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असंभव सी सादगी, सज्जनता वाले नेता मोतीलाल वोरा...
22-Dec-2020 1:24 PM
असंभव सी सादगी, सज्जनता  वाले नेता मोतीलाल वोरा...

अभी कुछ महीने पहले अगस्त के पहले हफ्ते में ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार ने छत्तीसगढ़ के कुछ नेताओं के बारे में अखबार के इंटरनेट संस्करण पर अपने संस्मरण लिखे थे। इनमें उन नेताओं के समग्र जीवन की अधिक बातें नहीं थीं, महज खुद के संपर्क की बातें थीं। इनमें दो किस्तों में मोतीलाल वोरा के बारे में भी लिखा गया था। उसे हम आज यहां प्रकाशित कर रहे हैं-संपादक

कांग्रेस पार्टी के छत्तीसगढ़ के सबसे बुजुर्ग नेता मोतीलाल वोरा एक बरगद की तरह बूढ़े हैं, और बरगद की तरह ही उनका तजुर्बा फैला हुआ है। भला और कौन ऐसे हो सकते हैं, जो राजस्थान से आकर छत्तीसगढ़ में बसे हों, और यहां के कांग्रेस के इतने बड़े नेता बन जाएं कि उन्हें अविभाजित मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाए, केन्द्रीय मंत्री बनाया जाए, और उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य का राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल बनाया जाए। वोराजी एक अद्भुत व्यक्तित्व हैं, और छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है जो उनके बारे में कई लोग कहते हैं, ऐड़ा बनकर पेड़ा खाना। 

मोतीलाल वोरा ने अपनी कामकाजी जिंदगी की शुरूआत रायपुर की एक बस कंपनी में काम करते हुए की थी। जैसा कि पहले किसी भी परंपरागत कारोबार में होता था, हर कर्मचारी को हर किस्म के काम करने पड़ते थे, न तो उस वक्त अधिक किस्म के ओहदे होते थे, और न ही लोगों को किसी काम को करने में झिझक होती थी। मुसाफिर बस चलाने वाली इस कंपनी में वोराजी कई किस्म के काम करते थे। लेकिन उनकी सरलता की एक घटना खुद उन्हें याद नहीं होगी। 

यह बात मेरे बचपन की है, जिस वक्त हमारे पड़ोस में, बसों को नियंत्रित करने वाले आरटीओ के एक अफसर रहते थे। उनके घर पर मेरा डेरा ही रहता था, लेकिन 5-7 बरस की उस उम्र की अधिक यादें नहीं है, लेकिन बाद में पड़ोस के चाचाजी की बताई हुई बात जरूर याद है। उनके घर एक सोफा की जरूरत थी, और सरकारी विभागों के प्रचलन के मुताबिक आरटीओ अधिकारी के घर सोफा पहुंचाने का जिम्मा इस बस कंपनी पर आया था। ठेले पर सोफा लदवाकर किसी के साथ स्कूटर पर बैठकर बस कंपनी के कर्मचारी मोतीलाल वोरा पहुंचे और सोफा उतरवाकर, घर के भीतर रखवाकर लौटे। यह बात आई-गई हो गई, वक्त के साथ-साथ वोराजी राजनीति में आए, कांग्रेस में आए, विधायक बने, और अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए। इस बीच हमारे पड़ोस के चाचाजी बढ़ते-बढ़ते प्रदेश के एक सबसे बड़े संभाग के आरटीओ बने। लेकिन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा जब उनके शहर के दौरे पर पहुंचते थे, तो वे या तो छुट्टी ले लेते थे, या सामने पडऩे से बचने का कोई और जरिया निकाल लेते थे। ऐसा नहीं कि वोराजी को आरटीओ का कामकाज समझता नहीं था, लेकिन रायपुर के उस वक्त का सोफा इस वक्त झिझक पैदा कर रहा था, और चाचाजी उनके सामने नहीं पड़े, तो नहीं पड़े। 

