विचार / लेख

फेसबुक कूड़ादान या जनता तक पहुँचने की सीढ़ी?
16-Jun-2022 11:55 AM
फेसबुक कूड़ादान या जनता तक पहुँचने की सीढ़ी?

-अपूर्व गर्ग
फेसबुक में कुछ लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। सोशल मीडिया के अलावा  इनका कोई लेखन का इतिहास नहीं है। कई लोगों ने सोशल मीडिया में लिख-लिखकर अपनी जगह बनाई, इसमें कोई शक नहीं।

ये भी एक तथ्य है कि बड़े -बड़े स्तम्भकार , इतिहासकार, गद्य लेखक जिनकी किताबें देश भर में सर्वाधिक पढ़ी जाती रहीं, जिनके स्तम्भ सबसे चर्चित होते रहे सोशल मीडिया में खास फेसबुक में उनके पाठक खांटी फेसबुक लेखकों के मुकाबले नगण्य हैं।

क्या सोशल मीडिया  का लेखन  ज़्यादा  प्रभावी, प्रामाणिक ,विश्वसनीय और स्वीकार्य है?

डिजिटल युग के नौजवानों से पूछिए वो इसी के पक्ष में हाथ उठाएंगे पर अखबारों, किताबों, पत्रिकाओं और साहित्य के गंभीर पाठकों से बात करिये वो बताएँगे सोशल मीडिया का लेखन क्षणिक है, यहाँ शब्दों का कोई भविष्य नहीं।

उनकी निगाह में सोशल मीडिया सबसे बड़ा कूड़ादान है, जहाँ लेखन के नाम पर सबसे ज़्यादा कूड़ा-करकट है।

दरअसल, सोशल मीडिया के बढ़ते पाठक आज  के इस डिजिटल युग की  बड़ी सच्चाई है। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी कहें या फेसबुक की पाठशाला इसका गहरा प्रभाव देश और दुनिया की राजनीति पर है। इसमें सत्ता हिलाने-बदलने की असीम क्षमता है, इसलिए राजनीतिक दलों ने अपने बजट  के बड़े हिस्से को साइबर सेल में झोंका हुआ है।

सवाल यहीं से शुरू होता है कि जब सोशल मीडिया  आज आज इतना ज़्यादा महत्वपूर्ण है तो इसमें गंभीर विमर्श, चिंतन और सार्थक लेखन क्यों गायब है ?

उत्तेजना पर सवार लेखक कल की  बात और बीते इतिहास को दफनाकर कोई तात्कालिक मुद्दे को पकड़ते हैं और दूसरी ब्रेकिंग न्यूज़ मिलते ही उस मुद्दे को भी दफऩ कर देते हैं।
 
ये एक बड़ी जि़म्मेदारी वरिष्ठ लेखकों की  बनती है कि वो सोशल मीडिया लेखन के विरोध ,उपेक्षा और तिरस्कार के बदले इन लेखकों के साथ  सीधा संवाद करें।

इस सच्चाई को स्वीकार करें कि सोशल मीडिया आम जनता तक खासकर आज के युवा वर्ग तक पहुँचने की  सीढ़ी है।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि पिछले कुछ साल सोशल मीडिया फेसबुक हो या ट्विटर या व्हाट्सएप या इंस्टाग्राम से सर्वाधिक प्रभावित रहे हैं।

इसलिए बीच-बीच में जब बुद्धिजीवी अपने सोशल मीडिया का अकाउंट ‘डीएक्टिवेट’ करते हैं या लिखना बंद कर देते हैं या दूर रहने कि घोषणा करते हैं तो सोशल मीडिया को ‘अनाथ’ करने जैसी बात होती है। और  ज़्यादा दिशाहीन  होने का खतरा बढ़ता है।

ये तथ्य है किसी साहित्यकार, लेखक, कवि के पास सोशल मीडिया में भले ही अपेक्षाकृत काम फॉलोवर  हों पर सोशल मीडिया के बड़े फॉलोवर रखनेवाले भी उनसे दिशा लेते हैं।

अपने  अनुभव, अध्ययन और  आज की पूरी तस्वीर को देखकर दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमारे प्रगतिशील लेखक अगर सोशल मीडिया में न रहें, न लिखें तो यकीनन सोशल मीडिया  के नौजवान अराजक लश्कर में दिखेंगे !

 

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