विचार / लेख
डॉयचे वैले पर जिया उर रहमान की रिपोर्ट-
कई जानकारों का मानना है कि दोनों देशों के रिश्तों में मौजूदा तनाव की वजह पाकिस्तान में सीमापार से बढ़ता आतंकवाद है। लेकिन पाकिस्तान ने भी हाल के समय में कुछ ऐसे कदम उठाए हैं, जिनसे अफगानिस्तान की तालिबान सत्ता नाराज है। पिछले साल, पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से होने वाले व्यापार पर कई तरह की पाबंदियां लगा दीं। इसके अलावा पाकिस्तान में बिना दस्तावेज रह रहे करीब पांच लाख अफगानों को देश से बाहर निकाला और सख्त वीजा नीतियां लागू कीं।
पिछले महीने, पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के अंदर पाकिस्तानी आतंकवादी समूहों के संदिग्ध ठिकानों को निशाना बनाकर हवाई हमले किए, जिसमें आठ लोग मारे गए। इसके बाद अफगान बलों ने भी सीमा पर जवाबी कार्रवाई की।
आशा से तनाव तक
वॉशिंगटन डीसी में एक थिंकटैंक पोलिटैक्ट में दक्षिण एशिया फेलो नाद-ए-अली सुलेहरिया ने डीडब्ल्यू को बताया कि पाकिस्तान को उम्मीद थी कि जिस तरह उसने हमेशा तालिबान का साथ दिया है, जब वे सत्ता में आएंगे तो पाकिस्तान को फायदा होगा।
सुलेहरिया के अनुसार, खासकर पाकिस्तान को उम्मीद थी कि तालिबान सरकार तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) और अन्य पाकिस्तानी आतंकवादी समूहों के खिलाफ कदम उठाएगी, और ‘अफगानिस्तान में उनके अड्डों को खत्म किया जाएगा।’ लेकिन काबुल में तालिबान शासन के पहले साल के भीतर ही पाकिस्तान की यह उम्मीद टूट गई। इसके बजाय, पाकिस्तान में आतंकवाद और बढ़ गया क्योंकि तालिबान के सत्ता में लौटने से टीटीपी का हौसला और ताकत, दोनों बढ़ीं।
इस्लामाबाद के सेंटर फॉर रिसर्च एंड सिक्योरिटी स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार 2022 की तुलना में 2023 में आतंकवादी हमलों से होने वाली मौतों में 56 फीसदी का इजाफा हुआ है, जिसमें 500 से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों के साथ-साथ 1,500 से अधिक लोग मारे गए।
इसी हफ्ते, खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के दो जिलों में दो अलग-अलग हमलों में दो पुलिस अधिकारी मारे गए और छह लोग घायल हो गए।
तालिबान का समर्थन क्यों किया है?
तालिबान के साथ पाकिस्तान का रिश्ता बड़ा ही पेचीदा और अक्सर विरोधाभासी रहा है, जो लगातार ऐतिहासिक घटनाओं और रणनीतिक समीकरणों के कारण बदलता रहता है। दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक संबंध रहे हैं, लेकिन 1893 में अंग्रेजों द्वारा खींची गई 2,640 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा डूरंड लाइन को लेकर लंबे समय से विवाद रहा है।
इस रेखा ने पश्तून कबायली भूमि को विभाजित कर दिया। इससे पश्तूनों के लिए अलग देश ‘पश्तूनिस्तान’ की भावना ने जन्म लिया जिसमें सीमा के दोनों ओर के पश्तून क्षेत्र शामिल हों। हालांकि यह देश कभी नहीं बन सका, लेकिन इस पर विवाद आज भी जारी है।
दूसरी ओर, 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत हमले के बाद पाकिस्तान ने सीमापार मुस्लिम चरमपंथियों के साथ अपनी दोस्ती बढ़ा ली।
इस्लामाबाद में स्थित अफगान इतिहास शोधकर्ता उबैदुल्ला खिलजी कहते हैं, ‘सोवियत प्रभाव से निपटने के लिए पश्चिमी देशों ने पाकिस्तान को इस्तेमाल किया और उसके जरिए उन अफगान मुजाहिद्दीन को हर तरह की मदद पहुंचाई, जो सोवियत हमले का मुकाबला कर रहे थे।’