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मोतीलाल वोरा कुछ असंभव किस्म के व्यक्ति हैं। वे बहुत सीधे-सरल भी हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के दाएं हाथ की तरह इतने बरसों से बने रहने के लिए सिधाई, और सरलता से परे भी कई हुनर लगते हैं, जिनमें से कुछ तो वोराजी के पास होंगे ही। प्रदेशों के कांग्रेस संगठनों की बात करना ठीक नहीं होगा, लेकिन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बारे में यह कहा जाता है कि इसका यह अनोखा सौभाग्य रहा कि इसके कोषाध्यक्ष ईमानदार रहे। मोतीलाल वोरा ने कांग्रेस कोषाध्यक्ष रहते हुए हजारों करोड़ रूपए देखे होंगे, लेकिन उन पर किसी बेईमानी का कोई लांछन कभी नहीं लगा। और तो और अभी दो चुनाव पहले जब उनका बेटा अरूण दुर्ग से चुनाव लड़ रहा था, और इस सदी में चुनाव के जिन खर्चों की परंपरा मजबूत हो चुकी है, उन खर्चों के लिए आखिरी के दो-तीन दिनों में उम्मीदवारों को पार्टी से पैसा मिलता है। मोतीलाल वोरा ने प्रदेश के सभी कांग्रेस उम्मीदवारों को जो पैसा भेजा था, वही पैसा अरूण वोरा को भी मिला था। पता नहीं क्यों उस चुनाव में मोतीलाल वोरा ने हाथ खींच लिया था, और मतदान के दो दिन पहले का पैसा नहीं पहुंचा, और वह भी एक वजह थी जो अरूण वोरा चुनाव हार गए थे।

 
पिछले 25-30 बरसों में दो-चार बार मेरा वोराजी के दुर्ग घर पर जाकर मिलना हुआ है। लकड़ी का वही पुराना सोफा, और कमरे में प्लास्टिक की 10-20 कुर्सियों की थप्पी लगी हुई थी। कोई शान-शौकत नहीं बढ़ी, कोई खर्च भी नहीं बढ़े। ताकत की जितनी कुर्सियों पर वोराजी रहे, और कांग्रेस पार्टी के हजारों करोड़ को उन्होंने यूपीए के 10 बरसों में देखा, कई आम चुनाव निपटाए, पूरे देश की विधानसभाओं के चुनाव निपटाए, लेकिन उनके परिवार का रहन-सहन ज्यों का त्यों बना रहा। आज के जमाने में यह सादगी छोटी बात नहीं है, और शायद इसी के चलते कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के करीब और कोई विकल्प नहीं बन पाया। 

15-16 बरस पहले जब मैंने अखबार की नौकरी छोड़ी, और इस अखबार, ‘छत्तीसगढ़’, को शुरू करना तय किया, तो कुछ विज्ञापनों की कोशिश करने के लिए दिल्ली गया। उस वक्त दिल्ली के मेरे एक दोस्त, संदीप दीक्षित, पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस के सांसद बने थे, और अपनी मां शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री निवास से अलग रहने लगे थे। उनकी जिद पर मैं उनके घर पर ही ठहरा, और दिल्ली आने की वजह बताई, यह भी बताया कि कांग्रेस मुख्यालय में आज वोराजी से मुलाकात तय है। संदीप ने कहा कि वहां तो मजमा लगा होगा क्योंकि पंजाब विधानसभा चुनाव की टिकटें तय होना है, और चुनाव समिति में वोराजी भी हैं। इसके साथ ही संदीप ने आधे मजाक और आधी गंभीरता से कहा- आप भी कहां विज्ञापनों के चक्कर में पड़े हैं, पंजाब में एक-एक टिकट के लिए लोग पांच-पांच करोड़ रूपए देने को तैयार खड़े हैं, आप वोराजी से किसी एक को टिकट ही दिला दीजिए, आपका प्रेस खड़ा हो जाएगा। 

