है कि वे चाहकर भी जिला प्रशासन के फैसले का विरोध नहीं कर पा रहे हैं।
कहानी कॉलर ट्यून की...
लोगों को मोबाइल पर कॉल किया जाए, तो उनके व्यक्तित्व के कई पहलू पता चलते हैं। बहुत से लोग अपनी पसंद के किसी ईश्वर की आराधना का संगीत लगाकर रखते हैं। कुछ लोगों के तो फोन लगने के पहले से उनकी धार्मिक प्राथमिकता उनके नंबरों से पता लग जाती है जब नंबर में 786 होता है जो कि मुस्लिमों के बीच बहुत शुभ नंबर माना जाता है। बहुत से लोग ऐसी अंधाधुंध शोरगुल की म्युजिक लगाकर रखते हैं कि लगता है कि उन्हें लोगों के कानों पर जरा भी रहम नहीं है। शिकायत करने पर ऐसे लोगों का आमतौर पर यह कहना रहता है कि पता नहीं किसी बच्चे ने ऐसा संगीत डाल दिया होगा, या मोबाइल कंपनियां ही किसी बटन के दबने से ऐसा संगीत फोन पर सेट कर चुकी होंगी। वैसे भाजपा सरकार जाने के बाद बहुत से अफसरों ने कई बरस से चली आ रही धार्मिक कॉलर ट्यून को बदला है, और सरकारी दफ्तर के कमरों में कहीं-कहीं गांधी के साथ नेहरू को भी टांग लिया है।
जो भी हो, अगर किसी को फोन लगाने पर उसकी ओर से आने वाला संगीत चूभने वाला हो तो उसकी शिकायत जरूर करनी चाहिए। इन दिनों चारों तरफ मोबाइल फोन पर कोरोना की कॉलर ट्यून इस तरह गूंज रही है कि लोग अब उसे सुनना उसी तरह भूल गए हैं जिस तरह सुबह आने वाली कचरा गाड़ी का संगीत अब सुनाई नहीं देता। लेकिन फिर भी किसी के लिए यह दिलचस्प प्रयोग हो सकता है कि वे राज्य के सारे विधायकों की कॉलर ट्यून, सांसदों की कॉलर ट्यून, और आईएएस, आईपीएस, आईएफएस सेवाओं के अफसरों की कॉलर ट्यून को देखें कि कौन सी कॉलर ट्यून किस तबके में अधिक लोकप्रिय है।
नमकहरामी
लॉकडाउन थ्री के अंतिम चरण में नमक की किल्लत की खबर फैल गई है। जिसके कारण लोग थोक में नमक खरीद रहे हैं। इतना ही नहीं दुकानदारों ने मनमानी कीमत में नमक बेचना शुरु कर दिया है। हालांकि सरकार ने कड़ाई करते हुए छापामार कार्रवाई की है। पुलिस की पेट्रोलिंग पार्टियां भी किराना दुकानों के सामने जाकर एनाउंसमेंट कर रही है कि अधिक कीमत में नमक बेचने पर कार्रवाई की जाएगी। इसके बावजूद बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। कल तक 60-70 रुपए किलो में बिक रहा नमक आज 40 रुपए में बिक रहा है। सुपरबाजार में जरुर नमक निर्धारित कीमत में मिल रहा है, लेकिन वहां दो से ज्यादा पैकेट खरीदने की अनुमति नहीं है। नमक को लेकर सोशल मीडिया गरम है। लोग नमक के साथ अमिताभ बच्चन की फिल्म नमकहराम को याद कर रहे हैं। सोचने वाली बात यह है कि नमक की आड में नमकहरामी कौन लोग कर रहे हैं। चर्चा है कि हमारे देश में दोनों की पर्याप्त संख्या है।
जोगी के लिए साय की प्रार्थना
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी इस समय जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। उन्हें दवाओं के साथ दुआओं की भी जरुरत है। उनके स्वास्थ्य लाभ के लिए डॉक्टरों के साथ समर्थक और जानने वाले भी अपने-अपने तरीकों से कोशिश कर रहे हैं। इसी में एक नाम है वरिष्ठ आदिवासी नेता नंदकुमार साय का। साय जोगी के लिए महामृत्यृजंय का जाप कर रहे हैं।
जबकि जोगी और साय के बीच सियासी कटुता किसी से छिपी नहीं है। जोगी जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री थे, तो साय नेता प्रतिपक्ष हुआ करते थे। दोनों अलग-अलग विचारधारा के साथ अलग-अलग राजनीतिक दल से जुड़े हैं। सीएम और नेता प्रतिपक्ष का पद भी एक दूसरे के विरोध का माना जाता है। जोगी के मुख्यमंत्रित्वकाल में साय ने उनके निवास के सामने बड़ा प्रदर्शन किया था। इस प्रदर्शन में पुलिस ने जमकर लाठियां भांजी थीं । पुलिस की लाठी खाने से साय का पैर भी फ्रैक्चर हुआ था। जोगी पर विपक्षी दल के नेताओं की आवाज को दबाने के लिए पुलिस से पिटवाने के आरोप लगे थे। उस वक्त मुकेश गुप्ता रायपुर के एसपी हुआ करते थे।
जोगी की जाति के मसले को साय कोर्ट तक ले गए थे। अनुसूचित जाति जनजाति आयोग का अध्यक्ष रहते हुए भी उन्होंने जोगी की जाति पर सवाल उठाए थे। मरवाही से साय जोगी के खिलाफ चुनाव भी लड़ चुके हैं। जिसमें साय को हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद ही उन्होंने जोगी की जाति के मसले पर कोर्ट में याचिका लगाई थी। इतना सब कुछ होने के बाद भी साय भलमनसाहत दिखाते हुए जोगी के लिए अपने तरीके से प्रार्थना कर रहे हैं। यह छत्तीसगढ़ की सियासत की खासियत है कि जिंदगी भर एक दूसरे के घोर विरोधी भी जीवन मरण के मसले पर साथ खड़े हैं।
जोगी के बारे में भी कहा जाता है कि उनके हमेशा से अपने विरोधियों से अच्छे संबंध रहे हैं। जबकि, सियासी मैदान में विरोध करते करते कब कौन किसका दुश्मन बन जाता है, यह पता भी नहीं चलता। बात व्यक्तिगत टिप्पणियों से होते हुए बुरा-भला सोच तक पहुंच जाती है। पिछले दिनों बीजेपी के एक बड़े नेता के स्वास्थ्य को लेकर कई तरह की कहानियां सोशल मीडिया में सुनने को मिल रही थीं, जिसका उन्हें खंडन करना पड़ा। हम अक्सर राजनीति में शुचिता की बात करते हैं, लेकिन जब इसके पालन करने की बात होती है, तो सभी सियासी विरोध को प्रमुखता देते हैं। ऐसे समय में साय ने गिरते राजनीतिक मूल्यों के बीच मिसाल पेश की है। हम भी आशा करते हैं कि साय और उनके जैसे तमाम भलेमनसाहत रखने वालों की प्रार्थना स्वीकार हो, ताकि राजनीति में शुचिता को मुकाम हासिल हो सके।
कोरोना गया, प्रदेश अध्यक्ष आया?
लॉकडाउन में राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम काफी सक्रिय हैं। वे वीडियो कॉन्फ्रेंस कर सरगुजा संभाग के पदाधिकारियों की बैठक ले चुके हैं। वे राज्य सरकार पर तीखा हमला बोल रहे हैं। रामविचार का कद पार्टी के भीतर काफी बढ़ा है। उन्हें झारखंड के चुनाव में अहम जिम्मेदारी दी गई थी। चुनाव नतीजे भले ही पार्टी के अनुकूल नहीं आए। मगर उन्होंने झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड विकास पार्टी के मुखिया बाबूलाल मरांडी को भाजपा में शामिल कराने में अहम भूमिका निभाई। वैसे तो मरांडी की घरवापसी के लिए अमित शाह सीधे प्रयासरत थे, लेकिन नेताम की भूमिका को नकारा नहीं जा रहा है। रामविचार प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ में भी हैं। उन्हें सरोज पाण्डेय और सौदान सिंह का साथ मिल रहा है, लेकिन चर्चा है कि पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह उनके नाम पर सहमत नहीं हो पा रहे हैं। यही वजह है कि उनके नाम की घोषणा नहीं हो पा रही है। माना जा रहा है कि कोरोना संक्रमण में कमी आते ही नए अध्यक्ष की घोषणा हो सकती है।
निर्वाचित लोग तो झांसे से बचें...
