दयाशंकर मिश्र

बोगनवेलिया मन !
27-Jul-2020 8:55 PM
बोगनवेलिया मन !

हमें इस बात को समझना होगा कि हम चाहते क्या हैं. जीवन में सपनों के पीछे दौड़ना और उन चीजों को हासिल करना जिन्हें हम कामयाबी कहते हैं, समझते हैं. इसमें कुछ भी खराबी नहीं है. तब तक जब तक हम उसे खुद से भी कीमती न समझने लगें.

हम जितने अधिक अकेले होते जा रहे हैं, हमारा मन उससे कहीं अधिक सुगंध, महक, उदारता और प्रेम से दूर होता जा रहा है. बोगनवेलिया सरीखा. दूर से देखने पर झाड़ी में इस पौधे की सुंदरता मन को मोहित करती है लेकिन पास जाते हैं, हमें समझ में आता है कि असल में इसमें पास आने जैसा कुछ नहीं. बोगनवेलिया, सजावटी फूल है. दूर से देखने पर ही इसका सुख है. इसमें वह सुगंध नहीं, जो मन को महका सके. यह आंखों के लिए तो फिर भी ठीक है, लेकिन जो प्रेम की आशा में इसके पास जाएंगे वह अनमने होकर ही लौटेंगे.

हम प्रेम से धीरे-धीरे इतने दूर होते जा रहे हैं कि हमारा मन बहुत तेजी से बोगनवेलिया की तरह होता जा रहा है. बाहर से दिखने में तो बहुत आकर्षण है, बहुत सजावट है. लेकिन भीतर रोशनी की कमी है. प्रेम की हवा नहीं है. स्नेह की उदारता नहीं. अगर कुछ बचता है तो केवल एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा. किसी भी कीमत पर आगे निकलने की होड़. अपनी सुगंध, स्वभाव से दूर जाकर हम बहुत अधिक हासिल नहीं कर सकते. क्योंकि इसकी कीमत चुका कर जो भी हमें मिलेगा उससे जीवन में उजाला नहीं आएगा.

चंद्रमा का उजाला उधार का उजाला होता है. बहुत अच्छी बात है कि चंद्रमा इस बात को जानता है. इसलिए वह शीतल है. लेकिन मनुष्य दूसरों के उजाले को अपना प्रकाश मानने की जिद किए बैठा है!

जीवन में अधिकांश लोग मन की सुगंध को बोगनवेलिया होने की चाहत में खोते जा रहे हैं. खुद से दूर निकलते जा रहे हैं. लॉकडाउन में मनुष्य के स्वभाव की इतनी विचित्र परतें सामने आ रही हैं, जिसका स्वयं हमें भी अंदाजा नहीं था. इतनी जल्दी लोग टूट रहे हैं जैसे उनके मन कांच के बने हुए. संघर्ष की धूप जरा सी उन पर पड़ी नहीं कि चटक जाते हैं. इस चटकने को हम ऐसे दिखाते हैं, मानो यह कोई बाहरी समस्या है.

हमारे अधिकांश प्रश्न बिल्कुल भीतरी होते हैं. एकदम अंदरूनी. लेकिन हम उन्हें बाहर-बाहर ही खोजते रहते हैं. तलाशते रहते हैं. अपने रिश्तों में प्रेम की कमी, जीवन में उल्लास, आनंद, उदारता और स्नेह की कमी भीतर से उपजी है. इसलिए उपजी, क्योंकि प्रेम, अहिंसा, क्षमा और करुणा से दूर होते जा रहे हैं. जंगल के बाहर खड़े होकर जंगल को महसूस नहीं किया जा सकता. उसके लिए तो जंगल के भीतर उतरना ही होगा. हमारा मन जो इतना बेचैन, उदास, परेशान दिख रहा है. उसके कारण बाहरी नहीं हैं. नितांत अंदरूनी हैं.

हमें इस बात को समझना होगा कि हम चाहते क्या हैं. जीवन में सपनों के पीछे दौड़ना और उन चीजों को हासिल करना जिन्हें हम कामयाबी कहते हैं, समझते हैं. इसमें कुछ भी खराबी नहीं है. तब तक जब तक हम उसे खुद से भी कीमती न समझने लगें. हमें इस बात को अपने भीतर उतारने की जरूरत है कि जिंदगी सबसे जरूरी है. जिंदगी का कोई विकल्प नहीं. वह अविकल्पनीय है.

हम जैसे ही जिंदगी का विकल्प ढूंढने लगते हैं, खुद को कमजोर करने लगते हैं. ‌ कुछ समय पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने जो रास्ता अपनाया, वह जिंदगी के विकल्प खोजना है. सांसों की डोर टूटती के बाद कोई उजाला नहीं है. बस एक अंधेरा है. मुक्ति नहीं है, मुक्ति का भ्रम है. आत्महत्या मनुष्यता का की हत्या है. मानवता का वध है. इस विचार को खुद भी समझिए और दूसरों को भी इसके प्रति सजग करिए.

आत्महत्या को किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता. जिन दुखों को हम इतना बड़ा मान बैठे हैं कि जीवन दांव पर लगाने को तैयार हैं. वह दुख नहीं, हमारी चेतना के अंधेरे हैं. प्रेम और क्षमा मनुष्यता के इतिहास की सबसे खूबसूरत मीनारें हैं. हम इनसे दूर चले गए, इसका अर्थ यह नहीं कि इनका अस्तित्व नहीं!

चलिए, अपने पास चलते हैं. खुद से प्रेम करते हैं. खुद को क्षमा करते हैं. खुद को प्यार करते हैं. बिना स्वयं को इनसे परिचित कराए इसे दूसरों के साथ कैसे किया जा सकता है. अपने जीवन को ही सबसे बड़ी प्रार्थना समझिए. जीवन में हर चीज़ को दोबारा हासिल करना संभव है, बस जीवन ही ऐसा है जिसे खोकर प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसलिए अपने मन को प्रेम के निकट ले जाइए. उसे रेगिस्तान बनने से बचाइए. बोगनवेलिया बनने से बचाइए.
-दयाशंकर मिश्र

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