जब मैं वोराजी से मिलने एआईसीसी पहुंचा, तो सचमुच ही सारे बरामदों में पंजाब ही पंजाब था। लेकिन बाहर सहायक के पास मेरे नाम की खबर थी, मुझे तुरंत भीतर पहुंचाया गया, और वैसी मारामारी के बीच भी वोराजी ने चाय पिलाई, पान निकालकर अपने हाथ से दिया, और कांग्रेस प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के नाम विज्ञापनों के लिए चिट्ठियां टाईप करवाईं, उनकी एक-एक कॉपी मुझे भी दी कि मैं जाकर उनसे संपर्क कर लूं। 

चिट्ठी आसान होती है, लेकिन उस वक्त के उतने कांग्रेस प्रदेशों में जाना अकेले इंसान के लिए मुमकिन नहीं होता, इसलिए वे सारी चिट्ठियां मेरे पास रखी रह गईं, और भला किस प्रदेश के मुख्यमंत्री को एक चिट्ठी के आधार पर शुरू होने वाले अखबार के लिए विज्ञापन मंजूर करने का समय हो सकता है? बात आई-गई हो गई, लेकिन वोराजी ने पूरा वक्त दिया, और उन्हें जब मैंने संदीप दीक्षित की कही बात बताई तो वे हॅंस भी पड़े। टिकट दिलवाकर पैसे लेने या दिलवाने का काम वे करते होते, तो इतने बरसों में न बात छुपती, न पैसा छुपता। 

वोराजी से मेरा अच्छा और बुरा, सभी किस्म का खूब तजुर्बा रहा। अच्छा ही अधिक रहा, और बुरा तो नाममात्र का था। 

जब मोतीलाल वोरा अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब मैं पिछले अखबार में रिपोर्टिंग करता था। वोराजी तकरीबन हर शनिवार-इतवार रायपुर-दुर्ग आ जाते थे, और मैं दोनों जगहों पर उनके कई कार्यक्रमों में चले जाता था, और रायपुर की सभी प्रेस कांफ्रेंस में भी। ऐसी ही एक प्रेस कांफ्रेंस में मैंने उनसे पूछा- क्या रायपुर में आपके किसी रिश्तेदार को अफसर परेशान कर रहे हैं? 

वे कुछ हक्का-बक्का रह गए, सवाल अटपटा था, और मुख्यमंत्री अपने रिश्तेदारों के बारे में ऐसी अवांछित बात सुनने की उम्मीद भी नहीं कर सकता था। उन्होंने इंकार किया। 

लेकिन मेरे पास उससे अधिक अवांछित अगला सवाल था, मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें उनके अफसरों से ऐसी शिकायत मिली है कि उनके (वोराजी के) रिश्तेदार उन्हें परेशान करते हैं? 

इस पर वे कुछ खफा होने लगे लेकिन उनकी सज्जनता ने उनकी आवाज को फिर भी काबू में रखा, और उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली। 
मैं उन दिनों रिपोर्ट लिखते हुए पत्रकारवार्ता के सवाल-जवाब भी बारीकी से सवाल-जवाब की शक्ल में लिखता था, और अपने पूछे सवालों के साथ यह भी खुलासा कर देता था कि ये सवाल इस संवाददाता ने पूछे थे, और उनका यह जवाब मिला था। 

सवाल-जवाब की शक्ल में छपी प्रेस कांफ्रेंस की बात आई-गई हो गई। इसके कुछ या कई हफ्ते बाद उस अखबार के प्रधान संपादक मायारामजी सुरजन रायपुर लौटे। मुझे भनक लग गई थी कि वे किसी बात पर मुझसे खफा हैं, और मेरी पेशी हो सकती है। दफ्तर पहुंचते ही उन्होंने मुझे बुलाया, और कहा कि भोपाल में वोराजी ने उन्हें मेरी शिकायत की है। और यह कहकर शिकायत की है कि सुनील कुमार मुझसे (वोराजी से) इस टोन में बात करते हैं कि मानो वे मेरे मालिक हों। बाबूजी (मायारामजी) ने बताया कि वोराजी ने चाय पर बुलाकर अखबार की कतरन उनके सामने रख दी थी कि मैंने प्रेस कांफ्रेंस में ऐसे-ऐसे सवाल किए थे। बाबूजी ने उनसे यह साफ किया कि हमारे अखबार के रिपोर्टरों को यह हिदायत दी जाती है कि वे सवाल तैयार करके ही किसी प्रेस कांफ्रेंस में जाएं, और सवाल जरूर पूछें, महज डिक्टेशन लेकर न लौटें। इसलिए सुनील ने सवाल जरूर किए होंगे, लेकिन इन सवालों में कुछ गलत तो लग नहीं रहा। 

