विचार/लेख
-प्रमोद भार्गव
बाढ़ और सूखे की समस्या का स्थाई समाधान ढूंढने के लिए देश में चल रही महत्वाकांक्षी केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना से जल संकट और गहरा सकता है। इससे मानसून का नियमित तंत्र भी प्रभावित हो सकता है। यह दावा ‘नेचर’ जर्नल में प्रकाशित एक शोध अध्ययन में किया गया है। यह शोध भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई, उष्णदेषीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) पुणे ने किया है। अध्ययन में हैदराबाद विष्वविद्यालय और किंग अब्दुल्ला युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिक भी षामिल थे। शोध में क्षेत्रीय जलवायु स्थितियां और आंकड़ों का विष्लेशण सहित मानसून से जुड़ी कई तकनीकियों का उपयोग किया गया। ताकि इन बड़ी परियोजनाओं के पूरी होने पर भविश्य में उत्पन्न होने वाले जल और मौसम संबंधी नतीजों के जटिल तंत्र को सामने ला सकें।
शोध में क्षेत्रीय जलवायु पारिस्थितिकी तंत्र और आंकड़ों का विष्लेशण करने के बाद पाया कि जो अलनीनो दक्षिणी दोलन जैसी परिस्थितियों को प्रभावित करते हैं। अतएव नदी जोड़ो योजना पूरी होने के बाद इसके क्षेत्र में आने वाला जल-स्थल वायुमंडल अंतरसंबंध को बिगाड़ सकता है। इससे वायु और नमी का स्तर प्रभावित होगा। नतीजतन देष में ये नदी जोड़ो क्षेत्र विशेष में बारिस का परंपरागत रुझान बदल सकता है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि पानी दूसरी नदी में जाने से सिंचित क्षेत्र बढ़ेगा, जो पानी की कमी का सामना कर रहें इलाकों में सितंबर की बारिस में 12 प्रतिशत तक की कमी ला सकता है। गोया, ऐसा होता है तो नदी जोड़ो योजना का संकट न केवल इस, परियोजना से लाभान्वित होने वाले इलाकाई लोगों को झेलना होगा बल्कि मौसम के तंत्र पर भी इसका विपरीत असर दिखाई देगा। भारत में एनडब्ल्यूडीए के अनुसार 30 नदियों को जोड़ा जाना है। इनमें प्रायद्वीपीय घटक के तहत 16 और हिमालयी घटक के अंतर्गत 14 नदियों को जोड़े जाने की पहचान कर ली गई है। इनमें से आठ योजनाओं की डीपीआर भी बना ली गई है।
जीवनदायी नदियां हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। नदियों के किनारे ही ऐसी आधुनिकतम बढ़ी सभ्यताएं विकसित हुईं, जिन पर हम गर्व कर सकते हैं। सिंधु घाटी और सारस्वत (सरस्वती) सभ्यताएं इसके उदाहरण हैं। भारत के सांस्कृतिक उन्नयन के नियमों में भागीरथी, राम और कृष्ण का नदियों से गहरा संबंध रहा है। भारतीय वांग्मय में इंद्र और कुबेर विपुल जलराशि के प्राचीनतम वैज्ञानिक-प्रबंधक रहे हैं। भारत भूखण्ड में आग, हवा और पानी को सर्वसुलभ नियामत माना गया है। हवा और पानी की शुद्धता और सहज उपलब्धता नदियों से है। दुनिया के महासागरों, हिमखण्ड़ों, नदियों और बड़े जलाशयों में अकूत जल भण्डार हैं। लेकिन मानव के लिए उपयोग जीवनदायी जल और बढ़ती आबादी के लिए जल की उपलब्धता का बिगड़ता अनुपात चिंता का बड़ा कारण बना हुआ है। ऐसे में भी बढ़ते तापमान के कारण हिमखण्डों के पिघलने और अवर्षा के चलते जल स्त्रोतों के सूखने का सिलसिला जारी है। वर्तमान में जल की खपत कृषि, उद्योग, विद्युत और पेयजल के रूप में सर्वाधिक हो रही है। हालांकि पेयजल की खपत मात्र आठ फीसदी है। जिसका मुख्य स्त्रोत नदियां और भू-जल हैं। औद्योगिकिकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के दबाव के चलते एक ओर नदियां सिकुड़ रही हैं, वहीं औद्योगिक कचरा और मल मूत्र बहाने का सिलसिला जारी रहने से गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियां इतनी प्रदूषित हो गईं हैं कि यमुना नदी को तो एक पर्यावरण संस्था ने मरी हुई नदी तक घोषित कर दिया है। इसलिए नदी जोड़ो परियोजना से भी यदि नदियों और मौसम के पंख को हानि होती है तो बड़ा संकट देश की जनता को भुगतना होगा।
प्रस्तावित करीब 120 अरब डालर अनुमानित खर्च की नदी जोड़ों परियोजना को दो हिस्सों में बांटकर अमल में लाया जाएगा। एक प्रायद्वीप स्थित नदियों को जोडऩा और दूसरे, हिमालय से निकली नदियों को जोडऩा। प्रायद्वीप भाग में 16 नदियां हैं, जिन्हें दक्षिण जल क्षेत्र बनाकर जोड़ा जाना है। इसमें महानदी, गोदावरी, पेन्नार, कृष्णा, पार, तापी, नर्मदा, दमनगंगा, पिंजाल और कावेरी को जोड़ा जाएगा। पशिचम के तटीय हिस्से में बहने वाली नदियों को पूर्व की ओर मोड़ा जाएगा। इस तट से जुड़ी तापी नदी के दक्षिण भाग को मुंबई के उत्तरी भाग की नदियों से जोड़ा जाना प्रस्तावित है। केरल और कर्नाटक की पशिचम की ओर बहने वाली नदियों की जलधारा पूर्व दिशा में मोड़ी जाएगी। यमुना और दक्षिण की सहायक नदियों को भी आपस में जोड़ा जाना इस परियोजना का हिस्सा है। हिमालय क्षेत्र की नदियों के अतिरिक्त जल को संग्रह करने की दृष्टि से भारत और नेपाल में गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र तथा इनकी सहायक नदियों पर विशाल जलाशय बनाने के प्रावधान हैं। ताकि वर्षाजल इकट्ठा हो और उत्तर-प्रदेश, बिहार एवं असम को भंयकर बाढ़ का सामना करने से निजात मिल सके। इन जलाशयों से बिजली भी उत्पादित की जाएगी। इसी क्षेत्र में कोसी, घांघरा, मेच, गंडक़, साबरमती, शारदा, फरक्का, सुन्दरवन, स्वर्णरेखा और दमोदर नदियों को गंगा, यमुना और महानदी से जोड़ा जाएगा। करीब 13,500 किमी लंबी ये नदियां भारत के संपूर्ण मैदानी क्षेत्रों में अठखेलियां करती हुईं मनुष्य और जीव-जगत के लिए प्रकृति का अनूठा और बहुमूल्य वरदान बनी हुईं हैं। 2528 लाख हेक्टेयर भू-खण्डों और वनप्रांतरों में प्रवाहित इन नदियों में प्रति व्यक्ति 690 घन मीटर जल है। कृषि योग्य कुल 1411 लाख हेक्टेयर भूमि में से 546 लाख हेक्टेयर भूमि इन्हीं नदियों की बदौलत प्रति वर्ष सिंचित की जाकर फसलों को लहलहाती हैं।
ऐसा दावा किया जा रहा है कि बाढ़ और सूखे से परेशान देश में नदियों के संगम की केन-बेतवा नदी परियोजना मूर्त रूप ले लेती है, तो भविश्य में 60 अन्य नदियों के मिलन का रास्ता खुल जाएगा। दरअसल बढ़ते वैष्विक तापमान, जलवायु परिवर्तन, अलनीनो और बदलते वर्षा चक्र के चलते जरूरी हो गया है कि नदियों के बाढ़ के पानी को इकट्ठा किया जाए और फिर उसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में नहरों के जरिए भेजा जाए। ऐसा संभव हो जाता है तो पेयजल की समस्या का निदान तो होगा ही, सिंचाई के लिए भी किसानों को पर्याप्त जल मिलने लग जाएगा। वैसे भी भारत में विश्व की कुल आबादी के करीब 18 प्रतिशत लोग रहते हैं और उपयोगी जल की उपलब्धता महज 4 प्रतिशत है। हालांकि पर्यावरणविद् इस परियोजना का यह कहकर विरोध कर रहे हैं कि नदियों को जोडऩे से इनकी अविरलता खत्म होगी, नतीजतन नदियों के विलुप्त होने का संकट बढ़ जाएगा। इसी तथ्य की पुश्टि यह नया शोध कर रहा है।
यदि केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना में आ रहे संकटों की बात करें तो इनसे पार पाना आसान नहीं है। वन्य जीव समिति बड़ी बाधा के रूप में पेष आ रही है, यह आशंका भी जताई जा रही है कि परियोजना पर क्रियान्वयन होता है तो नहरों एवं बांधों के लिए जिस उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा, वह नष्ट हो जाएगी। इस भूमि पर फिलहाल जौ, बाजरा, दलहन, तिलहन, गेहूं, मूंगफली, चना जैसी फसलें पैदा होती हैं। इन फसलों में ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है। जबकि ये नदियां जुड़ती हैं, तो इस पूरे इलाके में धान और गन्ने की फसलें पैदा करने की उम्मीद बढ़ जाएगी। परियोजना को पूरा करने का समय 9 साल बताया जा रहा है। लेकिन हमारे यहां भूमि अधिग्रहण और वन भूमि में स्वीकृति में जो अड़चनें आती हैं, उनके चलते परियोजना 20-25 साल में भी पूरी हो जाए तो यह बड़ी उपलब्धि होगी ?
दोनों प्रदेशों की सरकारें दावा कर रही हैं कि यदि ये नदियां परस्पर जुड़ जाती हैं तो मध्य-प्रदेश और उत्तर-प्रदेश के सूखाग्रस्त बुंदेलखण्ड क्षेत्र में रहने वाली 70 लाख आबादी खुषहाल हो जाएगी। यही नहीं नदियों को जोडऩे का यह महाप्रयोग सफल हो जाता है तो अन्य 60 नदियों को जोडऩे का सिलसिला भी शुरू हो सकता है ? नदी जोड़ों कार्यक्रम मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है। इस परियोजना के तहत उत्तर-प्रदेश के हिस्से में आने वाली पर्यावरण संबंधी बाधाओं को दूर कर लिया गया है। मध्यप्रदेश में जरूर अभी भी पन्ना राष्ट्रीय उद्यान बाधा बना हुआ है और जरूरी नहीं कि जल्दी यहां से मंजूरी मिल जाए? वन्य जीव समिति इस परियोजना को इसलिए मंजूरी नहीं दे रही है, क्योंकि पन्ना राष्ट्रीय उद्यान बाघों के प्रजनन, आहार एवं आवास का अहम् वनखंड है। इसमें करीब चार दर्जन बाघ बताए जाते हैं। अन्य प्रजातियों के प्राणी भी बड़ी संख्या में हैं। हालांकि मध्यप्रदेश और केंद्र में एक ही दल भाजपा की सरकारें हैं, लिहाजा उम्मीद की जा सकती है कि बाधाएं भी जल्दी दूर हो जाएं ? हीरा खनन क्षेत्र भी नई बाधा के रूप में आ सकता है ?
- अपूर्व भारद्वाज
आडवाणी जब रथ यात्रा पर निकले थे तो तबके प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने लालू यादव से पूछा कि बीजेपी की धर्म की राजनीति की काट क्या है लालू ने बोला कि केवल सामाजिक न्याय ही धर्म की राजनीति को पटखनी दे सकता है।
वीपी सिंह मंडल आयोग की सिफारिश लागू कर चुके थे बीजेपी को गेम समझ आ रहा था इसलिए उसने दबी जुबान में मंडल का विरोध करके कमंडल पकड़ कर रथ निकाल लिया ताकि ओबीसी का पूरा वोट बैंक वीपी सिंह की गोद में न चला जाये कांग्रेस इस दोनों मुद्दों पर रहस्यमय ढंग से चुप रही और इसलिए यूपी औऱ बिहार में इतिहास हो गई।
2014 के चुनाव में बिहार में बुरी तरह हारने के बाद यही सवाल नीतीश ने लालू से पूछा और जवाब वही था सामाजिक न्याय.. 2015 में महा-गठबंधन बना और बीजेपी बिहार में बुरी तरह हार गई। कांग्रेस तब उनके साथ थी पर तब भी कांग्रेस मुखर नहीं थी क्योंकि कांग्रेस को हमेशा उस सवर्ण वोट का लालच था जो 2014 के बाद से उसके पास कभी लौट कर नहीं आया था 2023 में यही सवाल राहुल गांधी ने नीतीश और लालू से पूछा और जवाब वही था कि सामाजिक न्याय....इस बार राहुल गाँधी ने इसे समझ लिया है कि बीजेपी के धर्मपाश में बंधा पेटभरा सवर्ण मतदाता कम से कम 2029 तक लौट कर नहीं आ रहा है, इसलिए मंडल 2.0 का दांव चल दिया है। जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी की तर्ज पर ‘जितनी आबादी उतना हक का नारा’ अब 2024 तक की हर चुनावी रैली मे लगेगा और यह गेम चेंजर हो सकता है तो क्या 2024 मंडल 1ह्य कमंडल होगा ? याद रखिए राहुल ने जातीय जनगणना के साथ गरीबों की आर्थिक गणना की भी बात की है तो क्या राहुल बीजेपी के घोर पूंजीवाद साम्प्रदायिक मॉडल के विरुद्ध सामाजिक न्याय और गरीबी को मिलाकर एक नया समाजवाद मॉडल खड़ा कर 2024 में बीजेपी के लौटने के सारे दरवाजा बंद कर देंगे ? यह सवाल अगले 6 महीने में हर राजनीतिक पंडित के जिह्वा पर रहेगा।
-दीपाली अग्रवाल
हॉस्टल का कमरा जिसकी खिडक़ी राजस्थान की रेत को निहारती थी, उसी के पास रखी कुर्सी पर मेरा समय बीतता। मेज पर लैपटॉप टिकाकर कागज पर नोट्स बनाती, डूबते सूरज को निहारती और जगजीत सिंह की गजलें सुनती। नोट्स पीछे रह जाते, शाम गहरा जाती, बचते तो मैं, आसमान के सीने पर उतरते तारे और जगजीत की आवाज़। दरअसल मैं भी कहां बच पाती थी, उस तरन्नुम में ही सब डूबता रहा।
एक दफा मुझसे किसी ने कहा था कि, अध्यात्म का ज्ञान न हो तो आंखें बंद किए गज़़लें सुना करो। तुम जानोगी कि अवचेतन तक कैसे पहुंचा जाता है। अगर बात सच है तो जगजीत सिंह की आवाज से मैंने जब-तब अपने अवचेतन में प्रवेश किया है। कॉलेज के उन दिनों से वे मेरे हमसफर रहे हैं। घंटों लूप पर एक ही गजल चलती रहती, फिर कोई कहता कि मेस जाना है। गजल का मतला (पहला शेर) और जगजीत सिंह की आवाज जैसे टेप-रिकॉर्डर की तरह तब भी मन में चलते रहते। यह उनकी आवाज का मोजिजा था कि मतला से आगे कभी कुछ याद न हुआ, वे दूसरा शेर गा देते और हम पहले पर ही दाद में उलझे रहे।
फिर जगजीत इतनी आसानी से कहीं और जाने भी नहीं देते। उनके पास मन के हर सोपान के लिए तो कुछ है। बगीचे से हर रंग के फूल चुनकर उन्होंने अपनी आवाज में शहद इकट्ठा किया है।
प्रेमियों के लिए वे गाते हैं-
प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उडऩे में वक्त तो लगता है
हिज्र के लिए
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजऱ क्यूँ नहीं जाता
रूमानी
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
हकीकत
हर तरफ हर जगह बे-शुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
चिट्ठी न कोई संदेश, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, इन तमाम गजलों और नज़्मों की तासीर अलग है। जिन शायरों ने इन्हें लिखा है उनकी कैफियत भी एक दूसरे से अलग रही होगी लेकिन जगजीत एक ही थे। उन्होंने हर गजल को जैसे खुद भी जीया और फिर गाया हो। एक इंटरव्यू के दौरान जगजीत सिंह ने कहा भी था कि उन्होंने गालिब को मिर्जा गालिब बनकर गाया है न कि जगजीत सिंह बनकर। लेकिन ऐसा नहीं कि उन्होंने गज़़लें भर ही गाई हैं। जगजीत सिंह की आवाज़ में राधे-कृष्ण बांके-बिहारी मंदिर की गलियों में अब भी सुनाई दे जाता है। सुनने वाले अचरज करेंगे कि मंदिर की गलियों में गूंज रही इसी आवाज़ ने पंजाबी लोक के टप्पे गाए हैं, इसी गले से निकला कि ठुकराओ अब कि प्यार करो, मैं नशे में हूं। अपने इन सुरों से जगजीत सिंह ने हर गली का सफऱ किया है- गले से गली तक की यात्रा और हर उम्र के लोगों के बीच लोकप्रिय। जहन की हर स्थिति के लिए कुछ गाने वाले।
वे जानते थे कि उन्हें अपने सुनने वालों के लिए कैसा काम करना है। वे फिल्मों को लेकर दुराग्रही नहीं थे, वहां हिट हुए तो खूब काम किया जब फि़ल्म नहीं चली तो मोह भी न रहा। अपनी एल्बम बनाते रहे, काम करते रहे। संगीत के साज के साथ प्रयोग करते थे, एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि नई पीढ़ी को नए वाद्य के साथ संगीत देना चाहिए। यह बात 60 साल से अधिक के जगजीत सिंह कह रहे थे।
70 की उम्र में साल 2011 अक्टूबर में उन्होंने हमें अलविदा कहा, मेरा उनके साथ सफऱ तब शुरू ही हुआ था। कई बार सोचती हूं कि हॉस्टल की उस खिडक़ी से जो सितारे दीखते थे उनमें जगजीत कौन से होंगे। किसी कवि ने लिखा है न कि, कहते हैं तारे गाते हैं। हमारा गजल गाने वाला तारा क्या आज भी हॉस्टल की किसी खिडक़ी के पार कुछ सुनाता होगा।
डॉ. आर.के. पालीवाल
कांग्रेस एकमात्र ऐसा राजनीतिक दल है जिसके पास आज़ादी के आंदोलन की बहुत सी विभूतियों की विशाल धरोहर है। आज़ादी की लगभग छह दशक लम्बी लड़ाई में कांग्रेस राष्ट्र प्रेमी भारतीयों का ऐसा अप्रतिम समूह बन गई थी जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी और बौद्ध धर्म की महान विभूतियों और हर क्षेत्र के युवाओं से लेकर बुजुर्गों और महिलाओं ने कंधे से कंधा मिलाकर एक से बढक़र एक बलिदान दिया था। आज़ादी के बाद अधिकांश कांग्रेसी नेता जोशो खरोश से जन सेवा के लिए भी आगे आए थे। जैसे जैसे आज़ादी के आंदोलन की यादें पुरानी पड़ती गई वैसे वैसे कांग्रेस के हाई कमान ने एक एक कर कांग्रेस की महान विभूतियों को विस्मृत करना शुरु कर दिया और यह परंपरा अभी भी जारी है।
सबसे पहले कांग्रेस ने सरदार पटेल को विस्मृत किया जिन्हें पिछ्ले दिनों भारतीय जनता पार्टी ने अपनाकर गुजरात में स्टेच्यू ऑफ यूनिटी नाम का भव्य स्मारक बनाया है।महात्मा गांधी को भी कांग्रेस ने मनरेगा आदि चंद योजनाओं तक सीमित कर दिया और समय के साथ कांग्रेस के शासन में विभिन्न बडी योजनाओं में उनकी जगह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम आ गए। प्रधानमंत्री के दल के भले ही बहुत से नेता और कार्यकर्ता गांधी के हत्यारे गोडसे को देशभक्त बनाने पर तुले हैं और गांधी से जुड़ी संस्थाओं, यथा सर्व सेवा संघ वाराणसी आदि को नेस्तनाबूद कर रहे हों लेकिन प्रधानमंत्री कभी स्वच्छता अभियान और कभी विदेशी दौरों पर अक्सर गांधी को याद कर लेते हैं। सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह आदि के साथ भी कमोबेश यही स्थिति रही है। जब कांग्रेस की अग्रिम पंक्ति के नेताओं के साथ नेहरू के बाद की कांग्रेस सरकारों का यह रवैया रहा है तब आज़ादी की लड़ाई के क्षेत्रीय नायकों को याद रखना असंभव था। कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रपों की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वे अपने अपने क्षेत्रों के आज़ादी के आंदोलन के नायकों को विस्मृत नहीं होने देते। दुर्भाग्य से उन्होंने तत्कालीन हाई कमान को खुश करने के चक्कर में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम को ही आगे बढ़ाने में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा की। अमृत महोत्सव काल में वर्तमान सरकार ऐसे लोगों को खोज खोज कर आगे ला रही है।
कांग्रेस ने केवल आज़ादी के नायकों के साथ ही ऐसा नहीं किया। आज़ादी के बाद नेहरू परिवार के बाहर के जितने भी कांग्रेस अध्यक्ष रहे हैं उनके साथ भी यही किया है। पिछ्ले दो तीन दशक की बात करें तो सीताराम केसरी और नरसिंहराव को भी कांग्रेस की विभूतियों से कभी का बाहर किया जा चुका है। नरसिंह राव के साथ उनके जीवित रहते हुए भी कांग्रेस हाई कमान ने सौतेला व्यवहार किया था। दो बार प्रधानमन्त्री रहे मनमोहन सिंह की भी यही स्थिति है। हाई कमान में उनका क्रम सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा के बाद ही दिखता है। कांग्रेस द्वारा विस्मृत नायकों को भारतीय जनता पार्टी के अलावा अन्य दलों ने भी अपनाना शुरु किया है। कुछ समय पहले नरसिंह राव को तेलंगाना में सत्तारूढ़ दल टी आर एस, जो अब बी आर एस हो गई है, ने महिमामंडित करना शुरु किया है। कुछ दिन पहले कांग्रेस के बड़बोले नेता मणिशंकर अय्यर ने उन्हें सार्वजनिक बयान देकर बाकायदा भारतीय जनता पार्टी के पाले में धकेल दिया है। इसे कांग्रेसियों द्वारा अपनी ही पार्टी के पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने के अलावा क्या कहा जा सकता है! मणिशंकर अय्यर और दिग्विजय सिंह कांग्रेस के दो ऐसे बडबोले नेता हैं जिनका सार्वजनिक प्लेटफार्म पर निकलने वाले शब्दों पर नियंत्रण नहीं है। इन दोनों के बडबोले बयान कांग्रेस के लिए जब तब संकट पैदा करते रहते हैं। दक्षिण भारत में कर्नाटक विधानसभा चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस तेलंगाना में पैर जमाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में मणिशंकर अय्यर का बयान नरसिंहराव के समर्थकों को नाराज़ कर तेलंगाना में किनारे लगी कांग्रेस को और किनारे कर सकता है।
ललित मौर्य
इस साल अर्थशास्त्र के क्षेत्र का नोबेल यानी स्वेरिगेस रिक्सबैंक पुरस्कार हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर क्लाउडिया गोल्डिन को दिया गया है। इसकी औपचारिक घोषणा आज रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज ने कर दी है। बता दें कि क्लाउडिया गोल्डिन को यह पुरस्कार श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी के लिए किए उनके कामों के लिए दिया गया है।
उन्होंने श्रम बाजार में लैंगिक असमानताओं के पीछे की मुख्य वजहों को उजागर किया है। पिछली एक सदी के दौरान कई समृद्ध देशों में महिला कामगारों की संख्या तीन गुना हो गई है। यह वो श्रमिक हैं जिन्हें अपने काम का मेहनताना भी दिया जा रहा है। देखा जाए तो यह श्रम बाजार के आधुनिक इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक बदलावों में से एक है।
हालांकि इसके बावजूद दुनिया भर में इसको लेकर लिंग भेद खत्म नहीं हुआ है। 80 के दशक तक किसी भी शोधकर्ता ने इन असमानताओं की उत्पत्ति को समझने के लिए व्यापक दृष्टिकोण नहीं अपनाया था। वहीं क्लाउडिया गोल्डिन ने अपने शोध में हमें श्रम बाजार में महिलाओं की ऐतिहासिक और वर्तमान स्थिति पर नए और अप्रत्याशित दृष्टिकोण प्रदान किए हैं। अपने अध्ययनों में उन्होंने 200 वर्षों के आंकड़ों की मदद से यह साबित किया है कि कमाई और रोजगार दरों में लिंग अंतर कैसे और क्यों बदल गया?
