विचार / लेख
-गोपाल राठी
आयुर्वेद भारत की प्राचीन चिकित्सा प्रणाली है। हम सबने बचपन में इस पैथी से इलाज करवाया है। हमारे वैद्यराज अपने खरल में दवाई का चूर्ण बनाकर पुडिय़ा बनाकर देते थे। वैद्यराज इतने दक्ष होते थे कि नाड़ी देखकर रोग की गम्भीरता और रोगी की तासीर जानते थे और उसी अनुसार दवाई दी जाती थी। यह दवा किसी कम्पनी का उत्पादन नहीं होता था। हर वैद्य अपनी दवा स्वयं तैयार करता था। दवाई का कच्चा माल रखने और दवा को घोंटने पीसने के लिए जो कमरा होता था उसे रसायन शाला कहते थे। पिपरिया की मंगलवारा धर्मशाला में चलने वाले धर्मार्थ आयुर्वेदिक औषधालय में आज से 40-50 साल पहिले जिन्होंने भी स्व. वैद्य हरिनारायण तिवारीजी से इलाज करवाया हो वह दृश्य याद कर सकता है। एक स्थिति के बाद वे स्वयं डॉक्टरी इलाज (एलोपैथी) इलाज की सलाह दिया करते थे।
आयुर्वेद की जो सबसे बड़ी कमी यह रही कि उसमें समय-समय पर शोध और अनुसंधान की कोई परंपरा नहीं है। नई बीमारियों और चुनौतियों से निपटने की कोई दृष्टि नहीं रही। वे हर मर्ज का इलाज आयुर्वेद के हजारों साल पुराने उन ग्रंथों में खोजते रहे जो अब धर्मग्रंथ बन गए हैं।
इस कारण आयुर्वेद में आस्था रखने वाले भी अब आयुर्वेद के भरोसे नहीं हैं। गंभीर बीमारियों में कोई रिस्क नहीं लेना चाहता और सीधे डॉक्टर की शरण में जाता है। स्वयं रामदेव जब कोमा में गए तब और बालकृष्ण आचार्य जब बीमार हुए तब एम्स में ही भर्ती हुए थे। 19 शताब्दी की शुरुआत में स्वीडिश फ्लू में करोड़ों भारतीयों की मौत हुई। प्लेग, हैजा, चेचक, टीबी आदि अनेक महामारियों का प्रकोप रहा, पोलियो का जोर रहा, लेकिन इन सब बीमारियों के सामने आयुर्वेद असहाय सिद्ध हुआ। चिकित्सा जगत में वैक्सीन और एंटीबायोटिक का अविष्कार एक क्रांतिकारी कदम था, जिसने मौत के मुंह में जा रही मानवता को बचाया, बस यही वो समय था जब भारतीय चिकित्सा पद्धति के विकल्प के रूप में आधुनिक चिकित्सा पद्धति का महत्व स्थापित हुआ।
सरकार किसी की भी रही हो सबने आधुनिक चिकित्सा पद्धति को महत्व दिया। बड़े-बड़े अस्पताल और अनुसंधान केंद्र बने, आयुर्वेद का महत्व सिर्फ उतना ही रह गया जितना देवभाषा संस्कृत का है, जो 6 से 10 वीं तक एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है, जिसे पढक़र ना कोई संस्कृत सीखता, ना समझता।
अगर आज कोई कोरोना मरीज आयुर्वेदिक पद्धति से इलाज कराना चाहे तो नगर स्तर पर जिले स्तर पर और भोपाल स्तर पर ऐसा अस्पताल और वैद्य बताइए जहां जाकर वह भर्ती हो सके और आयुर्वेदिक उपचार से ठीक होने का भरोसा हो।
मध्यप्रदेश में 17 साल से भाजपा की सरकार है, उसने आयुर्वेदिक पद्धति के प्रसार के लिए क्या-क्या किया? जब मुख्यमंत्री कोरोना पॉजिटिव हुए थे तो वे किस आयुर्वेदिक संस्थान का ट्रीटमेंट ले रहे थे ?
भारत में आयुर्वेदिक दवा बनाने वाली सौ-सौ साल पुरानी कम्पनियां और धर्मार्थ संस्थाएं हैं, सब अपनी दवा बेचते हैं जिनकी आस्था हो फायदा हो वो खरीदते हैं, लेकिन कभी किसी ने इतना हाय-तौबा नहीं मचाया। स्वदेशी ही खरीदनी है तो डाबर, बैद्यनाथ, झंडू जैसी दर्जनों सालों पुरानी और विश्वसनीय स्वदेशी कम्पनियां हैं। उनके उत्पाद खरीदे जा सकते हैं।
कृष्ण गोपाल कालेडा धर्मार्थ संस्थान की दवा सबसे सस्ती है, क्योंकि उनकी पैकिंग आकर्षक और फैंसी नहीं है। लेकिन गुणवत्ता में नम्बर एक है। इस संस्थान ने बहुत सारा आयुर्वेदिक साहित्य भी प्रकाशित किया है जो सस्ता है और उसे पढक़र आप स्वयँ अपने वैद्य बनकर अपना इलाज कर सकते हैं।
भारत में अभी भी रामदेव से बड़े, बहुत बड़े, आयुर्वेद के आचार्य जानकर और वैद्य मौजूद हैं, लेकिन कभी किसी ने एलोपैथी या किसी अन्य पैथी के खिलाफ ऐसा युद्ध नहीं छेड़ा, यह बाबा की बिजनेस स्ट्रेटजी है। लेकिन उसने कोरोना का यह गलत समय चुन लिया इसलिए खलनायक बन गया।