अब यहां पर एक संदर्भ को साफ करना जरूरी है, वोराजी के एक रिश्तेदार और नगर निगम के एक कर्मचारी, वल्लभ थानवी बड़े सक्रिय कर्मचारी नेता थे। वहां के बड़े अफसरों से उनकी तनातनी चलती ही रहती थी। कुछ दिन पहले ही उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि म्युनिसिपल के बड़े अफसर उन्हें इसलिए परेशान करते हैं कि वे मुख्यमंत्री के रिश्तेदार हैं। इसके जवाब में निगम-प्रशासक या आयुक्त ने कहा था कि मुख्यमंत्री के रिश्तेदार होने की वजह से वल्लभ थानवी उन्हें परेशान करते हैं। इसी संदर्भ में मैंने प्रेस कांफ्रेंस में वोराजी से सवाल किया था। 

लेकिन मुख्यमंत्री तो मुख्यमंत्री होते हैं, उन्हें अगर कोई बात बुरी लगी तो अखबार के मुखिया से शिकायत का उनका एक जायज हक बनता था। और बहुत लंबे परिचय की वजह से उन्होंने बाबूजी को बुलाकर ऐसी कुछ और कतरनों की भी फाईल सामने धर दी थी। 

मुझे बाबूजी के शब्द अच्छी तरह याद हैं कि उन्होंने इन्हें पढकऱ वोराजी से कहा था कि उन्हें तो इसमें कोई बात आपत्तिजनक नहीं लग रही है, जहां तक मेरे बोलने के तरीके का सवाल है, तो मुख्यमंत्री का भला कौन मालिक हो सकता है। उन्होंने कहा कि सुनील के बात करने का तरीका कुछ अक्खड़ है, और वे मुझे उनसे (वोराजी से) बात करने भेजेंगे। वे तो चाय पीकर लौट आए थे, लेकिन मुझे रायपुर में यह जानकारी देते हुए बाबूजी ने कहा कि जब वोराजी अगली बार रायपुर आएं तो उनसे जाकर मैं मिल लूं, और पूछ लूं कि वे किसी बात पर नाराज हैं क्या। न मुझे खेद व्यक्त करने का निर्देश मिला, और न ही माफी मांगने की कोई सलाह दी गई, कोई हुक्म दिया गया। 

वोराजी का कोई रायपुर प्रवास हफ्ते भर से अधिक दूर तो होता नहीं था, वे यहां आए, और मैं सर्किट हाऊस में जाकर उनसे मिला। भीतर खबर जाते ही उन्होंने तुरंत बुला लिया, मैंने कहा- बाबूजी कह रहे थे कि आप मेरी किसी बात से नाराज हैं? 

वोराजी ने हॅंसते हुए पास आकर पीठ थपथपाई, और कहा- अरे नहीं, कोई नाराजगी नहीं है। और क्या हाल है? कैसा चल रहा है? 

मुख्यमंत्री की नाराजगी महज एक वाक्य कहने से इस तरह धुल जाए, ऐसा आमतौर पर होता नहीं है, लेकिन वोराजी की सज्जनता कुछ इसी तरह की थी। उन्हें मैंने मन में गांठ बांधकर रखते नहीं देखा है, और राजनीति के प्रचलित पैमानों पर उनकी सज्जनता अनदेखी नहीं रहती। 

सोनिया-राहुल के साथ एक नाव में सवार छत्तीसगढ़ से अकेले वोरा
मोतीलाल वोरा के बारे में कल बात शुरू हुई, तो किसी किनारे नहीं पहुंच पाई। दरअसल उनके साथ मेरी व्यक्तिगत यादें भी जुड़ी हुई हैं, और उनके बारे में बहुत कुछ सुना हुआ भी है। फिर उनका इतना लंबा सक्रिय राजनीतिक जीवन है कि उनसे जुड़ी कहानियां खत्म होती ही नहीं। 