उनकी रिसर्च से पता चला है कि वैश्विक श्रम बाजार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है और यदि वे काम करती भी हैं तो भी आय के मामले में पुरुषों से पीछे रहती हैं। उनका शोध इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि कैसे महिलाओं की पसंद अक्सर शादी, घर चलाने और परिवार की देखभाल की जिम्मेवारियों से बाधित होती है।
उन्होंने जो तथ्य सामने लाए हैं वो अमेरिका की सीमाओं के बाहर भी तर्कसंगत हैं। कई अन्य देशों में भी इसी तरह के पैटर्न देखे गए हैं। उनका शोध हमें अतीत, वर्तमान और भविष्य के श्रम बाजारों की बेहतर समझ प्रदान करता है। गौरतलब है कि क्लाउडिया गोल्डिन हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। आप 1989 से 2017 तक एनबीईआर के अमेरिकी अर्थव्यवस्था विकास कार्यक्रम की डायरेक्टर थीं। साथ ही वो एनबीईआर के 'जेंडर इन द इकोनॉमी' समूह की को-डायरेक्टर भी हैं।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि अर्थशास्त्र के क्षेत्र के नोबेल समझे जाने वाले इस स्वेरिगेस रिक्सबैंक पुरस्कार को 1968 में अल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में शुरू किया गया था। यह पुरस्कार स्वीडन के सेंट्रल बैंक द्वारा दिए दान पर आधारित है। 1969 में रग्नर फ्रिस्क और जान टिनबर्गेन को पहला स्वेरिगेस रिक्सबैंक पुरस्कार दिया गया था।
तब से लेकर अब तक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में 55 बार यह पुरस्कार दिया जा चुका है। अब तक केवल तीन महिलाओं को इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, इनमें सबसे पहले 2009 में एलिनोर ओस्ट्रोम, 2019 में एस्थर डुफ्लो और 2023 में क्लाउडिया गोल्डिन को इस पुरस्कार से नवाजा गया है।
पिछले वर्ष तीन अमेरिकी अर्थशास्त्रियों बेन एस बर्नानके, डगलस डब्ल्यू डायमंड और फिलिप एच डायबविग को स्वेरिग्स रिक्सबैंक पुरस्कार दिया गया था। उन्हें यह पुरस्कार बैंकों और वित्तीय संकटों पर किए उनके शोध के लिए दिया गया था। इससे पहले वर्ष 2021 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेविड कार्ड को संयुक्त रूप से जोशुआ डी एंग्रिस्ट और गुइडो डब्ल्यू इम्बेंल के साथ मिलकर दिया गया था।
बता दें कि इससे पहले दो भारतीय भी इस पुरस्कार से नवाजे जा चुके हैं। साल 1998 में भारत के मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को यह पुरस्कार दिया गया था। इसके लंबे अरसे बाद, वर्ष 2019 में अभिजीत बनर्जी यह पुरस्कार मिला था।
बता दें कि अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट काम करने वाले लोगों को हर साल नोबेल पुरस्कार से नवाजा जाता है। हर साल यह पुरस्कार भौतिकी, रसायन विज्ञान, चिकित्सा, शान्ति, साहित्य और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में दिया जाता है। गत सोमवार से इन पुरस्कारों की घोषणा शुरू हो चुकी है। (बाकी पेज 8 पर)
मानवाधिकार कार्यकर्त्ता नरगिस मोहम्मदी ने जीता था इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार
इससे पहले छह अक्टूबर 2023 को ईरान की मानवाधिकार कार्यकर्त्ता नरगिस मोहम्मदी को इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था। उन्हें यह पुरस्कार महिलाओं की आजादी और हक की आवाज उठाने के साथ-साथ मानवाधिकार और सभी की स्वतंत्रता के लिए किए जा रहे उनके प्रयासों के लिए दिया गया है। गौरतलब है कि नरगिस मोहम्मदी लम्बे समय से ईरान में महिलाओं के उत्पीडऩ के खिलाफ जंग लड़ रही हैं। उन्हें अपने साहसिक संघर्ष की भारी व्यक्तिगत कीमत चुकानी पड़ी है।
इस कड़ी में सोमवार को दो अक्टूबर 2023 को वैज्ञानिक कैटेलिन कैरिको और ड्रू वीसमैन को चिकित्सा के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इन दोनों वैज्ञानिकों को यह पुरस्कार कोविड-19 के प्रभावी टीकों से जुड़ी उनकी खोज के लिए दिया गया है। इन दोनों वैज्ञानिकों ने महामारी के खिलाफ प्रभावी एमआरएनए टीके विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसकी वजह से दुनिया भर में लाखों जिंदगियां बचाई जा सकी।
मंगलवार तीन अक्टूबर को पियरे एगोस्टिनी, फेरेन्क क्रॉस्ज और ऐनी एल'हुइलियर को संयुक्त रूप से केमिस्ट्री में उनके उत्कृष्ट योगदान देने के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन्हें यह पुरस्कार उनके अनूठे प्रयागों के लिए दिया गया है, जो मानवता को परमाणुओं और अणुओं के भीतर इलेक्ट्रॉनों की जांच करने के लिए शक्तिशाली उपकरण प्रदान करते हैं। पियरे एगोस्टिनी, फेरेन्क क्रॉस्ज और ऐनी एल'हुइलियर ने अपने प्रयोगों में दिखाया है कि प्रकाश की बेहद छोटी तरंगे कैसे उत्पन्न की जाती हैं। इसका उपयोग उन तीव्र प्रक्रियाओं को मापने के लिए किया जा सकता है, जिनमें इलेक्ट्रॉन गति करते हैं या ऊर्जा में बदलते हैं।
वहीं क्वांटम डॉट्स की खोज के लिए वैज्ञानिक माउंगी बावेंडी, लुईस ब्रूस और एलेक्सी एकिमोव को संयुक्त रूप से वर्ष 2023 में केमिस्ट्री का नोबल पुरस्कार से नवाजा गया था। उन्हें यह पुरस्कार क्वांटम डॉट्स की खोज और इसके विकास के लिए दिया गया है। आपकी जानकारी के लिए बता दें क्वांटम डॉट्स आकार में अत्यंत छोटे नैनोपार्टिकल्स होते हैं, उनका आकार ही उनके गुणों को निर्धारित करता है।
इसके बाद पांच अक्टूबर 2023 को नॉर्वेजियन लेखक जॉन फॉसे को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन्हें यह पुरस्कार उनके अभिनव नाटकों और गद्य के लिए दिया गया है, जो अनकही को आवाज देते हैं। इसके बाद सोमवार नौ अक्टूबर 2023 को अंत में अर्थशास्त्र के नोबेल विजेताओं की घोषणा की जाएगी। (डाऊन टू अर्थ)
फिलीस्तीन के चरमपंथी गुट हमास ने जिस तरह से इसराइल पर चौतरफा हमला किया है, उसे अब तक का सबसे बड़ा हमला माना जा रहा है।
जिस तरह हमास के चरमपंथी सीमा पर लगे बाड़ को तोडक़र इसराइयली इलाक़े में घुसे, स्थानीय लोगों को मारने के साथ उन्हें बंधक बनाया, इसराइल के लिए ये सब कुछ अप्रत्याशित है।
इस पूरे संकट को समझने के लिए आपको कुछ बुनियादी बातें जाननी होंगी। आखिर इससे जुड़े लोग कौन हैं, कहाँ से आते हैं और ये संगठन बना कैसे?
आखिर हमास है क्या?
हमास फिलस्तीन का इस्लामिक चरमपंथी समूह है, जो गाजा पट्टी से संचालित होता है। 2007 में गाजा पर नियंत्रण के बाद हमास के विद्रोहियों ने इसराइल को बर्बाद करने की कसम खाई।
तब से लेकर हालिया हमले तक ये चरमपंथी संगठन इसराइल के साथ कई बार युद्ध छेड़ चुका है।
इस दौरान हमास ने इसराइल पर हजारों रॉकेट दागने के साथ कई दूसरे घातक हमले भी किए। इसराइल पर हमले के लिए हमास दूसरे चरमपंथी गुटों की भी सहायता लेता है।
इन हमलों के जवाब में इसराइल कई तरह से हमास पर सैन्य कार्रवाई करता है। 2007 के बाद से ही इसराइल ने मिस्र के साथ मिलकर गाजा की नाकेबंदी कर रखी है। इसराइल कहता है, ये उसकी सुरक्षा के लिए जरूरी है।
एक संगठन के रूप में हमास, खासतौर पर इसकी मिलिट्री विंग को इसराइल, अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, ब्रिटेन और कई दूसरे देशों ने आतंकवादी समूह घोषित कर रखा है।
पड़ोसी ईरान हमास का सबसे बड़ा समर्थक है। वो इसे आर्थिक मदद के साथ हथियार और ट्रेनिंग सुविधाएं भी मुहैया कराता है।
गाजा को लेकर विवाद क्या है?
इसराइल, मिस्र और भूमध्यसागर के बीच जिस पट्टी को गाजा कहते हैं, वो 41 किलोमीटर लंबा और 10 किलोमीटर चौड़ा इलाका है।
यहाँ करीब 23 लाख लोग रहते हैं। ये दुनिया की सबसे ज्यादा सघन आबादी वाले इलाकों में से एक है।
गाजा का हवाई क्षेत्र और तटीय इलाके इसराइल के नियंत्रण में हैं।
इस नियंत्रण के साथ इसराइल ही ये तय करता है कि गजा से कौन सी चीज बाहर आएगी और क्या कुछ अंदर जाएगा।
इसी तरह मिस्र गाजा बॉर्डर पर ये तय करता है कि कौन लोग यहाँ से अंदर बाहर आ या जा सकेंगे।
इसराइल और हमास के बीच लड़ाई किस बात पर?
इसराइल और हमास के बीच तनाव लंबे समय से लगातार चला आ रहा है। लेकिन शनिवार को चरमपंथी गुट ने जो हमले किए, उसे लेकर कोई चेतावनी जारी नहीं की।
हमास ने इसराइल पर हज़ारों रॉकेट दागे। इसके साथ दर्जनों चरमपंथी सीमा पार कर इसराइली रिहाइशों में घुस गए, जहाँ इन्होंने लोगों की हत्या की और कइयों को बंधक बनाकर ले गए।
इसके फौरन बाद इसराइल ने गाजा पर हवाई हमले शुरू कर दिए। इसराइल ने कहा कि वो गाजा में चरमपंथी ठिकानों को निशाना बना रहा है
हमास का हमला अप्रत्याशित
क्यों कहा जा रहा है?
बीबीसी के इंटरनेशनल एडिटर जेरेमी बोवेन ने अपनी रिपोर्ट में गाजा से किए गए हमास के हमले को अब तक का सबसे बड़ा और घातक करार दिया है।
रिपोर्ट के मुताबिक इसराइल की नई पीढ़ी ने ऐसा ‘क्रॉस बॉर्डर अटैक’ ना ही देखा था और ना ही इसराइल ने इतने बड़े अटैक का सामना किया था।
हमास के चरमपंथियों ने सीमा पर लगी बाड़ को कई जगह तोड़ा और अंदर दाखिल हो गए।
ये हमला 1973 के इसराइल पर 50 साल पहले के उस हमले की वर्षगांठ के ठीक एक दिन बाद किया, जिसे मिस्र और सीरिया ने संयुक्त रूप से अंजाम दिया था।
उस हमले की तारीख और वर्षगांठ की अहमियत हमास नेतृत्व के लिए ख़त्म नहीं हुई है।
इसराइल की ये सबसे बड़ी
खुफिया नाकामी क्यों है?
बीबीसी के सुरक्षा मामलों के संवाददाता फ्रैक ग्रार्डनर मानते हैं कि हमास का ये हमला इसराइल की खुफिया नाकामी का नतीजा है।
इसराइल की खुफिया कमान देश के भीतर ‘शिन बेट’ और देश के बाहर ‘मोसाद’ नाम की एजेंसी संभालती है। इनके साथ इसराइल का पूरा डिफेंस सिस्टम और फोर्स भी जुड़ा होता है।
फ्रैक गार्डनेर कहते हैं, ‘ये बिल्कुल निराश कर देने वाली बात है कि इतने बड़े हमले की योजना की भनक तक नहीं लगी। अगर कोई अलर्ट मिला था, तो समय रहते इसे रोकने की कार्रवाई भी नहीं की जा सकी।’
ऐसा इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि पूरे मध्य-पूर्व में सबसे समृद्ध खुफिया एजेंसी इसराइल के पास है। इसके जासूस और एजेंट्स सीरिया, लेबनान से लेकर फिलस्तीनी चरमपंथी गुटों के भीतर तक फैले हुए हैं।
अगर बात करें सीमा सुरक्षा की, तो गाजा से लगी सीमा पर कंटीले तारों से ऊंचे और मज़बूत बाड़ बनाए गए हैं। इन पर कैमरों के साथ ग्राउंड मोशन सेंसर्स भी लगाए गए हैं।
पूरी सीमा पर लगातार पट्रोलिंग भी होती रहती है।
गाजा सीमा पर इतनी सख़्त बाड़बंदी का मकसद था, वैसे ही घुसपैठ को रोकना, जैसा शनिवार के हमले में हमास के चरमपंथियों ने किया।
लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि हमास के चरमपंथी बुल्डोजर का इस्तेमाल करते हुए कई जगह इसे ढहा कर, तो कई जगह कंटीले तारों को काट कर अंदर दाखिल हो गए।
इसके अलावा हमास के चरमपंथी पैराग्लाइडर और समुद्री तटीय इलाकों से भी घुसपैठ करने में कामयाब हुए।
फिलीस्तीन क्या है और इन हमलों से क्या संबंध है?
फिलीस्तीन का अस्तित्व रोमन काल से ही है।
इसके तहत वेस्ट बैंक और गाजा जो फिलहाल फिलीस्तीन के नियंत्रण में है, इसके साथ पूर्वी यरूशलम और इसराइल के कब्जे वाला पूरा क्षेत्र आता है।
रोमन काल में इस पूरे क्षेत्र को फिलीस्तीन कहा जाता था।
बाइबिल में इस क्षेत्र में यहूदी साम्राज्य का भी जिक्र मिलता है। इसलिए यहूदी इसे अपनी पुरानी मातृभूमि मानते हैं।
साल 1948 में इसराइल ने ख़ुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया था। हालांकि अभी जो लोग इसराइल के अस्तित्व को नकारते हैं, वो पूरे इलाक़े को फिलीस्तीन के तौर पर ही मान्यता देते हैं।
फिलीस्तीनी लोग भी वेस्ट बैंक से लेकर गाजा और पूर्व यरूशलम के लिए एक ही शब्द फिलीस्तीन का इस्तेमाल करते हैं।
हमले और ऐलान-ए-जंग के बाद आगे क्या होगा?
हमास के चरमपंथी कमांडर मोहम्मद देइफ ने सभी फिलीस्तीनी नागरिकों और पूरे समुदाय से एकजुट होने की अपील की है ताकि इसराइल के कब्जे को उखाड़ फेंका जाए।
यरूशलम में में बीबीसी के संवाददाता योलांडे नील कहते हैं, ‘ऐसे में बड़ा सवाल ये उठता है कि क्या वेस्ट बैंक, पूर्वी यरूशलम या इसराइली कब्जे वाले दूसरे क्षेत्रों में रहने वाले फलस्तीनी हमास की इस अपील पर उठ खड़े होंगे?’
इस पूरे घटनाक्रम में इसराइल के सामने भी ये बात साफ है, कि ये एक ऐसी जंग में तब्दील होगा, जिसे कई मोर्चे पर लडऩा होगा।
अगर हालात और भी खराब हुए, तो हो सकता है, लेबनान का ताकतवर चरमपंथी गुट ‘हिजबुल्लाह’ भी इस जंग में कूद सकता है।
इसराइली सेना ने फिलहाल बड़े पैमाने पर सैन्य टुकडिय़ों को तैनात करने का आदेश दिया है। इसके साथ वो गाजा पर लगातार हवाई हमले भी कर रहा है।
इससे ये साफ संकेत मिलता है कि इसराइल आने वाले दिनो में ग्राउंड ऑपरेशन की तैयारी कर रहा है। (bbc.com/hindi)
अपूर्व गर्ग
राजेंद्र यादव हमारे प्रिय और प्यारे लेखक हैं। हमारे पास उनकी 'आवाज तेरी हैÓ (उनका एकमात्र दुर्लभ कविता संग्रह) और लॉरेंस बिनयन की लिखी राजेंद्र यादव जी की अनुवाद की गई 'अकबरÓ भी है। ये दोनों पुस्तकें आज शायद ही किसी के पास हों।
ये इसलिए बताया कि जब ये पुस्तकें उपलब्ध हैं मतलब राजेंद्र यादव जी की बाकी तो होंगी ही।
कोशिश रहती है अपने प्रिय लेखकों का सम्पूर्ण संग्रह रखें। यह कोशिश प्रेमचंद, राहुल जी से लेकर कमलेश्वर और बाद में रविंद्र कालिया तक ही नहीं इससे आगे भी रही है ।
ज्यादातर पाठक अपने प्रिय लेखकों की सभी पुस्तकें जरूर खरीदते हैं, बल्कि कुछ तो बेसब्री से इंतजार भी करते हैं।
खैर, न आज आदरणीय राजेंद्र जी हमारे बीच हैं न कालियाजी। पर इनकी पुस्तकें हैं।
एक सवाल मौजूद लेखकों और प्रकाशकों से है कि आप अपने पाठकों को हलके में क्यों लेते हैं?
ये एक बहस का विषय है कि पेपरबैक सौ का तो हार्ड बाउंड 500 का! इस पर पाठक और प्रकाशकों के बीच बहस अक्सर जारी रहती है। ऐसे कुछ और भी मुद्दे हैं।
इनसे अलग मेरा एक सवाल है कि बिके हुए माल को लेबल बदल कर कुछ तब्दीलियां कर नए नाम, कवर के साथ क्यों बेचा जाता है।
उदाहरण : हमने ङ्ग ,ङ्घ, र्ं को अलग-अलग खरीदा। इसके बाद कभी ङ्ग+ङ्घ =नई किताब, कभी ङ्घ+र्ं = नई किताब, कभी ङ्ग+र्ं= नई किताब बनाकर क्यों किताब बाजार में उतरा जाता है?
