विचार / लेख

झारखंड के आदिवासी खाने को 'स्टेटस सिम्बल' बनाने वाली ये महिलाएँ
25-Dec-2020 9:42 AM
झारखंड के आदिवासी खाने को 'स्टेटस सिम्बल' बनाने वाली ये महिलाएँ

अरुणा तिर्की......photo credit AJAM EMBA

"क्या आप कुछ मिनटों तक इंतज़ार कर सकते हैं जब तक मैं मीना को फ़ोन देती हूँ? मुझे उसे आपके बारे में बताना होगा ताकि वो आपसे बात करने में हिचके नहीं."

मैंने जवाब दिया, "ठीक है, कोई समस्या नहीं है."

अरुणा तिर्की ने यह कहते हुए दो मिनट के बाद किसी को फ़ोन दिया. फ़ोन पर उधर से एक महिला की आवाज़ आई, "हैलो! नमस्ते! हम मीना लिंडा बोल रहे हैं."

मीना लिंडा अपने परिवार की अकेली कमाने वाली शख़्स हैं. उनके परिवार में बीमार पति (50 साल) के अलावा एक बेटा (18 साल) और तीन बेटियाँ (एक 19 और दो 18 साल की) हैं. दोनों छोटी बेटियाँ जुड़वा हैं.

2016 तक उनकी ज़िंदगी मुश्किलों भरी थीं. उनके दिन की शुरुआत छह बजे सुबह से हो जाती थी. वो छह बजे सुबह उठ कर रांची में पहाड़ी मंदिर जाने वाले श्रद्धालुओं को चढ़ावा बेचने का काम करती थीं.

इसके बाद वो दिहाड़ी पर जो काम मिल जाए वो करती थीं. लेकिन काम मिलने में कठिनाई होती थी और आमदनी भी अनियमित होती थी. रोज़गार का स्थायी बंदोबस्त नहीं होने और पारिवारिक ज़िम्मेदारी बढ़ने की वजह से लिंडा के हालात दिन प्रतिदिन ख़राब होते जा रहे थे.

रेस्टोरेंट खोलने का विचार

साल 2016 में मीना की मुलाक़ात 46 साल की अरुणा तिर्की से हुई. वो एक ग्रामीण विकास पर काम करने वाली पेशेवर हैं जो अब अपना व्यवसाय करती हैं. उस वक्त संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और पुअरेस्ट एरियाज सिविल सोसायटी (पीएसीएस) में काम करने के बीच उनके पास एक साल का ख़ाली अंतराल था जिसमें वो एक महिला उद्यमी के तौर पर रांची में मोमो और हैदराबादी बिरयानी बेचने का अनुभव ले रही थीं. अरुणा ने मीना लिंडा को तभी अपनी मदद के लिए अस्थायी तौर पर नौकरी पर रखा.

बाद में अरुणा ने यूएनडीपी में काम करते हुए दुनिया के मूल निवासियों के अंतरराष्ट्रीय दिवस पर खाने पकाने की प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. हर साल 9 अगस्त को इसका आयोजना होता है. इस प्रतियोगिता में उन्हें पहला स्थान प्राप्त हुआ. ये उनके लिए ज़िंदगी बदलने वाला लम्हा साबित हुआ. उन्होंने तभी आदिवासी खाने की महत्ता को समझा और तेज़ी से ग़ायब होते आदिवासी खानों को बचाने की मुहिम में लग गईं.

2018 में तिर्की ने अजम एम्बा नाम से एक रेस्टोरेंट खोला. अजम एम्बा का कुदुख भाषा में मतलब होता है 'शानदार स्वाद'. कुदुख उरांव आदिवासियों की भाषा है. यह रेस्टोरेंट रांची के कांके रोड पर स्थित है.

देशी महिलाएँ इस रेस्टोरेंट को चलाती हैं. इस रेस्टोरेंट का मक़सद भारतीय पारंपरिक खानों को बचाना है.

आदिवासी संस्कृति और पहचान बचाने की कोशिश

यहाँ काम करने वाली महिलाएँ खाना बनाने के साथ यह भी सीखती हैं कि कैसे वो खाने बनाने के अपने हुनर को एक कामयाब व्यवसाय में तब्दील करें. बहुत जल्दी ही मीना लिंडा इस रेस्टोरेंट की एक अहम सदस्य बन गईं.