जब वे अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्हें हटाने के लिए कांग्रेस के भीतर के लोग लगातार लगे रहते थे। वैसे में माधवराव सिंधिया उनके संरक्षक बनकर दिल्ली दरबार में उन्हें बचाए रखते थे। इस बात में कुछ भी गोपनीय नहीं था, और हर हफ्ते यह हल्ला उड़ता था कि वोराजी को हटाया जाने वाला है। नतीजा यह था कि उस वक्त एक लतीफा चल निकला था कि वोराजी जब भी शासकीय विमान में सफर करते थे, तो विमान के उड़ते ही उसका वायरलैस बंद करवा देते थे। उसकी वजह यह थी कि उन्हें लगता था कि उड़ान के बीच अगर उन्हें हटाने की घोषणा हो जाएगी, तो पायलट उन्हें बीच रास्ते उतार न दे। 

वोराजी का पांच साल का पूरा कार्यकाल ऐसी चर्चाओं से भरे रहा, और वे इसके बीच भी सहजभाव से काम करते रहे। सिंधिया को छत्तीसगढ़ के अनगिनत कार्यक्रमों में उन्होंने बुलाया, और उस वक्त के रेलमंत्री रहे माधवराव सिंधिया ने छत्तीसगढ़ के लिए भरपूर मंजूरियां दीं। उस वक्त अखबारनवीसी कर रहे लोगों को याद होगा कि इनकी जोड़ी को उस समय मोती-माधव या माधव-मोती एक्सप्रेस कहा जाता था। माधवराव सिंधिया परंपरागत रूप से अर्जुन सिंह के प्रतिद्वंदी थे, और छत्तीसगढ़ के शुक्ल बंधुओं से भी उनका कोई प्रेमसंबंध नहीं था। ऐसे में केन्द्र में ताकतवर सिंधिया को राज्य में मोतीलाल वोरा जैसे निरापद मुख्यमंत्री माकूल बैठते थे, और ताकत में वोराजी की सिंधिया से कोई बराबरी नहीं थी। नतीजा यह था कि ताकत के फासले वाले इन दो लोगों के बीच जोड़ीदारी खूब निभी। 

मुख्यमंत्री रहने के अलावा जब वोराजी को राजनांदगांव संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया गया, तब उन्होंने चुनाव प्रचार में उसी अंदाज में मेहनत की, जिस अंदाज में वे मुख्यमंत्री रहते हुए रोजाना ही देर रात तक काम करने के आदी थे। इस संसदीय चुनाव प्रचार के बीच मैंने उनको इंटरव्यू करने के लिए समय मांगा तो उनका कहना था कि वे सात बजे चुनाव प्रचार के लिए राजनांदगांव से रवाना हो जाते हैं, और देर रात ही लौटते हैं। ऐसे में अगर मैं मिलना चाहता था, तो मुझे सात बजे के पहले वहां पहुंचना था। मैं स्कूटर से रायपुर से रवाना होकर दो घंटे में 7 बजे के पहले ही राजनांदगांव पहुंच गया, वहां वे एक तेंदूपत्ता व्यापारी के पत्ता गोदाम में बने हुए एक गेस्टरूम में सपत्नीक ठहरे थे, और करीब-करीब तैयार हो चुके थे।
 
वे मेरे तेवर भी जानते थे, और यह भी जानते थे कि उनके प्रति मेरे मन में न कोई निंदाभाव था, और न ही प्रशंसाभाव, फिर भी उन्होंने समय दिया, सवालों के जवाब दिए, और शायद इस बात पर राहत भी महसूस की कि मैंने अखबार के लिए चुनावी विज्ञापनों की कोई बात नहीं की थी। चुनाव आयोग के प्रतिबंधों के बाद चुनावी-विज्ञापन शब्द महज एक झांसा है, हकीकत तो यह है कि अखबार उम्मीदवारों और पार्टियों से सीधे-सीधे पैकेज की बात करते हैं। वह दौर ऐसे पैकेज शुरू होने के पहले का था, लेकिन यह आम बात है कि अखबारों के रिपोर्टर ही उम्मीदवारों से विज्ञापनों की बात कर लेते थे, कर लेते हैं, लेकिन वोराजी से न उस वक्त, और न ही बाद में कभी मुझे ऐसे पैकेज की कोई बात करनी पड़ी, और नजरों की ओट बनी रही। 