किसी के अखबारों में प्रकाशित कई वर्ष लिखे हुए कॉलम, लेख आते हैं तो उसका स्वागत है। वो एक किताब में दस्तावेज बन जाता है।
आज कल फेसबुक पोस्ट का संग्रह किताब के तौर पर आ रहा है जो सही है ।
अब एक दूसरा पक्ष देखिये । रवींद्र कालिया का 'गालिब छुटी शराबÓ हंस में लगातार प्रकाशित होने के बाद पुस्तक के तौर पर आई जिसने धूम मचा दी, आज तक न जाने कितने संस्करण निकल रहे हैं ।
कालिया जी की 'स्मृतियों की जन्मपत्रीÓ आई इसमें भी जगजीत सिंह, सुदर्शन फाकिर, कमलेश्वर, इंद्रनाथ मदान श्री लाल शुक्ल मार्कण्डेय, इलाहबाद। ज्ञान रंजन, जालंधर, दिल्ली चाय घर भी शामिल है पर काफी सामग्री और लोगों पर कुछ अलग भी है। ये तो आना ही चाहिए ।
रवींद्र कालिया की ही 'कामरेड मोनालिजाÓ शानदार संस्मरण पुस्तक है। इसमें भी कमलेश्वर, मार्कण्डेय, श्री लाल शुक्ल ज्ञानरंजन, आदि हैं पर नई यादों बातों के साथ भी ।
ये बात जरूर है 'स्मृतियों की जन्मपत्रीÓ हो या 'कामरेड मोनालिजाÓ बेहद दिलचस्प और कालिया जी का फ्लेवर-तेवर दिखता है पर 'गालिब छुटी शराबÓ का नशा इनमें बराबर दीखता है।
इसी बरस अभी हाल में ही रवींद्र कालिया जी की पुस्तक 'छूटी सिगरेट भी कम्बख्तÓ सेतु प्रकाशन से आई है।
रवींद्र कालिया के पाठकों के लिए उनकी अनुपस्थिति में पुस्तक आना एक बड़ी खुशखबरी है पर इसमें कुछ संस्मरण के अलावा अब 'स्मृतियों की जन्मपत्रीÓ के ही लेख डाल दिए गए हैं। कृष्णा सोबती। हमारी कृष्णा सोबती हैं, कमलेश्वर : इलाहबाद को मेरा सलाम से लेकर, जगजीत शीर्षक बदलकर हैं, टी हाउस चाय घर के रूप में है, वहीं समकालीन समय और लेखन की चुनौतियां हैं।
इसी तरह राजेंद्र यादवजी के हंस के सम्पादकीय काँटों की बात करीब 12 पुस्तकों के रूप में आये, जो आज हंस के सम्पादकीय लेखों का जरूरी और महत्वपूर्ण संकलन है ।
इसके बाद काँटों की बात के कई कांटें वे देवता नहीं, मुड़-मुड़ के देखता हूँ, औरों के बहाने में दिखे ।
हकीर कहो-फकीर कहो जैसे लेख तो वो देवता नहीं के बाद फिर मुड़-मुड़ के देखता हूँ में प्रकाशित हैं ।
'अपनी निगाह मेंÓ मुड़-मुड़ के देखता हूँ और औरों के बहाने में है।
एक और पुस्तक 'आदमी की निगाह में औरतÓ में कांटें तो हैं ही पर यहाँ काँटों से औरों के बहाने होते हुए कृष्णा सोबती हैं।
ठीक है। पर ये सब पुस्तकें यादों का दस्तावेज हैं, महत्वपूर्ण हैं, अपने वक्त का साहित्यिक इतिहास इनमें दर्ज है ।
एक पाठक के तौर पर अपने प्रिय और सम्माननीय लेखकों के साथ यात्रा करते-करते लगता है कि हमारे लेखकों-प्रकाशकों को भी पाठकों का ध्यान रखना चाहिए ।
इन पुस्तकों के लेखक ऐसे हैं कि इनके लेख पुनरावृत्ति के बावजूद हर नई पुस्तक के साथ बिकेंगे पर ये जो ट्रेंड बन रहा है, पाठकों को कब तक रास आएगा?
लखन चौधरी
पिछले सप्ताह मुफ्त उपहार यानि फ्रीबीज मामले पर दखल देने को लेकर दायर याचिकाओं की सुनवाई में यद्यपि सुप्रीमकोर्ट ने प्रत्यक्ष तौर पर हस्तक्षेप करने से माना कर दिया है। फ्रीबीज मुद्दे (चुनाव से पहले की जाने वाली लोक लुभावनी घोषणाओं) पर दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीमकोर्ट ने जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा है कि 'राजनीतिक दलों को चुनावी वादे करने से नहीं रोक सकेते हैं।Ó चुनाव पूर्व सभी राजनीतिक दल चुनावी वादे करते हैं, जिस पर अदालतें रोक नहीं लगा सकती हैं। सुप्रीमकोर्ट का कहना है कि इस मसले पर पहले तो राज्यों के हाईकोर्ट में याचिका लगाई जानी चाहिए थी। इसके बाद मामले को यहां तक आना चाहिए था।
सुप्रीमकोर्ट ने राज्यों के मुख्यमंत्री कार्यालयों को पार्टी कार्यालय की तरह उपयोग किए जाने पर भी आपत्ति जताते हुए कहा है कि मुख्यमंत्री आवास सह कार्यालयों को 'मुख्यमंत्री ऑफिस-सीएमओÓ की जगह 'राज्य सरकार कार्यालयÓ लिखें।
उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों के नवंबर-दिसंबर में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनजर जमकर हो रही चुनावी घोषणाओं से सुप्रीमकोर्ट भी हरकत में आती दिखती है। याचिकाकर्ताओं के तर्क कि हर बार सरकारें चुनावी घोषणाएं करती हैं, इससे अंतत: करदाताओं पर बोझ बढ़ता है। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि चुनाव से पहले सरकार का लोगों को पैसे बांटना प्रताड़ित करने जैसा है। यह हर बार होता है और इसका भार टैक्स चुकाने वाली जनता यानि करदाताओं पर पड़ता है। सुप्रीमकोर्ट ने इन याचिकाओं की सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार, चुनाव आयोग, राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकार को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगा है।
ज्ञातव्य है कि इसके पहले भी याचिका में चुनावों के दौरान राजनीतिक पार्टियों के वोटर्स से फ्रीबीज या मुफ्त उपहार के वादों पर रोक लगाने की अपील की गई है। इसमें मांग की गई है कि चुनाव आयोग को ऐसी पार्टियों की मान्यता रद्द करनी चाहिए। इस पर केंद्र सरकार ने सहमति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट से फ्रीबीज की परिभाषा तय करने की अपील की है। केंद्र ने कहा कि अगर फ्रीबीज का बंटना जारी रहा तो यह देश को Óभविष्य की आर्थिक आपदाÓ की ओर ले जाएगा, लेकिन यहां पर गौर करने वाली बात यह है कि क्या स्वयं केन्द्र सरकार भी यही नहीं कर रही है ?
मुफ्त उपहार यानि फ्रीबीज का गणित
मध्यप्रदेश और राजस्थान सरकार अपनी कुल कर कमाई का 35 फीसदी हिस्सा फ्रीबीज पर खर्च करते हैं। आरबीआई की 31 मार्च 2023 तक की रिपोर्ट में सामने आया है कि मप्र, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य टैक्स की कुल कमाई का 35 फीसदी तक हिस्सा फ्री की योजनाओं पर खर्च कर देते हैं। पंजाब सरकार 35.4 फीसदी के साथ सूची में शीर्ष पर है। मप्र में यह हिस्सेदारी 28.8 फीसदी, राजस्थान में 8.6 फीसदी है। आंध्रप्रदेश अपनी आय का 30.3 फीसदी, झारखंड 26.7 फीसदी और बंगाल 23.8 फीसदी फ्रीबीज के नाम कर रहे हैं। इसमें केरल 0.1 फीसदी हिस्सा फ्रीबीज को देता है।
इससे सरकारों बजट घाटा बढ़ता है, जिससेे राज्य ज्यादा कर्ज लेने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसे में आय का बड़ा हिस्सा ब्याज अदायगी में चला जाता है। पंजाब, तमिलनाडु और पं. बंगाल अपनी कमाई का 20 फीसदी, मप्र 10 फीसदी और हरियाणा 20 फीसदी से ज्यादा ब्याज भुगतान पर खर्च कर रहे हैं। राजस्थान, पंजाब, बंगाल में 35 फीसदी हिस्सा लुभावनी योजनाओं में खर्च हो रहा है। इस समय पंजाब सरकार पर जीएसडीपी का 48 फीसदी, राजस्थान पर 40 फीसदी, मध्यप्रदेश पर 29 फीसदी तक कर्ज है, जबकि यह 20 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। मप्र, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक, राजस्थान और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों ने पिछले सात सालों में करीब 1.39 लाख करोड़ की फ्रीबीज दीं या घोषणाएं कीं है। पंजाब का घाटा 46 फीसदी बढ़ चुका है, और सबसे खराब स्थिति में है। पंजाब में बिजली सब्सिडी 1 साल में 50 फीसदी बढ़कर 20,200 करोड़ रू. हो चुकी है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फ्रीबीज मुद्दे पर फैसले के लिए एक समिति गठित की जानी चाहिए। इसमें केंद्र, राज्य सरकारें, नीति आयोग, फाइनेंस कमीशन, चुनाव आयोग, आरबीआई, सीएजी, और राजनीतिक पार्टियां शामिल हों। इस मसले पर सुको कह चुका है कि 'गरीबों का पेट भरने की जरूरत है, लेकिन लोगों की भलाई के कामों को संतुलित रखने की भी जरूरत है, क्योंकि फ्रीबीज की वजह से इकोनॉमी पैसे गंवा रही है। हम इस बात से सहमत हैं कि फ्रीबीज और वेलफेयर के बीच अंतर है।Ó कुछ लोगों का कहना है कि राजनीतिक पार्टियों को वोटर्स से वादे करने से नहीं रोका जा सकता, पर अब ये तय करना होगा कि फ्रीबीज क्या है ? क्या सबके लिए हेल्थकेयर, पीने के पानी की सुविधा...मनरेगा जैसी योजनाएं, जो जीवन को बेहतर बनाती हैं, क्या उन्हें फ्रीबीज माना जा सकता है? कोर्ट ने इस मामले के सभी पक्षों से अपनी राय देने को कहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से पूछ चुका है कि इस मसले पर सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुलाते हैं ? राजनीतिक दलों को ही इस पर सब कुछ तय करना है। सुनवाई के दौरान कहा कि कमेटी बनाई जा सकती है, लेकिन क्या कमेटी इसकी परिभाषा सही से तय कर पाएगी? इस केस में विस्तृत सुनवाई की जरूरत है और इसे गंभीरता से लेना चाहिए। इस मसले पर चुनाव आयोग ने कहा कि फ्री स्कीम्स की परिभाषा आप ही तय करें। सुप्रीमकोर्ट में सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने कहा था कि फ्रीबीज पर पार्टियां क्या पॉलिसी अपनाती हैं, उसे रेगुलेट करना चुनाव आयोग के अधिकार में नहीं है। चुनावों से पहले फ्रीबीज का वादा करना या चुनाव के बाद उसे देना राजनीतिक पार्टियों का नीतिगत फैसला होता है। इस बारे में नियम बनाए बिना कोई कार्रवाई करना चुनाव आयोग की शक्तियों का दुरुपयोग करना होगा। कोर्ट ही तय करे कि फ्री स्कीम्स क्या हैं और क्या नहीं। इसके बाद हम इसे लागू करेंगे।
प्रियंका झा
दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर वेस्ट एशियन स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर मुदस्सिर क़मर की नजर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इसराइल पर हुए हमले के बाद दिए बयान से फिलीस्तीन के प्रति भारत के रुख में कोई बदलाव नहीं दिखता।
वो कहते हैं, 'कल जो मोदी ने बयान दिया वो ये दिखाता है कि भारत किसी आतंकी हमले की स्थिति में इसराइल के साथ खड़ा है। कल हमास ने इसराइल पर हमला किया। ये हमले नागरिकों पर हुए। ये दो सेना के बीच जंग नहीं थी। चूंकि इसराइल भारत का बड़ा रणनीतिक साझेदार है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी के बयान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। Ó
इसराइल पर शनिवार तड़के गाजा से अचानक फिलस्तीन के चरमपंथी गुट हमास ने बड़ा हमला किया।
हमास ने इसराइल पर सैकड़ों रॉकेट दागे। इस हमले को 'अभूतपूर्वÓ बताया जा रहा है।
गाजा से हुए हमले के बाद फ़लस्तीनी इस्लामी चरमपंथी ग्रुप हमास के दर्जनों हथियारबंद लड़ाके दक्षिणी इसराइल में घुस गए। हालांकि, इसराइल ने कहा है कि उसने अधिकांश हिस्सों पर वापस नियंत्रण पा लिया है।
हमास के किए हमले में इसराइल में अब तक 700 नागरिकों की मौत हो गई है। वहीं कई इसराइलियों को बंधक बनाए जाने की भी खबरें हैं।
इसराइल के गाजा पर किए हमले में अब तक 400 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और 2000 से ज्यादा लोग घायल हैं।
मरने वालों का आँकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है।
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने 'युद्धÓ की घोषणा करते हुए कहा कि उनका देश अपने दुश्मन से 'अभूतपूर्व कीमतÓ वसूल करेगा।
इसराइल पर हमास के इस हमले की दुनियाभर के नेताओं ने निंदा की है।
भारत के विदेश मंत्रालय की ओर से अभी तक इस मामले को लेकर कोई आधिकारिक बयान तो जारी नहीं किया गया है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे 'आतंकवादीÓ हमला बताया है और कहा है कि वो इस मुश्किल वक्त में इसराइल के साथ एकजुटता से खड़े हैं। वहीं, सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपने सोशल मीडिया हैंडल से एक वीडियो ट्वीट करते हुए कहा है कि जो आज इसराइल में हो रहा है वो भारत ने साल 2004-2014 (यूपीए सरकार का कार्यकाल) में झेला था। वीडियो में भारत में हुए चरमपंथी हमलों के फुटेज हैं।
इसके बाद इसराइल-फिलस्तीन को लेकर भारत की नीति में बदलाव दिखने की चर्चा एक बार फिर तेज हो गई है।
मोदी सरकार ने बदला फिलीस्तीन पर भारत का रूख?
दो राष्ट्र समाधान इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच के दशकों पुराने संघर्ष को हल करने के लिए कई अंतरराष्ट्रीय राजनयिकों और नेताओं के लिए घोषित लक्ष्य रहा है। भारत भी इसी का पक्षधर रहा है।
दो राष्ट्र समाधान के तहत फिलस्तीन को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देने की बात है। इस देश को वेस्ट बैंक में 1967 के पहले की संघर्ष विराम लाइन, गज़ा पट्टी और पूर्वी यरुशलम में बनाने की बात कही गई है।
इस साल की शुरुआत इसराइल-फिलस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र में आए एक प्रस्ताव पर भारत के रुख को लेकर चर्चा से ही हुई थी।
दरअसल, संयुक्त राष्ट्र महासभा में पूर्वी यरुशलम और फिलीस्तीनी क्षेत्र में इसराइल के कब्जे से जुड़ा एक मसौदा प्रस्ताव पेश किया गया।
इस मसौदा प्रस्ताव में फिलीस्तीनी क्षेत्र पर इसराइल के 'लंबे समय तक कब्जेÓ और उसे अलग करने के कानूनी परिणामों पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय से राय मांगी गई थी।
अमेरिका और इसराइल ने इस मसौदा प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया, लेकिन भारत, ब्राजील, जापान, म्यांमार और फ्रांस मतदान से दूर रहे।
उस समय भी इसे भारत के इसराइल के करीब और फिलस्तीन से दूर जाने के तौर पर देखा गया। लेकिन जानकारों की नजर में भारत की फिलीस्तीन को लेकर नीति बदल नहीं रही है बल्कि वो डी-हाइफनेशन की ओर स्थानांतरित हो रही है।
यानी भारत फिलीस्तीन के हितों के लिए पारंपरिक रूप से मजबूत समर्थन देता रहेगा लेकिन इसके समानांतर ही वो अपने हितों को ध्यान में रखते हुए इसराइल के साथ भी अच्छे संबंधों को बरकरार रखेगा।
हालांकि, जानकारों के बीच में इस पर एकराय है कि साल-दर-साल फिलीस्तीन का मुद्दा कमजोर पड़ा है।
इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर के फेलो और मध्य-पूर्व मामलों के जानकार फज्जुर रहमान सिद्दीकी कहते हैं कि भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में पिछले कुछ सालों में इसराइल को कूटनीतिक पहचान मिली है। इसराइल ने अपनी पहुंच बढ़ाई है और इस प्रक्रिया में इसराइल-फिलीस्तीन का झगड़ा फीका पड़ा है।
हमान सिद्दीकी इसकी सबसे बड़ी वजह फिलीस्तीन के आंतरिक विभाजन और उसके पड़ोसी देशों के घरेलू संकट हैं।
वो कहते हैं, 'फिलीस्तीन का मुद्दा कमजोर पड़ने का सबसे पहला कारण वहां की लीडरशिप बँटी हुई है। वहाँ चुनाव नहीं हो रहा है। एक तरफ हमास है तो दूसरी तरफ फिलीस्तीन प्रशासन है।
दूसरा कारण उस क्षेत्र के दूसरे देशों की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। चाहे सीरिया हो या लीबिया, यमन, इराक़, ईरान, मोरक्को, ट्यूनिशिया, सूडान। इन सबमें घरेलू संकट ऐसा है कि इनके लिए फिलीस्तीन का मुद्दा अब उतना बड़ा नहीं रह गया है।Ó
रहमान सिद्दीकी की नजर में इसकी तीसरी सबसे बड़ी वजह वैश्विक राजनीति की प्राथमिकताएं बदलना है। अमेरिका में चाहे डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार हो या रिपब्लिकन पार्टी की। लेकिन इसराइल के साथ उसके संबंध हमेशा मजबूत रहे हैं।
वो कहते हैं, 'अमेरिका का पूरा ध्यान अब यूक्रेन पर है। यूक्रेन से पहले कोरोना महामारी थी। उससे पहले अमेरिका की घरेलू राजनीति थी। और डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में तो अमेरिका खुलकर इसराइल के पक्ष में था। उसमें कहीं कोई कूटनीति नहीं थी। कूटनीति वहां होती है, जहां आप दोनों पक्षों के बीच तटस्थ रहना होता है।Ó
फिलीस्तीन पर क्या रहा है भारत का रुख़?
भारत में फिलीस्तीनी लोगों के अधिकारों का समर्थन करने की ऐतिहासिक परंपरा रही है। भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार फिलस्तीनी मुद्दे पर भारत का समर्थन देश की विदेश नीति का एक अभिन्न अंग है।
वर्ष 1974 में भारत, यासिर अराफात की अगुआई वाले फिलीस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) को फिलस्तीनी लोगों के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश बना था।
जानकार कहते हैं कि उस समय भारत की पीएम इंदिरा गांधी और यासिर अराफात के बीच काफी अच्छे संबंध थे।
वर्ष 1988 में भारत फिलीस्तीनी राष्ट्र को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक बन गया। वर्ष 1996 में भारत ने गाजा में अपना प्रतिनिधि कार्यालय खोला, जिसे बाद में 2003 में रामल्ला में स्थानांतरित कर दिया गया था।
भारत ने अक्टूबर 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव का भी समर्थन किया, जिसमें इसराइल के विभाजन की दीवार बनाने के फैसले का विरोध किया गया था। वर्ष 2011 में भारत ने फिलीस्तीन को यूनेस्को का पूर्ण सदस्य बनाने के पक्ष में मतदान किया।
वर्ष 2012 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया, जिसमें फिलीस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में मतदान के अधिकार के बिना 'नॉन-मेंबर आब्जर्वर स्टेटÓ बनाने की बात थी। भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट भी किया। सितंबर 2015 में भारत ने फ़लस्तीनी ध्वज को संयुक्त राष्ट्र के परिसर में स्थापित करने का भी समर्थन किया।
भारत और फिलीस्तीनी प्रशासन के बीच नियमित रूप से उच्चस्तरीय द्विपक्षीय यात्राएं होती रही हैं।
अंतरराष्ट्रीय और द्विपक्षीय स्तर पर मजबूत राजनीतिक समर्थन के अलावा भारत ने फिलीस्तीनियों को कई तरह की आर्थिक सहायता दी है।
भारत सरकार ने गाजा शहर में अल अजहर विश्वविद्यालय में जवाहरलाल नेहरू पुस्तकालय और गाजा के दिर अल-बलाह में फिलीस्तीन तकनीकी कॉलेज में महात्मा गांधी पुस्तकालय सहित छात्र गतिविधि केंद्र बनाने में भी मदद की है। इनके अलावा कई प्रोजेक्ट्स बनाने में भारत फिलीस्तीनियों की मदद कर रहा है।
फरवरी 2018 में नरेंद्र मोदी फिलीस्तीनी इलाके में गए थे। इस दौरानफिलीस्तीनी प्रशासन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने मोदी को देश का सर्वोच्च सम्मान 'ग्रैंड कॉलर ऑफ द स्टेट ऑफ पेलेस्टीनÓ से नवाजा।
बीते साल फिलीस्तीनियों के साथ एकजुटता के अंतरराष्ट्रीय दिवस के वक्त पीएम मोदी ने एक संदेश जारी किया। इसमें पीएम ने फिलीस्तीन के लिए भारत के 'अटूट समर्थन की प्रतिबद्धताÓ को दोहराया।
पीएम मोदी ने कहा, 'भारत और फिलीस्तीन के दोस्ताना लोगों के साझा ऐतिहासिक संबंध हैं। हमने हमेशा आत्मनिर्भरता और सम्मान के साथ सामाजिक और आर्थिक विकास खोज रहे फिलीस्तीन के लोगों का समर्थन किया है। हमें उम्मीद है कि फिलीस्तीन और इसराइली पक्ष के बीच सीधी बातचीत होगी और वो एक समग्र और आपसी सहमति वाला उपाय खोज लेंगे।Ó
सऊदी अरब फिलीस्तीन के प्रति एकजुटता दिखाते हुए इसराइल को मान्यता नहीं देता है और इसका इसराइल से किसी भी तरह का राजनयिक रिश्ता नहीं है। लेकिन बीते दिनों ये खबर आई कि इसराइल के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के बदले में, सऊदी अरब अमेरिका से बड़ा सैन्य समर्थन, असैन्य परमाणु कार्यक्रम की स्थापना और फिलीस्तीन के लिए कई तरह की मांग कर रहा है। इससे पहले भी कई अरब देशों ने इसराइल के साथ अपने संबंध सामान्य किए हैं।
साल 2020 में अमेरिका की मध्यस्थता में संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इसराइल के साथ ऐतिहासिक समझौता किया था जिसे 'अब्राहम एकॉर्डÓ कहा जाता है। इसके तहत यूएई और बहरीन ने इसराइल के साथ राजनयिक रिश्तों को बहाल कर लिया था।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के नेल्सन मंडेला सेंटर फॉर पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट रेजोल्यूशन में पढ़ा रहे असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं कि भारत और इसराइल के बीच दोस्ती अचानक नहीं बढ़ा रहा। इसकी एक वजह है कि अरब देशों का भी इसराइल से संबंध सुधर रहा है।
फज्जुर रहमान सिद्दीकी भी ये मानते हैं कि अब मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले अरब देश ही अब फिलीस्तीन के मुद्दे को अहमियत नहीं दे रहे हैं। ऐसे में भारत भी अपने हितों को आगे रखते हुए इसराइल के साथ संबंध बढ़ा रहा है।
लेकिन क्या इससे फिलीस्तीन को लेकर उसका रवैया बदलेगा?
