दयाशंकर मिश्र

नाजुक मन!
30-Oct-2020 12:03 PM
नाजुक मन!

हमारे बुजुर्गों के पास जीवन को जानने-समझने का गहरा, विविधतापूर्ण अनुभव रहा है, लेकिन हमने उसे नकार दिया। कोरोना जैसे ही संकट हमारे पहले की पीढिय़ों ने देखे। उन्होंने कहीं अधिक कुशलता से इनका सामना किया था।

इस समय जिस तरह से वातावरण में कोरोना का डर बैठा हुआ है। ऐसे में बहुत जरूरी है कि अपने मन को मजबूत बनाया जाए। मुश्किल स्थितियों का सामना करने योग्य बनाया जाए। कोरोना पर मुझे सबसे अधिक ऊर्जा उस समय मिलती है, जब मैं अपने बुजुर्गों से बात करता हूं। ऐसे लोगों से बात करता हूं, जिनके पास 75 से लेकर 85 वर्ष तक के जीवन का अनुभव है। वह सभी एक ही बात दोहराते हैं, ऐसे संकट पहले भी आए हैं। बस, घबराना नहीं है। जब उनसे पूछा जाता है कि पहले के संकट और इस संकट में अंतर क्या है? तो यही कहते हैं कि अंतर संकट में नहीं, सामना करने वालों के मन में होता है! पहले मन की घबराहट इतनी नहीं होती थी। धैर्य, भरोसा और एक-दूसरे का साथ गहरा था। बुजुर्ग कह रहे हैं कि बाहर तो सब ठीक हो जाएगा, पहले अपने मन को ठीक रखो!

मेरी दादी को प्रकृति ने सुंदर, सुदीर्घ, स्वस्थ जीवन दिया, जिसमें पर्याप्त कठिनाइयां थीं, लेकिन आशा के बीज भी उतने ही गहरे थे। मैं जब छोटा था, तो उनसे कहता, ‘चाय के प्याले इतने नाजुक क्यों हैं। जऱा-सी ठेस लगते ही टूट जाते हैं!’ वह बड़ा सुंदर जवाब देतीं, ‘प्याले नाज़ुक नहीं हैं, तुम्हारे हाथ से इसलिए टूट जाते हैं, क्योंकि तुम्हें इनका अभ्यास नहीं’।

‘जीवन संवाद’ को सारी ऊर्जा उनके साथ की गई यात्राओं से ही मिलती है। यात्रा करने वालों में व्यक्तियों को पहचानने और आशा रखने का गुण निरंतर निखरता रहता है। दादी साक्षर नहीं थीं, लेकिन जीवन को समझने और उसमें आस्था रखने में वह बहुत अधिक शिक्षित थीं। जब आशा के उजाले दिमाग के जालों को पार करके मन की गहराई तक पहुंच जाते हैं, तो उन्हें किसी शिक्षा की जरूरत नहीं होती। उनकी एक और सीख बहुत भली मालूम होती है। वह हमेशा कहती थी, ‘झगड़ा कितना भी कर लो, लेकिन दो चीजें कम नहीं करनी हैं। समय पर भोजन करना और बात करना’।

हमारे बुजुर्गों के पास जीवन को जानने समझने का गहरा, विविधतापूर्ण अनुभव रहा है, लेकिन हमने उसे नकार दिया। कोरोना जैसे ही संकट हमारे पहले की पीढिय़ों ने देखे। उन्होंने कहीं अधिक कुशलता से इनका सामना किया था, लेकिन अगर आप यथासंभव उपलब्ध आत्महत्या, तनाव और अवसाद के अध्ययनों से गुजरेंगे, तो पाएंगे कि कोरोना और आर्थिक संकट से निपटने में वास्तविक संकट से अधिक हमारी मानसिक कमजोरी सामने आई है।

हमारा मन कर्ज और बीमारी से उतना अधिक नहीं टूट रहा है, जितना अधिक इस बात से बिखर रहा है कि न जाने आगे क्या होगा? आगे का तो छोडि़ए, हमारे पास अगले कल तक का हिसाब नहीं है। ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी वित्तीय और शारीरिक स्थितियों के प्रति सतर्क तो जरूर रहें, लेकिन उनकी चिंता में न घुलें। चिंता में घुलना, चिंतित होते चले जाना, एक तरीके के अकेलेपन की शुरुआत है, जिसमें हम कहानियां बुनने लगते हैं। एकतरफा कहानियां! जिसमें अतीत की कड़वाहट और भविष्य की आशंका मिलकर हमारे वर्तमान को तंग करने लगती हैं। मन कमजोर होने की तरफ बढऩे लगता है। मन को कमजोर होने से बचाना है। उसे लड़ाकू और जीवन में आस्था रखने वाला बनाना है। यकीन मानिए, ऐसा करना बहुत मुश्किल नहीं है, बस जीवन के प्रति विश्वास बना रहे! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र

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