वोराजी खुद भी एक वक्त कम से कम एक अखबार के लिए तो काम कर ही चुके थे, और उनके छोटे भाई गोविंदलाल वोरा छत्तीसगढ़ के एक सबसे बुजुर्ग और पुराने अखबारनवीस-अखबारमालिक थे, इसलिए वोराजी को हर वक्त ही छत्तीसगढ़ के मीडिया की ताजा खबर रहती थी, भोपाल में मुख्यमंत्री रहते हुए भी, और केन्द्र में मंत्री या राष्ट्रपति शासन में उत्तरप्रदेश को चलाते हुए। जितनी मेरी याददाश्त साथ दे रही है, उन्होंने कभी अखबारों को भ्रष्ट करने, या उनको धमकाने का काम नहीं किया। वह एक अलग ही दौर था। 

मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री रहे, अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे, लेकिन छत्तीसगढ़ में वे अपने कोई सहयोगी नहीं बना पाए। दुर्ग में दो-चार लोग, और रायपुर में पांच लोग उनके नाम के साथ गिने जाते थे। रायपुर में तो उनके करीबी पांच लोगों की शिनाख्त इतनी जाहिर थी कि उन्हें पंच-प्यारे कहा जाता था। इन लोगों के लिए भी वोराजी कुछ जगहों पर मनोनयन से बहुत अधिक कुछ कर पाए हों, ऐसा भी याद नहीं पड़ता। लेकिन उनकी एक खूबी जरूर थी कि वे छत्तीसगढ़ के हजारों लोगों के लिए बिना देर किए सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो जाते थे। 

यूपीए सरकार के दस बरसों में देश में उनका नाम बड़ा वजनदार था। मेरे एक दोस्त की बेटी मुम्बई के एचआर कॉलेज में ही दाखिला चाहती थी। उस कॉलेज में दाखिला बड़ा मुश्किल भी था। उनके साथ मैं वोराजी के पास दिल्ली गया, दिक्कत बताई, तो वे सहजभाव से सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो गए। हम लोगों को कमरे में बिठा रखा, चाय और पान से स्वागत किया, पीछे के कमरे में जाकर अपने टाईपिस्ट के पास खड़े रहकर चिट्ठी लिखवाई उसे मुम्बई कॉलेज में फैक्स करवाया, और फैक्स की रसीद के साथ चिट्ठी की एक कॉपी मुझे दी, और कॉलेज के संस्थापक मुंबई के एक बड़े बिल्डर हीरानंदानी से फोन पर बात करने की कोशिश भी की, लेकिन बात हो नहीं पाई। 

चिट्ठी के साथ जब मैं अपने दोस्त और उनकी बेटी के साथ मुंबई गया, तो एचआर कॉलेज के बाहर मेला लगा हुआ था। उस भीड़ के बीच भी हमारे लिए खबर थी, और कुछ मिनटों में हम प्रिंसिपल के सामने थे। इन्दू शाहणी, मुंबई की शेरिफ भी रह चुकी थीं। उनकी पहली उत्सुकता यह थी कि मैं वोराजी को कैसे जानता हूं, उन्होंने सैकड़ों पालकों की बाहर इंतजार कर रही कतार के बाद भी 20-25 मिनट मुझसे बात की, जिसमें से आधा वक्त वे वोराजी और छत्तीसगढ़ के बारे में पूछती रहीं। सबसे बड़ी बात यह रही कि जिस दाखिले के लिए 10-20 लाख रूपए खर्च करने वाले लोग घूम रहे थे, वह वोराजी की एक चिट्ठी से हो गया। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि बाद में उन्होंने कभी चुनाव के वक्त या किसी और राजनीतिक काम से कोई खर्च बताया हो। वे उसे सज्जनता के साथ भूल गए, और दीवाली पर मेरे दोस्त मेरे साथ सिर्फ मिठाई का एक साधारण डिब्बा लेकर उनके घर दुर्ग गए, तो भी उनका कहना था कि अरे इसकी क्या जरूरत थी। 

