विचार / लेख
-कनक तिवारी
25 मई 2013 को बस्तर की दरभा घाटी में नक्सलियों ने भयानक नरसंहार किया। उसमें कांग्रेस के बड़े नेताओं विद्याचरण शुक्ल, नंदकुमार पटेल, महेन्द्र कर्मा, उदय मुदलियार और योगेन्द्र शर्मा सहित कई लोगों की हत्या हुई। आनन फानन में तब की कांग्रेसी केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय अन्वेषण एजेंसी के जरिए जांच कराने का ऐलान किया। उस पर छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने हामी भरी। तब से दरभा घाटी से भी ज्यादा पेंच भरे घुमावदार कानून के गली कूचों में जांच की प्रक्रिया अपनी मंजिल का पता पूछ रही है। जंगलों के अंधेरे में घनी वादियों के बीच रास्ता नहीं सूझता। कानून की भूलभुलैया में तो अंधेरा ही भटक जाता है।
घटना के पांच साल बाद छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार आई और उसके चार साल पहले ही केन्द्र में भाजपा की सरकार आ जाने से सत्ता का उलट पलट हो गया। मौजूदा कांग्रेस सरकार ने विशेष जांच दल गठित कर झीरम की जांच करानी चाही लेकिन राष्ट्रीय अन्वेषण एजेंसी अधिनियम के तहत केन्द्र को अधिकार है कि वह नक्सली अपराधों सहित राष्ट्रीय नस्ल के अन्य अपराधों में जांच कर सके जिनका अंतराज्यीय फैलाव होता है। केन्द्र ने राज्य सरकार को नकार दिया।
मैंने अधिकृत तौर पर सरकारी फाइलों को देखा है, सलाह दी है और भविष्यवाणी तक कर दी है। उसका फिलहाल यहां खुलासा नहीं करना है। मामला केन्द्र और राज्य के बीच हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपनी ताकत दिखाने का होता रहता है लेकिन न्याय तो पीड़ित परिवारों को चाहिए, जनता को भी चाहिए। सरकारें तो फकत अन्याय करती हैं। उन्हें न्याय पाने की इच्छा कहां होती है। आनन-फानन में भाजपाई राज्य सरकार द्वारा गठित न्यायिक आयोग में भी मामला चला गया। वहां भी वह ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस‘ के मुहावरे का अर्थ पीड़ितों को समझाता रहा। अब भी तो समझा रहा होगा कि क्या हुआ या हो सकता है। सरकारी ऐलान फिर भी होता है झीरम घाटी प्रकरण में न्याय मिलेगा।
सवाल है न्याय किसको मिलेगा और मिलेगा भी तो न्याय होता क्या है? समझ लें अदालती न्याय मु्ट्ठी में हवा को बंद करने जैसा होता है। दिखता नहीं है। घोषणाएं और आश्वासन इसलिए हवा हवाई ही होते हैं। यह अंगरेजी के शब्द एन आई ए और सी बी आई जनता को हातिमताई या देवदूतों की तरह क्यों लगते हैं! इनमें सामान्य पुलिसिया अफसर ही होते हैं। कई बार तो दागी अफसरों को इन केन्द्रीय एजेंसियों की झीरम घाटी में धकेल दिया जाता है। वहां भी ये अपनी हरकतों से बाज नहीं आते। सी बी आई के दो बडे़ अफसरों की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक डांट डपट खाती रही। सुप्रीम कोर्ट ने कह तो यह भी दिया कि ‘सी बी आई सरकार के पिंजरे का तोता है। एन आई ए भी तो वही है। उसकी टांग गलत जगह अड़ा दी जाती है क्योंकि वे अपनी टांगों को अंगद के पैर समझती हैं।‘ बंगाल में सी बी आई हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच जिला स्तरीय कोर्ट की अपनी असफलता का रोना रो रही है।
1984 की भोपाल गैस त्रासदी में राजनेताओं और अदालतों के कारण पीड़ितों को आज तक मुकम्मिल न्याय नहीं मिला। तब तो 2013 वाली झीरम घाटी को प्रतीक्षा सूची में रहना है। कठुआ, उन्नाव तथा हाथरस के बलात्कार के जघन्य कांडों मे बेचारी पीड़ित बच्चियों और उनके परिवारों को क्या खाक न्याय मिला है। तेज तर्रार जे एन यू नेता कन्हैय्या कुमार को दिल्ली की अदालत के प्रांगण में वकीलों ने असभ्य तरीके से पिटाई की। क्या न्याय मिला? कपिल मिश्रा जैसे लोगों ने दिल्ली में हिंसात्मक धांधलेबाजी मचाने का आरोप झेला। हाई कोर्ट जज मुरलीधरन ने एफ आई आर कराने का आदेश दिया तो केन्द्र सरकार के कारण सुप्रीम कोर्ट ने आधी रात को जज का तबादला कर दिया। हां, जस्टिस मुरलीधरन को न्याय मिल गया!
छत्तीसगढ़ सरकार श्वेत पत्र प्रकाशित करेगी कि आज तक भाजपा प्रशासन के बस्तर में आदिवासियों को कितने नरसंहारों में मारा गया है? कितने आयोग गठित किए गए? आयोगों की रिपोर्टें क्या हैं? उनमें कितना धन और समय खर्च हुआ और सरकार ने क्या कार्यवाही की? किसको किसको न्याय मिला? पश्चिम बंगाल की हिंसा में पीड़ित लोग न्याय मांगते दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। जो सक्षम हैं, वे सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ में मरते तो आदिवासी हैं। उनकी तरफ से सरकार अपने खर्च से बडे़ से बडे़ वकीलों को लगाकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लड़ने में मदद क्यों नहीं करती? भाजपा और कांग्रेस की सरकारें तो अदल-बदल के किरदार हैं। एक दूसरे पर दोष लगाने से चुनाव जीते जाते हैं। आश्वासन देने का अधिकार मिल जाता है। राजनीतिक आश्वासन का व्याकरण में अर्थ है झांसा।
अदालतों की कार्यवाही में जब दो पक्ष मिली जुली कुश्ती लड़ते हैं तो बेचारे न्याय को ही न्याय नहीं मिलता। वह दूसरों को क्या न्याय देगा? फिर भी यह लोकतंत्र है। जनता हर बार उसको वोट देगी जो कहेगा तुमको न्याय मिलेगा। न्याय जब नहीं मिलेगा तो विपरीत पार्टी को वोट देगी और उसका आश्वासन मानेगी कि न्याय मिल गया। न्याय एक धुंध है। धुंधलका है। मृगतृष्णा का अरुणोदय है। गोधूलि बेला है। वह झीरम घाटी की टीसती आंत में ठहरा हुआ अहसास है। उस पर आदिवासियों की उम्मीदें उसी तरह कायम हैं जैसे उन्हें लगता है कि अदानी, अंबानी, टाटा, वेदांता, एस्सार, जायसवाल ये सब लोग जनता के रक्षक हैं।