विचार / लेख

सामाजिक आंदोलनों के बौद्धिक पैगम्बर...
27-Jul-2021 2:30 PM
सामाजिक आंदोलनों के बौद्धिक पैगम्बर...

-रवि सिन्हा

 

जवाबदेही लोकतंत्र का मूलभूत तत्व है और, माना जाता है कि अंतत: लोग ही लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और तंत्रों के माध्यम से सत्ता में बैठे लोगों पर निगरानी रखते हैं। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि लोकतंत्र में अक्सर क्या होता है। चुनावी प्रतिस्पर्धा  ऐसी ‘तकनीकों’ (अक्सर धार्मिक, सांस्कृतिक और पहचान-आधारित) को जन्म देती है जो नागरिकों को ‘भक्त’ और उत्पाती सैनिकों के रूप में  (हिटलर की ‘ब्राउन शर्ट्स’ याद करें) तब्दील कर देती है। लोकतंत्र का यह अँधेरा पहलू दूसरे पहलू की तुलना में अधिक बार उछल कर सामने आता है। आज हिंदुस्तान उसी तबाही के दौर से गुजर रहा है। अमेरिका में ट्रम्प इसी तरह की परिघटना का उदाहरण था।

लेकिन क्या आंदोलनों को भी किसी व्यक्ति या किसी विचार के प्रति जवाबदेह होना चाहिए? यह कहा जा सकता है कि आंदोलन अपने स्वयं के मिशन, मूल्यों, उद्देश्यों, तर्कों और रणनीतियों के प्रति जवाबदेह होते हैं। क्या इस हिसाब से कोई आंदोलनों का मूल्यांकन कर रहा है?

वामपंथी आंदोलन के लिए तो यह सच है कि उसका लेखा-जोखा पूरी दुनिया में पर्याप्त रूप से किया गया है। यहाँ तक कि, अधिकांश लोगों के लिए अब इसे टास्क के रूप में लेने की कोई ज़रूरत ही नहीं रह गई है। बहुतों के लिए तो वामपंथ ख़त्म ही हो गया है। जो ख़त्म हो गया है उस पर समय क्यों बर्बाद करना? लेकिन फिर भी,सबसे मजे की बात यह है कि वामपंथ अभी भी अधिकांश अन्य आंदोलनों और उनके बौद्धिक दिग्गजों की आलोचनाओं का पसंदीदा निशाना बना हुआ है जिसको जब चाहे कोड़े मारे जा सकते हैं। यहाँ भारत में दलित बुद्धिजीवियों का प्रिय शगल वामपंथी आंदोलन में सवर्ण (उच्च जाति) वर्चस्व को उजागर करना है और बहुत सी नारीवादियों का काम तो बस वामपंथियों के ‘स्त्री-द्वेष’ पर ही ध्यान केंद्रित करना है। मानो भारतीय समाज के किसी सर्वेक्षण में दलितों और महिलाओं के खिलाफ उत्पीडऩ और हिंसा के सबसे संभावित और सबसे बड़े अपराधियों के रूप में वामपंथी ही उभर कर आए हों! इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वामपंथ को अपनी सभी बीमारियों और अपनी सभी विफलताओं की ख़बर लेनी चाहिए। लेकिन, क्या एक आंदोलन जिसे अक्सर ही मृत घोषित कर दिया जाता हो उसे आंदोलनों के मूल्यांकन के प्रमुख उदाहरण के रूप में लिया जाना चाहिए?

 उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने घोषणा की है कि यही वह पार्टी होगी जो वास्तव में राम मंदिर का निर्माण करेगी। यह पार्टी खुलेआम और जोर-शोर से एक जाति के रूप में ब्राह्मणों को अपने पाले में आने की अपील कर रही है। सभी जानते हैं कि बाबासाहेब अम्बेडकर ने जाति-उन्मूलन की बात की थी और घोषणा की थी कि हिंदू धर्म के तहत दलित मुक्ति की कोई गुंजाइश नहीं है। यह विडंबना बसपा तक ही सीमित नहीं है। वर्तमान शासन में एक दलित विनीत भाव से राष्ट्रपति बनता है और एक पूर्व दलित पैंथर एक मंत्री है। इन सब बातों की व्याख्या तो इस तरह की जाती है कि लोकतंत्र की बाध्यताएँ  इस व्यावहारिक आचरण के लिए मजबूर करती हैं। लेकिन खुद उस आंदोलन के बारे में क्या कहा जाए? अम्बेडकर के मिशन का क्या हुआ?

सवाल और भी गहरा है। ऐसा कैसे हुआ कि दलित समुदायों में हिंदुत्व इस तरह की पैठ बनाने में सफल रहा? ‘दलित सांस्कृतिक दिमाग’ में ‘हिंदू सभ्यतात्मक दिमाग’ किस तरह और किस हद तक बैठ गया है? ऐसा क्यों है कि गुजरात नरसंहार के दौरान और अन्य जगहों पर भी दलित हिंदुत्व के ‘ब्राउन शर्ट’  बनने के उतने ही आकांक्षी रहे हैं जितना कि कोई अन्य समुदाय? ऐसा क्यों है कि दलितों के ऊपर अत्याचार की किसी घटना के बाद कोई दलित नेता किसी प्रज्ज्वलित उल्कापिंड की तरह सामने आता है, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक क्षितिज से उतनी ही तेजी से गायब भी हो जाता है जबकि चुनावी खेल के खिलाड़ी जमीनी राजनीतिक अखाड़े पर अपना पूर्ण नियंत्रण बनाए रहते हैं?

उम्मीद है कि  कोलंबिया और हार्वर्ड विश्वविद्यालयों से लेकर जेएनयू और उस्मानिया तक के सामाजिक आंदोलनों के सिद्धांतकार- इस पहेली को गंभीरता से ले रहे हैं। हम सभी सरल और सामान्य बुद्धि के उत्तर जानते हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं। पहेली को एक गहरी व्याख्या की जरूरत है। सामाजिक आंदोलनों के बौद्धिक पैगम्बर कब तक इन आंदोलनों के इतिहास और इनके बचे रहने का जश्न मनाने से ही संतुष्ट रहेंगे?

दलित लेखक कब तक अन्य (सवर्ण) लेखकों की वंशावली पूछते रहेंगे और उनके जातिनामों के लिए उनपर इलज़ाम लगा कर संतुष्ट होते रहेंगे? वे कब तक दलित जीवन और उसके अनुभव के साहित्यिक चित्रण और उसकी सैद्धांतिक व्याख्या पर एकाधिकार की मांग भर करते रहेंगे? असली सवाल और असली चुनौतियों पर अभी ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद रूपाली सिन्हा)

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