मोतीलाल वोरा राजनीति में लगातार बढ़ती चली जा रही कुटिलता के बीच सहज व्यक्ति थे। वे बहुत अधिक साजिश करने के लिए कुख्यात नेताओं से अलग दिखते थे, और अभी भी अलग दिखते हैं। उनकी पसंद अलग हो सकती है, लेकिन अपनी पसंद को बढ़ावा देने के लिए, या नापसंद को कुचलने के लिए वे अधिक कुछ करते हों, ऐसा कभी सुनाई नहीं पड़ा। 

छत्तीसगढ़ में अभी कांग्रेस की सरकार बनी, तो दिल्ली से ऐसी चर्चा आई कि वोराजी की पहल पर, और उनकी पसंद पर ताम्रध्वज साहू को मुख्यमंत्री बनाना तय किया गया था, और इस बात की लगभग घोषणा भी हो गई थी, लेकिन इसके बाद भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव ने एक होकर, एक साथ लौटकर जब यह कह दिया कि वे ताम्रध्वज के साथ किसी ओहदे पर कोई काम नहीं करेंगे, तो ताम्रध्वज का नाम बदला गया, और भूपेश बघेल का नाम तय हुआ। ये तमाम बातें वैसे तो बंद कमरों की हैं, लेकिन ये छनकर बाहर आ गईं, और इनसे मोतीलाल वोरा और भूपेश बघेल के बीच एक दरार सी पड़ गई। 

अभी जब छत्तीसगढ़ से राज्यसभा के कांग्रेस उम्मीदवार तय होने थे, तब मोतीलाल वोरा से जिन्होंने जाकर कहा कि उन्हें राज्यसभा में रहना जारी रखना चाहिए, तो आपसी बातचीत में उन्होंने यह जरूर कहा था कि भूपेश बघेल उनका नाम होने देंगे? और हुआ वही, हालांकि यह नौबत शायद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के दरवाजे तक नहीं आई, और कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में ही यह तय कर लिया कि वोराजी का उपयोग अब राज्यसभा से अधिक संगठन के भीतर है, और केटीएस तुलसी जैसे एक सीनियर वकील की पार्टी को इस मौके पर अधिक जरूरत है।

वोराजी का बहुत बड़ा कोई जनाधार कभी नहीं रहा, वे पार्टी के बनाए हुए रहे, और जनता के बीच अपने सीमित असर वाले नेता रहे। लेकिन उनके बेटों की वजह से कभी उनकी कोई बदनामी हुई हो, ऐसा नहीं हुआ, और राजनीति में यह भी कोई छोटी बात तो है नहीं। छत्तीसगढ़ की एक मामूली नौकरी से लेकर वे कांग्रेस पार्टी में उसके हाल के सबसे सुनहरे दस बरसों में सबसे ताकतवर कोषाध्यक्ष और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के सबसे करीबी व्यक्ति रहे, आज भी हैं। आज दिन सुनहरे नहीं हैं, कांग्रेस पार्टी, सोनिया परिवार, और इन दोनों से जुड़ी हुई कुछ कंपनियां लगातार जांच और अदालती मुकदमों का सामना कर रही हैं, और उनमें मोतीलाल वोरा ठीक उतने ही शामिल हैं, ठीक उतनी ही दिक्कत में हैं, जितने कि सोनिया और राहुल हैं। किसी एक नाव पर इन दोनों के साथ ऐसे सवार होना भी कोई छोटी बात नहीं है, और रायपुर की एक बस कंपनी के एक मुलाजिम से लेकर यहां तक का लंबा सफर खुद मेरे देखे हुए बहुत सी और यादों से भरा हुआ है, लेकिन उनके बारे में बाकी बातें बाद में फिर कभी।

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