छत्तीसगढ़ के शहरों में लॉकडाऊन को लेकर जिस तरह के प्रयोग देखने मिल रहे हैं, वे लॉकडाऊन की पूरी जरूरत और नीयत, इन दोनों को खारिज कर दे रहे हैं। दारू के बारे में हम जितना लिख चुके हैं, उससे ज्यादा अब लिखने की जरूरत नहीं है क्योंकि केन्द्र सरकार ने जिस तरह दारू को खोला, उससे देश के तमाम राज्यों को चाहे-अनचाहे दारू शुरू करना पड़ा, और उसने पीने वाले तबके, और उनके संपर्क में आने वाले लोगों का शारीरिक-दूरी की, सोशल डिस्टेंसिंग की सारी कामयाबी को खत्म कर दिया। अब पाकिस्तान के एक मशहूर शायर की जुबान से, हर किसी को हर किसी से खतरा है।
लेकिन शनिवार-इतवार दो दिन के बाजार बंद के बाद आज जब बाजार खुले, तो शहर के बीच ट्रैफिक जाम हो गया। सारे दुपहिया वाले एक-दूसरे के बगल खड़े रहे, और डेढ़ महीने से चली आ रही मशक्कत किसी काम की नहीं रही। लेकिन सरकार के बीच बात की जाए तो पुलिस विभाग प्रशासनिक अधिकारियों को यह कहकर डरा देता है कि पुलिस के अमले पर वैसे भी बहुत दबाव है, काम के बोझ से वे थके हुए हैं, और ऐसे में दुकानों को खुलने के घंटे बढ़ाने का मतलब पुलिस का तनाव बढ़ाना है, और ऐसे में कभी पुलिस लाठी चलाने के बजाय गोली चला दे, तो पुलिस को जिम्मेदार न माना जाए। अब ऐसी चेतावनी के बाद प्रशासनिक अफसर ढीले पड़ जाते हैं कि कौन गोली चलने की नौबत लाए।
सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ में सुबह से रात तक दुकानों को अगर खोला जाए तो बाजार की भीड़ एकदम घट जाएगी, दुकानों पर लोगों का शारीरिक संपर्क नहीं होगा, और आज जब व्यापारी संगठनों से लेकर पार्षद और विधायक तक बाजार खोलने के हिमायती हैं, तब यह गैरजरूरी रोक-टोक खत्म होनी चाहिए। हर इलाके के पार्षद हैं, विधायक हैं, और सांसद भी अपने-अपने इलाकों में हैं। हर इलाकों के व्यापारी संगठन हैं, और इन पर जिम्मेदारी डालकर बाजार बिल्कुल सुबह से देर रात तक खोलने की छूट देनी चाहिए ताकि मुर्दा पड़ा हुआ बाजार चल सके, गरीब कारीगरों के चूल्हे जल सकें। दारू से मोटी कमाई करने वाली सरकार को भी यह समझना चाहिए कि अगर बाजार से कलपुर्जे नहीं मिलेंगे, तो मरम्मत करने वाले कारीगर भी कमा नहीं पाएंगे, और सस्ती दारू के ग्राहक टूटने लगेंगे। आज गरीब-मजदूरों, कारीगरों, छोटे-बड़े व्यापारियों के भले के लिए बाजार को बेरोक-टोक खोलने नहीं दिया जा रहा, तो कम से कम दारू की बिक्री के हित में बाजार को पूरे वक्त खुलने देना चाहिए। संक्रमण को रोकने के लिए जरूरी हो तो भी लगातार दो दिन बाजार बंद रखने के बजाय हर तीन दिन के बाद एक दिन बाजार बंद करना चाहिए, और जिन दिनों बाजार खुले, उसे चौबीसो घंटे खुले रखने की छूट रहनी चाहिए। अफसरों को एक ही कार्रवाई समझ में आती है, जिसका नाम प्रतिबंध है। इसलिए हर जगह पुलिस और प्रशासन प्रतिबंध बढ़ाकर समझ लेते हैं कि कानून व्यवस्था बेहतर हो गई है। जनता के बीच से चुनकर आने वाले विधायकों, और उनमें से बने हुए मंत्रियों को इस झांसे से बचना चाहिए।
नेताओं की अगली पीढ़ी
कांग्रेस के बड़े नेताओं के परिवार के सदस्य अब धीरे-धीरे राजनीति में कूद रहे हैं। कुछ तो आ चुके हैं, और कुछ उच्च शिक्षित युवा प्रोफेशनल कांग्रेस के जरिए राजनीति में सक्रिय हो रहे हैं। पूर्व केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर की अगुवाई में ऑल इंडिया प्रोफेशनल कांग्रेस दो साल पहले ही अस्तित्व में आया था। इसके जरिए इंजीनियर, डॉक्टर, सीए और अन्य उच्च शिक्षित लोगों को कांग्रेस से जोडऩा मकसद रहा है। छत्तीसगढ़ में प्रोफेशनल कांग्रेस का पुनर्गठन हुआ है। यहां अध्यक्ष का दायित्व संभाल रहे धमतरी के नेता पंकज महावर की जगह अब क्षितिज विजय चंद्राकर को जिम्मेदारी सौंपी गई है।
क्षितिज, दिवंगत पूर्व केन्द्रीय मंत्री चंदूलाल चंद्राकर के परिवार से हैं, और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के दामाद भी हैं। क्षितिज आईटी एक्सपर्ट हैं और वे कनाडा में काम कर चुके हैं। थरूर ने प्रोफेशनल कांग्रेस के सचिव की जिम्मेदारी सुश्री ऐश्वर्या सिंहदेव को सौंपी है। ऐश्वर्या, पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव की भतीजी हैं और जिला पंचायत सदस्य आदित्येश्वर शरण सिंहदेव की बहन है। ऐश्वर्या की पढ़ाई लंदन में हुई है। और वे महिलाओं की समस्याओं को लेकर जागरूक भी हैं। राजनीतिक परिवार से होने से पहचान को लेकर संकट नहीं है। मगर उन्हें अब प्रोफेशनल कैरियर से हटकर काम कर दिखाना होगा।
राजधानी के बल्लम नेताओं का संघर्ष
राजधानी रायपुर में कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपनी सियासी साख बचाए रखने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। 15 साल बाद पार्टी सत्ता में आई तो उम्मीद थी कि उनका भी कुछ भला होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उलटे सरकार बनने के बाद जनता की अपेक्षाएं बढ़ गई। ऐसे में विधायकी बचाए रखने के लिए जमकर पसीना बहाना पड़ रहा है। शहर के एक युवा विधायक तो अब आटो रिक्शा चलाते गली-गली घूम रहे हैं। कोरोना संक्रमण में क्षेत्र के लोगों को राशन से लेकर तमाम जरुरी सामान खुद उपलब्ध करा रहे हैं। इतना ही नहीं पानी, सफाई जैसी तमाम समस्याओं के लिए वे वार्ड वार्ड घूम रहे हैं। दरअसल, उन्होंने प्रदेश की हाईप्रोफाइल सीट से बीजेपी के बड़े नेताओं को हराया है। ऐसे में अगले चुनाव में पत्ता साफ होने का खतरा भी हो सकता है। लिहाजा नेताजी कोई कोर कसर छोड़ नहीं रहे हैं। माना जाता है कि सत्ताधारी दल के जनप्रतिनिधियों के पास लोगों को उपकृत करने के कई अवसर होते हैं, लेकिन अभी तक उन्हें यह अवसर मिला नहीं है, तो जनता से सीधा जुड़ाव रखना जरुरी है, वरना पब्लिक तो चुनाव में पूरा हिसाब-किताब चुकता कर देती है। इसी तरह रायपुर नगर निगम के एक नेताजी विपक्षी दल की सरकार में खूब चांदी काट चुके हैं, लेकिन अपनी पार्टी की सरकार बनने के बाद पद के लिए भी लाले पड़ गए थे। खैर, जैस-तैसे एडजस्ट हो पाए। चूंकि काफी मान मन्नौवल के बाद पद मिला है, तो नेताजी चुपचाप बैठने में ही भलाई समझ रहे हैं। उनको भी पता है कि ज्यादा सक्रियता दिखाने से लोगों की अपेक्षाएं बढ़ेंगी और उन्हें पूरा करने की स्थिति में हैं नहीं। हालांकि नेताजी को दिल्ली जाने का मौका मिला था, लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका। उनके बारे में कहा जाता है कि वे दिल्ली जाने से पहले ही इतने मशगूल हो गए थे, जिसका भी उन्हें नुकसान हुआ। वे सोशल मीडिया में अपनी एक पोस्ट के कारण भी चर्चा में है, जिसमें उन्होंने सरकार में नंबर टू की तारीफ की थी। हो सकता है कि कोई खिचड़ी पका रहे हों। इसी तरह राजधानी के एक और वयोवृद्ध नेताजी को उम्मीद दी थी कि सरकार बनने के बाद बड़ा ओहदा मिलेगा, लेकिन उनकी स्थिति भी जस की तस है। इंतजार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। कुल मिलाकर इन नेताओं का समय पद बचाने की चुनौती और संघर्ष में ही बीतता दिख रहा है।
अफसर का बाल-बांका नहीं
सरकार के एक मंत्री अपने विभाग के निगम में गड़बड़झाले से काफी परेशान हैं। वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने इसके लिए जिम्मेदार निगम के प्रमुख अफसर को हटाने के लिए चिठ्ठी लिखी थी, लेकिन अफसर का बाल-बांका नहीं हुआ। अब निगम में जो कुछ भी गड़बड़ हो रहा है, उसका ठीकरा मंत्रीजी पर फूट रहा है।
सुनते हैं कि अफसर, कांग्रेस के एक बड़े पदाधिकारी के करीबी हैं। ऐसे में उन्हें हटाना भी आसान नहीं रह गया है। आखिरकार मंत्रीजी ने परिस्थितियों को भांपकर अफसर की शिकायत करना छोड़ दिया है और सिफारिश की है कि अफसर को और अहम जिम्मेदारी दे दी जाए। अब देखना है कि मंत्रीजी की सिफारिश मान्य होती है, अथवा नहीं।
किराए की उम्मीद भी नहीं
लॉकडाउन के चलते कई जगहों पर किराएदार और मकान मालिक के बीच विवाद चल रहा है। शहर के मध्य में स्थित एक व्यावसायिक कॉम्पलेक्स के दर्जनभर से अधिक दुकानदार किराया नहीं पटा पा रहे हैं। ऐसे में दुकान के मालिकों ने उन्हें किराया देने अथवा दुकान खाली करने के लिए दबाव बनाया है। कुछ व्यापारी नेता इस विवाद को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। दुकान के मालिकों को समझाइश देने की कोशिश हो रही है कि दुकान बंद है। कारोबार नहीं हो रहा है। ऐसे में किराए के लिए दबाव बनाना उचित नहीं है।
कुछ इसी तरह का मिलता-जुलता मामला एक खास कारोबार से भी जुड़ा है। सुनते हैं कि इस कारोबार ने अपने दफ्तर का तीन महीने का किराया नहीं पटाया है। मकान मालिक ने जब उन पर किराया देने अथवा दफ्तर खाली करने के लिए दबाव बनाया, तो उन्होंने पीएम के उस कथन का जिक्र करते हुए लंबा चौड़ा खत लिख दिया जिसमें पीएम ने किरायादारों पर दबाव नहीं बनाने का आग्रह किया था। अब मालिक परेशान हैं, और कोरोना संकट खत्म होने तक किराए की उम्मीद भी नहीं दिख रही है।
कोरोनारुपी खुशी
सरकारी कामकाज और ठेकों में लेन-देन सामान्य शिष्टाचार माना जाता है। हालांकि यह काम भी पूरी सावधानी और कोड वर्ड में किया जाता है। जैसा कि इस समय कोरोना संक्रमण का दौर चल रहा है, लिहाजा कोड वर्ड भी उसी हिसाब से तय हो रहे हैं। चर्चा है कि इस समय कोरोना के नाम से ही लेन-देन चल रहा है। आशय यह है कि अगर किसी को कुछ देना है तो वे कोरोना देना है कहकर इशारा कर रहे हैं। अब समझदार के लिए इशारा काफी होता है, जो कोड वर्ड को समझ गए, वो खुशी-खुशी कोरोना ले रहे हैं लेकिन जो नहीं समझ पाए, उनके भाग्य में कोरोनारुपी खुशी नहीं है।
धनिया का टेंशन
छत्तीसगढ़ में खेता किसानी से जुड़े विभाग ने धनिया से तौबा कर ली है। ऐसा नहीं है कि धनिया से कोई नुकसान हो रहा है, बल्कि यह फायदे का सौदा है। खाने में तो धनिया का विशेष महत्व होता है। धनिया के बिना तो किचन अधूरा ही रहता है। अमीर-गरीब सभी के खाने में धनिया तो आवश्यक है। इसके बावजूद विभाग के लोग इससे परहेज करते हैं। उनकी समस्या यह है कि वो किसानों को धनिया बोने की सलाह भी नहीं दे सकते, क्योंकि इसके कई मतलब निकाले जा सकते हैं। समस्या केवल इतनी सी होती तो बात नहीं बिगड़ती। दरअसल, अब तो उन पर किसानों की धनिया बोने के आरोप लग रहे हैं। लिहाजा धनिया का नाम सुनते ही वे लोग टेंशन में आ जाते हैं।इसके पीछे का राज बहुतों को मालूम है।
पशोपेश में माननीय