इस पर प्रोफेसर प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, 'मोदी सरकार के आने के बाद तो ये साफ नीति रही है कि इसराइल को फिलीस्तीन के आइने से नहीं देखा जाएगा और न तो फिलीस्तीन को इसराइल के आइने से।Ó
वो कहते हैं, 'विदेश नीति दो तरह की होती है। आइडियलिस्टिक यानी आदर्शवादी और प्रैगमटिस्ट यानी यथार्थवादी।
भारत ने इसराइल और फिलीस्तीन के बीच संतुलन रखने के लिए यही रुख अपनाया है।
यानी जब भी मानवाधिकार की बात होगी तो फ़लस्तीन का समर्थन करेंगे लेकिन जब भी अपने हितों से जुड़ी बात होगी तो हम इसराइल के साथ होंगे।
डॉ. मिश्रा की नजर में राजनीतिक तौर पर जब संबंध बदलते हैं तो उसका असर तो पड़ता है। अब यूएई की जनता सड़क पर उस तरह से नहीं आ सकती, जैसा अब्राहम एकॉर्ड से पहले होता।
वो कहते हैं, 'कल को मान लीजिए कि भारत पर इस तरह का हमला होता है, तो फिर आप किस आधार पर समर्थन की उम्मीद करेंगे। परसेप्शन के स्तर पर भले ही भारत फिलहाल इसराइल के साथ लगता हो। भारत और इसराइल के संबंध इसलिए भी दिखते हैं क्योंकि दोनों देशों में दक्षिणपंथी नेतृत्व है। लेकिन भारत की पॉलिसी इसराइल को लेकर पूरी तरह से यथार्थवादी है और फिलीस्तीन को लेकर उसकी आदर्शवादी नीति आगे भी बनी रहेगी।Ó
दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर वेस्ट एशियन स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर मुदस्सिर क़मर की नजर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इसराइल पर हुए हमले के बाद दिए बयान से फिलीस्तीन के प्रति भारत के रुख में कोई बदलाव नहीं दिखता।
वो कहते हैं, 'कल जो मोदी ने बयान दिया वो ये दिखाता है कि भारत किसी आतंकी हमले की स्थिति में इसराइल के साथ खड़ा है। कल हमास ने इसराइल पर हमला किया। ये हमले नागरिकों पर हुए। ये दो सेना के बीच जंग नहीं थी। चूंकि इसराइल भारत का बड़ा रणनीतिक साझेदार है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी के बयान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
केन्द्र सरकार ने अपने स्थाई अधिकारियों और कर्मचारियों को मिलने वाली पेंशन कई साल पहले बंद कर दी थी। इस योजना को बंद किए जाने से कर्मचारी संघ लगातार किसी न किसी रुप में आंदोलनरत रहे हैं। इस आंदोलन की खासियत यह है कि यह जैसे जैसे पुराना हो रहा है वैसे वैसे जोर पकड़ रहा है। इसकी एक झलक हाल ही में दिल्ली में संपन्न विशाल आयोजन के रुप में सामने आई है जिसमे देश भर से लाखों सरकारी कर्मियों ने हिस्सा लिया है।
इस आंदोलन के लगातार धारदार होने के कई कारण हैं। जब सरकार ने पुरानी आजीवन मिलने वाली पेंशन को बंद किया था उन दिनों ऐसे कर्मियों की संख्या बहुत कम थी क्योंकि पुराने पेंशनधारकों और अधिकांश कार्यरत कर्मचारियों को पुराने तर्ज पर ही पेंशन मिलनी थी और इस योजना के बंद होने का असर नई नई नियुक्ति पाए मुट्ठीभर सरकारी कर्मियों पर होना था। जैसे जैसे समय बीतता गया वैसे वैसे प्रतिवर्ष ऐसे कर्मचारियों की संख्या बढ़ती चली गई जिन्हें आजीवन पेंशन की जगह एकमुश्त राशि मिलेगी।
जैसे जैसे इस कानून की जद में आने वाले कर्मचारियों का संख्या बल बढ़ रहा है वैसे वैसे उनके संगठनों की आवाज बुलंद हो रही है क्योंकि कर्मचारी संगठनों में ऐसे युवा पदाधिकारियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है जो इस योजना के कारण पेंशन का लाभ नहीं ले पाएंगे।
वर्ष 2023 और 2024 पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव के वर्ष हैं। चुनावी वर्ष की पूर्व संध्या पर एक तरफ सरकारों का रवैया वोट प्राप्ति के लिए काफी रियायती होने लगता है और दूसरी तरफ़ योजनाओं का लाभ मांगने वालों की आवाज़ बुलंद होने लगती है क्योंकि सरकारों को दबाव में लाने का इससे सुनहरा अवसर कभी नहीं मिलता। इस वजह से भी पुरानी पेंशन योजना के लिए कर्मचारियों ने जोर शोर से आंदोलन रत होने के लिए कमर कस ली है। तीसरा कारण यह भी है कि पिछ्ले कुछ वर्षों से कांग्रेस ने इस मुद्दे पर आंदोलनरत सरकारी कर्मियों का साथ देना शुरु कर दिया है। जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी हैं वहां पुरानी पेंशन योजना बहाल कर दी गई है और अन्य राज्यों में इस तरह के वादे किए जा रहे हैं। इससे केन्द्र सरकार के कर्मियों के आंदोलन को असरदार राजनीतिक समर्थन मिल रहा है।
जहां तक पुरानी पेंशन योजना का प्रश्न है वह निश्चित रूप से एक बेहतर व्यवस्था है। हमारे देश में बुजुर्गों के लिए सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था नहीं के बराबर है। इस दृष्टि से सेवानिवृत वरिष्ठ नागरिकों और उनके ऊपर आश्रित परिजनों के लिए आजीवन पेंशन की सुविधा सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। आजीवन पेंशन सरकारी कर्मियों के लिए बड़ा आकर्षण हुआ करती थी जो उनमें और उनके परिवार में सुरक्षा का भाव पैदा करती थी। उस सुरक्षा भाव के नहीं रहने से सरकारी सेवा का आकर्षण कम हुआ है और युवा कर्मचारी भविष्य के प्रति चिंतित रहने लगे हैं।
पेंशन योजना का एक लाभ यह भी था कि भविष्य के प्रति निश्चिंत सरकारी सेवक पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ कार्य करने के लिए प्रेरित होते थे क्योंकि भ्रष्टाचार आदि में पकड़े जाने पर पेंशन पर खतरा बढ़ जाता था। पेंशन समाप्त होने से बहुत से कर्मचारी नौकरी छूटने के भय से मुक्त हो गए हैं और दूसरी तरफ बहुत से योग्य व्यक्ति बेहतर विकल्प मिलते ही सरकारी नौकरी छोडऩे लगे हैं इससे उनके अनुभव और योग्यता का लाभ सरकार को नहीं मिल पाता।
आजीवन पेंशन के समर्थन में यह तर्क भी विवेकपूर्ण है कि जब पांच साल विधायक या सासंद रहने पर जन प्रतिनिधियों और आपातकाल में कुछ दिन जेल में रहने वालों को आजीवन पेंशन दी जाती है तब तीस पैंतीस साल सेवा देने वाले जन सेवकों को भी आजीवन पेंशन अवश्य मिलनी चाहिए। उम्मीद है कि चुनावी वर्ष में सरकार जनसेवकों के हित में तर्क संगत निर्णय लेगी।
2 अक्टूबर अपने जन्मदिन गांधी आए थे। ठीक से याद नहीं रूबरू आए थे या सपने में। मुझे कुछ कह जरूर गए। वह याद कर लिखना चाहता हूं। उन्होंने कहा उनका संदेश प्रधानमंत्री तक पहुंचा दूं। देश में उनके अलावा और कोई नहीं है जो गांधी की बात मानकर कुछ कर सके कि मैंने पहले ही कहा था अंगरेज हुक्कामों की बड़ी बड़ी कोठियों में राष्ट्रपति और मंत्री वगैरह आजादी के बाद नहीं रहें। वहां स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, विश्वविद्यालय, हरिजन आवास वगैरह खोले जाएं। राष्ट्रपति का इतना विशाल महल दुनिया के सबसे अमीर देश अमेरिका के राष्ट्रपति के व्हाइट हाउस से बड़ा है।
सरकारी बंगलों में मंत्री व्यभिचार और अय्याशी की तोंदें फुला रहे हैं। बकरी का दूध पीने वाले बहुत कमजोर दिखते गांधी कहते प्रधानमंत्री से कहो कि बकरी, चर्खा, गांव, खादी, अंतिम व्यक्ति, सर्वधर्म समभाव, स्वैच्छिक गरीबी, शराबबंदी, हरिजन सेवा, सिविल नाफरमानी और हे राम जैसे शब्दों को सम्मान दें। साथ-साथ चाहें तो सूटबूट की सरकार, कॉरपोरेटी दादागिरी, अर्बन नक्सल, गुजरात मॉडल, असभ्य मंत्री, बुलेट टे्रन, नकली धर्मनिरपेक्षता, मेक इन इंडिया, टुकड़े-टुकड़े गैंग, स्किल इंडिया, स्टार्ट अप, जयश्रीराम, खाते में पंद्रह लाख रुपए, पाकिस्तान जाओ, लव जेहाद वगैरह का एजेंडा कायम रखें।
गांधी ने अपने संवैधानिक विचारों को एकजाई कर, प्रकाषित करने वर्धा के सेक्सरिया कॉलेज के प्रिंसिपल श्रीमन्नारायण अग्रवाल को मुख्तारनामा दिया था। वहां याद दिलाया गया कि देश में मूल अधिकार उसी को मिलेंगे जो बुनियादी कर्तव्यों का पालन करेगा। यह लेकिन नहीं हुआ। मूल कर्तव्य होगा अगर किसी मनुष्य पर कोई दूसरा जुल्म कर रहा है। तो उसका मुकाबला खुलेआम देह के प्रतिरोध के साथ भी किया जाए। थानेदार जनता पर लाठियां चलाए। मजलूम औरत की शिकायत सुनने के बदले थाने में उसका बलात्कार हो। गुंडे किराएदार से मकान खाली कराएं। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल में फीस की आड़ में छीनाझपटी करें। अस्पताल में वेंटिलेटर से लाश को अनाप-शनाप फीस वसूले बिना नहीं दी जाए। सेठिए गरीब आदिवासियों की बहू बेटियों को कामुकता का शिकार बनाएं। तब गांधी के मुताबिक हर नागरिक को मर्दानगी के साथ प्रतिरोध करना चाहिए। ऐसी हिम्मत करने वालों को सरकार पूरी सुरक्षा दे। इसे राष्ट्रीय कर्तव्य कहा जाए।
गांधी कहते गए किसी कारखाने और उद्योग में मजदूर से आठ घंटे से ज्यादा काम नहीं करने को मजदूर का संवैधानिक अधिकार लिखा जाए। कहा देश मुसीबत, खतरे या परेशानी में हो। तो हर नागरिक को अपनी काबिलियत के अनुसार धन दौलत, सेवा या परिश्रम के जरिए देश सेवा करनी होगी। गांधी शायद यह भी कह गए कि कोरोना जैसी भयानक व्याधि के वक्त अमीरजादों पर जनसेवा के लिए विशेष कोरोना टैक्स लगाना था।
दुखी बापू ने कहा मेरे सहित जवाहरलाल, सरदार पटेल, जयप्रकाश, लोहिया और न जाने कितने सियासतदां इंग्लैंड वगैरह में पढऩे गए थे। अब सैकड़ों अरबपति परिवार देश का धन लूटकर बैंकों को तबाह कर इंग्लैंड भाग गए हैं। इनकी पूरी संपत्ति जप्त करनी चाहिए। अंगरेजी सरकार के भारतीय मूल के प्रधानमंत्री से बात कर इन्हें वापस बुलाकर देशद्रोह का मुकदमा चलाना चाहिए। गांधी ने कहा संविधान में तो लिखा है सभी कुदरती दौलत जनता की है। उसे जनता के लिए ही इस्तेमाल किया जाएगा। जवाहर की अगुवाई में सब लिखा गया।
फिर देश में अडानियों, अंबानियोंं, टाटाओं, बिड़लाओं, अग्रवालों, रुइय्याओं, मित्तलों, जिंदलों की फौज कैसे उग गई है। पांच प्रतिशत अमीरों ने देश की तीन चौथाई से ज्यादा दौलत कब्जे में कर ली है। प्रधानमंत्री बहुत मजबूत हैं। वे ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ कहते तो रहते हैं। बापू ने कहा लेकिन ‘सब’ नाम के शब्द का अर्थ समझ में नहीं आ रहा। मैंने पहले ही कहा है वकीलों और जजों के भरोसे देश में कुछ होने वाला नहीं। संविधान से बहुत ताकत लेकर भी ज्यादातर तो कम पढ़ेे-लिखे या डरपोक हैं। अच्छा हो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के पद के लिए स्थायी रूप से प्रधानमंत्री को ही नामजद कर दिया जाए। न रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी।
सरकारी कर्मचारियों, किसानों, मजदूरों वगैरह के लिए कुछ तो करना चाहिए। हर विदेशी मेहमान को मेरी समाधि पर मत्था टेकने राजघाट भेजा जाता है। इतने ज्यादा लोगों से फकत मिलता, देखता ही रहूंगा। तो देश के बारे में कब सोचूंगा। सरकार किसी को कुचले वह राजघाट आता है। जो मेरी फोटो अपने सिर के ऊपर से उखाडक़र फेंक देते हैं। वे भी मुसीबत आने पर राजघाट ही आते हैं। वे तो आते ही हैं जिन्हें गोडसे मुझसे ज्यादा प्रिय हैं। मुझे उस समाधि से बाहर निकालने के लिए आप प्रधानमंत्री से कहिए। वहां मैं हाउस अरेस्ट हो गया हूं। मैं जनपथ किनारे झोपड़ी में रहना चाहता हूं। मैंने कहा था कि अंगरेजी पार्लियामेंंट वेश्या या नर्तकी है। वह प्रधानमंत्री के इशारे पर नाचती है। वही पार्लियामेंट ले आए।
प्रधानमंत्री इशारा करते हैं तो संसद सदस्य उनके इशारे पर नाचने लगते हैं। बेहतर होता सब लोग सादगी से रहते। लेकिन सैकड़ों करोड़ों का सेंट्रल विस्टा बना लिया। इस ठसक को जनता के लिए कसक कैसे कहा जा सकता है? मैं कहता था रेलगाड़ी तक का कम से कम इस्तेमाल करें। मैं सोच नहीं सकता था कि साढ़े आठ हजार करोड़ रुपए का हवाई जहाज भी हो सकता है। क्या बुलेट ट्रेन में मुझे मारने वाली बुलंद भी होगी? केवल आर्थिक सहायता मांगने उसमें बैैठकर अमेरिका और यूरोप जाने की क्या जरूरत है।
मुझे मालूम है श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भी कहा था विधायिकाओं और सरकारी नौकरी में अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को आबादी के अनुपात में जगह देनी चाहिए। इतनी अच्छी बात तो मैं भी नहीं कह पाया।
प्रधानमंत्री को याद दिलाओ डॉ. मुखर्जी नेहरू मंत्रिमंडल में थे। तब ही यह बात कही थी। बाद में वे अखिल भारतीय जनसंघ के संस्थापक बने। वे प्रधानमंत्री के सियासी पूर्वज हैं। पूर्वजों की बात मानना पितृपक्ष में बहुत पवित्र है। उससे पूर्वजों का परलोक और वंशजों का यह लोक पवित्र हो जाता है। मैं तो धार्मिक रहा हूं। देखता रहा हूं आसाराम बापू, गुरमीत राम रहीम, रामपाल, श्री श्री रविशंकर, रामदेव, मुरारी बापू, जग्गी वासुदेव जैसे कई सरकार समर्थक साधु सन्यासी बाबा कहलाते भारत को लूटने की जुगत में हैं।
प्रधानमंत्री खुद को फकीर कहते हैं। झोला उठाकर जाने का भरोसा दिलाते हैं। तो ये बाबा सन्यासी झोला उठाकर क्यों नहीं घूमते। मुझे अमेरिका और यूरोप ने कई बार झांसा दिया था गांधी आप विश्व गुरु बनो। मैं जानता था कि वह पूंजीपति साजिष थी। प्रधानमंत्री से कहो ऐसे फितरती लोगों के चक्कर में आकर विश्व गुरु बनने का दिवास्वप्न छोड़ दें। प्रधानमंत्री का ओहदा जनसेवक का है। जनसेवक विश्व गुरु से कहीं ज्यादा बड़ा पद है।
-अपूर्व गर्ग
राजेंद्र यादव हमारे प्रिय और प्यारे लेखक हैं। हमारे पास उनकी ‘आवाज तेरी है’ (उनका एकमात्र दुर्लभ कविता संग्रह) और लॉरेंस बिनयन की लिखी राजेंद्र यादव जी की अनुवाद की गई ‘अकबर’ भी है। ये दोनों पुस्तकें आज शायद ही किसी के पास हों।
ये इसलिए बताया कि जब ये पुस्तकें उपलब्ध हैं मतलब राजेंद्र यादव जी की बाकी तो होंगी ही।
कोशिश रहती है अपने प्रिय लेखकों का सम्पूर्ण संग्रह रखें। यह कोशिश प्रेमचंद, राहुल जी से लेकर कमलेश्वर और बाद में रविंद्र कालिया तक ही नहीं इससे आगे भी रही है।
ज्यादातर पाठक अपने प्रिय लेखकों की सभी पुस्तकें जरूर खरीदते हैं, बल्कि कुछ तो बेसब्री से इंतजार भी करते हैं।
खैर, न आज आदरणीय राजेंद्र जी हमारे बीच हैं न कालियाजी। पर इनकी पुस्तकें हैं।
एक सवाल मौजूद लेखकों और प्रकाशकों से है कि आप अपने पाठकों को हलके में क्यों लेते हैं?
ये एक बहस का विषय है कि पेपरबैक सौ का तो हार्ड बाउंड 500 का! इस पर पाठक और प्रकाशकों के बीच बहस अक्सर जारी रहती है। ऐसे कुछ और भी मुद्दे हैं।
इनसे अलग मेरा एक सवाल है कि बिके हुए माल को लेबल बदल कर कुछ तब्दीलियां कर नए नाम, कवर के साथ क्यों बेचा जाता है।
उदाहरण : हमने X ,Y, Z को अलग-अलग खरीदा। इसके बाद कभी X+Y = नई किताब, कभी Y+Z = नई किताब, कभी X+Z= नई किताब बनाकर क्यों किताब बाजार में उतरा जाता है?
किसी के अखबारों में प्रकाशित कई वर्ष लिखे हुए कॉलम, लेख आते हैं तो उसका स्वागत है। वो एक किताब में दस्तावेज बन जाता है।
आज कल फेसबुक पोस्ट का संग्रह किताब के तौर पर आ रहा है जो सही है।
अब एक दूसरा पक्ष देखिये। रवींद्र कालिया का ‘गालिब छुटी शराब’ हंस में लगातार प्रकाशित होने के बाद पुस्तक के तौर पर आई जिसने धूम मचा दी, आज तक न जाने कितने संस्करण निकल रहे हैं।
कालिया जी की ‘स्मृतियों की जन्मपत्री’ आई इसमें भी जगजीत सिंह, सुदर्शन फाकिर, कमलेश्वर, इंद्रनाथ मदान श्री लाल शुक्ल मार्कण्डेय, इलाहबाद। ज्ञान रंजन, जालंधर, दिल्ली चाय घर भी शामिल है पर काफी सामग्री और लोगों पर कुछ अलग भी है। ये तो आना ही चाहिए।
रवींद्र कालिया की ही ‘कामरेड मोनालिजा’ शानदार संस्मरण पुस्तक है। इसमें भी कमलेश्वर, मार्कण्डेय, श्री लाल शुक्ल ज्ञानरंजन, आदि हैं पर नई यादों बातों के साथ भी।
ये बात जरूर है ‘स्मृतियों की जन्मपत्री’ हो या ‘कामरेड मोनालिजा’ बेहद दिलचस्प और कालिया जी का फ्लेवर-तेवर दिखता है पर ‘गालिब छुटी शराब’ का नशा इनमें बराबर दीखता है।
इसी बरस अभी हाल में ही रवींद्र कालिया जी की पुस्तक ‘छूटी सिगरेट भी कम्बख्त’ सेतु प्रकाशन से आई है।
रवींद्र कालिया के पाठकों के लिए उनकी अनुपस्थिति में पुस्तक आना एक बड़ी खुशखबरी है पर इसमें कुछ संस्मरण के अलावा अब ‘स्मृतियों की जन्मपत्री’ के ही लेख डाल दिए गए हैं। कृष्णा सोबती। हमारी कृष्णा सोबती हैं, कमलेश्वर : इलाहबाद को मेरा सलाम से लेकर, जगजीत शीर्षक बदलकर हैं, टी हाउस चाय घर के रूप में है, वहीं समकालीन समय और लेखन की चुनौतियां हैं।
इसी तरह राजेंद्र यादवजी के हंस के सम्पादकीय काँटों की बात करीब 12 पुस्तकों के रूप में आये, जो आज हंस के सम्पादकीय लेखों का जरूरी और महत्वपूर्ण संकलन है।
इसके बाद काँटों की बात के कई कांटें वे देवता नहीं, मुड़-मुड़ के देखता हूँ, औरों के बहाने में दिखे।
हकीर कहो-फकीर कहो जैसे लेख तो वो देवता नहीं के बाद फिर मुड़-मुड़ के देखता हूँ में प्रकाशित हैं।
‘अपनी निगाह में’ मुड़-मुड़ के देखता हूँ और औरों के बहाने में है।
एक और पुस्तक ‘आदमी की निगाह में औरत’ में कांटें तो हैं ही पर यहाँ काँटों से औरों के बहाने होते हुए कृष्णा सोबती हैं।
ठीक है। पर ये सब पुस्तकें यादों का दस्तावेज हैं, महत्वपूर्ण हैं, अपने वक्त का साहित्यिक इतिहास इनमें दर्ज है।
एक पाठक के तौर पर अपने प्रिय और सम्माननीय लेखकों के साथ यात्रा करते-करते लगता है कि हमारे लेखकों-प्रकाशकों को भी पाठकों का ध्यान रखना चाहिए।
इन पुस्तकों के लेखक ऐसे हैं कि इनके लेख पुनरावृत्ति के बावजूद हर नई पुस्तक के साथ बिकेंगे पर ये जो ट्रेंड बन रहा है, पाठकों को कब तक रास आएगा?
