विचार / लेख
-डॉ. परिवेश मिश्र
मेरे मित्र हैं श्री गिरीश केशरवानी। पत्रकार हैं। युवा हैं। भाजपा के समर्थक हैं (और संभवत: आर.एस.एस. से संबद्ध हैं)। वैचारिक रूप से मित्र गिरीश तथा मैं विपरीत ध्रुवों पर रहे हैं किन्तु मैं उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता का सम्मान करता हूं।
उनकी एक पोस्ट है जिसका सार संक्षेप कुछ यूं है : 1991 में देश की डूबती आर्थिक नैया को बचाने के लिये वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री नरसिंहराव को रुपये के अवमूल्यन का सुझाव दिया। केबिनेट में विरोध की संभावना थी सो नरसिंहरावजी ने पहले अटल बिहारी वाजपेयीजी को विश्वास में लिया। अटलजी ने देश हित में कांग्रेस सरकार का साथ दिया और अवमूल्यन हो सका। इसके विपरीत वर्तमान में नोटबंदी और कोरोना जैसी स्थिति में वही कांग्रेस सरकार के विरोध में दिख रही है, जोकि उचित नहीं है, आदि।
गिरीशजी ने बहुत सी बातें याद दिला दीं।
श्री नरसिंहराव या/और अटलजी ने कुछ नया या अनूठा नहीं किया था। देश को प्रभावित करने वाला एक बड़ा फैसला लेने से पूर्व विपक्ष को विश्वास में लिया गया यह अच्छा कदम था। यहां दो बातें स्पष्ट होती हैं। यदि श्री अटल बिहारी का समर्थन मिला तो सिर्फ इसलिए क्योंकि श्री नरसिंहराव और वे, दोनों की स्पष्ट राय थी कि निर्णय देश के व्यापक हित में है। (वाजपेयी का समर्थन मिलने से कैबिनेट के संभावित विरोध पर पानी फिरता हो ऐसा नहीं था)। देश हित का बड़ा निर्णय अकेले लेकर ‘श्रेय’ की अकेले दावेदारी का अवसर श्री राव के सामने था किन्तु उन्होंने वही किया जो राजधर्म था।
श्रीमती इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के लिए हुए युद्ध से पूर्व तत्कालीन जनसंघ समेत सभी विपक्षी दलों को विश्वास में लिया था।
1980 के दशक में श्री अटल बिहारी वाजपेयी किडनी की बीमारी से जूझने के बाद 1985 में एक किडनी गवां चुके थे। कुछ समय में दूसरी भी जवाब देने लगी। श्री वाजपेयी का जीवन संकट में आ गया था। 1988 में श्री राजीव गांधी को इस बात की जानकारी मिली। उन दिनों लोकसभा में कांग्रेस के 410 और भाजपा के 2 (दो) सदस्य थे। अटलजी 1985 में ग्वालियर में सिंधिया के हाथों लोकसभा चुनाव हारने के बाद राज्यसभा में पहुंचे थे। राजीवजी ने अटलजी को अपने कार्यकाल में बुलाकर बताया कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजे जा रहे भारतीय प्रतिनिधिमंडल में वे उन्हे (अटलजी को) बतौर सदस्य शामिल कर रहे हैं। राजीवजी ने आगे बताया कि उनके इलाज की व्यवस्था कर दी गयी है। साथ ही राजीवजी ने अधिकारियों को हिदायत दी कि यूएन का सत्र जब कभी भी समाप्त हो अटलजी तभी लौटेंगे जब उनका इलाज पूरा हो जाए। उम्र में 20 वर्ष बड़े अटलजी को राजीवजी अपना बड़ा भाई मानते हुए वैसा ही सम्मान देते थे।
राजीवजी के जीतेजी यह सब बातें कभी बाहर नहीं आयीं। राजीवजी की हत्या के बाद स्वयं अटलजी ने ही अपने साक्षात्कार में यह सब बताया था। अटलजी के शब्द थे ‘यदि मैं आज जीवित हूं तो राजीव गांधी के कारण’। उनका यह साक्षात्कार ‘द अनटोल्ड वाजपेयी : पॉलिटिशियन एन्ड पैराडॉक्स’ में उद्धृत है।
कोई ऐसा निर्णय जो देश की समूची जनता को प्रभावित करता हो, उसे लेने से पूर्व प्रधानमंत्री के द्वारा विपक्षी नेताओं को विश्वास में लेने तथा आपस में मधुर संबंध बनाये रखने तथा एक दूसरे के प्रति आदर भाव एवं प्रेमपूर्ण रिश्ते बनाए रखने की परम्परा भारत में हमेशा से रही है। जहां पहले संभव न हो पाया वहां निर्णय लेने के बाद विपक्ष को उसकी आवश्यकता और उसके औचित्य का विवरण देने का प्रयास किया गया। 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यही किया था।
23 जून 1981 के दिन इंदिराजी को सूचना मिली कि उनके घर से कुछ ही दूरी पर बेटे संजय गांधी का प्लेन क्रैश हुआ है। तत्काल वे दुर्घटनास्थल पर पहुंचीं। उस समय फायर ब्रिगेड वाले बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो चुके शरीर को विमान के मलबे में से निकालकर एम्बुलेंस में रख रहे थे। इंदिराजी उसी एम्बुलेंस में बैठ कर राममनोहर लोहिया अस्पताल पहुंचीं। सूचना पाकर उसी समय अटलजी और चंद्रशेखरजी भी इंदिराजी को सांत्वना देने अस्पताल पहुंचे। चंद्रशेखरजी को देखते ही इंदिराजी उन्हें एक तरफ ले गयीं और कहा : ‘अच्छा हुआ आप मिल गये। मैं बहुत दिनों से आप से बात करना चाह रही थी। असम में हालात ठीक नहीं हैं। आपसे सलाह करना है।’
