साहित्य/मीडिया
-रमेश अनुपम
मैं एम.ए.हिंदी का नियमित छात्र था। एक जुनून के तहत माना कैंप में एक प्रायमरी स्कूल में शिक्षक की नौकरी करते-करते दुर्गा कॉलेज में प्रवेश लेने का जोखिम मैं उठा चुका था।
कक्षायें सुबह होती थी और मेरी नौकरी साढ़े दस बजे से शुरू होकर साढ़े पांच बजे तक चलती थी। माना कैंप से कॉलेज 13-14 किलोमीटर दूर था। पर यह फैसला, यह जुनून मेरा अपना था इसलिए मैं खुश था।
उन दिनों जयस्तंभ के मालवीय रोड की ओर जाने वाले रोड पर कोटक बुक स्टाल हुआ करता था। ' कल्पना ’ और दूसरी पत्रिकाएं मैं वहीं से लेता था। वहीं मुझे एक दिन 'पहल’ भी मिल गई, 'पहल’ 3
तब तक मैं 'पहल’ मंगवाने के विषय में उनसे चर्चा किया करता था। इसलिए उस दिन बुक स्टाल पर 'पहल’ देखकर मैं चिहुंक उठा था, लगा जैसे कोई अनमोल खजाना मिल गया हो। मैंने तुरंत 'पहल’ खरीद ली। घर लौटकर उसे पूरा पढ़कर ज्ञानरंजनजी के 763, अग्रवाल कॉलोनी, जबलपुर वाले पते पर एक चिट्ठी भी लिख मारी।
अगले दिन मैं शान के साथ 'पहल’ 3 लेकर कॉलेज पहुंचा। विभु कुमार की कक्षा थी, मैं सामने ही बैठता था उन्होंने 'पहल’ देख ली। उठा कर उलटने-पलटने लगे, उनके पास ' पहल ’ डाक से आती थी,जो अब तक नहीं आई थी।
ज्ञानरंजन जी का जवाब मेरे पास आ गया था और हमारे बीच पत्रों का अनंत सिलसिला शुरू हो चुका था। जो ज्ञान जी को जानते हैं, उन्हें पता है कि वे हर पत्र का जिस तरह से जवाब देते थे, जिस आत्मीयता के साथ वे अपने खतों के माध्यम से हर किसी को अपना बना लेते थे, वह ज्ञान जी की अपनी फितरत है। उनके पत्रों से मुझे हर बार प्यार की खुशबू आती थी, उनके शब्दों से एक रौशनी सी फूटती दिखाई देती थी।
मेरे जैसे भटकते हुए एक दिशाहारा पथिक को उन दिनों इसी एक चीज की तलाश रहती थी।
वे एम.ए. प्रथम वर्ष के दिन थे, तब मेरी उम्र कोई तेईस वर्ष की रही होगी। एक दिन कक्षा में आते ही विभु कुमार ने कहा ज्ञानरंजन जी आए हुए हैं और वे मुझे याद कर रहे हैं। यह भी कि वे विनोद कुमार शुक्ल के घर पर ठहरे हुए हैं।
मैं तब तक विनोदजी से उनके घर पर जाकर मिल चुका था। सो कॉलेज से छूटते ही सीधे विनोद जी के कटोरा तालाब वाले घर की ओर भागा। ज्ञानरंजन तब तक मेरे हीरो बन चुके थे। उन्हें रु-ब-रू देखना, उन्हें सुनना मेरे लिए किसी जादुई दुनिया में प्रवेश करने से कम नहीं था।
वे सन 1975-76 के प्यारे-प्यारे और सुनहरे दिन थे, जिन दिनों दिन में भी आंखों में चुपके से ख्वाब उतर आया करते थे। 'पहल’ अब मुझे डाक से मिलने लगी थी। ज्ञान जी से खतों और मोहब्बतों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।
’पहल’ और ज्ञानरंजन दोनों ही मेरे आवारा मन को सवारने में लगे थे, मेरे भीतर की आग को सुलगाने में भी। ज्ञान जी मुझे किताबें भी भेजा करते थे। जिसमें 'लोटस’ के कुछ अंक भी शामिल हैं, जिसके कारण मैं पहली बार तुर्की के महान कवि नाजिम हिकमत और उनकी कविताओं से परिचित हो सका।
'पहल’ के बंद करने की सूचना उन्होंने मुझे 1 फरवरी को ही दे दी थी, जो मेरे लिए एक दुखद सूचना थी। ज्ञान जी ने बढ़ती हुई उम्र और अस्वस्थता को इसका कारण बताया था, जो जायज भी है। जिसे मैंने अपने मित्रो रफीक खान, मदन आचार्य और तिलक पटेल के साथ शेयर किया था।
'पहल’ अब अपने आप में एक इतिहास बन चुका है, एक ऐसा और शानदार इतिहास जो शायद ही भविष्य में कभी दोहराया जा सकेगा। हिंदी साहित्य में किसी साहित्यिक पत्रिका ने इतनी लंबी उम्र पाई हो, किसी एक व्यक्ति की जिद के चलते 125 अंकों के जादुई आंकड़ों को छू पाई हो, मेरी जानकारी में अब तक नहीं है।
यह अपने आप में ही एक चमत्कृत करने वाली घटना है, जिसे ज्ञानरंजन जैसा कोई धुन का पक्का और जिद्दी आदमी ही संभव कर सकता था।
हिंदी साहित्य और हम सारे लोग 'पहल’ की इस शानदार कामयाबी के लिए ज्ञान जी को बधाई देते हैं, उनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं। इसके साथ ही सुनयना भाभी और 'पहल’ की पूरी टीम के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करना भी एक जरूरी कर्तव्य समझते हैं।