दूसरे रेस्टोरेंट से अलग यह रेस्टोरेंट खाने के माध्यम से आदिवासी संस्कृति और पहचान को बचाने की कोशिश में लगा हुआ है. यहाँ सालों भर आदिवासी खाना मिलता है. रांची के दूसरे महंगे होटल और रेस्टोरेंट झारखंड दिवस वाले हफ्ते में ही केवल पारंपरिक खाना परोसते हैं. हर साल 15 नवंबर को झारखंड दिवस मनाया जाता है.

इस रेस्टोरेंट के मेनू में कई तरह के विकल्प मौजूद होते हैं. इसमें गेटु फिश करी, देसी मागुर करी, घोंघी तियान वेज, सानेई फूल भर्ता, कोईनार फूल भर्ता, जूट फ्लावर करी और मार झोर जैसे डिश मौजूद हैं.

रेस्टोरेंट इस बात का ख्याल रखता है कि ग्राहकों के पसंद के हिसाब से कुछ भी छूट ना जाए. आदिवासी तरीक़े से खाने से लेकर आवभगत तक सब का ख्याल रखा जाता है. किचन में काम करने वाले स्टाफ़ मिट्टी के बर्तन का इस्तेमाल करते हैं. वो खाना परोसने के लिए पत्ते या फिर तांबे के बर्तन का इस्तेमाल करते हैं.

रेस्टोरेंट में आने वाले ग्राहकों का स्वागत आकर्षक सोहराई पेंटिंग्स और पारंपरिक संगीत के साथ किया जाता है. रेस्टोरेंट की दीवारों पर मिट्टी का लेप लगा हुआ है तो वहीं बांस और गन्ने की मदद से इसे सजाया गया है. इसके अलावा अजम एम्बा रागी मोमो, वाइल्ड राइस डम्पलिंग और रागी क्रेप्स को आदिवासी तरीक़े में ढाल कर पेश किया जाता है.

आदिवासी खाना जब बना स्टेटस सिम्बल

गेटु मछली के साथ जिरहुल फूल

इन डिश को मेनू में शामिल करने के दो मक़सद हैं. पहला मक़सद युवाओं को आकर्षित करना है तो दूसरा मक़सद मेनू को ऐसा बनाना है जिससे लोग ज्यादा जुड़ाव महसूस करें.

अरुणा तिर्की को ग्राहकों से जो फ़ीडबैक मिलता है उसके हिसाब से इन डिशेज़ को लाल चावल के सूप के साथ ज़रूर हर किसी को एक बार खाना चाहिए. लाल चावल के सूप को पारंपरिक तौर पर 'चाकोर झोल' कहते हैं.

ये पूछने पर कि क्या झारखंड में ये पारंपरिक खाने आसानी से उपलब्ध है? इस पर तिर्की कहती हैं कि इन्हें बनाने वाली चीज़ें तो मिल जाती हैं लेकिन वे इसका इस्तेमाल या तो चिकित्सीय उद्देश्य से करते हैं या फिर अल्कोहल (चावल से बनने वाला मद्य पेय पदार्थ) बनाने के लिए करते हैं.

अपने पारंपरिक खानों को लेकर जानकारी नहीं होने की वजह से ऐसे हालात बने हुए हैं. तिर्की इसकी एक और वजह बताती हैं कि आम तौर पर मड़ुआ और गोंदली आदिवासियों में खाया जाता है लेकिन वो इसे आजकल एक ख़ास तरह की वर्ग चेतना विकसित होने की वजह से मानने में शर्म महसूस करते हैं.

अरुणा तिर्की और मीना लिंडा दोनों ही उरांव जनजाति से आती हैं. उरांव जनजाति मुख्य तौर पर झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में रहने वाली जनजाति है. अरुणा और मीना दोनों ने ही बचपन से ऐसे खाने खाए हैं जो स्थानीय तौर पर आसानी से उपलब्ध रहे हैं. अरुणा बचपन से किचन में अपनी मां की खाना बनाने में मदद करती रही हैं. इससे उनके अंदर खाना बनाने को लेकर एक रूचि पैदा हुई.

गोरगोरा रोटी मटन हांडी के साथ

अरुणा तिर्की कहती हैं कि आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं और उनके खाने मुख्य तौर पर जंगल में मिलने वाली चीज़ों पर आधारित है. वो बताती हैं कि उनके पूर्वज गोंदली चावल (जंगली चावल), मड़ुआ (रागी), बाजरा और महुआ खाते थे. हालांकि हरित क्रांति (60 और 70 के दशक) के दौरान गेहूँ और सफ़ेद चावलों का उत्पादन बड़े पैमाने पर शुरू हुआ और इसने पारंपरिक खाने की जगह ले ली.