डॉ. आर.के. पालीवाल
दिल्ली सरकार का शराब नीति मामला, जिसे प्रवर्तन निदेशालय और केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के तमाम बड़े नेता आम आदमी पार्टी सरकार का सैकड़ों करोड़ का घोटाला कहते हैं और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविन्द केजरीवाल सहित तमाम नेता केन्द्र सरकार और उसकी जांच एजेंसियों का आप को बदनाम करने का षडयंत्र कहते हैं, देश की जनता के लिए रहस्य बनता जा रहा है। पूरी सच्चाई तो सर्वोच्च न्यायालय तक बहुत लंबी चलने वाली कानूनी लड़ाई के बाद सामने आएगी। यह भी संभव है कि बोफोर्स तोप सौदे की तरह पूरा सच कभी सामने ही नहीं आए लेकिन इस मामले के रहस्य के परदे प्याज की परतों की तरह खत्म नहीं हो रहे। ऐसा लगता है कि 2024 के आगामी लोकसभा चुनाव तक यह मुद्दा भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के बीच निरंतर गहराती खाई को और ज्यादा गहरा और चौड़ा करता रहेगा।
हाल ही में एक तरफ कई महीने से जेल में बंद दिल्ली के उप मुख्यमंत्री और दूसरे नंबर के नेता मनीष सिसोदिया की जमानत की सुनवाई पर प्रवर्तन निदेशालय को सर्वोच्च न्यायालय की बैंच के कड़े प्रश्नों का सामना करना पड़ रहा है, दूसरी तरफ प्रवर्तन निदेशालय ने आम आदमी पार्टी के तीसरे बड़े नेता राज्यसभा सांसद संजय सिंह को गिरफ्तार कर भाजपा और आप के नेताओं के वाकयुद्ध को और गरम कर दिया है। अभी तक मीडिया और अदालती कार्यवाही में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनमें अमित अरोड़ा और दिनेश अरोड़ा नाम के अभियुक्त इस मामले के सरकारी गवाह बनने पर इसके सबसे महत्वपूर्ण किरदार बने हुए हैं।
ऐसा कहा जा रहा है कि शराब नीति बनवाने में हुए आर्थिक लेन-देन के यह चश्मदीद गवाह हैं। उन्हीं की निशानदेही पर पहले सिसौदिया जेल गए और अब संजय सिंह की गिरफ्तारी हुई है। यह सब अरविन्द केजरीवाल के घर की घटना बताई जा रही है। संभव है कि देर सवेर उनके गिरेबान तक भी प्रवर्तन निदेशालय के हाथ पहुंच जाएं! वैसे इस केस की आगे की प्रगति सर्वोच्च न्यायालय के मनीष सिसोदिया की जमानत पर आने वाले निर्णय से भी प्रभावित होगी कि उसका रुख किस तरफ रहता है ।
सोशल मीडिया युग में नेता भी संसद और विधानसभाओं से लेकर सडक़ तक और अपने घरों से हर तरह के भावनात्मक असलहों का प्रयोग कर रहे हैं। संजय सिंह ने भी गिरफ्तारी होते ही घर में मां के पैर छूकर आशीर्वाद लेने के बाद जेल का रुख किया है। उनकी मां उन्हें भगतसिंह की राह पर चलने वाला बहादुर बता रही हैं। संजय सिंह ने बाकायदा एक वीडियो जारी कर कहा है कि वे केन्द्र सरकार से संघर्ष जारी रखेंगे। गिरफ्तारी और जेल जाने से नहीं डरेंगे। यहां तक कि कोर्ट में पेशी के दौरान उन्होने कोर्ट परिसर में कृष्ण बिहारी नूर का शेर पढ़ा ‘सच घटे या बढ़े तो सच न रहे /झूठ की कोई इंतहा ही नहीं। मतलब साफ है कि हम सच के साथ हैं और केन्द्र सरकार और जांच एजेंसियों के झूठ की इंतहा नहीं है। आप के दावों और भाजपा के प्रति दावों में कितना सच है और कितना झूठ यह अदालती कार्यवाही में भी पूरा बाहर आएगा या नहीं कहा नहीं जा सकता लेकिन जो लोग आम आदमी पार्टी को भारतीय जनता पार्टी की बी टीम कह रहे थे उनके दावे फिलहाल पूरी तरह खारिज हो गए हैं।
आप और भाजपा नेताओं में जिस तरह की बयानबाजी हो रही है उससे दोनों दलों में तीखापन शिखर पर पहुंच गया। संजय सिंह कोर्ट परिसर में उपस्थित मीडिया कर्मियों को बयान देते हुए सीधे प्रधानमंत्री पर आरोप लगा रहे हैं कि प्रधानमन्त्री मोदी अडानी के नौकर हैं। यह आरोप-प्रत्यारोप का निम्नतम स्तर है।आप की राजनीति शुरू से आक्रामक रही है और इस आक्रामकता के सबसे तेज तर्रार चेहरे खुद अरविन्द केजरीवाल और संजय सिंह हैं। एक विधानसभा में और दूसरा संसद में मोर्चा संभालता है और सडक़ पर दोनों आक्रामक अंदाज में बयानबाजी करते हैं। आप की चौकड़ी में मनीष सिसोदिया और राघव चड्ढा दो शालीन चेहरे हैं जो आंकड़ों और तर्कों की सहायता से कोड़े भिगो-भिगोकर प्रहार करते हैं। अब इस चौकड़ी के दो किरदार जेल पहुंच चुके हैं। आप के पांचवे अर्थ स्तंभ माने जाने वाले सत्येंद्र जैन आर्थिक अपराध में बहुत पहले से जेल के अंदर बाहर हो रहे हैं।
दिल्ली के शराब कांड को भाजपा की दिल्ली इकाई ने भी अपने पुनरुद्धार का जरिया बनाने की कोशिश शुरु कर दी है। दिल्ली में आप के पैर जमने के बाद भाजपा की हालत बेहद दयनीय हो गई थी। शराब कांड के मुद्दे पर भाजपा की दिल्ली इकाई भी काफी सक्रिय हो गई है। दिल्ली के भाजपा सांसदों और विधायकों ने महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर पहुंचकर आप के खिलाफ अभियान शुरु किया है। गांधी नशाबंदी को महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्य मानते थे इसीलिए भाजपा नेताओं को स्वच्छता की तरह शराब कांड में गांधी की याद आई है। अब वे दिल्ली की सडक़ों पर ‘आप ने दिल्ली को शराब में डुबोया अब शराब आपको डूबोएगी’ जैसे नारों की तख्तियां लेकर जन जागरण अभियान चला रहे हैं।
भाजपा की दिल्ली इकाई को लगता है कि शराब कांड उसे दिल्ली में दोबारा पैर जमाने के लिए जमीन उपलब्ध कराएगा। आप भी इतनी जल्दी हार मानने के लिए तैयार नहीं है। जिस तरह भाजपा अपनी जड़ जमाने के लिए आप को भ्रष्ट बताकर गांधी की शरण में आई है उसी तरह आप अपनी जड़ मजबूत करने के लिए केन्द्र सरकार को अत्याचारी बताकर उसका मुकाबला करने के लिए खुद को भगत सिंह पथ पर चलने वाले कहकर जन सहानुभूति पाने का प्रयास कर रही है। यह सिलसिला 2024 तक और उग्र होने की पूरी संभावनाएं हैं।
चंदन कुमार जजवाड़े
बिहार की 40 लोकसभा सीटों के लिए ‘इंडिया’ की तरह ‘एनडीए’ के सामने कई मुश्किलें आ सकती हैं। दोनों गठबंधनों में कई दल शामिल हैं।
राज्य में ‘इंडिया’ की तरह ‘एनडीए’ के सामने छोटे दलों की महत्वकांक्षा पूरी करने की चुनौती होगी।
एनडीए में अभी बिहार की हाजीपुर सीट पर चिराग पासवान की दावेदारी का मामला सुलझ नहीं पाया है। इसी बीच एनडीए के नए साझेदार हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) ने अपनी एक नई मांग रख दी है। हम (सेक्युलर) के नेता जीतन राम मांझी ने जमुई लोकसभा सीट पर अपनी पार्टी का दावा किया है।
जीतन राम मांझी ने कहा है कि जमुई सीट भोला मांझी की सीट है। वे यहां के सांसद थे। यह सीट मुसहरों और भुइयां की सीट है। जमुई को लेकर एनडीए में सीट देने की बात होगी तो हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा मांग रखेगी कि भोला मांझी की विरासत को कायम रखा जाए।
जीतन राम मांझी की इस मांग से बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए के अंदर एक खींचतान हो सकती है, क्योंकि इस सीट से फि़लहाल एलजेपी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान सांसद हैं। चिराग 2014 और 2019 में यहां से चुने गए थे।
चिराग पासवान के जमुई से सांसद होने के सवाल पर मांझी ने पत्रकारों से कहा, ‘ऐसा बहुत होता है। बहुत से लोग अपनी सीट बदलते हैं। सीट देना न देना एनडीए के नेताओं का काम है। हमारा काम है अपनी मांग रखना और मांग रखना तो ग़लत नहीं है।’
जमुई के सांसद रहे भोला मांझी कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया यानी सीपीआई के नेता थे। भोला मांझी 1971 में जमुई सीट से लोकसभा पहुंचे थे। इलाक़े में उनकी छवि एक साफ़ ईमानदार नेता के तौर पर मानी जाती है।
जीतन राम मांझी की इस मांग पर एलजेपी (रामविलास) के प्रवक्ता धीरेंद्र मुन्ना ने बीबीसी से कहा, ‘जमुई सीट मांगने का क्या मतलब है? जमुई सीट का फ़ैसला एनडीए की बैठक में होगा, मीडिया में नहीं। हर पार्टी बिहार की सभी चालीस सीटों पर तैयारी कर रही है, लेकिन अंतिम फ़ैसला गठबंधन करेगा।’
बंटवारा कितना मुश्किल
हाल ही में जमुई की एक सभा में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और उनके बेटे संतोष सुमन ने भी जमुई सीट पर एक तरह से अपना दावा पेश किया है।
जीतन राम मांझी कुछ हफ़्ते पहले ही बिहार में महागठबंधन का साथ छोडक़र एनडीए के साथ फिर से जुड़े हैं।
यह माना जाता है कि जीतन राम मांझी गया की एक लोकसभा सीट को साझेदारी में ख़ुद के हिस्से में देखते हैं। मांझी इस सीट से साल 2014 में चुनाव लड़ चुके हैं। यह सीट उनके इलाक़े में भी आती है। इसके अलावा कुछ अन्य सीटों पर भी उनकी नजऱ है।
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में गया की सीट उस वक््त एनडीए के साझेदार रही जेडीयू ने जीती थी।
लेकिन मांझी जिस आधार पर जमुई की सीट पर अपनी पार्टी का दावा करते हैं, उसी आधार पर गया सीट पर उनकी दावेदारी कमज़ोर हो सकती है, क्योंकि गया से रामस्वरूप राम भी सांसद रहे हैं, जो पासवान बिरादरी से आते हैं। ऐसे में एलजेपी भी गया सीट पर अपना दावा पेश कर सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, ‘एनडीए में सीटों का बंटवारा बहुत मुश्किल हो सकता है, यह उसी समय समझ में आ रहा था जब पिछली बार हमने एनडीए की बैठक देखी थी, जिसमें प्रधानमंत्री भी मौजूद थे। बीजेपी से लिए यह एक बड़ी उलझन हो जाएगी कि वो अपने ही सहयोगियों के बीच तालमेल कैसे बैठाए। हाजीपुर सीट के लिए पहले ही चाचा-भतीजा यानी पशुपति कुमार पारस और चिराग पासवान के बीच खींचतान चल रही है।’
उनके मुताबिक़ जीतन राम मांझी की मांग बहुत हैरान करने वाली नहीं है। जब रामविलास पासवान जीवित थे, तभी से उनके और जीतन राम मांझी के बीच दलितों के नेता होने के मुद्दे पर खींचतान चलती रही है। दोनों एनडीए में रहकर भी एक-दूसरे के ख़िलाफ़ बोलते थे।
किसको कितनी सीटें?
रामविलास पासवान को बिहार में दुसाध (पासवान) के नेता के तौर पर देखा जाता था, जबकि जीतन राम मांझी मुसहर (महादलित) समाज से निकलकर आए हैं। साल 2019 में मांझी बिहार में महागठबंधन का हिस्सा थे और कहा जाता था कि अगर वो जमुई से चुनाव लड़ें तो चिराग पासवान को कड़ी टक्कर दे सकते हैं।
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी का मानना है कि सीटों की साझेदारी में न तो केंद्र की सत्ता में बैठी ‘एनडीए’ में कोई मुश्किल होगी और न विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन में।
लोग बहुत कुछ मांगते हैं, लेकिन जीतन राम मांझी को गया छोडक़र कोई सीट नहीं मिलेगी और वो भी इस बात को जानते हैं।
कन्हैया भेलारी कहते हैं, ‘एनडीए का मामला रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान और चिराग के चाचा पशुपति कुमार पारस के बीच फंस रहा है। पारस और चिराग पासवान दोनों ही वह सीट चाहते हैं। चिराग पासवान कुल 6 लोकसभा सीट चाहते हैं, जैसा पिछली बार भी एलजेपी को मिला था।’
दरअसल हाजीपुर सीट एक तरह से रामविलास पासवान की पहचान के साथ जुड़ी है।
यह सीट एलजेपी के लिए अन्य सीटों के मुक़ाबले थोड़ी सुरक्षित भी मानी जाती है। पशुपति पारस और चिराग पासवान इस सीट को रामविलास पासवान की विरासत से भी जोडक़र देखते हैं। इसलिए दोनों ही यह सीट चाहते हैं।
रामविलास पासवान के निधन के बाद उनकी लोक जनशक्ति पार्टी दो धड़ों में बंट चुकी है।
पार्टी में टूट के बाद चाचा पशुपति पारस एनडीए के साथ बने रहे जबकि चिराग पासवान उससे अलग हो गए थे। चिराग पासवान हाल ही में बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए में दोबारा शामिल हुए हैं।
कुशवाहा फ़ैक्टर
हाजीपुर सीट पर चिराग की दावेदारी के मुद्दे पर पशुपति कुमार पारस तीखी प्रतिक्रिया दे चुके हैं।
जबकि चिराग पासवान हाजीपुर सीट छोडऩे को तैयार नहीं दिखते हैं। ऐसे में एनडीए गठबंधन की सबसे बड़े पार्टी बीजेपी के लिए इस मसले को सुलझाना ज़रूरी है।
बिहार की बात करें तो यहां विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन में आरजेडी और जेडीयू के अलावा कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां भी शामिल हैं।
यही हाल एनडीए का है जिसमें बीजेपी के अलावा एलजेपी के दो धड़े, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा भी होंगे। अगले साल होने वाले चुनावों में दोनों प्रमुख गठबंधनों को अपने घटक दलों को संतुष्ट करना होगा।
उपेंद्र कुशवाहा हाल ही में जनता दल यूनाइटेड से अलग होकर एनडीए के खेमे में आए हैं।
साल 2014 के चुनावों में कुशवाहा बीजेपी के साझेदार रहे थे। उन चुनावों में कुशवाहा की पार्टी को सीतामढ़ी, काराकट और जहानाबाद तीन सीटों पर जीत मिली थी। काराटक से ख़ुद उपेंद्र कुशवाहा ने चुनाव जीता था।
2018 के अंत में कुशवाहा एनडीए से अलग हो गए और 2019 के लोकसभा चुनाव में वो बिहार में विपक्षी महागठबंधन के साथ आ गए। यहाँ उनका पूर्वानुमान फ़ेल हो गया। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी।
कन्हैया भेलारी कहते हैं कि जेडीयू और आरजेडी ने यह लगभग तय कर लिया है कि किस पार्टी को कितनी सीटें देंगे।
भेलारी कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि वो कांग्रेस को चार से ज़्यादा सीट नहीं देंगे। यही बीजेपी के साथ है और वह कम से कम 28 सीट पर चुनाव लड़ेगी। जहां तक उपेंद्र कुशवाहा की बात है तो अब वो जाएंगे कहां।’
सीट ही नहीं, जीत भी
कुशवाहा की आरएलएसपी को साल 2019 चुनावों में गठबंधन में पाँच सीटों पर चुनाव लडऩे को मिला था, जिनमें से काराकट और उजियारपुर दो सीटों पर कुशवाहा ख़ुद चुनाव लड़े थे, लेकिन वो दोनों ही जगहों पर हार गए थे।
नचिकेता नारायण कहते हैं, एनडीए की स्थिति साल 2014 में भी लगभग आज वाली ही थी, उस समय जीतन राम मांझी नहीं थे, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान एनडीए के साथ थे। जेडीयू उस वक़्त भी एनडीए के साथ नहीं थी। ऐसा लगता है कि इस बार भी साल 2014 की तरह बीजेपी बिहार में अपने सहयोगियों के लिए कऱीब दस सीट छोड़ेगी।
लेकिन बिहार में मुद्दा कौन सी पार्टी कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी, वह नहीं, बल्कि यह बन सकता है कि कौन किस सीट से चुनाव लड़ेगा। ज़ाहिर है कोई भी उम्मीदवार ऐसी सीट से चुनाव लडऩा चाहेगा, जहां से उसे जीतने की संभावना ज़्यादा दिख रही हो।
उपेंद्र कुशवाहा ने इसी साल फिऱ से एक नई पार्टी ‘राष्ट्रीय लोक जनता दल’ बनाई है। एनडीए में उपेंद्र कुशवाहा को लेकर मामला फि़लहाल शांत दिख रहा है, लेकिन यहां भी कुशवाहा की सीट को लेकर मामला फंस सकता है और इसके बीज पिछले लोकसभा चुनावों में उनकी हार में दिखते हैं।
नचिकेता नारायण कहते हैं, ‘बीजेपी अपना दबदबा दिखाकर, जिसे जहां से चाहे चुनाव लड़वा लेगी, लेकिन चिल्लाएंगे तो सभी साझेदार कि हमें एनडीए में लाए हैं और हमारे तबके का वोट चाहते हैं तो ऐसी सीट से लड़वाएं जहां से जीतने की संभावना हो।’
नचिकेता नारायण के मुताबिक़, ‘काराकट ऐसी सीटों में है जहां ‘महागठबंधन’ ज़्यादा मज़बूत स्थिति में है, यह जेडीयू की सीटिंग सीट है। यहां आरजेडी और सीपीआईएमएल की भी अच्छी मौजूदगी है। ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा भी अपने लिए थोड़ी सुरक्षित यानी उजियारपुर सीट मांग लें जो नित्यानंद राय की सीट है, तो बीजेपी क्या करेगी?’
उजियारपुर सीट से फि़लहाल केंद्रीय गृह राज्य मंत्री और बीजेपी नेता नित्यानंद राय सांसद हैं। वो यहां से साल 2014 में भी चुनाव जीत चुके हैं।
उन्हें आगे भी यही सीट ख़ुद के लिए सुरक्षित दिख सकती है। हर उम्मीदवार का लक्ष्य जीत के लिहाज से थोड़ी सुरक्षित सीट से चुनाव लडऩा होता है। यह बात छोटे से बड़े क़द तक के नेताओं पर लागू होती है।
नरेंद्र मोदी भी साल 2014 में दो सीट से चुनाव लड़े थे।
गुजरात के अलावा उन्होंने अपने लिए उत्तर प्रदेश की एक सीट बनारस चुनी थी, रायबरेली या अमेठी नहीं। इसी तरह से राहुल गांधी भी सुरक्षित सीट की तलाश में पिछले लोकसभा चुनाव में अमेठी के अलावा केरल के वायनाड पहुंच गए थे।
बिहार में पिछले लोकसभा चुनावों में बीजेपी के गिरिराज सिंह भी बेगुसराय से चुनाव नहीं लडऩा चाह रहे थे, वो नवादा सीट ही चाहते थे जहां से वो सांसद थे। बेगुसराय सीट से उस वक़्त सीपीआई के कन्हैया कुमार भी चुनाव लड़ रहे थे। हालांकि बाद में गिरिराज सिंह बड़े अंतर से चुनाव जीत गए थे।
बिहार में सोमवार को जाति आधारित गणना के आंकड़े जारी होने के बाद फि़लहाल राजनीतिक बहस इसी पर चल रही है। लेकिन अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में साझेदारी को लेकर बात आगे बढ़ते ही इस मुद्दे पर अभी कई तरह की सियासी खींचतान देखने को मिल सकती है। (bbc.com/hindi)
-अशोक पांडेय
जनता के पैसों पर मौज काटने वाले राजनेताओं-तानाशाहों और उनके नजदीकी लोगों का का लंबा इतिहास रहा है। फिलीपीन्स के तानाशाह राष्ट्रपति मारकोस की बीवी इमेल्डा की फिजूलखर्ची का आलम यह था कि उसके वार्डरोब में तीन हजार से ज़्यादा जूतों की जोडिय़ां थीं। इनमें से कई जूतों पर सोने की कारीगरी के अलावा हीरे भी लगे होते थे। उसके पति को राजकीय खजाने से कुल पांच हजार डालर प्रतिवर्ष की तनख्वाह नियत थी लेकिन उसका कोई-कोई जूता चालीस हजार डालर का था।
एक गरीब देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ डालने वाली यह औरत बहुत क्रूर भी थी। एक बार उसे कान फिल्म समारोह में शिरकत करने का मौक़ा मिला। वहां की शान-शौकत देखकर वह इस कदर प्रभावित हुई कि उसने मनीला में कान से भी बड़ा फिल्म समारोह करवाने का मन बना लिया। 1982 में होने वाले इस समारोह में उस जमाने के ढाई करोड़ डॉलर लगने थे। यूनान के ऐतिहासिक पार्थेनन के डिजायन के आधार पर बनाए जा रहे वाले मनीला फिल्म सेंटर का निर्माण बड़ी चुनौती था। चार हजार से ज्यादा मजदूर तीन पालियों में दिन-रात काम कर रहे थे। 18 जनवरी 1982 को फिल्म समारोह का आयोजन होना था।
17 नवम्बर 1981 की सुबह तीन बजे इमारत का ऊपरी हिस्सा ढह गया। सैकड़ों मजदूर गीले सीमेंट के ढेर में गिर गए। लोहे की सीधी खड़ी सरियों की चपेट में आ जाने से कई मजदूर मारे गए।
इमेल्डा को बताया गया कि मरे हुए मजदूरों की देहों को तलाशने में काफी समय लगेगा। उसने आदेश दिया निर्माण कार्य किसी कीमत पर रुकना नहीं चाहिए। कम से कम 169 मजदूर सीमेंट में दफना दिए गए। माना जाता है दफनाए जाते समय उनमें से कुछ जीवित थे।
इस क्रूर कथा की सारी तफसीलें कभी सामने नहीं आईं। पत्रकारों, टीवी कैमरों और एम्बुलेंसों के घटनास्थल पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मार्शल लॉ लगाकर घटना का सरकारी संस्करण पेश किया गया और सारे गवाह चुप करा दिए गए।निरीह मजदूरों के मकबरे के तौर पर स्थापित हो चुकी उसी मनहूस इमारत में 18 जनवरी 1982 की नियत तारीख को फिल्म समारोह शुरू हुआ।
जानते हैं मनीला फिल्म सेंटर में दिखाई गयी पहली फिल्म कौन सी थी? -रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’!