सार्वजनिक जीवन में लोगों से मिलना-जुलना अनिवार्य माना जाता है, लेकिन कोरोना संक्रमण के इस दौर में यह किसी आफत से कम नहीं। लिहाजा, नेता-मंत्री लोगों से मेल-मुलाकात से एकदम से परहेज कर रहे हैं। हालांकि इतने से उनका काम बन नहीं रहा है। संकट के इस समय में लोग मदद के लिए बंगलों तक भी पहुंच रहे हैं। कुछ लोग फोन से लोकेशन ले रहे हैं। ऐसे में नेता-मंत्री भी बदल-बदलकर अपना लोकेशन बता रहे हैं। इससे थोड़ी बहुत राहत जरुर मिल रही है, लेकिन पूरी तरह से नहीं। जैसे-तैसे वीआईपी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं। लोगों की समस्या को सुनना और सुलझाना भी जरुरी है। इस पूरे संक्रमण काल में उनकी दिक्कत यह भी है कि ज्यादातर लोग एक जगह से दूसरी जगह या अपने प्रदेश लौटना चाहते हैं। ऐसे में नेता-मंत्री उनकी मदद नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि प्रवासियों की वापसी नियमों और सावधानी के साथ ही होनी है। फिर भी माननीय कोशिश भी कर रहे हैं। अपने विधानसभा के लोगों की ऐसी ही समस्या के लिए मंत्री बकायदा अफसरों को फोन भी कर रहे हैं, लेकिन अफसरों की भी अपनी मजबूरियां है। चाहकर भी अफसर-मंत्रियों के निर्देश का पालन नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में माननीयों की स्थिति खराब हो रही है। एक तरफ आम लोगों को लगता है कि नेता मिल नहीं रहे हैं और मशक्कत के बाद बात हो भी रही है, तो उनके काम नहीं हो रहे हैं। दूसरी तरफ अधिकारी भी नियम कानून का हवाला देकर काम नहीं कर रहे हैं। कुल मिलाकर माननीय बड़े पशोपेश में हैं कि मिले तो मुश्किल नहीं मिले तो समस्या। लोगों की समस्या को सुलझाए तो परेशानी और न सुलझाए तो बड़ी परेशानी।
मांस-मटन से खुला राज
छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता विवि के कुलपति लॉकडाउन के कारण दिल्ली में फंसे हैं, लेकिन उनकी सरकारी गाड़ी लगातार दौड़ रही है। कई बार लोगों को संशय हो जाता है कि कहीं कुलपति महोदय लौट तो नहीं गए हैं। हालांकि ऐसा है नहीं। धीरे-धीरे लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया था। इस बीच विवि के लोगों का माथा उस वक्त ठनका जब कुलपति जी की गाड़ी मांस-मटन की दुकान पर खड़ी देखी गई। दरअसल, कुलपति तो लहसून-प्याज तक नहीं खाते। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि उनकी गाड़ी मांस-मटन की दुकान में क्या करती है। इसके बारे में जानकारी जुटाई गई तो पता चला कि कुलपति जी की गाड़ी दरअसल, विश्वविद्यालय के एक बड़े साहब के जुगाड़ के लिए दौड़ रही है। अब विवि के गलियारे की यह कानाफूसी दिल्ली कुलपति जी तक पहुंच गई। उन्हें जैसे ही पता चला उन्होंने तत्काल दिल्ली से ड्राइवर को फोन करके इंक्वारी की। साथ ही रीडिंग और लॉग बुक के बारे में जानकारी ली। उन्होंने आते ही गाड़ी का लॉगबुक चेक करने के लिए ताकीद किया। इतनी पूछताछ के बाद से तो ड्राइवर सकते में है। दौड़ते-भागते उसने इसकी सूचना बड़े साहब को दी। अब देखना यह है कि मांस-मटन के लिए किस गाड़ी का उपयोग किया जाएगा। हालांकि लॉकडाउन से पहले जब कुलपति की नियुक्ति नहीं हुई थी, तब भी साहब गाडिय़ों का उपयोग करते थे, लेकिन उस समय लोगों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया था। अब जब मामला धार्मिक भावनाओं से जुड़ा है, तो इसने नया रंग ले लिया है।
किसानी का क्या होगा?
कोरोना के कारण गांव, गरीब और किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। इस दौर में गांवों में खेती किसानी चौपट हो गई है और मजदूरों को रोजगार नहीं मिल रहा है। हालत यह है कि सभी के सामने रोजी रोटी का संकट हो गया है। हालांकि सरकार का दावा है कि राज्य में किसान और गरीब दोनों की स्थिति अच्छी है। राज्य सरकार मनरेगा में काम उपलब्ध कराने में भी अव्वल रहा है। दूसरी तरफ 25 सौ रुपए समर्थन मूल्य के कारण किसान की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन राज्य के किसानों को अभी भी 25 सौ रुपए का बकाया यानि करीब पौने 7 सौ रुपए मिलने का इंतजार है। सरकार ने मई में किसानों को बकाया राशि देने का मन बनाया है। ऐसे में यह राशि किसानों के लिए काफी उपयोगी साबित होगी, क्योंकि राज्य में साग-भाजी और फलों की फसल तो खरीददार नहीं मिलने के कारण चौपट हो गई है। कोरोना के कारण उत्पन्न स्थिति का असर आने वाले कुछ सालों तक रहने वाला है। आशंका जताई जा रही है कि इस महामारी के बाद नौकरी जाने का खतरा है, लिहाजा लोग गांव की तरफ जा सकते हैं। ऐसे में ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत हो सकती है। यह सोच सही है, लेकिन इसके लिए किसानी को प्रोत्साहित करने की जरुरत है और सरकार को लघु-कुटीर उद्योगों की स्थापना के लिए पहल करनी होगी। अन्यथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चौपट होने में देर नहीं लगेगी। किसानों का मानना है कि धान के कटोरे को बचाए रखने के लिए उपज का एक-एक दाना समर्थन मूल्य पर खरीदने की जरुरत है। क्योंकि सरकार केवल 15 क्विंटल धान समर्थन मूल्य पर खरीद रही है। छत्तीसगढ़ में सरकार सूबे के खेत खलिहानों से ही निकल कर बनी है। किसानों ने बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसलिए भी बंपर जीत दिलाई, ताकि उसकी फसल का वाजिब मूल्य मिल सके। कोरोना महामारी के बाद फिलहाल तो कोई चुनाव नहीं है। संभव है कि किसानों की तरफ से सरकार का ध्यान हट जाए, जबकि खेती किसानी पर विशेष ध्यान की आवश्यकता है। फिलहाल तो इसके सियासी नफा-नुकसान नहीं है, लेकिन देर करने पर नुकसान ज्यादा हो सकता है, क्योंकि किसान बाजी पलट भी सकते हैं। 15 साल तक सत्ता में रहने के इससे एकदम से दूर हुई बीजेपी इसका दर्द अच्छे से समझ सकती है। लोगों का तो यह भी कहना है कि रमन सिंह को दिल्ली से अनुमति मिल गई होती, तो शायद पार्टी की इतनी दुर्गति नहीं होती। उम्मीद है कि उनको अब यह बात समझ आ गई होगी, लेकिन फिलहाल को समझने की बारी सरकार की है, क्योंकि कहा जाता है कि अब पछताए होत क्या जब चिडिय़ा चुग गई खेत।
शराब पर सियासत और नफा-नुकसान की कहानी
लॉकडाउन पीरियड में शराब बिक्री के पीछे राजस्व को बड़ा कारण माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि राज्य सरकारों को शराब बिक्री से करोड़ों-अरबों का राजस्व मिलता है और राजस्व नहीं मिलेगा तो राज्य की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। विकास कार्य तो रुकेंगे ही साथ ही कोरोना संकट के इस दौर में उसकी रोकथाम पर होने वाले खर्च की व्यवस्था करने में दिक्कत होगी। कुछ राज्य तो केन्द्र से राजस्व की भरपाई की शर्त पर शराब बिक्री बंद करने के लिए सहमति जता रहे हैं। कांग्रेस के संचार विभाग के अध्यक्ष शैलेश नितिन त्रिवेदी ने शराब बिक्री के मामले में बचाव की मुद्रा में कहा है कि कांग्रेस ने 5 साल के भीतर शराबबंदी का वादा किया है। नोटबंदी या लॉकडाउन की तरह शराबबंदी नहीं की जा सकती। कोरोना काल में सभी राज्यों में आर्थिक गतिविधियां शून्य हो गई हैं। राज्य सरकारों पर कर्मचारियों को वेतन देने के साथ कोरोना खर्च का बोझ है। उन्होंने यह भी कहा कि शराबबंदी समुचित व्यवस्था और राज्य के राजस्व की वैकल्पिक व्यवस्था बनाने के बाद ही की जाएगी।
कुल मिलाकर उन्होंने अपनी सरकार के शराब बिक्री के फैसले को वाजिब ठहराने के लिए तमाम दलीलें पेश की। दूसरी तरफ कांग्रेस के इन तर्कों से सामाजिक संगठन और शराबबंदी आंदोलन से जुड़े लोग सहमत नहीं है। सीए और सामाजिक कार्यकर्ता निश्चय वाजपेयी का कहना है कि शराब के राजस्व का विकल्प काफी पहले तलाश लिया गया था। कामराज के प्रस्ताव पर कांग्रेस ने पहले ही ऐसा टैक्स लगाया हुआ है। कांग्रेस ने शराब से मिलने वाले राजस्व की भरपाई के लिए सेल्स टैक्स को शराबबंदी टैक्स के रूप में लागू किया था। कई हिस्सों में शराबबंदी भी की गई। बाद की सरकारों ने शराब बिक्री तो वापस शुरू कर दी मगर शराबबंदी टैक्स यानी सेल्स टैक्स बंद नही किया। उनका कहना है कि आज भी यह टैक्स जीएसटी का एक बड़ा हिस्सा है। सरकारों को इससे शराब से कहीं अधिक राजस्व मिलता है।
देखा जाए तो शराब का मुद्दा लॉकडाउन के दौर में गरमाया हुआ है। विपक्ष के साथ सामाजिक संगठन और महिलाओं ने लॉकडाउन पीरियड में भी शराब का खुलकर विरोध शुरु कर दिया है। वे घरों की बरबादी और महिलाओं पर हो रही हिंसा के लिये शराब को जिम्मेदार मान रहे हैं। उनका मानना है कि कोरोना महामारी के कारण 45 दिनों तक प्रदेश की शराब दुकानें अचानक बंद करनी पड़ीं। इतनी लंबी अवधि तक शराब नही मिलने के बावजूद प्रदेश में कोई जन हानि नही हुई। बल्कि इसके उलट शराबियों का स्वास्थ्य सुधर गया। उनकी खुराक बढ़ गई। घरेलू हिंसा बंद हो गई। गांव मे लड़ाई-झगड़े बंद हो गए और सुख-शांति का वातावरण बन गया। ऐसे में राजस्व का बहाना कर कर शराब बेचना उचित नहीं है।
वाजपेयी ने तो यह भी मांग की है कि कांग्रेस को खुलासा करना चाहिए कि छत्तीसगढ़ के एक लाख करोड़ के सालाना बजट में से शराब से मात्र चार हजार करोड़ ही आते हैं। इसमे से 1600 करोड़ की शराब खरीदी जाती है। इसके अलावा आबकारी विभाग और आठ सौ सरकारी शराब की दुकानों पर मोटी रकम खर्च करने के बाद सरकारी खजाने मे कोई विशेष आमदनी जमा नही होती। फिर ऐसा क्या कारण है कि कोरोना महामारी के बीच वो राजस्व का बहाना बनाकर शराब दुकानों पर हजारों की भीड़ इक_ा कर रही है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर शराब बिक्री का इतना मोह क्यों है। राजनीति और प्रशासन से जुड़े लोग भी मानते हैं कि शराब बिक्री से सरकार को तो भारी भरकम कमाई होती है, साथ ही इससे होने वाली अवैध कमाई भी कई सौ करोड़ में है। यह एक बड़ी वजह है जिसके कारण सरकार किसी भी पार्टी की हो, यह सिलसिला लगातार चल रहा है।
शराब से सरकारी कमाई को कम आंकने वाले थोड़ी और तफ्तीश करेंगे तो पता चलेगा कि शराब से सरकारी खजाने में 3 से साढ़े 3 हजार करोड़ का मुनाफा होता है। निश्चित तौर पर इस बरस यह आंकड़ा और बढ़ सकता है, क्योंकि शराब के दाम में 30 फीसदी की बढ़ोतरी की है। शराब बिक्री में खर्च करीब-करीब उतना ही आना है, जितना पिछले बरस आया था। जानकारी के मुताबिक पिछले साल वेतन भत्ता, बिजली-पानी, किराया, टैक्स तमाम मद में 150-200 करोड़ के बीच खर्च हुआ था। 1350 करोड़ के आसपास की दारु खरीदी गई। जबकि बिक्री पांच हजार तीन सौ करोड़ से अधिक की हुई थी। इस तरह शराब से आमदनी का मोटा अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी शराब से हो रही बरबादी के आगे इस मुनाफे को न्यूनतम आंका जाना चाहिए।
राजधानी में जनता पर नजर रखी जा रही?