चंद्रशेखरजी अवाक रह गये। वे जनता पार्टी के अध्यक्ष थे। उस पार्टी के जिसे कुछ माह पूर्व चुनाव में हराकर इंदिराजी ने सत्ता में वापसी की थी। इस तरह का परस्पर संवाद अजूबा नहीं था। चूंकि इस घटना की पृष्ठभूमि असाधारण थी (जवान बेटे के शव को डॉक्टरों को सौंपने के तत्काल बाद एक मां से बात हो रही थी) इसलिए इसकी जानकारी बाहर आयी। अन्यथा कुछ भी असामान्य नहीं था।
विपक्ष को विश्वास में लेने की परम्परा के जनक श्री जवाहरलाल नेहरू थे। सामूहिकता के सिद्धांत के पालन में तो वे बाकी से अनेक कदम आगे थे। गांधीजी की समझाईश थी कि 1947 में स्वतंत्रता के बाद जो सरकार बन रही थी वह देश की थी। अकेले कांग्रेस की नहीं। हालांकि संविधान सभा (इसके लिए देश में चुनाव हुए थे) में कांग्रेस के पास 82% का बहुमत था।
14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद रात में नेहरू जी ने अपने 14 सदस्यीय मंत्रिमंडल की सूची गवर्नर जनरल को सौंपी। 15 की सुबह 8 बजे शपथ ग्रहण हुआ। नेहरू और पटेल के अलावा बाकी 12 सदस्यों के नामों ने सबको आश्चर्य में डाल दिया। इनमें तीन मंत्री थे जो न केवल कांग्रेस के सदस्य नहीं थे बल्कि कांग्रेस के घोर आलोचक रहे थे। बाकी 9 में से 5 अन्य व्यक्ति भी कांग्रेस से बाहर के थे।
नेहरू ने हिन्दू महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी, भीमराव अम्बेडकर, जस्टिस पार्टी के आर के शन्मुखम चेट्टी, अकाली दल के सरदार बलदेव सिंह, राजकुमारी अमृत कौर, पारसी उद्योगपति व्यवसायी सी.एच. भाभा तथा एन. गोपालस्वामी आयंगर को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। जयप्रकाश नारायण (जेपी) और राममनोहर लोहिया ने शामिल होने का आमंत्रण स्वीकार नहीं किया था।
एक वर्ष बीतते ही वित्त मंत्री श्री चेट्टी को मंत्रीमंडल छोडऩा पड़ा। (क्यों जाना पड़ा यह एक महत्वपूर्ण किन्तु अलग कहानी है)। उनकी जगह नेहरू ने बंगाल से हिन्दू महासभा के श्री के.सी. नियोगी को वित्तमंत्री बनाया।
अब आते हैं वर्तमान पर। मित्र गिरीशजी की पोस्ट पर। नोटबंदी एक ऐसा फैसला था जो भारत की शत-प्रतिशत जनता को प्रभावित करता था (किया भी)। वही हाल कोरोना में भी था। श्री नरेन्द्र मोदी ने इन दोनों अवसरों पर विपक्ष को विश्वास में लेने आवश्यक नहीं समझा।
लोकतंत्र में जो राज करता है वह पूरी/शत-प्रतिशत जनता के द्वारा चुना हुआ या वोट प्राप्त नहीं होता। पचास प्रतिशत भी हो जरूरी नहीं। भाजपा ने 2014 और 2019 में चुनाव जीते। दोनों बार उसे देश के 30 प्रतिशत के आस-पास लोगों ने वोट दिया। ‘जन-मत’ और ‘मैन्डेट’ जैसे भारी भरकम शब्दों का जितना भी प्रयोग हो, सच्चाई यह रही कि देश के 70 फीसदी लोग मोदीजी को नहीं चाहते थे।
ऐसी स्थिति में उन 70 फीसदी लोगों की नुमाईन्दगी करने वाली पार्टियों और नेताओं को विश्वास में लेना तो समझदारी ही मानी जाती।
ऐसे मौकों पर प्रधानमंत्री जी थोड़ा बड़प्पन क्यों नही बताते भाई ? यदि बताते तो क्या हुआ होता : जनवरी-फरवरी में भाजपा उन्हे (तथा वे स्वयं को) कोरोना को शिकस्त देने वाले विश्व के एकमात्र नेता का खिताब दे रहे थे। वैसा करने में शायद परेशानी हुई होती यदि विपक्ष के सहयोग से कोरोना का सामना किया होता। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि दूसरी वेव की घोर असफलता का पूरा ठीकरा अकेले मोदी जी के सिर न फूटता।
मेरा मानना है लोकतंत्र के मैदान में चुनाव एक खेल है जिसमें जीत हार होती रहती है। आज का जीता कल का हारा हो ही सकता है। मैदान को हारने वाली टीमों से मुक्त-विमुक्त-विलुप्त-नेस्तनाबूद करने का सपना देखने या ऐसी दुआएं करने वाली टीम आगे किस के साथ खेल आगे बढ़ाएगी? विपक्ष का अस्तित्व तो पक्ष के लिए भी जरूरी है।
साथ ही, यदि खेल के मैदान प्रभावित हो रहा हो तो जीतने वाले का कर्तव्य है कि हारी हुई टीमों से सहयोग प्राप्त करे।