भारत के विदेश मंत्रालय ने गुरुवार को कहा कि मालदीव की नई सरकार के साथ भारत हर मुद्दे पर बात करने को उत्सुक है।
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची से मालदीव के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू के उस बयान पर सवाल पूछा गया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि भारतीय सेना के कर्मियों को मालदीव छोडऩे के लिए कहा जा सकता है।
बुधवार की शाम मालदीव में भारत के उच्चायुक्त मुनु महावर ने मोहम्मद मुइज़्ज़ू से मुलाकात की थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक बधाई संदेश सौंपा था।
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा, ‘माले में हमारे उच्चायुक्त ने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति से मुलाकात की थी। दोनों के बीच कई मुद्दों पर अच्छी बातचीत हुई। इस बातचीत में आपसी सहयोग और द्विपक्षीय संबंधों से जुड़े मुद्दे भी शामिल थे।’ भारतीय विदेश मंत्रालय ने यह नहीं बताया कि मोहम्मद मुइज़्ज़ू के शपथ ग्रहण समारोह भारत का प्रतिनिधित्व कौन करेगा। 2018 में इब्राहिम सोलिह के शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शरीक हुए थे। इसे भारत की तरफ से अप्रत्याशित रुख के तौर पर देखा गया था।
मोहम्मद मुइज़्ज़ू की जीत
पिछले हफ्ते ही माले के मेयर मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह को 19000 मतों से हरा दिया था। दोनों के बीच हार का अंतर आठ प्रतिशत वोटों का था। मालदीव के इस चुनावी नतीजे को भारत के ख़िलाफ़ देखा गया और चीन के पक्ष में। इब्राहिम सोलिह की सरकार के साथ भारत का सहयोग बहुत गहरा था। उन्हें भारत के हितों के खिलाफनहीं जाने वाले राष्ट्रपति के तौर पर देखा जाता था।
मुइज्ज़़ू के चुनावी अभियान में भारत एक अहम मुद्दा था। उन्होंने ही इंडिया आउट कैंपेन भी चलाया था। मुइज़्ज़ू का कहना था कि उनकी सरकार मालदीव की संप्रभुता से समझौता कर किसी देश से कऱीबी नहीं बढ़ाएगी।
मंगलवार को मालदीव के मीडिया में मुइज़्ज़ू का एक और बयान सुर्खियों में था। उन्होंने राष्र्टपति चुनाव में जीत के बाद कहा था, ‘लोग नहीं चाहते हैं कि भारत के सैनिकों की मौजूदगी मालदीव में हो। विदेशी सैनिकों के मालदीव की ज़मीन से जाना होगा।’
द हिन्दू ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ‘हिन्द महासागर में भारत की सैन्य मौजूदगी कोई नई बात नहीं है। अब्दु और लम्मू द्वीप में 2013 से ही भारतीय नौसैनिकों और एयरफोर्स कर्मियों की मौजूदगी रही है। नवंबर 2021 में मालदीव नेशनल डिफेंस फोर्स ने संसदीय कमिटी से कहा था कि मालदीव में कुल 75 भारतीय सैन्यकर्मी मौजूद हैं। फरवरी 2021 में मालदीव की विपक्षी पार्टियों ने भारत के साथ मैरीटाइम सिक्यॉरिटी अग्रीमेंट का विरोध किया था।’
भारत ने मालदीव को दो हेलिकॉप्टर दिए थे, इसे लेकर भी विवाद हुआ था। अब्दुल्ला यामीन की सरकार ने 2018 में भारत से उपहार स्वरूप मिले दो नेवी हेलिकॉप्टर को वापस ले जाने के लिए कहा था। भारत ने मालदीव को ये हेलिकॉप्टर राहत बचाव कार्य के लिए दिए थे।
मोहम्मद मुइज़्ज़ू के बयान कि मालदीव से भारतीय सैनिकों को हटाया जाएगा पर अरिंदम बागची ने कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा। बागची ने कहा, ‘मालदीव के साथ हमारी साझेदारी का फोकस साझी चुनौतियां और प्राथमिकताएं हैं। एक पड़ोसी के तौर पर हमारे लिए ज़रूरी है कि मिलकर काम करें।’
मालदीव में भारत
भारतीय फिल्म, फैशन, फूड की लोकप्रियता मालदीव में किसी से छुपी नहीं है। भारतीय शहर तिरुवनंतपुरम माले के करीब है। दसियों हजार मालदीव के नागरिक हर साल भारत आते हैं। खासकर इलाज के लिए भारत इनका सबसे पसंदीदा ठिकाना रहा है।
इस छोटे से द्वीप समूह की सुरक्षा में भारत की अहम भूमिका रही है। 1988 में राजीव गांधी ने सेना भेजकर मौमून अब्दुल गयूम की सरकार को बचाया था। 2018 में जब मालदीव के लोग पेय जल की समस्या से जूझ रहे थे तो प्रधानमंत्री मोदी ने पानी भेजा था। इसके बाद मोदी सरकार ने मालदीव को कई बार आर्थिक संकट से निकालने के लिए कर्ज भी दिया।
तनाव की शुरुआत
भारत और मालदीव के रिश्तों में 2018 में सबसे ज़्यादा कड़वाहट आई है। इसकी शुरुआत मालदीव के सुप्रीम कोर्ट के 2018 में एक फरवरी के फ़ैसले से हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने विपक्ष के नेताओं को क़ैद करवाकर संविधान और अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन किया है।
कोर्ट ने यह भी आदेश दिया था कि सरकार पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद समेत सभी विपक्षी नेताओं को रिहा करे। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मानने से इंकार कर दिया था।
इसके साथ ही यामीन ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। यह आपातकाल 45 दिनों तक चला था। भारत ने इस आपातकाल का विरोध किया था। भारत ने कहा था कि मालदीव में सभी संवैधानिक संस्थाओं को बहाल करना चाहिए और आपातकाल को तत्काल ख़त्म करना चाहिए।
मालदीव में नाटकीय राजनीतिक संकट भारत और चीन दोनों के लिए परेशान करने वाला था। इसी संकट के बीच यामीन ने चीन, पाकिस्तान और सऊदी अरब में अपने दूत भेजे थे। इसके बाद चीन ने चेतावनी दी कि मालदीव के आंतरिक मामले में किसी भी देश को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसमें रचनात्मक भूमिका अदा करे।
चीन ने कहा था कि किसी भी सूरत में मालदीव की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। दूसरी तरफ़ मालदीव के विपक्षी नेता नाशीद चाहते थे कि भारत मदद करे।
वो भारत से सैन्य हस्तक्षेप की भी उम्मीद कर रहे थे ताकि जजों को हिरासत से मुक्त कराया जा सके। नाशीद ने अमेरिका से भी मदद की गुहार लगाई थी।
इस गतिरोध के बीच समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने एक चीनी न्यूज़ वेबसाइट के हवाले से बताया था कि चीन युद्धपोत मालदीव की तरफ़ बढ़ गए हैं। भारतीय नेवी ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि चीनी युद्धपोत सुंदा और लोंबोक जलडमरुमध्य से आगे बढ़ रहे हैं।
हालांकि चीनी युद्धपोत की हिंद महासागर में तैनाती कोई नहीं बात नहीं है। चीन का जिबुती में पहले से ही एक सैन्य ठिकाना है।
चीन के लिए मालदीव सामरिक रूप से काफ़ी अहम ठिकाना है। मालदीव रणनीतिक रूप से जिस समुद्री ऊंचाई पर है, वो काफ़ी अहम है। चीन की मालदीव में मौजूदगी हिंद महासागर में उसकी रणनीति का हिस्सा है। 2016 में मालदीव ने चीनी कंपनी को एक द्वीप 50 सालों की लीज महज 40 लाख डॉलर में दे दिया था।
दूसरी तरफ भारत के लिए भी मालदीव कम महत्वपूर्ण नहीं है। मालदीव भारत के बिल्कुल पास में है और वहाँ चीन पैर जमाता है तो भारत के लिए चिंतित होना लाजमी है। भारत के लक्षद्वीप से मालदीव कऱीबी 700 किलोमीटर दूर है और भारत के मुख्य भूभाग से 1200 किलोमीटर।
मालदीव चीन और पाकिस्तान की महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट वन रोड का भी खुलकर समर्थन कर रहा है। अगर भारत मालदीव से दूर होता है तो दक्षिण एशिया के बाकी छोटे देशों में भी चीन का प्रभाव बढ़ेगा। (bbc.com/hindi)
क्रांति कुमार
5 लाख साल पहले आग का आविष्कार करते हुए होमोसेपियंस ने सोचा भी नही होगा आने वाले काल में वो महिलाओं को डायन बताकर आग में जिंदा जलाएंगे। महिलाओं को डायन बताकर जिंदा जलाने की प्रमुख वजहें ये थीं 1) संपत्ति पर कब्जा करना। 2) अवैध संबंध से इंकार करने पर। 3) गैर धर्म से होना। 4) पति का दूसरी शादी करना। 5) बाढ़, अकाल और बीमारी। ? 1) पिता अपनी बेटी को अपनी संपत्ति या गद्दी का उत्तराधिकारी बनाना चाहता।
जादू टोने टोटके का आरोप लगाकर या अन्य षड्यंत्र रच कर महिलाओं को जिंदा जलाया गया है ताकि विशेषाधिकार बेटों के पास बना रहे। ? 2) गांव में जो सबसे सुंदर और गरीब लडक़ी होती अगर उसपर किसी पादरी की नजर पड़ जाती तो उसे ईश्वरीय आदेश बताकर नन बना दिया जाता। इसके बाद शुरू होता ननों का यौन शोषण। अगर कोई नन गर्भवती हो जाती तो उसे कुएं में फेंक दिया गया। कुलीन घरों की लड़कियां नन नही बनती थीं।
साहूकार, सामंत या इलाके का अन्य कुलीन व्यक्ति की बुरी नजर अक्सर करीब घर की महिलाओं या कुंवारी कन्याओं पर पड़ जाती थी। उन महिलाओं को हासिल करने में नाकाम रहने पर कुलीन वर्ग और पादरी ईशनिंदा का आरोप लगाकर उन्हें जिंदा जला देते थे। ऐसी घटना से डर कर कई गरीब महिलाएं अपने शरीर का समर्पण कर देती थीं। 3) रोमन कैथोलिक चर्च ने अपना रूढि़वादी प्रभाव बरकरार रखने के लिए प्रोटेस्टेंट ईसाई महिलाओं को ईशनिंदा या डायन का आरोप के तहत जिंदा जलाया। 4) पतियों ने दूसरी पत्नी रखने के लिए पहली पत्नी से छुटकारा पाने के लिए डायन बताकर पहली पत्नी को जिंदा जला देते थे।
5) गरीबी, बाढ़, अकाल और बीमारी नहीं ठीक होने पर लोग इसका इल्ज़ाम अक्सर अपने पड़ोसियों या गांव की किसी अधेड़ उम्र की महिला पर हर दुख दर्द या आपदा का ठीकरा फोडक़र उसे डायन बताकर कर जिंदा जला देते थे। आग के आविष्कार के बाद हम इंसानों ने अपने अंधकार जीवन में उजाला किया, लेकिन उसी आग से हमने अपने ही लोगों का नरसंहार कर उन्हें हमेशा के लिए अंधकार में धकेल दिया।
रश्मि सहगल
सरकार ने उन नौ तकनीकी रिपोर्टों को नजरअंदाज कर दिया और सोती रही जिनमें चेतावनी दी गई थी कि जोशीमठ एक साल में 3-4 फुट तक धंस गया है। नई रिपोर्ट्स से सामने आया है कि जोशीमठ में करीब दो तिहाई इमारतों में रहना खतरनाक साबित हो सकता है।
संकटग्रस्त जोशीमठ पर देश के अग्रणी वैज्ञानिक संस्थानों द्वारा तैयार नौ तकनीकी रिपोर्टों को सरकार ने दबाए रखा। इनमें से कुछ को दो साल से तो कुछ को आठ महीनों से धूल खाने दिया गया।
आखिरकार नैनीताल हाईकोर्ट को आदेश देना पड़ा जिसमें अदालत ने राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को जनहित से जुड़ी इन सभी रिपोर्ट को सार्वजनिक डोमेन में रखने के लिए बाध्य कर दिया। यह और बात है कि इनमें से किसी भी रिपोर्ट ने कोई चौंकाने वाली नई जानकारी नहीं दी।
काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के अनुसंधान प्रयोगशाला हैदराबाद स्थित नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ने बताया कि जोशीमठ शहर के कुछ हिस्से पिछले एक साल के दौरान 3-6 फुट तक धंस गए हैं और चेतावनी दी कि जमीन के नीचे ‘बड़ी संख्या में हवा से भरी दरारें बन गई हैं जिनमें से कई की गहराई तो सौ फुट से भी ज्यादा है।’ रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि बंजर और कृषि भूमि पर तो इन दरारों की गहराई 115 फुट तक है और शहर के निचले इलाकों में 60-65 फुट पर उथली और स्पर्शरेखा बन गईं।’
सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीबीआरआई) की ‘जोशीमठ में इमारतों की सुरक्षा आकलन’ पर रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि घरों में दरारें आने का मुख्य कारण बढ़ते यातायात प्रवाह के कारण ‘जमीन में होने वाला अत्यधिक कंपन’ है। सीबीआरआई ने 2,364 इमारतों का अध्ययन किया जिनमें से केवल 37 प्रतिशत इमारतें ही उपयोग के काबिल पाई गईं।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने इन नतीजों पर 150 पन्नों का सारांश तैयार किया जिसे केन्द्र सरकार को सौंपा गया है। इसमें कहा गया है कि जोशीमठ हर साल 12 सेंटीमीटर की दर से धंस रहा है। बेलगाम निर्माण और शहर में सीवेज उपचार की कमी के कारण स्थिति और भी गंभीर हो गई है। एनडीएमए ने कई प्रमुख सिफारिशें की हैं जिनमें सभी निर्माण पर पूर्ण प्रतिबंध और शहर में उचित सीवेज उपचार संयंत्र स्थापित करने की तत्काल जरूरत भी शामिल है। लेकिन इस आकलन में कुछ भी नया नहीं है। पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ. रवि चोपड़ा सवाल करते हैं, ‘उन्होंने (वैज्ञानिक संस्थानों ने) कौन सा नया शोध किया है? वे समस्या का कोई भी नया स्रोत स्थापित करने में विफल रहे हैं, सिवाय यह बताने के कि स्प्रिंग लाइन पर बने घरों में दरारें होने के कारण पानी रिस रहा है।’
लेकिन चोपड़ा ने यह भी जोड़ा कि उनकी टिप्पणियां समाचारपत्रों की रिपोर्टों पर आधारित हैं और उन्हें इन नतीजों का अच्छी तरह अध्ययन करने के लिए और समय चाहिए। भूविज्ञानी डॉ. एस.ए. सती ने कहा, ‘यह नई बोतल में पुरानी शराब है। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा है जो हम पिछले पांच साल से नहीं कह रहे हैं।’
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, रूडक़ी और जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्टों के दो संकेतक बेहद अशुभ हैं क्योंकि ये दोनों नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन को क्लीन चिट देते हैं जो विष्णुगढ़ तपोवन जलविद्युत परियोजना के हिस्से के रूप में एक भूमिगत सुरंग का निर्माण कर रहा है।
वैज्ञानिकों और आम लोगों द्वारा इसे समस्या का मूल कारण माना जाता है। एनटीपीसी के इंजीनियरों ने इस पनबिजली परियोजना के बारे में यह नहीं बताया था कि इसमें सतह से 900 मीटर नीचे लगभग 15 किलोमीटर लंबी सुरंग का निर्माण और डिसिल्टिंग चैंबर, पावर हाउस और 31 लाख क्यूबिक मीटर से अधिक गंदगी की डंपिंग वाला 22 मीटर ऊंचा बांध भी बनाया जाना है।
इस सुरंग का एक हिस्सा बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खोदा जा रहा था जो खुदाई करने के लिए टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) का उपयोग कर रहे थे। अतीत में, दुर्भाग्य से, टीबीएम एक बार 9 दिसंबर, 2009 को अटक गई थी और फिर फरवरी और सितंबर, 2012 में और उसके बाद अगले सात सालों तक अटकी ही रही जिसके बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस परियोजना से अपने हाथ खींच लिए।
यह हादसा जोशीमठ से पांच किलोमीटर पहले स्थित सेलंग गांव के पास हुआ था। पहली दुर्घटना के दौरान टीबीएम ने फॉल्ट जोन में स्थित एक जलीय चट्टानी परत में छेद कर दिया जिससे भारी दबाव के साथ पानी निकलने लगा। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि प्रति सेकंड लगभग 700 लीटर पानी निकल रहा था जो 20-30 लाख लोगों की प्रति दिन की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त था। दुर्घटना के बाद जोशीमठ और आसपास के अन्य गांवों में झरने सूखने लगे और तब से पानी की कमी एक आम बात हो गई है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि जलस्रोत टूटने के बाद से ही धंसाव की समस्या शुरू हुई है। इन तीन दुर्घटनाओं का गहन विश्लेषण तीन अंतरराष्ट्रीय स्तर के वैज्ञानिकों- बर्नार्ड मिलर, जियोर्जियो हॉफर-ओलिंगर और जोहान ब्रांट द्वारा किया गया था। उन्होंने इंजीनियरिंग जियोलॉजी फॉर सोसाइटी एंड टेरिटरी में अपने नतीजे प्रकाशित किए जिसमें उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कैसे इस अवैज्ञानिक ड्रिलिंग ने चट्टानों में नई दरारें पैदा कीं जिससे सतह के नीचे का पानी तेज दबाव के साथ बाहर आ गया।
कई भू-वैज्ञानिकों समेत भारतीय वैज्ञानिकों ने भी जोशीमठ शहर पर इसके प्रभाव को लेकर सवाल उठाए हैं जिसका एनटीपीसी ने कोई जवाब नहीं दिया है। एनटीपीसी ने शुरू से ही कहा था कि चूंकि सुरंग जोशीमठ से कुछ दूरी पर है, इसलिए इस हादसे के लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन वैज्ञानिक तथ्यों के सामने एनटीपीसी का यह दावा भरभराकर गिर जाता है। डॉ. रवि चोपड़ा के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने दावे का खंडन किया और बताया कि ‘अगर सुरंग को क्षैतिज रूप से देखा जाए तो यह जोशीमठ से मात्र 1.1 किलोमीटर की दूरी पर है।’
इसलिए यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, रूडक़ी और जीएसआई- दोनों ने एनटीपीसी को क्लीन चिट दे दी है, खासकर इसलिए क्योंकि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी ने कहा था कि जोशीमठ के धंसने और शहर के पश्चिमी भाग में अनेक झरनों के रूप में भूमिगत जल के बाहर निकलने के बीच सीधा संबंध है।
‘जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति’ का नेतृत्व कर रहे अतुल सती ने भी एनटीपीसी को क्लीन चिट दिए जाने पर चिंता जाहिर की। समस्या की जड़ एनटीपीसी की विष्णुगढ़ तपोवन जलविद्युत परियोजना का निर्माण है। जब इसे शुरू किया गया था, तो जीएसआई ने 2005 में ही इसकी प्रभावशीलता पर सवाल उठाया था।
इसके महत्वपूर्ण निष्कर्षों का जिक्र डॉ. एपीएस बिष्ट सहित दो वैज्ञानिकों द्वारा 2010 में तैयार की गई एक रिपोर्ट में किया गया था। लेकिन ऐसा लगता है कि जीएसआई के महत्वपूर्ण नतीजे सार्वजनिक डोमेन और आधिकारिक रिकॉर्ड से गायब हो गए हैं। सती ने यह भी सवाल उठाया कि इन नौ तकनीकी संस्थानों के वैज्ञानिकों को अपने नतीजों को सार्वजनिक करने की इजाजत क्यों नहीं दी गई, जो लगभग आठ महीने पहले तैयार हो गए थे।
इस पूरी बहस को और भी चिंताजनक आयाम देने वाली बात यह है कि वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी ने चेतावनी दी है कि जोशीमठ में दरारें और बढ़ सकती हैं क्योंकि यह उच्च भूकंपीय क्षेत्र में आता है। वाडिया इंस्टीट्यूट ने पाया कि 13 जनवरी से 12 अप्रैल, 2023 के बीच, उनके भूकंपीय नेटवर्क ने जोशीमठ के 50 किलोमीटर के दायरे के भीतर अधिकतम 1.5 तीव्रता के 16 सूक्ष्म भूकंप दर्ज किए।
वाडिया इंस्टीट्यूट ने कहा कि ‘वर्तमान और अतीत की भूकंपीय गतिविधियों में दक्षिण और दक्षिण पश्चिम में बढ़ती भूकंपीयता की एक जैसी प्रवृत्ति है जो मुख्य रूप से चमोली भूकंप के केन्द्र के आसपास केन्द्रित है।’ गौरतलब है कि 1999 में चमोली में विनाशकारी भूकंप आया था जिसमें 103 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी और हजारों घर तबाह हो गए थे।
इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में से एक उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के प्रमुख डॉ. रंजीत कुमार सिन्हा ने बताया कि वे इन रिपोर्टों के आधार पर ‘पोस्ट डिजास्टर नीड्स असेसमेंट’ शीर्षक से एक डीपीआर तैयार कर रहे हैं। इस डीपीआर को अमल में लाने के लिए 1800 करोड़ रुपये की जरूरत होगी जिसके लिए केन्द्र सरकार 1465 करोड़ रुपये देने पर राजी हो गई है। इस पैसे का इस्तेमाल जोशीमठ में लोगों के पुनर्वास और जिन घरों को बचाया जा सकता है, उनकी मरम्मत में किया जाएगा।
अहम सवाल यह है कि सरकार इतने महीनों तक इन रिपोर्टों पर क्यों बैठी रही? राज्य के वरिष्ठ नौकरशाहों को जमीन धंसने की समस्या के बारे में लगभग दो साल से पता है। तब शहर का डीपीआर क्यों नहीं बनाया गया? इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि भूस्खलन ने जोशीमठ के आसपास के गांवों को भी प्रभावित किया है। क्या सरकार के पास इन असहाय ग्रामीणों के लिए कोई पुनर्वास योजना है या उन्हें किस्मत के भरोसे छोड़ दिया जाएगा? (navjivanindia.com)
-सिद्धार्थ ताबिश
एक मित्र ने पर्सनल मैसेज किया है अपने परिवार की समस्या पर और मुझ से सुझाव मांगा है। समस्या बड़ी ही कॉमन है जो भारत के हर मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी है। एक मां है, जो अपने बेटे की शादी बड़े अरमान से करती है, फिर बहू से उसकी लड़ाई शुरू होती है। फिर लडक़ा अपनी पत्नी को लेकर दूसरे शहर में चला जाता है जहां उसकी नौकरी होती है.. मां अब और गुस्सा हो जाती है, फिर बच्चा पैदा होने वाला हुआ तब मां लडक़े के पास जाती है। अच्छे और बड़े अस्पताल में बहू को देखकर और गुस्सा हो जाती है। क्योंकि बेटा बहू के ऊपर इतना खर्चा कर रहा है जबकि इस मां ने सारे बच्चे घर में या सरकारी अस्पताल में जन लिए थे.. फिर मां गुस्से में वहां से वापस अपने शहर आ जाती है। अब गुस्सा चरम पर है और मां बेटे का रिश्ता अधर में है।’
भारतीय मध्यम और निम्न वर्गीय मांओं की अब ये स्थिति हो चुकी है कि उनका सिर्फ बस नहीं चलता है वरना वो अपने बेटे से ही शादी कर लें और किसी भी दूसरी औरत को अपने बेटे की जि़ंदगी में न आने दे.. ये जितनी भी माएं जो ये कहती हैं कि उन्हें अपने बेटे की शादी का अरमान है वो बस ये ‘कहती’ हैं और कहने से उनका कोई मतलब होता नहीं है।
क्योंकि ये भ्रम की परकाष्ठा में जीने वाली औरतें होती हैं। सबसे पहला धक्का इन मांओं को तब लगता है जब उनके बेटे की शादी होती है और बेटा अपनी पत्नी के साथ दूसरे कमरे में अकेले सोने लगता है.. नई नई शादी होती है और लडक़ा दिन रात अपनी पत्नी के साथ अकेले कमरे में बिताने लगता है। बस इन मांओं की बेचैनी शुरू हो जाती है क्योंकि जिस लडक़े का उठने बैठने और नित्य क्रिया से लेकर सब कुछ ये मां कंट्रोल करती थी वही लडक़ा बिना इसकी इजाजत लिए अपनी पत्नी के साथ कमरे में पड़ा रहता है। ये पहली शुरुआत होती है मां के जलन की। आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि मां सबसे पहले अपनी बहु के देर से उठने की कलह शुरू करती है। क्योंकि वो चाहती है कि जितनी जल्दी ये औरत उसके बेटे के बिस्तर से बाहर निकल जाए उतना अच्छा भारतीयों मांओं की जलन और कुढन का ये मनोविज्ञान बहुत पेचीदा है.. मैं मनोवैज्ञानिक रूप से अगर इस पर लिखने बैठ गया तो पूरी किताब लिखनी पड़ जाएगी।
तो मेरे मित्र ने इस समस्या का समाधान पूछा था.. तो मेरा जवाब ये है कि ‘इस समस्या का कोई भी समाधान नहीं है’। कोई कितना भी कहे कि समझा बुझा के, मां को समझा के प्यार करके चीज़ संभाल जाएगी, मगर ऐसा होता ही नहीं है। क्योंकि भारतीय माएं अपने बेटों के साथ ‘जीवन संगिनी’ जैसी चिपकी रहती हैं और जीवन में एक समय में सिर्फ एक संगिनी हो सकती है। इसलिए ये रिश्ता कभी बैठता ही नहीं है.. मां को उतना ही अधिकार और प्रेम चाहिए होता है अपने बेटे से जो वो अपनी पत्नी को दे रहा होता है बल्कि उस से भी ज़्यादा इन मांओं को चाहिए होता है।
इसलिए बस एक काम ही हो सकता है इसमें कि अपनी कमान अपने हाथ में लीजिए.. चुपचाप एक ‘जीवन संगिनी’ को अपने जीवन से बाहर कीजिए.. रोने धोने दीजिए। यहां-वहां आपकी बुराई करने दीजिए.. चुपचाप ये सब बस देखिए और अपना जीवन जीना शुरू कीजिए.. अब आप किस ‘जीवन संगिनी’ को अपने जीवन से बाहर करते हैं, ये आप पर निर्भर है। मगर सिर्फ तभी आप सुखी रहेंगे, इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है।
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में कुल 107 मौजूदा सांसदों और विधायकों के खिलाफ हेट स्पीच के मामले दर्ज हैं. इनमें से सबसे ज्यादा जनप्रतिनिधि बीजेपी से हैं.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
यह रिपोर्ट चुनावी सुधारों पर काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने सांसदों और विधायकों द्वारा उनके चुनावी हलफनामों में दी गई जानकारी के आधार पर बनाई है.
