राजनांदगांव

हमें राग और द्वेष दोनों से बचना है-साध्वी प्रियंकरा
17-Jan-2022 2:12 PM
हमें राग और द्वेष दोनों से बचना है-साध्वी प्रियंकरा

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
राजनांदगांव, 17 जनवरी।
जैन साध्वी प्रियंकरा श्री जी ने रविवार को कहा कि हमें सुगंध पसंद है और दुर्गंध आती है तो हम नाक-भौं सिकोडऩे लगते हैं, जो अनुकूल है उसे हम ग्रहण करते हैं। उसमें राग होता है और जो प्रतिकूल है वह द्वेष है। हमें दोनों से अपने आपको दूर रखना होगा। हमारा दोनों से जुड़ाव नहीं होना चाहिए।

जैन बगीचे में उन्होंने कहा कि गाली, घी की थाली होती है। उन्होंने कहा कि गाली हमने सुनी और उसका कोई रिएक्शन नहीं दिया तो यह गाली घी की थाली बन जाएगी। यह गाली हमारे लिए उपहार के समान होगी। उन्होंने कहा कि अपनी जबान मिश्री की डली बनाएं और कभी भी कटु शब्द न बोले, क्योंकि तलवार से बना घाव भर सकता है, किन्तु कटु जबान से हुआ घाव  कभी नहीं भरता है।

साध्वी श्री ने कहा कि मुख्य रंग तो पांच है बाकी शेष जितने भी रंग दिखते हैं, वह इन पांच रंगों से मिलकर ही बने होते हैं। कौन सा रंग हमें अच्छा लगता है और कौन सा नहीं, यह हमारे ऊपर है, किंतु हम राग द्वेष के इस संसार में हम फंसते ही चले जाते हैं । हमें राग-द्वेष के संसार से दूर रहना है और उसकी आसक्ति को तोडऩा है और अपनी चेतना को संभालना है।

संयम यात्रा धर्म जीवन की शुरुआत है : संवेग रतन सागर जी
जैन मुनि संवेग रतन सागर जी ने कहा कि संयम जीवन, धर्ममय जीवन की शुरूआत है। उन्होंने कहा कि सुख सभी को चाहिए, किंतु उस मार्ग पर जाने वाले रास्ते पर हम नहीं चलते। उन्होंने कहा कि मानव मात्र का जीवन ऐसा है, जो एक ही गड्ढे में बार-बार गिरता है। वह सुख प्राप्त करने के लिए पाप के मार्ग को चुनता है और उस गड्ढे में वह गिरता ही जाता है ।
संवेग मुनि ने कहा कि संयम का मार्ग थोड़ा कठिन तो है, किन्तु सुरक्षित है। इसके लिए हमें हमारी मान्यताओं को त्यागना पड़ता है। हमें अपने स्वयं के विरुद्ध युद्ध लडऩा पड़ता है। उन्होंने कहा कि जब तक जीवन में पापों का विराम नहीं होगा, तब तक दुख का निवारण नहीं होगा। दुख यदि फल है तो पाप उसका बीज। उन्होंने कहा कि बीज यदि कड़वा हो तो फल भी कड़वा होता है और मीठा हो तो उसका फल भी मीठा होता है, किन्तु यहां  इसके ठीक उल्टा होता है। दुख कड़वा बीज होता है और उसका फल पाप हमें मीठा लगता है, किंतु वास्तविक स्थिति में वह मीठा नहीं होता है। जीव जितनी बार पाप करता है वह उसमें धंसता ही चला जाता है। उसे पाप अच्छा लगता है। वह धर्म कर अनुकूल परिस्थितियों का त्याग नहीं करना चाहता अपनी मान्यताओं को नहीं छोडऩा चाहता।
 

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