सोवियत वापसी के बाद, अफगानिस्तान गृहयुद्ध में उलझ गया, जिससे एक नए इस्लामी कट्टरपंथी गुट तालिबान का जन्म हुआ। पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने 1996 में अफगानिस्तान के तालिबान शासन को मान्यता दी, और उन्हें महत्वपूर्ण सैन्य सहायता और संसाधन दिए।
11 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अफगानिस्तान पर हमला किया और इसके बाद 2001 के अंत में अफगानिस्तान में तालिबान शासन का खात्मा हो गया।
हालांकि, तालिबान के कुछ सदस्यों को पाकिस्तान के अंदर, खासकर सरहदी इलाके में शरण मिल गई। पाकिस्तान ने 9/11 के बाद अमेरिका का साथ दिया। यह जगजाहिर है कि पाकिस्तान के कुछ वरिष्ठ लोगों ने तालिबान को गुप्त समर्थन भी दिया। और इस समर्थन ने अगस्त 2021 में तालिबान की सत्ता वापसी में अहम भूमिका निभाई।
तालिबान सरकार के शिक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी ने नाम ना प्रकाशित करने की शर्त पर कहा, ‘तालिबान ने पाकिस्तान का इस्तेमाल अफगानिस्तान में अपनी गतिविधियों को जारी रखने के लिए एक ठिकाने के तौर पर किया, जबकि पाकिस्तान ने हमें अफगानिस्तान में बढ़ते भारतीय प्रभाव से निपटने के हथियार के तौर पर देखा था।’
तालिबान की सत्ता में वापसी ने नाटकीय रूप से चीजों को बदल दिया है। क्विंसी इंस्टीट्यूट के मध्य पूर्व विभाग के उप निदेशक एडम वाइनस्टीन के अनुसार, तालिबान अब पाकिस्तान पर निर्भर नहीं है, तालिबान अब ‘खुद को पाकिस्तान के अधीन देखने या उसकी मांगों को पूरा करने के लिए बाध्य नहीं मान रहा है।’
तालिबान नेता पाकिस्तान की पिछली मदद को स्वीकार करते हैं लेकिन वे यह भी बताते हैं कि कैसे पाकिस्तान ने तालिबान नेताओं का उत्पीडऩ किया, उनकी गिरफ्तारियां कीं और उन्हें अमेरिका को सौंपा। तालिबान और टीटीपी के बीच की वैचारिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक समानताएं भी तालिबान प्रशासन को एक जटिल समस्या में डाल देते हैं।
तालिबान अधिकारी ने कहा, ‘पाकिस्तान की मांग के अनुसार, टीटीपी पर कार्रवाई करने से खुद तालिबान के भीतर ही समस्या खड़ी हो सकती है। इस वजह से लोग, पहले से ही तालिबान से लड़ रहे चरमपंथी समूह इस्लामिक स्टेट में जा सकते हैं।’
तालिबान नए सहयोगी चाहता है
जहां पाकिस्तान के साथ रिश्ते ठंडे पड़ रहे हैं, वहीं तालिबान प्रशासन नई साझेदारियां बना रहा है। पश्चिमी देश झिझक रहे हैं, लेकिन चीन, रूस, ईरान, भारत और कुछ मध्य एशियाई देश बेहद सावधानी के साथ तालिबान से संबंध बढ़ा रहे हैं। पोलिटैक्ट फेलो सुलेहरिया बताते हैं कि तालिबान प्रशासन अपने प्रचुर खनिज संसाधनों को इस्तेमाल कर चीन के विदेशी निवेश के जरिए अच्छा-खासा पैसा कमा रहा है।
सुलेहरिया ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘वे अंतरराष्ट्रीय व्यापार में कदम रखने के लिए ईरान का रुख कर रहे हैं, जो साझेदारी में नएपन का संकेत है।’ हालांकि अफगान तालिबान के लिए कोई भी नई साझेदारी इतनी मजबूत नहीं है जो पाकिस्तान की जगह ले सके। फिर भी, तालिबान आत्मनिर्भरता के लिए अंतरराष्ट्रीय मानवीय सहायता का लाभ भी उठा सकता है। और चूंकि सभी देश स्थिरता चाहते हैं, तो तालिबान को इसका भी फायदा मिल सकता है।
क्विंसी इंस्टीट्यूट के एडम वाइनस्टीन ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘अफगानिस्तान के पड़ोसी देश और अंतरराष्ट्रीय समुदाय व्यापार, वित्तीय मदद और राजनयिक संपर्कों से तालिबान को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समर्थन दे रहे हैं। यह सब इसलिए ताकि तालिबान ही सत्ता पर नियंत्रण रख सके क्योंकि दुनिया बाकी संभावित विकल्पों से डरती है: जैसे गृह युद्ध, या एक मजबूत आईएसकेपी, या फिर वैश्विक अस्थिरता।’
(dw.com)