विचार / लेख

हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है !
27-Dec-2020 1:43 PM
हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है !

आज 27 दिसंबर को मिर्जा गालिब की जयंती पर 
-ध्रुव गुप्त

भारतीय साहित्य के हजारों साल के इतिहास में कुछ ही लोग हैं जो अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं। मिजऱ्ा ग़ालिब उनमें से एक हैं। मनुष्यता की तलाश, शाश्वत तृष्णा, मासूम गुस्ताखियों और विलक्षण अनुभूतियों के इस अनोखे शायर के अनुभव और सौंदर्यबोध से गुजरना एक दुर्लभ अनुभव है। लफ्जों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, उनके नए-नए अर्थ खुलते जाते हैं। 

वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज होती हैं, लेकिन अपने दौर की पीडाओं की नक्काशी का गालिब का अंदाज भी अलग था और तेवर भी जुदा। यहां कोई रूढ़ जीवन-मूल्य अथवा जीवन-दर्शन नहीं है। रूढिय़ों का अतिक्रमण ही यहां जीवन-मूल्य है,आवारगी जीवन-शैली और अंतर्विरोध जीवन-दर्शन। मनुष्य के मन की जटिलताओं, अपने वक्त के साथ अंतर्संघर्ष और स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध जैसा विद्रोह गालिब की शायरी में मिलता है, वह उर्दू ही नहीं 
विश्व की किसी भी भाषा के लिए गर्व का विषय हो सकता है।

गालिब को महसूस करना हो तो कभी पुरानी दिल्ली के गली कासिम जान में उनकी हवेली हो आईए! यह छोटी सी हवेली भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायर का स्मारक है जहां उस दौर की तहजीब सांस लेती है। इसकी चहारदीवारी के भीतर वह एक शख्स मौजूद रहा था जिसने जिंदगी की तमाम दुश्वारियों और भावनाओं की जटिलताओं से टकराते हुए देश ही नहीं, दुनिया को वह सब दिया जिसपर आने वाली सदियां गर्व करेंगी। हवेली के दरोदीवार तो अब खंडहर हो चुके हैं, लेकिन उनमें देखे गए ख्वाबों की सीली-सीली खुशबू यहां महसूस होगी। यहां अकेले बैठिए तो उन हजारों ख्वाहिशों की दबी-दबी चीखें महसूस होती हैं जिनके पीछे गालिब उम्र भर भागते रहे। यहां के किसी कोने में बैठकर ‘दीवान-ए-गालिब’ को पढऩा एक अलग अहसास है। ऐसा लगेगा कि आप ग़ालिब के लफ्जों को नहीं, उनके अंतर्संघर्षों, उनके फक्कड़पन और उनकी पीड़ा को भी शिद्दत से महसूस कर पा रहे हैं।

गालिब को महसूस करने की दूसरी जगह है दिल्ली के निजामुद्दीन में मौजूद उनकी मजार। यह मजार संगमरमर के पत्थरों का बना एक छोटा-सा घेरा नहीं, भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायर का स्मारक है। एक ऐसा स्मारक जिसकी चहारदीवारी के भीतर वह एक शख्स मौजूद है जिसने जिंदगी की तमाम दुश्वारियों और भावनाओं की जटिलताओं से टकराते हुए देश ही नहीं, दुनिया को वह सब दिया जिसपर आने वाली सदियां गर्व करेंगी। गालिब की मज़ार को निजामुद्दीन के बेहद भीड़भाड़ वाले इलाके का एक एकांत कोना कहा जा सकता है। निजामुद्दीन के चौसठ खंभा के उत्तरी हिस्से में लगभग साढ़े तीन हजार वर्गफीट का यह परिसर लाल पत्थरों की दीवारों से घिरा हुआ क्षेत्र है जिसमें सफेद संगमरमर से बनी गालिब की एक छोटी-सी मजार है। पहले यहां सिर्फ उनकी कब्र हुआ करती थी। मजार और उसके आसपास की संरचना बाद में की गई थी। उनकी मजार के पीछे उनकी बेगम उमराव बेगम की कब्र है जिनकी मृत्यु गालिब की मृत्यु के एक साल बाद हुई थी। गालिब की मज़ार में उनका यह शेर दजऱ् है- ‘न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता/डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता!’ मिर्जा गालिब से अकेले में मिलना हो तो दिल्ली में इससे बेहतर जगह और कोई नहीं। 

गालिब की मजार दिल्ली में मेरी सबसे पसंदीदा जगह रही है और ‘दीवान-ए-गालिब’ मेरी सबसे पसंदीदा किताब। गालिब की मजार पर, उनकी सोहबत में उनका दीवान पढऩा मेरे लिए एक अतीन्द्रिय अनुभव है। वहां देर तक बैठने के बाद गालिब से जो कुछ भी हासिल होता है उसे एक शब्द में कहा जाय तो वह है एक अजीब तरह की बेचैनी। रवायतों को तोडक़र आगे निकलने की बेचैनी। जीवन और मृत्यु के उलझे रिश्ते को सुलझाने की बेचैनी। दुनियादारी और आवारगी के बीच तालमेल बिठाने की बेचैनी। अपनी तनहाई को लफ्जों से भर देने की बेचैनी। इश्क़ के उलझे धागों को खोलने और उसके सुलझे सिरों को फिर से उलझाने की बेचैनी। उन तमाम बेचैनियों को निकट से महसूस करने का ही असर होता है कि सामने बैठे-बैठे कब्र के नीचे उनका कफन भी मुझे कभी-कभी हिलता हुआ महसूस होता है। भ्र्म ही सही, लेकिन बहुत खूबसूरत भ्रम- ‘अल्लाह रे जौक-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग /हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफन के पांव ! 
गालिब अपने मजार में बिल्कुल अकेले नजऱ आते हैं। अपनी जिंदगी में भी ग़ालिब को अकेलापन ही पसंद रहा था। जीते जी उनकी ख्वाहिश यही तो थी- ‘पडि़ए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार  और अगर मर जाईए तो नौहा-खवाँ कोई न हो! उनके इस अकेलेपन में गालिब से मेरा घंटों-घंटों संवाद चलता रहता है। अकेलेपन की अकेलेपन से बातचीत ! उनसे कुछ सवाल करता हूं तो जवाब भी मिल जाता है। शायद वर्षों तक साथ रहते-रहते कोई टेलीपैथी काम करने लगी है हमारे बीच। पिछली सर्दियों में एक दिन देर तक उनके मज़ार पर उन्हें पढऩे-समझने के बाद मैं मजार के सामने की एक बेंच पर लेट गया था। मुझे लगा कि अपनी कब्र से गालिब मुझे एकटक देखे जा रहे हैं। उनसे कुछ कहने की तलब हुई तो बेसाख़्ता मुंह से यह शेर निकल गया- ‘कुछ तो पढि़ए कि लोग कहते हैं/कब से ‘गालिब’ गजल-सरा न हुआ’! पता नहीं क्या था कि हवा के एक तेज झोंके ने मेरे बगल में पड़े दीवान-ए-गालिब के पन्ने पलट दिए। सामने जो गजल थी, उसके जिस शेर पर पहली निगाह पड़ी, वह यह था- ‘क्यूं न फिरदौस में दोजख को मिला लें यारब/सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही। 
(साभार ‘सुबह सवेरे’, भोपाल)

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