विचार / लेख
डॉ. आर.के. पालीवाल
इंफोसिस जैसी सफ़ल आई टी कंपनी के संस्थापक नारायण मूर्ति की सोसल मीडिया पर इस बात के लिए काफी आलोचना हो रही है कि उन्होने युवाओं को सप्ताह में सत्तर घंटे काम करने की सलाह दी है। काफी लोग उनके इस बयान को पूजीपतियों द्वारा कामगारों का खून चूसने की प्रवृत्ति तक कह रहे हैं। बहुत कम लोग उनके बयान के बचाव में भी आए हैं। दरअसल नारायण मूर्ति के इस बयान को सही परिपेक्ष्य में गहराई से देखने की जरुरत है। प्रमाणिक दस्तावेजों से पता चलता है कि हम भारतीय लोग प्राचीन समय में मेहनतकश समाज रहे हैं लेकिन कालांतर में ब्रिटिश गुलामी के दौरान हम हीन भावना से ग्रस्त कामचोर और कमजोर समाज बन गए थे। भारतीयों की इसी प्रवृति पर टॉलस्टाय ने गांधी को लिखा था कि तुम्हें यह चिंतन करना चाहिए कि भारतीय समाज ऐसा कैसे बन गया कि उसकी तीस करोड़ की बडी आबादी को दूसरे देश के बीस तीस हज़ार लोगों की सेना भी आसानी से गुलाम बना लेती है!
महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटकर एक साल लगभग सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था। उन्होंने महसूस किया कि विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में लोगों में भयंकर आलस और गंदगी के दो बड़े दुर्गुण हैं जो गांवों की बदहाली के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। इन दो दुर्गुणों की समाप्ति के लिए गांधी ने आज़ादी के आंदोलन के दौरान ग्राम विकास के रचनात्मक कार्यों की लम्बी श्रंखला शुरु की थी जिसे आज भी काफी संस्थाएं और व्यक्ति अपने अपने तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं। गांधी युवाओं और महिलाओं के लिए हर हाथ को काम और परिश्रम की कमाई पर बहुत जोर देते थे और पंद्रह घंटे प्रतिदिन काम करके सबके लिए आदर्श उदाहरण स्थापित करते थे। यदि नारायण मूर्ति युवाओं से सप्ताह में सत्तर घंटे यानि दस घंटे प्रतिदिन काम कराना चाहते हैं तो गांधी की कर्मशीलता के सामने तो वह भी काफी कम लगता है। इस लिहाज से तो गांधी की नारायण मूर्ति से भी कड़ी आलोचना करनी चाहिए !
हमने बचपन में प्रगतिशील मेहनती किसानों और खेतिहर मजदूरों को खेतों में बारह घंटे प्रतिदिन से ज्यादा समय तक काम करते हुए देखा है। मुझे खुद भी लगभग बारह घंटे प्रतिदिन काम करने की आदत है। इस लिहाज से युवाओं के लिए दस घंटे प्रतिदिन काम बहुत ज्यादा नहीं लगता। हां इसमें यह संशोधन अवश्य किया जा सकता है कि बहुत ज्यादा शारीरिक और मानसिक मेहनत के कार्यों के लिए यह सीमा आठ घंटे प्रतिदिन के हिसाब से छप्पन घंटे प्रति सप्ताह की जा सकती है।किसी भी देश का भविष्य युवाओं की कार्यशक्ति पर निर्भर होता है। इस दृष्टि से हमारे युवाओं की औसत वैश्विक स्थिति उचित नहीं है। एक तरफ पंद्रह घंटे प्रतिदिन काम करने वाले चंद युवा हैं जो मल्टी नेशनल कंपनियों और अपने स्टार्ट अप में काम करते हैं और निरंतर प्रगति करते हुए अपने क्षेत्रों के शिखरों को छूते हैं लेकिन ऐसे युवाओं का प्रतिशत बहुत कम है। दूसरी तरफ युवाओं की बहुत बड़ी फौज दिन भर हाथ में मोबाइल थामे आवारागर्दी करती हुई दिखाई देती है।
कामचोरी की समस्या हमारे देश की बडी समस्या बनती जा रही है। इसका दुष्परिणाम यह है कि एक तरफ पढ़े लिखे करोड़ों लोग सफेद कॉलर नौकरी के लिए बेरोजगारी का आंकड़ा बढ़ा रहे हैं और दूसरी तरफ़ पसीना बहाने वाले खेती, किसानी और बागवानी आदि के कार्यों के लिए लोग उपलब्ध नहीं हो रहे। फ्री राशन व्यवस्था ने युवाओं की कामचोरी की आदत को खूब बढ़ावा दिया है। कावड़ उठाने और डी जे पर धार्मिक आयोजनों के जुलूस में नाच गाने के लिए युवाओं में खूब उत्साह दिखाई देता है लेकिन मेहनत मशक्कत के कामों में उनकी बेहद अरुचि है। यह हालात किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए घातक हैं। हमे नारायण मूर्ति के बयान को इस परिपेक्ष्य में भी देखने की जरुरत है।