विचार / लेख
दीपाली अग्रवाल
बालों में स्कार्फ बांधे जा रही इस लडक़ी का नाम है छोटी बी, मैंने पूछा ऐसा नाम क्यों है तो बोली कि मां ने रखा था ये नाम। ये स्कूल जाती है, पहली क्लास में है और 20 तक गिनती जानती है। इन दिनों इसके स्कूल की छुट्टी है क्योंकि टीचर के पिता नहीं रहे।
ये मेरे पास पैसे मांगने आई थी, मैंने पास बैठने को कहा तो सहजता से बैठ भी गई और पैसे की बात भूल गई। इसकी मां मर चुकी हैं और पिता किसी और प्लेटफॉर्म पर पैसे मांगते हैं। पूछने पर कि ये दिन भर क्या करती है तो बोली कि पैसे ही मांगती है। यह जीवन भर पैसे नहीं मांगना चाहती, पर क्या करना चाहती है ये भी इसे नहीं पता। बात करते समय इसकी निगाहें कुछ ढूंढ रही थीं, पैसे या अपना भविष्य मैं नहीं बता सकती। किसी महिला की गोद में एक बच्चे को देख कर इसकी आंखें चमक उठीं। ये शायद अपनी मां को बहुत याद करती है, इसने कई बार उनका जिक्र किया।
ट्रेन की सीटी बजी तो इसे याद आया कि पैसे मांगने आई थी, यह वापस उसी धुन पर लौट आई। ट्रेन की सीटी सबके लिए एक जैसी नहीं होती, मुझे पहली बार उस ध्वनि में अलग-अलग संवेदनाएं सुनाई दीं। कितने यात्री, कितनी तरह की यात्राएं एक साथ कर रहे हैं। कोई बीमार से मिलने जाता है, कोई मृत के आखिरी दर्शन को, कोई घूमने जाता है तो कोई भाग रहा होता है स्मृतियों और अतीत से। इस बार यह हॉर्न सबसे क्रूर था। एक ट्रेन की सीटी ने एक छोटी बच्ची को उसके स्वप्न से जगा दिया और यथार्थ में ला दिया। वह पैसे नहीं मांगना चाहती की स्थिति से पैसे दे दो मुझे कुछ खाना है तक आ गई।
‘क्या तुम्हारे साथ एक तस्वीर ले लूं’ मैंने पूछा
उसने आंखों से हां कहा था, मुझे कुछ देर देखा और जाने क्या सोचकर ना में सिर हिला दिया। ठीक उस ट्रेन की सीटी की तरह जो कितनी बातों को ना कह देती है अचानक।
छोटी बी!
बड़ी आंखों वाली एक लडक़ी थी,
मुझे नवंबर की सुबह मथुरा से दिल्ली जाते समय मिली।
ऐसी कितनी ही छोटी होंगी
प्लेटफॉर्म पर पैसे मांगती
जो कुछ बड़ा करना चाहती होंगी
रेल की पटरी के साथ दौड़ते होंगे उनके स्वप्न
पर हर बार एक सीटी से
लौट आता होगा यथार्थ
यथार्थ कि,
कुछ लड़कियों के माथे पर
ना आंचल होता है ना परचम।