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में क्या कोई कंपनी लोगों पर नजर रखने और निगरानी करने की तरकीबें सार्वजनिक जगहों पर लगाने जा रही है? ये सवाल कल तब उठा जब इस अखबार को ऐसा एक गोलमोल प्रेस नोट मिला जिसमें ऐसी जानकारी दी गई थी, और एक कंपनी का नाम भी लिखा हुआ था कि वह शहर में कैमरे और निगरानी उपकरण लगाने जा रही है। कंपनी की ओर से फोन करने वाली महिला से जब पूछा गया कि शहर में ऐसा करने की इजाजत उन्हें सरकार की किस विभाग से मिली है, तो कुछ मशक्कत के बाद उसने यह जानकारी दी कि स्मार्ट सिटी ने उन्हें यह इजाजत दी है। जब इस बारे में स्मार्ट सिटी के एमडी सौरभ कुमार से पूछा गया कि उन्होंने ऐसी किसी कंपनी का नाम भी सुना हुआ नहीं था। उन्होंने साफ-साफ बताया कि किसी भी कंपनी को ऐसा कुछ करने की कोई इजाजत नहीं दी गई है।
अब आज कोरोना की रोकथाम के नाम पर कोई भी सरकार, कोई भी कंपनी लोगों की निजी जिंदगी में ताकझांक करने वाली टेक्नालॉजी का इस्तेमाल करना राष्ट्रवाद मान रही हैं। केन्द्र सरकार के लाए गए एक आरोग्य-सेतु नाम के मोबाइल ऐप के बारे में कहा गया है कि वह लोगों के कोरोनाग्रस्त होने पर उनके बचाव और उनसे बचाव का काम करेगा। लेकिन इसमें जुटाई जा रही जानकारी को लेकर देश के बहुत से लोगों को आशंका है कि सरकार में बैठे लोग अगर चाहेंगे तो इसे निगरानी और जासूसी के एक औजार और हथियार की तरह भी इस्तेमाल कर सकेंगे। कल ही एक फ्रेंच हैकर ने ट्विटर पर यह पोस्ट किया था कि भारत सरकार के आरोग्य सेतु नाम के मोबाइल ऐप में गंभीर समस्याएं हैं और भारत सरकार जानना चाहती है तो उससे संपर्क करे। आज उसने पोस्ट किया है कि भारत सरकार की ओर से उससे संपर्क किया गया और उसने इस ऐप की कमजोरी की जानकारी दे दी है। अब वह लिख रहा है कि वह इंतजार कर रहा है कि भारत सरकार इस ऐप की मरम्मत कर लेती है तो ठीक है, वरना वह इस कमजोरी को उजागर करेगा।
अब छत्तीसगढ़ की राजधानी में निगरानी रखने वाले ऐसे कैमरों या टेक्नालॉजी या दोनों को लगाने का दावा करने वाली कंपनी ने इस अखबार के मांगने पर कल से आज तक उसे मिली किसी इजाजत का कागज भी नहीं दिखाया है, दूसरी तरफ स्मार्ट सिटी ने उसके दावे का खंडन किया है। वीहांत टेक्नालॉजीज नाम की यह कंपनी कई तरह की निगरानी रखने की तकनीक का दावा तो कर रही है, लेकिन जनता के निजता के अधिकार की निगरानी रखने वाले अखबार के एक साधारण से सवाल के जवाब में उसने चुप्पी साध ली है। अब यह कंपनी और स्मार्ट सिटी प्रा.लि. दोनों तो सच बोलते हो नहीं सकते। राज्य सरकार की पुलिस में साइबर महकमा देखने वाले अफसरों को भी ऐसी किसी कंपनी और ऐसी किसी निगरानी की कोई खबर नहीं है। कुल मिलाकर यह जांच के लायक एक पुख्ता मामला है।
एक तो कोरोना, फिर गर्मी से बेहाल...
वैसे तो लॉकडाउन के बीच सरकारी दफ्तरों में एक तिहाई अधिकारी-कर्मचारियों के साथ कामकाज शुरू हो गया है। मंत्रालय का हाल यह है कि प्रमुख सचिव-सचिव स्तर के ज्यादातर अफसर बंगले से ही काम कर रहे हैं। कुछ अफसर शहर में स्थित अपने विभाग के निगम-मंडल दफ्तरों में बैठकर काम निपटा रहे हैं। मंत्रालय में नहीं बैठने की एक वजह यह भी है कि वहां सेंट्रल एसी को बंद कर दिया गया है। कुछ के कमरे में पंखा जरूर लग गया है, लेकिन गर्मी इतनी है कि वहां काम करना मुश्किल हो गया है।
छोटे अधिकारी-कर्मचारियों का तो और बुरा हाल है। अवर सचिव स्तर के एक अफसर ने इधर-उधर से अपने लिए एक टेबल फैन का जुगाड़ कर लिया था। वे थोड़ी देर हवा ले पाए और किसी काम से सीनियर अफसर के कक्ष में गए। वापस लौटे, तो उनका पंखा गायब था। पंखा उनका अपना तो था नहीं, इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कह पाए। गर्मी के बेहाल कर्मचारियों सीएस से मिलने भी गए और सीएस ने भरोसा दिलाया कि एक हफ्ते के भीतर सभी कक्ष में पंखा लगा दिया जाएगा। तब तक तो कर्मचारी पसीना-पसीना हो रहे हैं।
नींद उड़ा दी है
सरकार के एक दफ्तर में अफरा-तफरी का माहौल है। वजह यह है कि दफ्तर के चपरासी के बेटा का दोस्त कोरोना पीडि़त है। पहले यह खबर उड़ी थी कि चपरासी का बेटा ही कोरोना पीडि़त है। बाद में चपरासी ने वस्तु स्थिति स्पष्ट की, तब कहीं जाकर अफसरों ने चैन की सांस ली, लेकिन आपसी चर्चा में छत्तीसगढ़़ से जुड़ी एक और खबर ने उनकी नींद उड़ा दी है।
छत्तीसगढ़ के चीफ जस्टिस रहे और लोकपाल सदस्य अजय कुमार त्रिपाठी की कोरोना से मौत हो गई। पूर्व चीफ जस्टिस सीधे कोरोना संक्रमित नहीं थे। बल्कि पहले उनका रसोईया कोरोना पीडि़त हुआ। इसके बाद पूर्व चीफ जस्टिस की बेटी कोरोना संक्रमित हो गई और फिर पूर्व चीफ जस्टिस भी इसकी जद में आ गए। कोरोना के तेजी से फैलाव को देखते हुए अफसरों ने चपरासी और उनके बेटे को कोरोना टेस्ट कराने के लिए कहा है। जब तक रिपोर्ट नहीं आ जाती, तब तक बैचेन रहना स्वाभाविक है।
शराब दुकान या हॉट स्पॉट
लॉकडाउन में शराब बिक्री हॉट टॉपिक है। इस फैसले की चौतरफा चर्चा हो रही है। शराब प्रेमी इसके फायदे बता रहे हैं, तो दूसरा तबका इसकी आलोचना कर रहा है। पक्ष-विपक्ष भी एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं, लेकिन इतना तो तय है कि सरकारें शराब बेचना चाह रही है। उनकी दुविधा यह है कि कोई इसे अपने सिर पर लेना नहीं चाहते। यही वजह है कि राज्य सरकारें केन्द्र का निर्देश बता रही हैं, तो केन्द्र का कहना है कि यह राज्य सरकारों पर निर्भर है। पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने बस खुलकर शराब बिक्री की वकालत की थी। उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ बैठक में इस मुद्दे को उठाया था।
दरअसल पंजाब जैसे राज्य में शराब खुली संस्कृति का हिस्सा है, इसलिए कैप्टन ने सहजता से अपनी बात रख दी, लेकिन छत्तीसगढ़ सहित दूसरे राज्यों में ऐसी स्थिति नहीं है, यहां पंजाब की तरह खुलकर शराब का चलन नहीं है । परंपराओं और संस्कृति से परे फिलहाल मसला कोरोना संक्रमण का है। जिस तरह से शराब दुकानों में भीड़ उमड़ी उससे तो निश्चित तौर पर संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ गया है। सोशल डिस्टेसिंग को बनाये रखने में छत्तीसगढ़ में ऑनलाइन बिक्री की व्यवस्था की गई है और दिल्ली में 70 फीसदी का टैक्स लगाया जा रहा है। इन दोनों तरीकों से शराब जैसी सामाजिक बुराई से निपट पाना मुश्किल है। क्योंकि गरीब और मजदूर वर्ग में शराब को लेकर समस्या ज्यादा है। वो ऑनलाइन शराब खरीदेगा इसकी संभावना कम ही दिखती है, लिहाजा भीड़ तो रहने ही वाली है। दूसरी तरफ दाम बढ़ाने से भी असर मजदूर वर्ग पर पड़ेगा और शराब नहीं मिलने से वे हिंसा पर उतारु हो सकते हैं। ऐसे स्थिति में उसके दुष्परिणाम ही ज्यादा नजर आ रहे हैं।
इस बीच एक तथ्य यह भी सामने आया है कि लॉकडाउन के पीरियड में बड़ी संख्या में शराब के आदी इससे दूर हुए हैं। मजदूर और गरीब वर्ग में सुख शांति का वातावरण निर्मित हुआ था। ऐसे में यह समय शराबबंदी की तरफ कदम अच्छा फैसला हो सकता है। क्योंकि दुकान खुलते ही शराब बिक्री के आंकड़े बताते हैं कि जो लोग शराब से दूर थे, वे फिर से इसकी ओर लौट गए हैं। अलग अलग स्त्रोतों से जो जानकारी मिल रही है उसमें कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ के लगभग सभी जिलों ने बिक्री के पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। सरगुजा जिले के एक आबकारी अधिकारी का दावा है कि उनके जिले में एक दिन में 65 लाख की दारु बिक गई। पूरे प्रदेश में 25 करोड़ की शराब बिक्री की जानकारी मिल रही है।
