विचार / लेख

मुक्तिघर के मुर्दे
18-May-2021 6:21 PM
मुक्तिघर के मुर्दे

-वीरेंदर भाटिया

‘कौन-सा नंबर है तुम्हारा?’, एक मुर्दे ने पास पड़े मुर्दे से पूछा!

‘मालूम नहीं’,  दूसरे ने बेतकल्लुफ जवाब दिया।

‘कौन-से नम्बर का दाह हो रहा है?’

‘अरे मालूम नहीं बोला न? तुम्हें क्या जल्दी पड़ी है, दाह संस्कार की? जि़ंदा था, तब राशन, टिकट, बैंक की लाइन में घंटों खड़ा रह लेता था, आज क्या हुआ?’

‘उस लाइन में मैं खुद लगता था। यहाँ बच्चे लगे हैं, लाइन में।’

‘एक काम कर, खड़ा होकर बजा डाल सबकी। एकदम से नम्बर आएगा।’

‘जब खड़ा हो सकता था तब नहीं बजाई। काश! तब बोलते हम।’

‘तो अब पड़ा रह शांति से। चुप्पी मारने की सजा यही होती है। जब आदमी कुछ नहीं बोलता, तब ही आदमी मर जाता है।’

‘तुम्हारी जान कैसे गई?, एक मुर्दे ने दूसरे से पूछा’

‘ऑक्सीजन नहीं मिली!’

‘तुम कैसे मरे?’

‘मुझे हॉस्पिटल में बेड नहीं मिला!’

‘कितने सस्ते में मर गए न हम लोग’, पहले ने आह भरी!

‘हम यही डिज़र्व करते थे, भाई। चुपचाप जैसे मर गए, वैसे चुपचाप अंतिम संस्कार का इंतजार करो।’

‘मुझे एक बार जीने का मौका मिल जाये, तो चीख़-चीख़ कर कहूँ कि हमें सिस्टम ने मारा है। हम इतने बीमार नहीं थे, जितना सिस्टम बीमार निकला’, एक मुर्दे ने खीझ कर दूसरे मुर्दे से कहा।

‘चुपचाप पड़ा रह। मुर्दे कभी बोलते नहीं। यह मुर्दों का देश है साधो। जब जिंदा थे, तब भी मुर्दा ही थे हम। अब हेकड़ी दिखाने का कोई लाभ नहीं!’

‘यार कितने संस्कार हो चुके, कितने बाकी हैं?’ एक मुर्दे ने दूसरे से पूछा।

‘अभी 7 हुए हैं, 27 बाकी हैं। देख ले आजु-बाजू, कितने मुर्दे पड़े हैं?’

‘कितना बुरा हाल हो गया है देश का?", पहला मुर्दा सुबकने लगा!

‘दिख गया देश का हाल? अब मुर्दों के जलने की लपटें देख और ऊँचाई नाप मुल्क की तरक्की की!’

‘सुनो!’

‘बोलो!’

‘हमारे बच्चे इस देश में कैसे रहेंगे? हर तरफ महामारी और नफरत फैल चुकी है।’

‘हाँ, हमने क्या योगदान दिया कि नफरत न फैले?’

‘सच में कुछ भी नहीं!’

‘तो एक काम करते हैं। खुद को लानत भेजते हैं और फिर से मर जाते हैं।’

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