विचार / लेख

मोतीलाल वोराः साफ-सुथरी राजनैतिक पत्रकारिता के एक युग का अंत
22-Dec-2020 10:04 AM
मोतीलाल वोराः साफ-सुथरी राजनैतिक पत्रकारिता के एक युग का अंत

मृणाल पाण्डे-

हिंदी की पत्रकारिता स्वायत्त पैदा हुई और स्वायत्त रह कर ही वह लोकतांत्रिक राजनीति की सच्ची सहभागी बनी है | मोतीलाल वोरा जी उस परंपरा की एक दुर्लभ कड़ी थे। उनकी निकटता और मार्गदर्शन पाना मेरे लिए व्यक्तिश: और पत्रकारीय दोनों के नज़रिये से एक उपलब्धि रही | बढ़ती उम्र और क्षीण पड़ते शरीर के बावजूद आदरणीय वोरा जी हम सब एसोशियेटेड जर्नल्स के कर्मियों के लिए अंत तक एक बड़े और छांहदार वट वृक्ष बने रहे।

एक ऐसी सहज, मिलनसार और गर्माहट भरी आत्मीयता से भरपूर शख्सियत का चला जाना, जिसके दरवाजे अपने स्नेही जनों, मित्रों के लिए जब भी जरूरत हो, हमेशा खुले रहे, हम सब को एक ऐसे अकेलेपन के गहरे अहसास से भर गया है जो घर के सम्मानित बुजुर्ग का साया उठ जाने से होता है। अभी कुछ ही दिन पहले अपने करीबी दोस्त और सहकर्मी अहमद पटेल जी के निधन पर लिखी उनकी मार्मिक उदास सतरें लगता है एक तरह से हमारे बीच से उनकी अपनी खामोश विदाई की पीठिका बना रही थीं।

आज की मौकापरस्त राजनीति में जिसका जनता या साहित्य और विचारों की दुनिया से कोई नाता नहीं दिखता, एक पत्रकारीय जीवन से शुरुआत करने वाले साहित्य और साहित्यकारों के लिए गहरा सम्मान भाव रखने वाले वोरा जी एक दुर्लभ ऑर्किड की तरह थे। वर्ष 1993-96 तक जब वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे मेरी माता शिवानी जी से लखनऊ में उनका बहुत सहृदय संपर्क रहा। 1996 में जब आंतरिक रक्तस्राव से शिवानी जी अचानक बेहद नाजुक दौर से गुजर रही थीं, उन्होंने जिस आत्मीय सहजता से अपना राजकीय हवाई जहाज उनको दिल्ली लाने के लिए उपलब्ध करा दिया, वह आज के माहौल में अकल्पनीय है।

बाद को उनकी स्थिति संभलने पर जब मैं वोरा जी को परिवार की ओर से धन्यवाद देने को मिली, उन्होने बहुत स्नेह से कहा, ‘देखो शिवानी जी सिर्फ तुम्हारी मां ही नहीं, हमारे हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी विभूति भी हैं। यह तो मेरा कर्तव्य था।’ सच्चा साहित्यिक अनुराग किस तरह राजनीति का मानवीयकरण कर सकता है और राजनीति एक अच्छे मनुष्य से जुड़ कर किस हद तक मानवीय सरोकार बना सकती है, इसका प्रत्यक्ष रूप मैंने उसी दिन जाना।

हमारे प्रकाशन समूह और उसकी जननी, अपनी पार्टी के प्रति तो वोरा जी का अनुराग अनुपम था। उनके दिलो दिमाग के रास्ते कई दिशाओं, कई खिड़कियों में खुलते थे, इसलिए राजनीतिक विचारधारा की ज्यादतियों या संकीर्णता के वे कभी शिकार नहीं बने। जब कभी मिलते अपने से कहीं कम अनुभव और आयु वालों से भी वे हमेशा एक बालकोचित उत्सुकता से जानना चाहते थे कि हिंदी में इन दिनों क्या कुछ लिखा जा रहा है। पत्रकारिता की दिशा दशा पर हमारी क्या राय है?

आज जबकि रोज बरोज राजनीति में राज्य और शक्ति के उद्दंड बर्बर रूपों ने राजनीति के क्षेत्र में कला साहित्य पर किसी भी तरह की संवेदनशील बातचीत की संभावना को मिटा डाला है, वोरा जी का जाना एक अपूरणीय क्षति है। वे उस उदार राजनैतिक संस्कृति के चंद बच रहे झंडाबरदारों में से थे जिनका आदर्श गांधी, नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव और कृपलानी जैसे बुद्धि की गरिमा वाले राजनेता रहे। वे मानते थे कि धर्म या पारंपरिक शिक्षा दीक्षा नहीं, राजनीति से ही आम आदमी की जिंदगी में सही तब्दीली लाई जा सकती है। और इसके लिए जरूरी है कि राज्य में कलाएं राजनीति की समांतर अनुपूरक धाराएं बनी रहें। उनको राजनीति की दब्बू मातहत या राजनेताओं की कृपा पर निर्भर नहीं समझा जाए।

राजनीति की सारी हड़बड़ी और आपाधापी के बीच भी अपनी टीम को निरंतर विवेक, दिमागी ताज़गी और खुलेपन का सुखद अहसास देने वाले अपनी संस्था के इस पितृपुरुष को हमारी विनम्र ॠद्धांजलि। (navjivan)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news