क्वॉरंटीन में रहने के बजाए
कोरोना संक्रमण के चलते दूसरे राज्यों से आने वाले अफसरों-कर्मियों को 14 दिन तक क्वॉरंटीन में रहना अनिवार्य किया गया है। मगर सरकार के इस निर्देश का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन हो रहा है। सरकार के एक निगम के एमडी दो-तीन पहले ही कोरोना संक्रमण से बुरी तरह प्रभावित राज्य में करीब डेढ़ महीना गुजारने के बाद लौटे हैं। उन्होंने लौटने के बाद क्वॉरंटीन में रहने के बजाए दफ्तर जाना शुरू कर दिया है। वे रोजाना बैठक ले रहे हैं।
सुनते हैं कि अफसर की बैठकों से निगम के बाकी अफसर असहज महसूस कर रहे हैं। वे ज्यादा कुछ नहीं बोल पा रहे हैं। चर्चा है कि अफसर को अपने तबादले का अंदेशा है। वे प्रतिनियुक्ति पर हैं और उनके विभाग के एक-दो को छोडक़र बाकी अफसर अपने मूल विभाग में जा चुके हैं। ऐसे में अफसर पुराना कोई हिसाब-किताब बाकी नहीं रखना चाह रहे हैं और इन सब वजहों से कोरोना की गाइडलाइन को नजर अंदाज कर ओवरटाईम कर रहे हैं।
पहली बोतल पर सम्मान
महासमुंद से भी एक खबर आई कि वहां की महिलाओं ने शराब की पहली बोतल लेने वाले को माला पहनाकर उसकी फोटो वायरल की। कुल मिलाकर महिलाएं अपने स्तर पर विरोध में उतर गई हैं। एक अलग बात है कि शराबियों पर उसका असर कम ही पड़ा है। वे तो शराब के नशे में सबकुछ भूलकर दारु के जुगाड़ में ही लगे हैं। दुकाने खुलने के पहले ही दिन सोशल मीडिया के जरिए जो रुझान मिल रहे हैं, उससे पता चलता है कि शराब के पक्ष में तरह तरह के दलील पेश कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था इसी से चल रही है तो किसी की दलील है कि शराब से ही विकास संभव है। विकास या बरबादी से बड़ा मुद्दा कोरोना संक्रमण का है, जिसमें सरकार से लेकर आम आदमी की भागीदारी आवश्यक है।
महिलाओं का मोर्चा
ऐसे में साफ है कि लोग शराब का स्टॉक भी कर रहे होंगे। कीमत ज्यादा होने का भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। यही स्थिति रही तो आने वाले दिनों में शराबबंदी का आंदोलन एक फिर जोर पकड़ सकता है, क्योंकि इससे प्रदेश की महिलाएं और बेटियां सर्वाधिक परेशान हैं। घरेलू हिंसा और सडक़ों पर छेड़छाड़ उनकी लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है। जांजगीर चांपा के गांव कापन में तो वहां की महिलाओं ने लॉकडाउन के दौरान ही बड़ी संख्या में इक_ा होकर शराब दुकान के खिलाफ प्रदर्शन किया। उन्होंने वहां शराब दुकान खुलने नहीं दी। लाठी-डंडे और बैनर पोस्टर के साथ इन महिलाओं ने पूरे प्रदेश की महिलाओं को संदेश दिया है। प्रदर्शन के दौरान उन्होंने न केवल सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया, बल्कि मास्क लगाकर सुरक्षित तरीके से अपनी बात शासन तक पहुंचाई। यहां पुलिस के अधिकारियों ने धारा 144 लगे होने का हवाला देकर गिरफ्तारी तक की चेतावनी दी गई, लेकिन महिलाओं ने अपना प्रदर्शन जारी रखा और दुकान नहीं खुलने दी। दूसरी तरफ पूरे प्रदेश ने उन तस्वीरों को भी देखा है जिसमें पुलिस के जवान धारा 144 के बीच शराब बिकवा रहे थे। ऐसे में कामकाज और परिवार को छोडक़र सडक़ों पर उतरीं उन महिलाओं की पीड़ा को समझा जा सकता है कि शराब के कारण उन्हें किस कदर परेशानी है। यही वजह है कि पुलिसिया धमकी भी बेअसर साबित हुई।
शराब दुकानों की भीड़
छत्तीसगढ़ में 40 दिन के लॉकडाइन के बाद सोमवार से शराब की दुकानें खुलीं। राजधानी रायपुर से लेकर पूरे प्रदेश की तमाम जगहों से शराब दुकानों में भीड़ के नजारे देखने मिल रहे हैं। सुबह दुकान खुलने से पहले ही वहां मदिराप्रेमी इक_ा होने शुरु हो गए थे और थोड़ी ही देर में दुकानों पर कई सौ मीटर की लंबी लंबी कतारें दिखाई देने लगी। वॉकर के सहारे भी चलकर लोग शराब लेने पहुंचे थे, तो कोई अपने साथ परिवार के सदस्यों के साथ लाइन में खड़े थे। कोरोना युग में किसी को इस बात का ध्यान नहीं था कि पर्सनल या सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना है। हालांकि लोग मास्क या गमछा बांधकर जरुर आए थे, लेकिन कोरोना से ज्यादा भय इस बात का था कि कोई पहचान न लें। इस लिहाज से उनके लिए गमछा या मास्क जरुर उपयोगी साबित हुआ। शहर से दूर या गांव के इलाकों में खेत-खलिहान तक में लाइन लगी हुई थी। कुल मिलाकर शराब के लिए लोगों की तड़प का अंदाजा लाइन देखकर लगाया जा सकता था। दूसरी तरफ शराब दुकानों पर मदिराप्रेमियों की भीड़ देखने के लिए मीडिया के लोगों के साथ-साथ आम लोग भी मोबाइल कैमरे के साथ तैनात थे। लिहाजा शराब प्रेमी बचते बचाते शराब लेते दिखाई दिए। उधर, सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म शराब दुकानों के वीडियो और तस्वीरों से भरे पड़े हैं। इसके साथ लोग सरकारों को कोस भी रहे हैं कि ऐसे महामारी के समय में शराब दुकान खुलवाकर अपनी नीयत को जाहिर किया है, लेकिन लोग जानते हैं कि उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने 15 दिन पहले शराब और बीयर बनाने वाली डिस्टलरी को खोलने का आदेश दे दिया था। वहां तो बीजेपी की सरकार है और उसके मुखिया एक योगी हैं। ऐसे में कांग्रेस शासित राज्यों में बीजेपी के लोगों को तो विरोध करने का हक ही नहीं बनता। खैर राजनीति में तो आरोप-प्रत्यारोप एक आम बात है। विपक्षी दल का काम ही है कि सरकार की नीतियों और कामकाज की आलोचना करे। वही दल सत्ता में आता है तो उसका भी आचरण वैसे ही हो जाता है।
स्कूटर सवार सीएस के अफसर
कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए केन्द्र हो या राज्य, हर संभव कोशिश कर रही है। ऐसे मौके पर प्रशासन की भूमिका बेहद अहम रहती है। मगर प्रदेश में एक-दो जिलों में कलेक्टरों का रवैया गैर जिम्मेदाराना रहा है। सुनते हैं कि सीमावर्ती जिले के एक कलेक्टर के खिलाफ तकरीबन रोजाना शिकायत कमिश्नर तक पहुंच रही है। कमिश्नर ने कलेक्टर के गैरजिम्मेदाराना रूख की शिकायत प्रशासनिक मुखिया तक पहुंचाई है। मगर कलेक्टर इससे बेपरवाह हैं। वे आम लोग तो दूर, कुछ सीनियर अफसरों और जनप्रतिनिधियों का भी फोन नहीं उठाते। अक्सर उनका मोबाइल बिजी मोड में रहता है।
एक सीनियर अफसर बताते हैं कि ट्रेनिंग के दौरान आम लोगों की शिकायतें सुनने की सीख दी जाती रही है। अविभाजित मध्यप्रदेश में तो कलेक्टर सुविधाएं न होने के बावजूद आम लोगों की समस्याओं के निराकरण के लिए इतने तत्पर रहते थे कि वे साइकिल या अन्य दोपहिया वाहन से लोगों के बीच पहुंच जाते थे। खुद मौजूदा सीएस आरपी मंडल भी सडक़-सफाई व्यवस्था देखने के लिए अक्सर स्कूटर से निकल जाते हैं। मगर नए कलेक्टर, सीएस की कार्यप्रणाली से भी कोई प्रेरणा नहीं ले रहे हैं। सीमावर्ती जिले के इस कलेक्टर की हरकत से अब कोरोना के मामले में उनका जिला संवेदनशील होता जा रहा है।
मजदूर भी मंजूर नहीं
छत्तीसगढ़ के जिले-जिले से मनरेगा में मजदूरी देने के जो आंकड़े आ रहे हैं, वे कामयाबी पर हैरान करते हैं. यह राज्य देश में रोजगार देने में अव्वल साबित हो रहा है. जबकि गाँव में हालत यह है कि जगह-जगह लोगों ने सडक़ें काट दी हैं, बाहर के किसी को गाँव में घुसने नहीं दिया जा रहा. प्रधानमंत्री सडक़ योजना के लोगों को जाकर काम नहीं करने दिया जा रहा. किसी ने ठीक ही कहा था कि कोरोना से सावधानी में गाँव आगे हैं, वे अधिक सतर्क हैं. शहरी कॉलोनियों में तो लोग दूसरे शहर से आकर घर घुस जा रहे हैं, लेकिन गाँव में तो आये हुए लोगों को बाहर ही स्कूल जैसी किसी बिल्डिंग में ठहरा दिया जा रहा है. सरकारी रोजगार के कामों में इस वजह से भी दिक्कत आ रही है।
एलके जोशी की यादें...