रिपोर्ट के मुताबिक 33 मौजूदा सांसदों के खिलाफ इस तरह के आरोप हैं. इनमें से 22 सांसद बीजेपी के सदस्य हैं (66 प्रतिशत). दो सांसद कांग्रेस में हैं, एक-एक सांसद कई क्षेत्रीय पार्टियों में और एक निर्दलीय सांसद है.
नफरत से राजनीति
इन सांसदों को राज्यवार देखने पर नजर आता है कि इनमें से सात उत्तर प्रदेश से, चार तमिलनाडु से, तीन बिहार, तीन कर्नाटक और तीन तेलंगाना से, दो असम, दो गुजरात, दो महाराष्ट्र और दो पश्चिम बंगाल से और एक झारखंड, एक मध्य प्रदेश, एक केरल, एक ओडिशा और एक पंजाब से हैं.
इनके अलावा पूरे देश में कुल 74 मौजूदा विधायकों के खिलाफ हेट स्पीच के मामले दर्ज हैं. इनमें भी सबसे ज्यादा जनप्रतिनिधि बीजेपी के ही सदस्य हैं. इस सूची में बीजेपी के 20 विधायक (27 प्रतिशत), 13 कांग्रेस के, छह आम आदमी पार्टी के, पांच सपा और वाईएसआरसीपी के और बाकी अन्य पार्टियों के हैं.
इनमें से नौ विधायक बिहार से हैं, नौ उत्तर प्रदेश से, छह आंध्र प्रदेश से, छह महाराष्ट्र से, छह तेलंगाना से, पांच असम से, पांच तमिलनाडु से, चार दिल्ली से, चार गुजरात से, चार पश्चिम बंगाल से और बाकी अन्य राज्यों से हैं.
ये तो हुई उनकी बात जो चुनाव जीत कर विधायक और सांसद बन गए. हारने वालों में भी कई ऐसे उम्मीदवार थे जिनके खिलाफ ऐसे मामले दर्ज थे. बीते पांच सालों में इस तरह के कम से कम 480 उम्मीदवारों ने संसद और विधानसभाओं के चुनावों में हिस्सा लिया है, यानी पार्टियां काफी बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को टिकट देती हैं.
लेकिन क्या है हेट स्पीच
एडीआर ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया है कि विधि आयोग ने मार्च, 2017 में जारी की गई अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में किसी भी कानून में हेट स्पीच की परिभाषा नहीं दी गई है. लेकिन आयोग ने इस बात पर भी ध्यान दिलाया है कि कई कानूनों के प्रावधानों में हेट स्पीच की बात जरूर की गई है.
इनमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धाराएं 153ए, 153बी, 295ए, 298, 505(1) और (2) शामिल हैं. इनके अलावा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के सेक्शन 8, सेक्शन 123(3ए) और सेक्शन 125 भी नफरती भाषण से जुड़े हुए प्रावधान हैं.
एडीआर के मुताबिक विधि आयोग ने अनुशंसा की है कि जनप्रतिनिधियों को नफरती भाषण देने से दूर रखने के लिए कई कदम उठाए जाने के जरूरत है. जैसे चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता में बदलाव लाया जाना चाहिए और आईपीसी में नए प्रावधान लाये जाने चाहिए.
इसके अलावा राजनीतिक दलों को ऐसे लोगों को टिकट नहीं देना चाहिए, जो हेट स्पीच के दोषी पाए जाएं उनके खिलाफ सख्त कदम उठाए जाने चाहिए और अदालतों में ऐसे मामलों को फास्ट ट्रैक करवा देना चाहिए ताकि फैसला जल्द आये. (dw.com)
-इमरान कुरैशी
27 वर्षीय बधिर अधिवक्ता साराह सन्नी बदलाव का चेहरा बनकर उभरी हैं। वो उन लोगों को भारत की कानून व्यवस्था के और करीब लेकर आएंगी जो सुन या बोल नहीं सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने पिछले सप्ताह एक अहम फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के दौरान इंडियन साइन लेंगुएज यानी आईएसएल इंटरप्रेटर (दुभाषिए) के इस्तेमाल की अनुमति दे दी है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने न सिर्फ युवा वकील साराह सन्नी को अगली सुनवाई में अपना तर्क रखने का मौक़ा दिया है बल्कि ये कार्यस्थल पर बराबरी और समावेश की दिशा में एक बड़ा क़दम भी माना जा रहा है।
पछले दो सालों के दौरान, साराह सन्नी को बेंगलुरु की निचली अदालत में मामले की सुनवाई के लिए संकेतों की भाषा समझने वाले दुभाषिए के इस्तेमाल की अनुमति नहीं मिली थी क्योंकि जज का मानना था कि क़ानूनी भाषा को समझने के लिए इंटरप्रेटर को कानूनी पृष्ठभूमि से होना चाहिए।
साराह सन्नी को अदालत में लिखकर अपने तर्क देने पड़ते थे।
अब जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के फ़ैसले ने देश की अदालतों को ये संदेश दिया है कि सुनवाई के दौरान आईएसएल इंटरप्रेटर के इस्तेमाल की अनुमति दी जानी चाहिए।
इससे आईएसएल के पेशे के लिए अधिक अवसर भी उपलब्ध होंगे।
साराह सन्नी अदालत में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड संचिता आइन की तरफ से पेश हुईं थीं।
संचिता कहती हैं, ‘साराह सुप्रीम कोर्ट में इंटरप्रेटर की मदद से पेश हुईं और कई स्टीरियोटाइप्स को तोड़ा। इसका असर लंबे वक्त तक देखने को मिलेगा। इससे और अधिक संख्या में बधिर स्टूडेंट्स को प्रोत्साहन मिलेगा कि वो कानून की पढ़ाई करें और लीगल सिस्टम का हिस्सा बनें। कानून की किताब में हम इंडियन साइन लेंगुएज को विकसित करना चाह रहे हैं ताकि भविष्य में बधिरों को इस बारे में मदद मिल सके।’
आईएसएल सौरव राय चौधरी ने बीबीसी से कहा, ‘90 से 95 प्रतिशत तक मूक-बधिर बच्चे उन अभिभावकों को पैदा होते हैं जो बोल-सुन सकते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में ऐसे लोगों की तादाद 1।8 करोड़ थी जो या तो बधिर हैं या जिन्हें सुनने में दिक्कत होती है।’
‘पिछले 12 सालों में ये संख्या और अधिक बढ़ गई होगी। सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला बधिरों को अहसास कराएगा कि क़ानून की नजऱ में वो भी बराबर हैं।’
सुप्रीम कोर्ट में आईएसएल इंटरपेटर राय चौधरी की व्याख्या की भारत के महाधिवक्ता तुषार मेहता ने भी तारीफ़ की थी और चीफ जस्टिस भी इससे तुरंत ही सहमत हो गए थे।
रंजिनी रामानुजम बचपन से बधिर हैं और इस समय इंफोसिस में काम करती हैं। उन्हें साल 1999 का अर्जुन अवॉर्ड (बैडमिंटन में) मिला था।
बीबीसी से बात करते हुए रंजिनी ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला बधिर लोगों के लिए एक वरदान की तरह है। इसने बधिर लोगों को आवाज दी है। इस ऐतिहासिक कदम से सुप्रीम कोर्ट ने अन्य दफ्तरों को भी अपने नक्शे कदम पर चलने का संदेश दिया है। ये बाधाएं तोडऩे वाला फैसला है।’
कौन हैं साराह सन्नी?
साराह सन्नी के लिए ये फैसला किसी सपने के सच होने जैसा है।
बीबीसी से बात करते हुए वो कहती हैं, ‘मैं हमेशा ये सोचा करती थी कि भारत के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की अदालत में पेश होना कैसा होता है। जब उस दिन में सीजेआई के सामने खड़ी थी, मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ा हुआ था। जो लोग सुन नहीं सकते हैं मैं उन्हें ये दिखाना चाहती थी कि अगर मैं ये कर सकती हूं तो वो भी कुछ भी कर सकते हैं।’
साराह सन्नी अपनी जुड़वा बहन मारिया सन्नी के साथ बधिर पैदा हुईं थीं। उनके बड़े भाई प्रतीक कुरुविला भी बधिर ही हैं।
लेकिन उनके पिता सन्नी कुरुविला और मां ने तय किया कि वो अपने बच्चों को मूक-बधिर बच्चों के विशेष स्कूल में नहीं भेजेंगे।
सन्नी कुरुविला कहते हैं, ‘जब हम चेन्नई में थे तब हमने कुछ समय के लिए प्रतीक को बाल विद्यालय भेजा। बाद में हम बेंगलुरु आ गए। हमने दो दर्जन से अधिक स्कूलों में प्रतीक का दाख़िला कराना चाहा। एंथनी स्कूल के अलावा सभी स्कूलों ने हमें साफ़-साफ़ मना कर दिया।’
सन्नी कुरुविला कहते हैं, ‘प्रतीक ने सैंट जोसेफ़ ब्वॉयज स्कूल से दसवीं की। जब आठ साल बाद हमारी दो जुड़वा बेटियां हुईं, हम सामान्य बच्चों के 25-30 स्कूलों में उनके दाखिले के लिए गए। अंतत: हम क्लूनी कान्वेंट में एडमिशन कराने में कामयाब रहे।’
कॉलेज दाखिले में हुई परेशानी
कॉलेज में दाख़िला कराना में भी ऐसी ही समस्याएं आईं। लेकिन ज्योति निवास कॉलेज ने दोनों बहनों को दाखिला दे दिया। तब तक प्रतीक पढ़ाई करने के लिए विदेश चले गए थे जहां वो एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गए। फिलहाल वो समय निकालकर बधिर बच्चों को पढ़ाते भी हैं। मारिया सन्नी एक चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं।
साराह सन्नी ने सैंट जोसेफ कॉलेज ऑफ लॉ से एलएलबी की और कोविड महामारी के समय 2021 में प्रैक्टिस शुरू की।
वो कहती हैं, ‘हम में ये आत्मविश्वास हमारे माता-पिता ने भरा जिन्होंने हमें पढऩे के लिए सामान्य स्कूल भेजा क्योंकि वो बराबरी में यकीन करते हैं। मैं लिप रीडिंग करके क्लास में पढ़ा करती थी। मेरी दोस्त मुझे नोट्स लेने में मदद करती थीं। हां कुछ ऐसे भी लोग थे जो मजाक बनाते थे लेकिन मैंने हमेशा ही उन्हें जवाब दिया।’
उनकी मां घर में पढ़ाई में मदद करती थीं लेकिन जब उन्होंने क़ानून की पढ़ाई शुरू की तब वो मदद नहीं कर पाईं। उनकी एक दोस्त ने विषयों को समझने में मदद की। स्कूल और कॉलेज में उनकी बहन मारिया हमेशा उनके साथ रहीं। वो कहती हैं, ‘मेरे भाई ने भी बहुत मदद की है।’
जब साराह से हमने पूछा कि क्या वो अपनी बहन की कमी महसूस करती हैं तो उनकी आंखों में आंसू आ गए। मारिया की हाल ही में शादी हुई है।
वो कहती हैं, ‘जब मैंने सुना कि उसकी शादी होने जा रही है तो मैं बहुत ख़ुश थी। मुझे लगा कि अब पूरा कमरा मेरा होगा। मैं पूरे बिस्तर पर अकेले सो पाऊंगी। सब कुछ अकेला मेरा होगा और मुझे साझा नहीं करना होगा। लेकिन एक दो महीने बाद ही मैं बहुत अकेली हो गई। मैं उसकी कमी को बहुत महसूस करती हूं। लंच के समय में रोज़ाना उसे वीडियो कॉल करती हूं।’
दिल्ली हाई कोर्ट ने उठाया कदम
साराह सन्नी पहली बधिर अधिवक्ता हैं जो सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश हुई हैं। लेकिन एक और अधिवक्ता हैं जिन्होंने बधिर अधिवक्ताओं के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में नींव मज़बूत की।
एसएलआई राय चौधरी की मदद से सौदामिनी पेठे ने चालीस के कऱीब उम्र में रोहतक से कानून की पढ़ाई की थी। राय चौधरी कहते हैं, ‘मैं वहां सुबह से शाम तक रहता था और सौदामिनी के लिए लेक्चर का अनुवाद करता था।’
केंद्रीय विद्यालयों में बधिर टीचरों की नियुक्ति ना किये जाने से जुड़े एक मामले के संबंध में सौदामिनी दिल्ली हाई कोर्ट की जज प्रतिभा सिंह की अदालत के समक्ष पेश हुईं थीं।
संचिता आईन कहती हैं, ‘वो 17 अप्रैल को अदालत के समक्ष पेश हुईं थीं और वो बहुत ख़ुश थीं कि उनके लिए आईएलएस इंटरप्रेटर भी उपलब्ध था। लेकिन फिर अचानक 22 अप्रैल को उनकी मृत्यु हो गई।''
संचिता कहती हैं- सबसे अच्छी बात ये हुई थी कि इंटरप्रेटर को अदालत ने ही नियुक्त किया था।
पेठे की मौत के कऱीब पांच महीने बाद दृष्टिबाधित अधिवक्ता राहुल बजाज ने अदालत में दो आईएलएस इंटरप्रेटर नियुक्त करने की मांग की थी- एक वकील की बात का अनुवाद करने के लिए और दूसरा जज का अनुवाद करने के लिए। जस्टिस प्रतिभा सिंह ने आईएसएल इंटरप्रेटर नियुक्त कर दिए थे।
इस याचिका में मांग की गई थी कि बधिर और दृष्टिबाधित लोगों के लिए फिल्म समझने के लिए सबटाइटल और ऑडियो डिस्क्रिपश्न की व्यवस्था की जानी चाहिए। अधिवक्ताओं का तर्क है कि मूक-बधिर और दृष्टिबाधित फिल्म को नहीं समझ पाते हैं।
26 सितंबर को हुई सुनवाई के दौरान राय चौधरी और शिवाय शर्मा आईएसएल इंटरप्रेटर थे।
संचिता कहती हैं, ‘हम उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी दिल्ली हाई कोर्ट की तरह बधिर अधिवक्ताओं और याचिकाकर्ताओं की मदद के लिए आईएसएल इंटरप्रेटर नियुक्त करेगा।’
एसोसिएशन ऑफ़ साइन लैंग्वेज इंटरप्रेटर ऑफ इंडिया की अध्यक्ष रेणुका रमेशन ने बीबीसी से कहा, ‘आईएलएस इंटरप्रेटर से दिल्ली हाई कोर्ट ने संपर्क किया था और हमने आईएलएस इंटरप्रेटर के लिए प्रोटोकॉल निर्धारित किए। ये प्रोटोकॉल अदालत और पक्षों के लिए चीजें आसान करने के लिए बनाए गए हैं।’
आईएलएस बनने के लिए विशेष कोर्स करना होता है।
द नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हियरिंग हैंडीकैप्ड (एनआईएचए) में ए, बी और सी स्तर के कोर्स होते हैं। अब इंडियन साइन लैंग्वेज इंटरप्रेटिंग और डिप्लोमा इन टीचिंग एसएल (डीटीआईएसएल) होता है।
ये कोर्स दिल्ली, कोलकाता और अन्य जगहों पर उपलब्ध हैं। बेंगलुरु के इंस्टीट्यूट ऑफ स्पीच एंड हियरिंग जैसे अन्य संस्थान भी हैं जो इस तरह के कोर्स करवाते हैं।
राय चौधरी कहते हैं, ‘आईएलएस के सौ से अधिक सदस्य हैं। देश में 400-500 सर्टिफ़ाइड इंटरप्रेटर हैं लेकिन वास्तविकता में 40-50 ही दक्ष होंगे जो एथिकल कार्य कर रहे हैं। इन इंटरप्रेटर में बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो बहरे लोगों के बच्चे हैं या सिबलिंग हैं। इस फ़ैसले ने इस क्षेत्र में विशेषज्ञों की ज़रूरत का मौका पैदा किया है। साइन लैंग्वेज का चर्चा में आना अच्छा है। इससे बधिरों के लिए पहुंच सुनिश्चित होगी।’
रमेशन कहती हैं, ‘साइन लैंग्वेज लगातार विकसित होने वाली भाषा है, ये बहुत गतिशील है। भाषा की गुणवत्ता एसएलआई की शैक्षणिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करती है। फिलहाल अधिकतर एसएलआई फ्रीलांसर हैं। अभी हमारे पास कोई लाइसेंस का सिस्टम नहीं है लेकिन चीज़ें बदल रही हैं।’ सारा का सिर्फ एक निवेदन है, ‘मुझे गूंगी ना बुलाएं। मैं सिर्फ बहरी हूं।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
आजादी के बाद से पहली बार कांग्रेस लगातार दस साल केंद्र की सत्ता से बाहर रही है। इस बीच उसके बहुत से सत्ता लोलुप नेता भारतीय जनता पार्टी में घुस गए हैं और बहुत से हताश-निराश होकर घर बैठ गए हैं। कांग्रेस हाई कमान को यह उम्मीद नहीं थी कि पांच साल सत्ता में रहने के बाद भारतीय जनता पार्टी 2019 में 2014 से भी प्रचंड बहुमत से वापसी कर लेगी। यही कारण था कि 2018 में आगामी चुनाव के लिए कांग्रेस ने वैसी तैयारी नहीं की थी जैसी प्रमुख विरोधी दल के रुप में करनी चाहिए थी। यह देखना संतोषजनक है कि 2023 में प्रमुख विरोधी राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस ज्यादा जोशो खरोश के साथ 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रही है। लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण है कि प्रमुख विरोधी दल सत्ताशीन दल के लिए लगातार चुनौती खड़ी करता रहे।
पिछले साल आंतरिक लोकतंत्र का सम्मान करते हुए कांग्रेस ने अध्यक्ष पद के लिए बाकायदा चुनाव कराया था। इस मामले में वह भारतीय जनता पार्टी से आगे निकली है क्योंकि वहां अध्यक्ष का चुनाव नहीं हुआ बल्कि अपने गृह प्रदेश में सरकार गंवाने वाले जे पी नड्डा को एक्सटेंशन देकर भाजपा ने आंतरिक लोकतंत्र के सिद्धांत का उपहास किया है। कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की जीत को भी कांग्रेस की मेहनत का नतीजा माना जा सकता है जिसने क्रमश: उत्तर और दक्षिण में कांग्रेस के उखड़े पैर जमाए हैं और भाजपा की दक्षिण विजय की आकांक्षा पर गति अवरोधक लगा दिया है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और संसद में अडानी समूह को चौतरफा लाभ पहुंचाने और गंभीर आरोपों के बावजूद केंद्रीय जांच एजेंसियों की जांच से बचाने और मणिपुर हिंसा के मुद्दे पर संसद से लेकर सार्वजनिक मंचों पर जोर शोर से उठाकर विरोधी दल का दायित्व निर्वहन किया है।
हालांकि इस दौरान कांग्रेस कुछ बड़ी गलती भी कर रही है। मध्यप्रदेश में सागर से चुनावी शंखनाद करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने कहा है कि हमारी सरकार बनने पर जातीय जनगणना कराई जाएगी ताकि पता चल सके कि किस तबके के लोग ज्यादा गरीब हैं। यह जातिवाद को बढ़ावा देने का प्रतिगामी कदम है। सागर में कुछ दिन पहले प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी आए थे। उन्होंने रविदास का भव्य मंदिर बनाकर दलित समाज का वोट बटोरने की कोशिश की थी।ऐसा लगता है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारने के बाद मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बचाना प्रधान मंत्री और गृह मंत्री अमित शाह के लिए नाक का सवाल बन गया है। यही कारण है कि दुनिया भर की आलोचना और संसद तक में मणिपुर के हालात पर अविश्वास प्रस्ताव के बावजूद प्रधानमंत्री भले ही मणिपुर जाने का समय नहीं निकाल पाए और न उन्होंने दिल्ली की नाक तले गुडग़ांव तक पहुंचे नूंह के दंगों पर मरहम लगाने मेवात का दौरा किया लेकिन मध्य प्रदेश वे इस दौरान कई बार आ चुके हैं।ऐसी ही स्थिति गुजरात विधानसभा चुनावों के समय थी जब प्रधान मंत्री और गृहमंत्री का एक पैर दिल्ली में रहता था और दूसरा गुजरात में। गुजरात दोनों का गृह नगर होने के कारण नाक का बाल बना था। कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में मुंह की खाने से भाजपा हाई कमान में पहली बार इतनी बेचैनी देखी जा रही है। कांग्रेस भी कभी बजरंग दल के साथ दिखकर और कभी धीरेंद्र शास्त्री की कथा कराकर भाजपा की नकल कर हिंदू धर्म की संरक्षक दिखने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस के अजीज कुरैशी जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं द्वारा कांग्रेस की धार्मिक नीति की आलोचना भी होने लगी है। कांग्रेस को इन मुद्दों पर संभल कर चलने की जरुरत है। अपनी सैद्धांतिक लीक से हटकर दूसरे की नकल करने से हम न अपना अस्तित्व बचा पाते और न दूसरों की तरह हो पाते। न घर के रह पाते और न घाट के। सर्व धर्म समभाव और जाति और क्षेत्रीयता के ऊपर रहना कांग्रेस के मूल तत्व रहे हैं। उनसे भटकना उचित नहीं है।
