संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्ता की वफादार पुलिस और बलि का बकरा बनी बेकसूर जनता की कहानी
05-Feb-2023 4:07 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्ता की वफादार पुलिस  और बलि का बकरा बनी बेकसूर जनता की कहानी

फोटो : सोशल मीडिया

लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब दिल्ली में केन्द्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिलिया इस्लामिया के पास नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ चल रहे विरोध-प्रदर्शन के दौरान हिंसा हुई थी, तो केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने कई छात्रों और दूसरे लोगों को गिरफ्तार किया था। इन पर हिंसा के आरोप लगाए गए थे। इनमें अधिकतर नाम मुस्लिम थे। इनमें से सबसे चर्चित नाम जेएनयू के छात्र शरजील इमाम का था जिस पर राजद्रोह और दंगा भडक़ाने वाले भाषण का जुर्म लगाया गया था। यह होनहार छात्र आईआईटी से कम्प्यूटर इंजीनियर है, और जेएनयू से पीएचडी कर रहा है। अभी दिल्ली के साकेत कोर्ट के जज अरुल वर्मा ने दिसंबर 2019 के एक मामले से ऐसे 10 छात्रों को बरी कर दिया है जो लगातार जेल में चले आ रहे थे। अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि पुलिस जुर्म करने वाले असली मुजरिमों को पकडऩे में नाकाम रही, लेकिन इन लोगों को बलि के बकरे के तौर पर गिरफ्तार किया। जज ने कहा कि इस तरह की पुलिस कार्रवाई ऐसे नागरिकों की आजादी को चोट पहुंचाती है जो अपने मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए जुटते हैं। फैसले में लिखा गया है कि इन छात्रों (तमाम मुस्लिम) को इस तरह के लंबे और कठोर मुकदमे में घसीटना देश और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के लिए अच्छा नहीं है। जज ने कहा यह बताना जरूरी है कि असहमति और कुछ नहीं बल्कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 में निहित प्रतिबंधों के अधीन भाषण देने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अमूल्य मौलिक अधिकार का विस्तार है। जज ने कहा ये एक ऐसा अधिकार है जिसे बरकरार रखने की हमने शपथ ले रखी है। जब भी कोई चीज हमारी अंतरात्मा के खिलाफ जाती है तो हम उससे मानने से इंकार कर देते हैं। अपना कर्तव्य समझते हुए हम ऐसा करने से इंकार करते हैं। ये हमारा फर्ज बन जाता है कि हम किसी ऐसी बात को मानने से इंकार करें जो हमारी अंतरात्मा के खिलाफ है। जज वर्मा ने देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ की हाल की एक टिप्पणी का भी हवाला दिया है जिसमें कहा गया था कि सवाल करने और असहमतियों के लिए जगह खत्म करना राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक तरक्की के आधार को खत्म करना है। इसलिए लिहाज से असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। जज वर्मा ने आगे लिखा, इसका मतलब ये है कि असहमतियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, न कि उन्हें कुचलना चाहिए, हालांकि असहमति शांतिपूर्ण होनी चाहिए, और हिंसा में तब्दील नहीं होनी चाहिए।  

हिन्दुस्तान में केन्द्र सरकार के मातहत दिल्ली की पुलिस, और उत्तरप्रदेश में भाजपा की योगी सरकार की पुलिस ने बहुत से मामलों में मुस्लिमों को इसी तरह फर्जी मामलों में घेरा है, और एक के बाद एक कई मुकदमे दायर करके लोगों की रिहाई को अंतहीन तरीके से रोक रखा है। अदालतों ने इन सरकारों की पुलिस की ऐसी साजिशों का भांडाफोड़ होने के बाद भी सरकारों के रूख में कोई फर्क नहीं है क्योंकि संदेह का लाभ देते हुए अदालतें जांच एजेंसियों के खिलाफ आमतौर पर कोई कार्रवाई नहीं करती हैं। इसलिए सत्ता के दबाव में पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां लोगों को विचाराधीन कैदी बनाकर ही सजा दिलवाने का काम करती हैं। और अब तो हाल ऐसा हो गया है कि इसे सत्ता का दबाव कहना भी ठीक नहीं है, बहुत से राज्यों में, बहुत सी पार्टियों की सरकारों के मातहत आज पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां खुद होकर सत्ता की सेवा करने में ऐसी जुट जाती हैं कि सत्ता को मुंह भी नहीं खोलना पड़ता। जांच एजेंसियां और पुलिस जब एक चापलूस निजी सेवक की तरह काम करके मोटी कमाई करने का एक जरिया ढूंढ निकालती हैं, तो फिर कोई बड़े पेशेवर मुजरिम भी जुर्म करने में उनकी बराबरी नहीं कर सकते। ऐसे ही रूख का नतीजा है कि हिन्दुस्तान में बेकसूर लोग बरसों तक जेल काट रहे हैं, और आमतौर पर जिला अदालतों के जज उन्हें रिहा करने का हौसला भी नहीं दिखा पाते हैं। पिछले बरसों में इस देश ने छात्र आंदोलनकारियों, सामाजिक आंदोलनकारियों, कॉमेडियन और कार्टूनिस्ट, सोशल मीडिया पर सक्रिय जागरूक लोगों को कुचलने का ऐसा सिलसिला देखा है जो बताता है कि लोकतंत्र इस देश में एक कागजी सामान होकर रह गया है, और अमल में उसकी कोई जगह रखने की नीयत सरकारों की नहीं रहती है। 

हमारा ख्याल है कि जब अदालतें यह पाती हैं कि पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां बदनीयत से कोई काम कर रही थीं, तो उनकी जवाबदेही कटघरे में तय होनी चाहिए। जब अदालत यह पा रही है कि बेकसूर छात्रों को बलि का बकरा बनाया गया, उन पर राजद्रोह जैसे मुकदमे चलाए गए, तो फिर ऐसी पुलिस को महज एक आलोचना के साथ छोड़ देना ठीक नहीं है। ऐसी पुलिस को ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि सत्ता की फरमाईश पर वह ऐसा अगला जुर्म करने के पहले चार बार सोचे, और अपने भविष्य की फिक्र करे। अदालती आलोचना से किसी वर्दी पर कोई आंच नहीं आती, बल्कि ऐसी आलोचना को ऐसी पुलिस अपने राजनीतिक आकाओं को दिखाकर उनसे वाहवाही और पा सकती है। 

हिन्दुस्तान में पुलिस सुधार की बातें होते पीढिय़ां गुजर गई हैं, और एक वक्त अंग्रेज सरकार की पुलिस में जिस तरह हिन्दुस्तानी सिपाही उसके वफादार थे, उसी तरह आज की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारों में आज पुलिस सत्ता पर काबिज लोगों की बदनीयत के प्रति वफादार रहती है। यह सिलसिला खत्म किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके बिना बेकसूर लोग बरसों तक जेल में कैद रहेंगे, राजद्रोह जैसी तोहमतें झेलेंगे, और इंसाफ नाम के अजगर को करवट बदलने में ही कई बरस लग जाएंगे।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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