कोई अफसर वैसे तो अपने राजनीतिक मुखिया के बढ़ाए किसी महत्वपूर्ण समझी जाने वाली कुर्सी पर पहुंचते हैं, लेकिन वहां पहुंच जाने के बाद वे अपने राजनीतिक-मुखिया को चढ़ाने या गिराने के काफी हद तक जिम्मेदार रहते हैं। कोई सत्तारूढ़ नेता उतने ही कामयाब हो सकते हैं जितने अच्छे अफसर वे अपने आसपास रखते हैं। कल दिल्ली में जब अविभाजित मध्यप्रदेश के एक रिटायर्ड आईएएस एलके जोशी गुजरे तो लोगों को याद आया कि वे मोतीलाल वोरा के मुख्यमंत्री रहते हुए उनके जनसंपर्क सचिव थे, और फिर जब मोतीलाल वोरा उत्तरप्रदेश के राज्यपाल बने, तब भी उन्होंने एलके जोशी को साथ राजभवन ले जाने की समझदारी दिखाई थी। नतीजा यह था कि वोराजी की कामयाबी से बढक़र उनकी शोहरत होती चली गई। ऐसा नहीं कि वे काबिल नहीं थे, लेकिन बहुत से लोग काबिल रहते हुए भी जनता तक अपनी खूबी नहीं पहुंचा पाते, और एलके जोशी ने इस मामले में वोराजी के लिए खूब काम किया था।
एमपी-छत्तीसगढ़ के ही एक दूसरे अफसर सुनिल कुमार को देखें, तो वे वोराजी के वक्त उनका जनसंपर्क देख चुके थे, अर्जुन सिंह के वक्त वे उनके साथ दो-दो बार दिल्ली में रहे, और उनके सबसे काबिल और पसंदीदा अफसर थे। छत्तीसगढ़ राज्य बना तो वे अजीत जोगी के सचिव भी रहे, जनसंपर्क सचिव भी रहे, और इस राज्य को खड़ा करने में वे बुनियाद के एक बड़े पत्थर रहे। भाजपा के मुख्यमंत्री रमन सिंह लगातार सुनिल कुमार को दिल्ली से वापिस बुलाने में लगे रहे, और आखिर में जब वे लौटे, तो उनको मुख्य सचिव भी बनाया, और रिटायर होने के बाद दिल्ली से बुलाकर योजना मंडल उपाध्यक्ष बनाया, साथ में अपना सलाहकार भी बनाया।
कल एलके जोशी के गुजरने की खबर आने के बाद छत्तीसगढ़ में बसे कुछ रिटायर्ड बड़े अफसरों ने फोन करके इन सब बातों को याद किया, और कहा कि उन्होंने वोराजी को भोपाल से लेकर लखनऊ तक, उनके कद से खासा अधिक बड़ा पेश किया। लेकिन पहली खूबी तो वोराजी की ही थी जो कि उन्होंने एक काबिल व्यक्ति को छांटा था। जोशी की बहुत सी यादें लोगों के पास हैं, जो कि बाकी अफसरों के लिए एक मिसाल भी हो सकती हैं।
एक काबिल अफसर का निलंबन खत्म
आखिरकार भारतीय वनसेवा के अफसर एसएस बजाज का निलंबन खत्म हो गया। उनकी जल्द ही पोस्टिंग भी हो जाएगी। बजाज को नवा रायपुर के पौंता चेरिया में नई राजधानी के शिलान्यास स्थल को आईआईएम को देने के पुराने प्रकरण पर निलंबित कर दिया गया था। हालांकि बजाज की सीधे कोई भूमिका नहीं थी। जमीन देने का फैसला एनआरडीए बोर्ड का था, और इसके चेयरमैन तत्कालीन मुख्य सचिव पी जॉय उम्मेन थे। खैर, बजाज की साख अच्छी रही है और यही वजह है कि आईएफएस अफसर उनकी बहाली के लिए लगातार प्रयासरत थे।
बजाज के इंजीनियरिंग कॉलेज के दिनों के साथी कांग्रेस के संचार विभाग के अध्यक्ष शैलेष नितिन त्रिवेदी ने भी सीएम से मिलकर बजाज की बहाली के लिए गुजारिश की थी। नियमानुसार आईएफएस अफसर को राज्य सरकार एक माह के लिए निलंबित कर सकती है, लेकिन बाद में विधिवत केन्द्र से अनुमति लेनी पड़ती है। केन्द्र ने निलंबन को लेकर कुछ बिंदुओं पर जवाब भी मांगा था। मगर राज्य ने निलंबन आगे बढ़ाने में कोई रूचि नहीं दिखाई। इसके बाद बजाज का निलंबन स्वमेव खत्म हो गया। सरकार भी अब उनकी योग्यता और अनुभव का पूरा लाभ लेना चाह रही है। वैसे अभी भी विभाग से जुड़े तमाम विषयों पर उनसे काम लिया जा रहा है। मगर उनके पास कोई प्रभार नहीं है, लेकिन जल्द ही उनको काम मिलने के संकेत हैं।
बृजमोहन के विरोध का राज
पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का शुक्रवार को जन्मदिन था। वैसे तो हर साल बृजमोहन के जन्मदिन पर प्रदेशभर में जलसा होता है। मगर इस बार कोरोना प्रकोप के चलते बृजमोहन ने जन्मदिन नहीं मनाने का निर्णय लिया था। वे होम आइसोलेशन में हैं। और उन्होंने अपने समर्थकों को हिदायत भी दी थी कि वे घर न आएं, लेकिन तमाम हिदायतों के बाद भी बड़ी संख्या में समर्थक बंगले में जुट गए। बस फिर क्या था कांग्रेस प्रवक्ता विकास तिवारी को मौका मिल गया और उन्होंने रेड जोन में होने के बाद भी मंत्री समर्थकों द्वारा लॉकडाउन का उल्लंघन करने पर सोशल मीडिया में जमकर खिंचाई की।
विकास तिवारी पिछले कुछ समय से बृजमोहन के खिलाफ आक्रामक अभियान चला रहे हैं। आमतौर पर कांग्रेस के लोग बृजमोहन के खिलाफ कुछ बोलने से बचते हैं। वजह यह है कि पिछले 15 सालों में सरकार में रहते हुए बृजमोहन ने कांग्रेसी मित्रों का पूरा ख्याल रखा और उनकी निजी जरूरतों को हर संभव पूरा करने की कोशिश की। हालांकि विकास तिवारी भी भाषा पर संयम रखते हुए बृजमोहन के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। वैसे उनका यह अभियान पार्टी से परे, कुछ निजी भी है।
सुनते हैं कि ब्राम्हणपारा वार्ड में विकास की पत्नी चुनाव मैदान में थी। विकास की पत्नी की जीत सुनिश्चित लग रही थी, तभी बृजमोहन की ब्राम्हणपारा वार्ड में इंट्री हुई और भाजपा की बागी पूर्व पार्षद प्रेम बिरनानी की पत्नी ने अधिकृत प्रत्याशी के पक्ष में नाम वापस ले लिया। बृजमोहन ने यहां रोड शो और डोर-टू-डोर प्रचार किया। इन सबके चलते विकास की पत्नी चुनाव जीतने से रह गईं। चूंकि बृजमोहन ने यहां अतिरिक्त मेहनत कर दी है, तो विकास भी उनके खिलाफ दिन-रात एक कर रहे हैं।लेकिन एक बात और है, राजधानी रायपुर में कांग्रेस के हर नौजवान की हसरत रहती है कि पार्टी उसे बृजमोहन के खिलाफ चुनाव लडऩे का मौका दे. यही हसरत लिए हुए कई नौजवान बूढ़े भी हो गए. इसलिए भी कई कांग्रेसी बृजमोहन के मुकाबले खुद को पेश करने में लगे रहते हैं. चुनाव के वक्त सुना है कि यह बड़े फायदे का भी होता है।
कोटा के बच्चों को प्राथमिकता का कोटा !
राजस्थान के कोटा से हजारों बच्चों को छत्तीसगढ़ सरकार तो लेकर आ गयी, लेकिन समाज के बहुत से तबकों ने सवाल उठाये कि वे वहां पढ़ाई तो नहीं कर रहे थे, वे तो आगे के बड़े कॉलेजों में दाखिले के मुकाबले के लिए कोचिंग ले रहे थे. इस कोचिंग की फीस और वहां रहने का खर्च ही कम से कम लाख रूपये सालाना होता है. ऐसे में सरकार क्यों उनको लाने का खर्च करे? सरकार के लोगों का कहना है कि करीब सौ बसों को हजार किलोमीटर भेजना, वापिस लाना, पुलिस और स्वास्थ्य कर्मचारियों को साथ भेजना, रास्ते के खाने का इंतजाम, और अब 14 दिनों के क्वॉरंटीन का खर्च, कोटा पर राज्य सरकार का एक करोड़ से अधिक का खर्च आ रहा है।
अब लोगों का यह कहना है कि जो मां-बाप लाख रूपए सालाना या और अधिक खर्च करके बच्चों को कोटा में कोचिंग दिला रहे हैं, उन्हें खुद होकर सरकार को यह लागत चुकानी चाहिए। लेकिन अब तक खबरों में हजारों मां-बाप में तो दो-चार की भी मुख्यमंत्री राहत कोष में कोई रकम देने की खबर भी नहीं आई है। सरकारी खजाना तो सभी का होता है, और छत्तीसगढ़ की गरीब आबादी का हक उस पर अधिक है, ऐसे में लोगों को लग रहा है कि गरीब के हक की रकम संपन्न बच्चों पर खर्च की गई, और ये बच्चे कोटा की कोचिंग से लौटकर दूसरे गरीब बच्चों को इन्ट्रेंस एग्जाम में पीछे छोड़ेंगे। लेकिन सरकार का काम इसी तरह चलता है, और उसमें राजनीतिक-न्याय अधिक होता है, सामाजिक-आर्थिक न्याय कम। अब अगर कोटा में पढ़ रहे कुछ हजार बच्चों के समाज में बेहतर हालत वाले मां-बाप की तरह प्रवासी मजदूरों के लिए कहने वाले भी कुछ वजनदार लोग होते तो हो सकता है कि पहली बारी उन लोगों की आती जो कि सडक़ किनारे, बेघर, बेसहारा, बेरोजगार पड़े हुए हैं। अब जब ट्रेन से मजदूरों को उनके इलाकों में पहुंचाने की बात शुरू हुई है, तो केन्द्र और राज्यों के बीच यह बहस भी चल रही है कि ट्रेन का खर्च कौन उठाए। केन्द्र सरकार अगर राज्यों को उसके मजदूरों को पहुंचाने का बिल वसूलने का सोच रही है, तो यह बहुत ही शर्मिंदगी की बात होगी। इस बीच छत्तीसगढ़ में जहां कोटा से लौटे हुए बच्चों को रखा गया है, वे खाना खराब मिलने की शिकायत कर रहे हैं, कई बच्चे और उनके मां-बाप कमरों के एसी न होने की बात कह रहे हैं, कुछ का कहना है कि उन्हें पश्चिमी शैली का शौचालय ही लगता है, और अधिकतर बच्चों ने गद्दे नापसंद कर दिया है। सडक़ किनारे मजदूर इनमें से किसी बात की शिकायत नहीं कर रहे, क्योंकि इनमें से खाना छोड़ उन्हें और कुछ भी नहीं मिल रहा है, और खाने के बारे में अधिकतर जगहों का यह कहना है कि दिन में एक वक्त मिल जाए तो भी बहुत है, और उससे एक वक्त का पेट भी भर पाए तो भी बहुत है। कोटा न हुआ, प्राथमिकता का कोटा हो गया। ऐसे तमाम बच्चों के मां-बाप मुख्यमंत्री राहत कोष में कम से कम 25-25 हजार रूपए तो दें। सरकार तो इन बच्चों के साथ कोटा में अगर मां-बाप भी रह रहे थे, तो उनको भी साथ लेकर आई है, और उनको भी क्वॉरंटीन में ठहराया है।
अकेले भूपेश मैदान में ?