विष्णु नागर
दिल्ली में अब ई रिक्शा बहुत चलने लगे हैं।मेट्रो स्टेशन से नियमित रूप से चलनेवाले ई रिक्शा पांच सवारियों के बगैर अकसर नहीं चलते। वहां साइकिल रिक्शा भी मिलते हैं मगर अधिकतर मैं ई रिक्शा लेता हूं।
खैर कहानी कुछ और कहना चाहता हूं, जो वैसे कहानी भी नहीं है।
हमारे मेट्रो स्टेशन से ई रिक्शा चलाने वाली चालीस-पैंतालीस साल की एक काफी दबंग औरत है। मतलब दूसरे ई रिक्शा वाले पुरुष उसे दबा नहीं सकते। उसके व्यक्तित्व में ही ऐसी दबंगई समाई हुई है। वह कुछ मोटी है मगर थुलथुल नहीं। पता नहीं उसके घर के हालात कैसे हैं? क्यों वह यह काम करती है? हो सकता है खाना बनाने या बर्तन साफ करने झाड़ू लगाने जैसे स्त्रियोचित समझे जानेवाले काम उसे रास न आए हों और उसने यह काम चुना हो, हालांकि ई रिक्शा तो अभी तीन- चार साल पहले चलने लगे हैं, इसके पहले पता नहीं क्या करती होगी? उसकी दबंगई आत्मरक्षात्मक है। शायद मर्दों की दुनिया में किसी गरीब घर की उस औरत ने आत्मसम्मान से जीने के क्रम में पाया हो कि गुजर करने का यही रास्ता है। शायद बचपन से ही यह दबंगई उसके हिस्से आई हो।
जो हो, वह अपने ग्राहकों के प्रति सम्मानजनक और विनम्र है। कोई टेढ़ा ग्राहक फंस जाता होगा तो अपनी जोरदार आवाज़ और व्यक्तित्व से उसे ठीक भी कर देती होगी, जो उचित है।
ऐसी ही एक दबंग ई रिक्शा ड्राइवर मैंने दिलशाद गार्डन के मेट्रो स्टेशन पर भी देखी थी और उसके रिक्शा में कुछ दूर तक सफर किया था। यह पहले वाली जितनी ऊंची-पूरी नहीं मगर व्यक्तित्व में वही अक्खड़पन है। मैं उसके रिक्शा में बैठने लगा तो दूसरे ई रिक्शा ड्राइवर ने मुझे फुसलाया कि मैं आकर उसके रिक्शे में बैठूं। जब मैंने कहा कि नहीं तो उसने कहा कि यह बीस रुपये लेगी, मैं दस, तो भी मैंने कहा, नहीं। मेरा ख्याल था कि यह उस जगह घूम कर जाती होगी पर मेरा ठिकाना तो सबसे पहले आया, जिसके वैसे दस रुपए ही बनते हैं। मैंने दस दिए तो उसने कहा, बाबूजी बीस लगेंगे। मेरे ई रिक्शा में बीस ही लगते हैं।
कोई पुरुष ई-रिक्शा ड्राइवर होता तो बहस करता, उसे मैंने चुपचाप बीस दिए। उस समय मेरे दिमाग में एक ही बात आई कि एक औरत ई रिक्शा चला रही है, इस खतरनाक समय और शहर में तो उसकी इस दबंगई को सलाम।
नलिन वर्मा
बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने महात्मा गांधी की जयंती के दिन राज्य के जातिगत सर्वे की रिपोर्ट को जैसे ही जारी किया, उसके तुरंत बाद राहुल गांधी ने ट्वीट कर लिखा कि बिहार की जातिगत जनगणना से पता चला है कि वहां ओबीसी, एससी और एसटी की आबादी 84 प्रतिशत है।
राहुल गांधी ने लिखा, ‘केंद्र सरकार के 90 सचिवों में सिर्फ 3 ओबीसी हैं, जो भारत का मात्र 5 प्रतिशत बजट संभालते हैं। इसलिए भारत के जातिगत आंकड़े जानना ज़रूरी है। जितनी आबादी, उतना हक- ये हमारा प्रण है।’
राहुल गांधी का ट्वीट राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के ट्वीट से मेल खाता है। वे लिखते हैं, ‘जितनी संख्या, उतनी हिस्सेदारी हो।’
लालू प्रसाद यादव ने कहा कि अगर विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ सत्ता में आता है, तो राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना करवाई जाएगी।
जाति सर्वे को लेकर जो रिपोर्ट हमारे सामने आई है, उससे यह साफ है कि 28 पार्टियों वाला विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ इसका इस्तेमाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के अपने चुनावी अभियान में जरूर करेगा।
विपक्षी गठबंधन केंद्र सरकार को घेरने के लिए ओबीसी के प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाएगा और यह 2024 के चुनावों में बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति को मात देने में एक हथियार की तरह काम आएगा।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मुद्दे पर विपक्षी गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का बिहार में आरजेडी, जेडीयू और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ पूरी तरह से तालमेल है।
इंडिया गठबंधन के लिए ये एक अच्छी खबर है।
पिता राजीव से अलग है राहुल का रुख
शासन में पिछड़ों और दलितों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने का जो संकल्प राहुल गांधी का है, वह उनके पिता राजीव गांधी से अलग है। साल 1990 में लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में राजीव गांधी ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का विरोध किया था।
इस रिपोर्ट के बाद ही प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत कोटा लागू किया था।
राजीव गांधी ने तब सरकारी नौकरियों में चयन के लिए जाति की बजाय योग्यता की वकालत की थी। हालांकि गरीबों और वंचितों के नेता के तौर राहुल गांधी एक नए अवतार में सामने आए हैं।
उन्होंने कांग्रेस पार्टी के सत्ता में रहते हुए ओबीसी को उसकी हिस्सेदारी न दिला पाने के लिए दुख जाहिर किया है और कहा कि वे इसे पूरा करेंगे।
बिहार में ओबीसी की बड़ी आबादी ने कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की दूसरी पार्टियों को बीजेपी के आक्रामक रूप से ओबीसी कार्ड इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया है।
सोमवार को जारी किए गए जाति आधारित सर्वे के आंकड़े भी इस बात को प्रमाणित करते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक़, बिहार की आबादी में 63।13 प्रतिशत ओबीसी हैं, जिसमें 36.01 प्रतिशत अत्यंत पिछड़ा वर्ग, 27.12 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग शामिल हैं। इसके अलावा 19.65 प्रतिशत अनुसूचित जाति की आबादी है।
सर्वे के मुताबिक़, राज्य में सामान्य जाति की जनसंख्या 15.52 प्रतिशत है, जिसमें ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ शामिल हैं। इन जातियों के बारे में माना जाता है कि ये बड़े पैमाने पर बीजेपी का समर्थन करती हैं।
हालांकि इस 15.52 प्रतिशत में मुसलमानों की करीब पांच प्रतिशत जातियां भी शामिल हैं, जिसका मतलब है कि बिहार में अपर कास्ट हिंदुओं की संख्या कऱीब दस प्रतिशत है।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा राहुल गांधी ने हिंदी पट्टी के उन राज्यों में ओबीसी की हिस्सेदारी को प्रमुख मुद्दा बनाया है, जहां चुनाव होने हैं। इन राज्यों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान शामिल हैं।
मध्य प्रदेश में अपनी हालिया चुनावी रैली में राहुल गांधी ने कहा था कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो राज्य में जाति सर्वे करवाया जाएगा।
विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की पार्टियों के बीच यह आम धारणा है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में फैली एक बड़ी आबादी को बिहार की मदद से समझा जा सकता है।
इसका मतलब है कि इन राज्यों को समझने के लिए बिहार का जाति सर्वे काफी मदद कर सकता है।
‘इंडिया’ गठबंधन के समर्थक सोशल मीडिया पर सवाल कर रहे हैं कि केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को दस प्रतिशत आरक्षण क्यों दिया है, जबकि उनकी आबादी सिर्फ दस प्रतिशत है। समर्थकों का मानना है कि राज्य में ओबीसी की आबादी 63.13 प्रतिशत है, जबकि उन्हें आरक्षण सिर्फ 27 प्रतिशत मिल रहा है।
सोशल मीडिया पर कुछ लोग इसे इस तरह देख रहे हैं कि बीजेपी, अपर कास्ट हिंदुओं को फायदा पहुंचाने के लिए ओबीसी को दबा रही है।
बीजेपी के लिए कितना मुश्किल
जाति सर्वे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार बिहार में सबसे शक्तिशाली नेता हैं और इन दोनों नेताओं का एक साथ आना कैसे बीजेपी को राज्य में खत्म कर सकता है।
लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने 1990 से 2005 तक बिहार में शासन किया है।
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद लालू प्रसाद यादव, ओबीसी एक बड़े शक्तिशाली नेता के रूप में सामने आए। उन्हें मुसलमानों का भी समर्थन हासिल था, जिनकी आबादी सर्वे के मुताबिक बिहार में 17.70 प्रतिशत है।
यही एक बड़ा कारण था कि लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी 15 सालों से भी ज्यादा बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहे।
नवंबर 2005 में बीजेपी के साथ गठबंधन कर नीतीश कुमार ने लालू-राबड़ी शासन को सत्ता से बाहर कर दिया।
नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग
2013-14 में 9 महीनों के लिए नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। इन 9 महीनों को छोडक़र वे साल 2005 से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने हुए हैं।
अपनी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए नीतीश कुमार ने अत्यंत पिछड़ा वर्ग(ईबीसी) के एक बड़े हिस्से को तोड़ दिया और उन्हें पिछड़े वर्ग की तुलना में स्थानीय निकायों और नौकरियों में ज्यादा आरक्षण दिया, जिससे इस वर्ग में नीतीश कुमार का प्रभाव बढ़ा।
ईबीसी के समर्थन की मदद से ही नीतीश कुमार, बिहार में लालू प्रसाद यादव को सत्ता से बाहर कर पाए थे। सर्वे के मुताबिक ईबीसी की आबादी 36.01 प्रतिशत है, वहीं पिछड़ा वर्ग की आबादी 27.12 प्रतिशत है। यह ईबीसी के बीच नीतीश कुमार के दबदबे के कारण ही संभव है कि वे इतने लंबे समय से बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं।
चाहे वह बीजेपी हो या राष्ट्रीय जनता दल, नीतीश कुमार जिस भी पार्टी के साथ गठबंधन करते हैं, उसे जीत दिलवाते हैं।
2024 के चुनावों में बीजेपी ने बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 32 पर जीत दर्ज की थी और केंद्र में अपनी सरकार बनाई थी। हालांकि जब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने 2015 में बीजेपी को करारी हार देते हुए हाथ मिलाया था, तो जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन ने राज्य की 243 सीटों में से 178 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। इस चुनाव में बीजेपी के खाते में महज 53 सीटें आई थीं।
साल 2017 में जब नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ हाथ मिलाया तो वह फिर से मजबूत हो गई। 2019 के आम चुनावों में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
मौजूदा समय में अगर बिहार के सत्तारूढ़ गठबंधन की बात करें तो इसमें जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के साथ वाम पार्टियां भी शामिल हैं। यही वजह है कि विपक्षी गठबंधन को ये लग रहा है कि कम से कम बिहार के अंदर तो आम चुनावों में बीजेपी का सफाया किया जा सकता है।
बीजेपी ने बढ़ाई मुश्किलें?
जब नीतीश कुमार और बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के साथ कई लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर देश में जाति सर्वे करवाने के लिए कहा था, तो उन्होंने मना कर दिया था।
हालांकि प्रधानमंत्री ने नीतीश कुमार को राज्य के पैसों और संसाधनों से सर्वे कराने का सुझाव दिया था, लेकिन उनकी सरकार और पार्टी ने राज्य में सर्वे करवाने के रास्ते में कई मुश्किलें पैदा करने का काम किया।
देश के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बिहार में जाति सर्वे पर आपत्ति जताई थी, हालांकि बाद में सरकार ने अपना विरोध वापस ले लिया था।
बीजेपी के समर्थकों ने इस सर्वे को पटना हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिससे इसे करवाने में बिहार सरकार को मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
आखिर में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को जाति सर्वे के लिए हरी झंडी दिखाई।
अब बीजेपी परेशान नजर आ रही है। राज्यसभा में पार्टी के सांसद और वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी ने एक वीडियो मैसेज में बिहार में हुए जाति सर्वे का श्रेय लिया है।
उनका कहना है कि यह फैसला तब हुआ था, जब बिहार में जेडीयू और बीजेपी की सरकार गठबंधन में थी।
वहीं केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का कहना है कि जातीय जनगणना बिहार की गरीब जनता में भ्रम फैलाने के सिवा कुछ नहीं है। (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
इस लेख में हम का तात्पर्य हमारे संविधान में उल्लिखित उन सब ‘हम भारत के नागरिकों’ से है जिनके लिए हमारे प्रबुद्ध और आत्मा की गहराइयों तक ईमानदार एवम राष्ट्रभक्त संविधान निर्माताओं ने हमारा संविधान बनाया था। अधिकांश संविधान निर्माताओं की गांधी और उनके विचारों में अटूट निष्ठा थी, हालांकि उनमें से कुछेक, यथा डॉक्टर भीमराव अंबेडकर आदि, के गांधी से कुछ मुद्दों पर मतभेद भी थे।
ऐसे मतभेद थोड़े बहुत वैचारिक थे और कुछ समान विचारों के क्रियान्वयन को लेकर थे। उदाहरण के तौर पर गांवों में अत्यधिक छुआछूत, विकास की कम संभावनाओं एवं सुविधाओं के अभाव के कारण अंबेडकर गांवों के बजाय नगरीय विकास के समर्थक थे। इसी तरह छुआछूत समाप्त होनी चाहिए इस पर तो वे गांधी का समर्थन करते थे लेकिन उनका विश्वास गांधी के हृदय परिर्वतन के बजाय कानूनी प्रावधान से छुआछूत समाप्त करने पर था।
आजादी के बाद बनी पंडित जवाहरलाल नेहरु की सरकार और संविधान निर्माताओं में भले ही कुछ लोग गांधी से पूरी तरह सहमत नही हों लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि तत्कालीन दौर में भारत के अधिकांश नागरिक गांधी को अपने बीच उपस्थित आदर्श विभूति मानते थे और उनके विचारों को अपने जीवन में अधिकाधिक आत्मसात करना चाहते थे।
वर्तमान दौर में भी हम भारत के अधिकांश नागरिकों में गांधी और उनके विचारों के प्रति अदभुत आकर्षण है। और यह आकर्षण हम भारत के नागरिकों तक ही सीमित नहीं है बल्कि विश्व के हर कोने में गांधी विचार को मानने वालों की एक बडी आबादी है जो अपनी अपनी क्षमतानुसार अपने अपने सीमित दायरों में गांधी विचारों को जी रहे हैं और अपनी जीवन शैली और रचनात्मक कार्यों से बहुत से लोगों को प्रेरित कर रहे हैं।
सच यह भी है कि विगत कुछ दशकों में भौतिकता की अंधी दौड़ में शामिल युवाओं में गांधी के बारे में विशद जानकारी का अभाव दिखता है। सोशल मीडिया पर गांधी का अंध विरोध करने वाले कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा संचालित दुष्प्रचार के कारण कुछ युवाओं में गांधी के प्रति नफरत का भाव भी दिखाई देता है। यह इसलिए भी संभव हुआ है क्योंकि गांधी विचारों के प्रचार प्रसार के लिए स्थापित संस्थाओं में पदस्थ पदाधिकारी युवा पीढ़ी तक पहुंचने और गांधी विचार को उन तक पहुंचाने में नाकाम रहे हैं।
जहां तक राजनीति और सत्ता से जुड़े लोगों का प्रश्न है, चाहे गांधी के नाम का कई दशक से इस्तेमाल करने वाले राजनीतिक दल हों या गांधी विचार के विपरीत धर्म और जाति विशेष का राग अलापने वाले दल हों, कोई भी राजनीतिक दल गांधी के सत्य, सादगी और ईमानदारी के आसपास नहीं फटकता। यह भी एक बड़ा कारण है कि युवाओं में गांधी के प्रति वैसा सम्मोहन दिखाई नहीं देता जैसा हमारे बुजुर्गों की पीढिय़ों ने देखा है।
वह तो गांधी का व्यक्तित्व इतना विराट है कि भले ही राजनीतिक दल उनके विचारों को आत्मसात न करें फिर भी हाथी दांत की तरह गांधी का नाम लेना उनकी मजबूरी बन जाती है क्योंकि गांधी आज भी देश और विदेश में भारत की सबसे लोकप्रिय विभूति हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री जब विदेश जाते हैं तो अपना परिचय, मैं गांधी के देश से हूं, कहकर देते हैं। इसी तरह जब कोई विदेशी राजकीय अतिथि भारत आता है तो सरकार उन्हें गांधी से जुड़ी जगहों, यथा राजघाट, साबरमती आश्रम और मणि भवन आदि ले जाकर गौरव की अनुभूति करती है। गांधी की वैश्विक प्रासंगिकता के कारण ही गांधी के जन्म दिन को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्व अहिंसा दिवस के रुप में मनाया जाता है।
हम सब जानते हैं कि आज पूरे विश्व के सामने जलवायु परिवर्तन का बड़ा खतरा मंडरा रहा है जिससे मनुष्य सहित पूरी दुनिया की प्रृकृति, जैव विविधता और पर्यावरण पर गंभीर संकट छाया है। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी गांधी की सादगी और प्रकृति से जरुरत भर का लेने का सहज सरल विचार ही एकमात्र समाधान दिखाई देता है। ऐसे कठिन दौर में हम भारत के नागरिकों का यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने गांधी नाम के महापुरुष के व्यक्तित्व और विचारों को पहले खुद आत्मसात करें और फिर अपनी जीवन शैली से दूसरों को भी प्रेरित करें। गांधी जयंती पर हमारी गांधी को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।