विचार / लेख

कोरोनाकाल में शतायु ही समझिए
21-May-2021 8:29 PM
कोरोनाकाल में शतायु ही समझिए

(चित्र: बहुगुणाजी के साथ जयपुर में केसरगढ़ स्थित मेरे तत्कालीन कार्यालय में)

-ओम थानवी
सुंदरलाल बहुगुणा सुंदर शख़्सियत थे। छरहरे बदन, रजत दाढ़ी, मृदुभाषा या उनकी पहचान बने सफ़ेद पटके भर के कारण नहीं, पर्यावरण के प्रति ईमानदार सरोकार, गांधीवादी जीवन-शैली, यायावर मन और लेखन के प्रति सतत लगाव के कारण। 

चिपको आंदोलन से उनका संसार में नाम हुआ। चण्डीप्रसाद भट्ट ने भी उस आंदोलन को जिया। लोगों ने दोनों के बीच दीवार खींचनी चाही। जबकि दोनों का काम बड़ा था। पूरक था। 

बहुगुणाजी में भी ग्रामसुलभ विनय बहुत थी। एक दफ़ा जोधपुर आए। खेजड़ली गए। अमृतादेवी और पेड़ों के लिए लड़ने वाली अन्य स्त्रियों की दास्तान सुनी। निस्संकोच बोले — हमारा नाम लिया जाता है; पर असल चिपको आंदोलन तो यहाँ (खेजड़ली) से शुरू होता है। उनका बड़प्पन था। 

वे स्वाधीनता सेनानी थे। पत्रकार भी थे। हिंदुस्तान के बरसों स्ट्रिंगर रहे। अस्सी के दशक में जब मैं इतवारी पत्रिका (राजस्थान पत्रिका समूह का एक राजनीतिक-सांस्कृतिक साप्ताहिक) का काम देखता था, उन्होंने हमारे लिए अनेक लेख लिखे। बाद में जनसत्ता के लिए भी। मुझे उनकी बड़े-बड़े अक्षरों वाली पर्वत-रेखा सी ग़ैर-समतल लिखावट बख़ूबी याद है। 

एक बार जयपुर में हमारे घर भोजन पर आए हुए थे। मैं अपनी यज़दी मोटरसाइकल पर बाद में स्टेशन छोड़ने गया। उनका टिकट पक्का नहीं हुआ था। रात का वक़्त था। वे फ़िक्रमंद हुए। किसी तरह दिल्ली जा पहुँचें। एक मित्र मिले। बोले टीटी से बात करते हैं, कुछ ले-दे कर शायद बात बन जाए। बहुगुणाजी ने बात वहीं रोक दी — इस तरह बिलकुल नहीं। वे साधारण डिब्बे में चढ़ने को तैयार थे। पर टीटी को उनका परिचय मात्र देने से बात बन गई; एक ख़ाली शायिका मिल गई थी। हमें सिद्धांत के लिए अड़ने की सीख मिली।
 
वे 94 की वय में गए हैं। कोरोना काल में शतायु ही समझिए। उनके जीवन और काम को स्मरण करने का वक़्त है। विदा कहने का नहीं। 
 

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