केन्द्र सरकार ने लॉकडाऊन-3 शुरू करते हुए जो निर्देश जारी किए हैं, उनमें 65 बरस से अधिक और 10 बरस से कम उम्र के लोगों को घर से बाहर न निकलने की कड़ी सलाह दी गई है। कहा गया है कि केवल मेडिकल जरूरत पर ही वे बाहर निकलें। अब छत्तीसगढ़ सरकार में एक दिलचस्प तस्वीर बन रही है। विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत, स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव, और गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू सभी 65 बरस से अधिक के बताए जा रहे हैं, और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इन सबके बीच अकेले हैं जिनका यह पूरा कार्यकाल भी उन्हें 65 तक नहीं पहुंचाएगा। सरकार में ऊंचे ओहदे पर बैठे एक आदमी ने मजाक किया, भूपेश मोदी सरकार के चाहे कितना टकराव मोल लेते हों, मोदी सरकार ने राज्य में अकेले उन्हीं को काम करने का मौका दिया है, बाकी सभी को घर बैठना है।
मॉक ड्रिल किससे पूछकर?
कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए धमतरी जिला प्रशासन की मॉकड्रिल विवादों में घिर गई है। इस मॉकड्रिल के चलते बुधवार करीब 4 घंटे तक पूरे धमतरी शहर में तनाव का माहौल रहा। बाद में प्रशासन ने जब वस्तु स्थिति स्पष्ट की, तब कहीं जाकर लोगों ने राहत की सांस ली। भाजपा सांसद सुनील सोनी ने इस मॉकड्रिल पर कड़ी आपत्ति जताई है और उन्होंने सीधे-सीधे प्रशासन को अपने इस कृत्य के लिए एम्स प्रबंधन और स्वास्थ्य टीम से माफी मांगने तक की सलाह दे डाली।
धमतरी में न तो कोरोना इलाज की सुविधा है और न ही जांच के लिए कोई लैब तैयार है। ऐसे में कोरोना से बचाव के लिए जनजागरूकता अभियान चलाने के बजाए मॉकड्रिल के नाम पर भय का वातावरण बनाने की कड़ी आलोचना हो रही है। सुनते हैं कि धमतरी कलेक्टर ने मॉकड्रिल से पहले प्रभारी मंत्री से चर्चा तक नहीं की थी, लेकिन भाजपा के एक पूर्व मंत्री को विश्वास में लिया था और अपनी सारी योजनाओं से अवगत कराया था। पूर्व मंत्री ने तो मॉकड्रिल से असहमत होने के बाद भी कलेक्टर का साथ देते हुए खामोशी ओढ़ ली, लेकिन भाजपा के बाकी नेता कलेक्टर पर पिल पड़े हैं। अब चाहकर भी पूर्व मंत्री, कलेक्टर का बचाव भी नहीं कर पा रहे हैं।
सुब्रमण्यिम के रहने का फायदा मजदूरों को
जम्मू-कश्मीर में दो सौ से ज्यादा 36गढ़ी मजदूर फंसे हैं। मगर प्रशासन उनकी अच्छी तरह देखभाल कर रहा है, और मजदूर भी मोटे तौर पर प्रशासनिक व्यवस्था से खुश हैं। यह सब इसलिए भी हो पा रहा है कि जम्मू-कश्मीर के चीफ सेक्रेटरी बीवीआर सुब्रमण्यिम हैं, जो छत्तीसगढ़ कैडर के अफसर हैं। सुब्रमण्यिम छत्तीसगढ़ में एसीएस (गृह) के पद पर काम कर चुके हैं।
सुनते हैं कि सुब्रमण्यिम ने व्यक्तिगत रूचि लेकर 36गढ़ी मजदूरों को राहत दिलवाई है। सुब्रमण्यिम को लेकर एक बुरी चर्चा यह भी है कि वे ज्यादातर अफसरों का फोन तक नहीं उठाते हैं। अलबत्ता, श्रम सचिव सोनमणी बोरा की सुब्रमण्यिम से फोन पर बातचीत हो जाती है। इसकी एक वजह यह भी है कि बोरा जब आईएएस ट्रेनिंग एकेडमी में ट्रेनिंग ले रहे थे, तब सुब्रमण्यिम उनकी क्लास लेते थे। तब से उनका परिचय है। इसका फायदा भी छत्तीसगढ़ को मिल रहा है।
पहुंच और किस्मत का धनी अफसर
सरकार किसी की भी हो, लेकिन कुछ अधिकारी ऐसे जुगाड़ू होते हैं कि उनकी हमेशा तूती बोलती है। कई बार तो ऐसी स्थिति आ जाती है जब बड़े अधिकारी और जनप्रतिनिधि भी जुगाड़ुओं का कुछ नहीं बिगाड़ पाते और वे अपनी मनचाही जगह पर जमे रहते हैं। ऐसे ही बलौदाबाजार-भाटापारा जिले में पदस्थ सहायक खाद्य अधिकारी अनिल जोशी हैं, जिनकी सेटिंग और पहुंच का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विधायक-कलेक्टर तक उसको ट्रांसफर के बाद रिलीव नहीं करा पा रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि वो कोई बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, बल्कि इस अफसर का तबादला ही शिकायतों के आधार पर हुआ था। बताते हैं कि इस सहायक खाद्य अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के भी आरोप हैं। जिले के एक पूर्व कलेक्टर ने तो उनके खिलाफ बकायदा गोपनीय जांच करवाई थी और रिपोर्ट सरकार को भेजी थी। जिसमें उन्होंने लिखा था कि उक्त अधिकारी चोरी-छुपे राइस मिल संचालित कर रहा है और विभाग के काम में बेवजह दखलंदाजी करता है। उसे फील्ड से हटाकर ऑफिस में अटैच भी किया गया। कलेक्टर की चि_ी के बाद शासन स्तर पर उसका तबादला कर दिया गया था। सालभर से ज्यादा समय बीत गया है. लेकिन वो रिलीव नहीं किए गए हैं।
कलेक्टर के इतने कड़े पत्र और शासन स्तर पर ट्रांसफर के बाद भी उसका उसी जिले में जमे रहना बड़े अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों को चिढ़ाने के लिए पर्याप्त है। उसके खिलाफ जांच में पाया गया कि वह मुख्यालय के बजाए राजधानी में रहता है। तबादला आदेश की तामीली के लिए स्थानीय विधायक ने भी शासन-प्रशासन से पत्राचार और शिकायतें की, लेकिन इस अधिकारी की सेटिंग की दाद देनी पड़ेगी कि उसका बाल भी बांका नहीं हो पाया है। इस मामले में समाचार पत्रों और टीवी में भी खूब खबरें प्रसारित हुई। इसका भी आज तक कुछ असर नहीं हुआ। कई बार तो ऐसे मौके भी आए जब इस अधिकारी की ओर से दूसरे उच्च और समकक्ष अधिकारियों ने मीडिया से लेकर जनप्रतिनिधियों के समक्ष पैरवी की। विधानसभा तक में उसके खिलाफ सवाल लगाए गए। मीडिया के सवाल और जनप्रतिनिधि के दबाव में मंत्री जी ने भी 15 दिनों के भीतर ट्रांसफर करने का ऐलान कर दिया था। लेकिन अभी तक उसका कुछ नहीं हुआ और वह स्थानीय अनाज व्यापारियों और राइस मिलर्स की नाक में दम किए हुए है।
इस अधिकारी के ग्रह नक्षत्र भी उसका भरपूर साथ देते हैं। जैसे ही कार्रवाई की बात जोर पकड़ती है। कुछ ना कुछ जरुरी कामकाज का रोडा अटक जाता है। पिछले दिनों उसका तबादला इसलिए रुक गया था कि धान खरीद का सीजन चल रहा था और किसान सीधे खाद्य विभाग के जुड़े रहते हैं। धान खरीद निपटा तो कोरोना आ गया। इस समय भी राशन वितरण से लेकर तमाम काम खाद्य विभाग के जरिए संचालित हो रहे हैं। ऐसे में ट्रांसफर से कामकाज प्रभावित होने की आशंका से पेंच फंस गया। इस जिले में राइस मिल की कस्टम मिलिंग के चावल में भी करोड़ों की फेरा-फेरी उजागर हुई थी। करोडों रुपए का चावल जमा नहीं किए जाने के कारण एफआईआर भी दर्ज कराई गई थी और खाद्य अफसरों की भूमिका पर सवाल उठे थे। कुल मिलाकर जुगाड़ के साथ-साथ इस अधिकारी की किस्मत भी बुलंद है। जैसे ही कार्रवाई होने की उम्मीद दिखती है, कोई न कोई जुगाड़ फिट हो जाता है और कार्रवाई रुक जाती है। उक्त खाद्य अफसर बड़े-बड़ों को तू डाल-डाल तो मैं पात-पात की तर्ज पर चकमा दे रहा है।
सेवा के बहाने खुद को स्थापित
पीएम केयर में चंदा जुटाने के लिए भाजपा में किचकिच चल रही है। पार्टी के कई इसमें रूचि नहीं ले रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी के गृह जिले कांकेर का हाल यह है कि उन्होंने अलग-अलग समाज के प्रमुखों से पीएम केयर में दान देने की अपील की थी। मगर जिले में प्रभावशाली क्षत्रिय समाज के लोगों ने पीएम केयर के बजाए सीएम कोष में दान दे दिया। जबकि इस समाज के मुखिया महावीर सिंह राठौर हैं, जो कि भाजपा के सीनियर नेता हैं।
राठौर की प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी से नहीं जमती है। ऐसे में उसेंडी की बात मानना उनके लिए जरूरी भी नहीं था। यही नहीं, पार्टी के एक बड़े नेता को पीएम केयर में धन जुटाने का अहम दायित्व सौंपा गया है। मगर नेताजी के बेटे ने खुद एनजीओ का गठन किया और अलग-अलग जगहों से राशि जुटाकर पीपीई किट और अन्य सामग्री बांटना शुरू कर दिया। नेता पुत्र की निगाह अगले विधानसभा चुनाव पर है और वे इसके लिए अभी से तैयारी कर रहे हैं। सेवा के बहाने खुद को स्थापित करने का अच्छा मौका है, वे चूकना नहीं चाहते हैं। ([email protected])
जिम्मेदारी से बाहर जाकर काम..