जब अरुणा ने शहरी दुकानों में बाजरे का विज्ञापन ऊंची क़ीमतों पर होते देखा तो उन्हें लगा कि इतनी क़ीमत पर तो उनके समुदाय के कई लोग इसे ख़रीद ही नहीं पाएंगे. अरुणा ने तब इसे लेकर कुछ करने की सोची. बाद में अजम एम्बा के रूप में उनकी इस दिशा में कुछ करने की सोच साकार हुई.

वो कहती हैं कि, "आज गोंदली और मड़ुआ अमीरों के लिए स्टेटस सिम्बल बना हुआ है लेकिन एक ऐसा वक़्त था जब इसे पिछड़ेपन की निशानी माना जाता था. इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने वाले मेरे चाचों के लिए यह मानना असहज करने वाला था कि वे इन्हें खाते हैं. क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता था कि इस आधार पर उनसे भेदभाव किया जाएगा. हालांकि जब ये ऊंचे वर्ग के लोगों के खाने के प्लेट का जब हिस्सा बन गया तो स्टेटस सिम्बल बन गया."

अरुणा बताती हैं कि इस बात को लेकर उन्हें कोई समस्या नहीं झेलनी पड़ी कि उनका रेस्टोरेंट जातीय व्यवस्था में पिछड़े माने जाने वाले लोगों की मदद से चलाया जा रहा है. उनके यहाँ आने वाले ग्राहकों में आदिवासियों से कहीं ज्यादा ग़ैर-आदिवासी लोग हैं. वे पर्यटक जो आदिवासी खाना खाना चाहते हैं उनके लिए उनका रेस्टोरेंट एक ज़रूर पहुँचने वाली जगह बन गई है.

शर्मिंदगी की जगह गर्व की अनुभूति

मड़ुआ का लड्डू

आदिवासियों ख़ासतौर पर युवा पीढ़ी में अब अपने खाने पर शर्मिंदगी की जगह गर्व की अनुभूति पैदा हो रही है. वो अपने खाने को अब पिछड़ेपन के तौर पर नहीं देख रहे हैं.

अरुणा के सामने असल चुनौती पैसे को लेकर है. उन्हें बैंक या सरकार से कोई मदद नहीं मिल पा रही है. वो कहती हैं, "बैंक अजम एम्बा जैसे छोटे स्तर के व्यवसाय को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए तैयार नहीं हैं. जबकि इस व्यवसाय का भविष्य उज्ज्वल दिखाई पड़ रहा है. सरकार के स्तर पर योजनाएँ जरूर काग़ज़ पर मौजूद हैं लेकिन वास्तव में इसे कभी लागू नहीं किया गया है."

कोरोना वायरस की वजह से लगे लॉकडाउन में अजम एम्बा को भी मजबूरन छह महीने तक बंद रखना पड़ा. चूंकि इस रेस्टोरेंट के ज्यादातर स्टाफ़ हाशिए के समाज या ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं इसलिए वो पूरी तरह से रेस्टोरेंट से मिलने वाली सैलरी पर निर्भर हैं. अरुणा के दिमाग में कभी भी सैलरी काटने या उन्हें काम से निकालने का विचार नहीं आया. उन्होंने हर किसी को सैलरी देना जारी रखा.

हालांकि सितंबर से फिर से रेस्टोरेंट खुलना शुरू हुआ लेकिन इसकी कमाई आम तौर पर होने वाली कमाई की तुलना में 25-30 फ़ीसद कम हो गई है.

मीना लिंडा ने बातचीत ख़त्म करते वक़्त कहा कि वो अब बहुत संतुष्ट और ख़ुश हैं.

अरुणा तिर्की के साथ काम करने से पहले वो कोई भी काम जो उन्हें मिलता था वो कर लिया करती थीं इस बात की परवाह किए कि उन्हें उसके बदले कितने पैसे मिलेंगे.

अब उनके पास एक स्थायी आमदनी है. वो अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती हैं. उन्हें अपने गांव का वार्ड सदस्य भी मनोनित किया गया है. जब उनसे पूछा गया कि उनकी ज़िंदगी में सबसे बड़ा बदलाव क्या आया है तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा, "अब बच्चे कुछ खाने के लिए मांगते हैं तो हम दे पाते हैं. हमारे लिए सबसे ख़ुशी की बात यही है." (bbc)    

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news