छत्तीसगढ़ के दो अफसर अपनी सीधी जिम्मेदारियों से आगे बढ़कर जिस तरह सोशल मीडिया पर लोगों की मदद करते दिख रहे हैं, वह उन्हें बाकी लोगों से अलग कर रहा है. जिलों के कलेक्टर या एसपी का तो कई किस्म का जिम्मा भी बनता है, लेकिन बिलासपुर के आईजी दीपांशु काबरा , और राजभवन के सचिव, श्रम सचिव सोनमणि बोरा एक-एक ट्वीट देखते ही उस दिक्कत को सुलझाने में लग जाते हैं. सरकारी इंतजाम में ट्विटर पर जवाब देने के बाद भी बहुत से फ़ोन करने पड़ते हैं, तब कहीं जाकर कोई काम हो पता है. लेकिन ट्विटर पर दीपांशु और सोनमणि जिस तरह लगे हुए हैं, वह देखने लायक है. वे न सिर्फ मदद का वायदा कर रहे हैं, बल्कि काम हो जाने पर उसकी जानकारी भी पोस्ट कर रहे हैं. अफसरों का ऐसा उत्साह भी सरकार की छवि बनाता है, लोगों की मदद तो करता ही है।
सोनमणि बोरा को इस अखबार को मिली एक तकलीफ भेजी गयी. किसी ने पुणे से फ़ोन करके 'छत्तीसगढ़Ó अख़बार को बताया था कि वे छत्तीसगढ़ के हैं, पुणे में फंसे हैं, और काने को भी नहीं है. सोनमणि बोरा ने कुछ घंटों के भीतर ही जवाब भेजा- श्रमिक पुणे में केमिकल कंपनी पोस्ट विंस प्रोसेसर में कार्यरत है. श्रमिक से बात किया गया। प्रारम्भ में उन्होंने भोजन कोई नहीं पहुंचा रहा है ऐसी शिकायत की थी. इनसे सुपरवाइज का नंबर 7385------- लिया गया उनसे संपर्क करने पर उन्होंने बताया कि 12 अप्रैल को ही श्रमिकों को भुगतान हुआ है और आवेदक जीवन लाल को 12000 रुपये भुगतान किया गया है , इस संबंध में फैक्ट्री मालिक श्री जाधव जी 9881----- से भी संपर्क किया गया उनके द्वारा भी यही जानकरी दी गई। साथ ही नजदीक के राशन दुकान में सामान देने को कह दिया गया है बताया गया, पुष्टि के लिए पुन: श्रमिक से संपर्क किया गया और श्रमिक ने भी स्वीकार किया कि 12000 रुपये 11 य 12 अप्रैल को प्राप्त हुए है. श्रमिक का कहना है कि मैं अकेले पड़ गया हूं इसलिये डर लग रहा है घर वापस जाना चाहता हूँ. उन्हें लॉक डाउन तक घर पर ही सुरक्षित रहने की सलाह दी गई।
बेवजह की बदनामी
सियासी मामले-मुकदमे आखिर में अदालतों तक ही पहुंचते हैं। पत्रकार अर्नब गोस्वामी के खिलाफ तीन राज्यों में दर्ज एफआईआर की सुनवाई भी सुप्रीम कोर्ट में हुई। यह मामला भी सियासी आरोप-प्रत्यारोप का ही है। सभी राज्यों से अलग छत्तीसगढ़ में अर्नब गोस्वामी के खिलाफ रायपुर से लेकर सुकमा तक 101 एफआईआर दर्ज कराई गई थी। सुनवाई से कुछ देर पहले तक पुलिस लिखा पढ़ी करती रही। ऐन वक्त पर पत्रकार को हाजिर होने के लिए नोटिस जारी किया गया। खैर ये तो कानूनी प्रक्रिया है, जिसके तहत कार्रवाई की जा रही है, लेकिन सवाल यह है कि मामले मुकदमे दर्ज करने से लेकर नोटिस जारी करने तक कानून की किताबें तो जरुर खंगाली जाती होंगी, लेकिन जिरह के दौरान जिस तरह से कोर्ट ने पाया कि एक साथ 101 एफआईआई का कोई औचित्य नहीं है और इसे विधि सम्मत नहीं माना जा सकता, ऐसी स्थिति में राज्य के कानून विशेषज्ञों और सलाहकारों पर सवाल उठना लाजिमी है।
सभी जानते हैं कि अदालतों में छोटी सी गलती और सियासी नफा-नुकसान के लिए उठाए गए कदमों का बड़ा संदेश जाता है, क्योंकि अदालतों में सुनवाई तथ्यों और सबूत के आधार पर होती है। ऐसे में बारीक से बारीक बिन्दु का अध्ययन जरुरी है। वरना कोर्ट की फटकार भी लग सकती है। फटकार न भी मिले तो दूसरे पक्ष को राहत मिलना भी बड़ी बात होती है। इस केस में भी कानून विशेषज्ञ इस बात से दुखी है कि केवल सियासी और प्रशासनिक सलाह पर कोर्ट कचहरी की कार्रवाई नहीं चलती। उनका मानना है कि अदालती नतीजा अगर पक्ष में है तो कोई बात नहीं, लेकिन खिलाफ में है, तो सभी कानून के जानकारों की भूमिका पर सवाल उठाते हैं। पहले ही छत्तीसगढ़ के कई कानूनी मामलों में पक्ष में फैसला नहीं आने से सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में इस मामले में भी कमजोर कानूनी तैयारी ने एक बार कानूनी सलाहकारों को कटघरे में ला दिया है। वे इसी बात से परेशान हैं कि बेवजह की बदनामी उन्हें मिल रही है।
कांग्रेस पार्टी में दिल्ली के स्तर पर ऑपरेशन-अर्नब को नामी वकील और कांग्रेस राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा देख रहे थे. वहीं से एक ड्राफ्ट बनकर आया कि पार्टी जगह-जगह ऐसी पुलिस-रिपोर्ट करवाए. अंग्रेज़ी से हिंदी किया गया और पार्टी के हुक्म को पूरा किया गया. पहले भी बहुत से मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस-रिपोर्ट की ऐसी कार्पेट-बॉम्बिंग के खिलाफ राहत दी हुई है. अर्नब गोस्वामी को तुरंत राहत मिल गयी. जब कई प्रदेशों में एक सरीखी रिपोर्ट दजऱ् होती है, तो सुप्रीम कोर्ट को भी अभियान समझ आ जाता है. कुल मिलकर देश भर में कांग्रेस के खिलाफ ही माहौल बन गया. यह एक अलग बात है कि इसी दौर में छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टी एस सिंहदेव भी मौके पे चौका लगाने रिपोर्ट लिखने थाने पहुँच गए, जो कि कई लोगों का मानना है कि एक मंत्री को नहीं करना चाहिए था।
दिग्गजों के चक्कर में नेता प्रतिपक्ष नहीं...
चार महीने बाद भी भाजपा रायपुर नगर निगम में पार्षद दल का नेता नहीं तय कर पाई है। जबकि प्रदेश के अन्य निकायों में चुनाव के थोड़े दिनों बाद ही पार्टी ने नेता प्रतिपक्ष का नाम घोषित कर दिया था। रायपुर नगर निगम के नेता प्रतिपक्ष के लिए अभी तक किसी एक नाम पर सहमति नहीं बन पाई है।
सुनते हैं कि सांसद सुनील सोनी और पूर्व मंत्री राजेश मूणत अपने करीबी पार्षद को नेता प्रतिपक्ष बनाना चाहते हैं। दोनों ही अड़ गए हैं। यही वजह है कि नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी अब तक खाली है। चर्चा है कि सुनील सोनी, सीनियर पार्षद सूर्यकांत राठौर को नेता प्रतिपक्ष बनाने के पक्ष में हैं, तो राजेश मूणत, पार्षद मीनल चौबे को पार्षद दल का मुखिया बनाना चाहते हैं।
पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने अब तक किसी का नाम नहीं लिया है, लेकिन कहा जा रहा है कि वे भी सूर्यकांत राठौर को नेता प्रतिपक्ष बनाने के पक्ष में हैं। पार्षद दल का नेता नहीं चुने जाने से भाजपा निगम के भीतर विपक्ष की भूमिका अदा नहीं कर पा रही है। कोरोना संक्रमण के चलते रायपुर शहर में लॉकडाउन है, तो अब पीलिया का कहर टूट पड़ा है। भाजपा के कई पार्षदों का हाल यह है कि वे अपने वार्ड में जरूरतमंद लोगों को राशन और अन्य जरूरत की सामग्री उपलब्ध कराने के लिए कांग्रेस के नेताओं के आगे-पीछे हो रहे हैं। पीलिया से करीब 5 हजार लोग पीडि़त हैं। इतना सब होते हुए भी भाजपा पार्षदों ने खामोशी ओढ़ ली है। अब नेता ही नहीं तो लड़ाई-झगड़े का सवाल ही नहीं है।
पीडब्ल्यूडी में फेरबदल के मायने
आखिरकार पीडब्ल्यूडी में बहुप्रतीक्षित फेरबदल हो ही गया। डीके अग्रवाल की जगह विजय कुमार भतप्रहरी को ईएनसी का प्रभार सौंपा गया। सुनते हैं कि अग्रवाल को हटाने के लिए सालभर पहले ही नोटशीट चल गई थी। भतप्रहरी को अग्रिम बधाई देने वालों का तांता लग गया था। मगर नोटशीट अटक गई थी। इससे परे अग्रवाल निर्विवाद रहे हैं। उनकी साख भी अच्छी रही है। ऐसे में उन्हें हटाने का फैसला आसान नहीं था। लेकिन स्काईवॉक से लेकर एक्सप्रेस-वे में अनियमितता आदि को लेकर अग्रवाल पर भी छींटे पड़ रहे थे। उन पर कामकाज में नियंत्रण न होने का आरोप लग रहा था।
इन सबके बीच में कुछ दिन पहले एक युवा नेता ने उनके खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा ईओडब्ल्यू को सौंपा था। ऐसे में संकेत मिलने लग गए थे कि देर-सवेर अग्रवाल की बिदाई हो सकती है। ठेकेदारों ने भी इसके लिए जमकर मेहनत भी की थी। ऐसे में सोमवार देर रात को विधिवत आदेश निकला, तो किसी को हैरानी नहीं हुई। खाद्यमंत्री अमरजीत भगत के करीबी एमएल उरांव एसई, सेतु मंडल को अंबिकापुर प्रभारी चीफ इंजीनियर का अतिरिक्त दायित्व सौंपा गया है। उरांव की पदस्थापना से टीएस सिंहदेव के गढ़ में अमरजीत भगत का दबदबा बढ़ा है। ([email protected])