विचार / लेख
डॉ. आर.के. पालीवाल
वैसे तो ऊपरी तौर पर रूस यूक्रेेन युद्ध दो पड़ोसी देशों के बीच हो रहा युद्ध दिखाई देता है लेकिन इस युद्ध में यूक्रेन के साथ अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैन्य संगठन के यूरोपीय देश भी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं। इसे रूस और युक्रेन का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कई दशक तक जुड़वा भाइयों की तरह सोवियत संघ की महाशक्ति के दो सबसे बड़े हिस्से रहे रूस और युक्रेन 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद आजाद देश बनने पर कई साल से तनावग्रस्त माहौल में रहने के बाद एक साल से ज्यादा समय से खूंखार जंग लड़ रहे हैं।
रूस अपने इस पड़ोसी के अमेरिका परस्त नाटो का हिस्सा बनने से नाराज है और युक्रेन रूस की दादागिरी सहने के बजाय यूरोप और अमेरिका के लोकतंत्र साथ रहने की जिद के कारण रूस की आंखों की किरकिरी बना हुआ है। यह कुछ कुछ भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव और युद्ध जैसा ही है। भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्धों में भी पाकिस्तान को अमेरिका का वैसा ही समर्थन मिलता था जैसा रूस के खिलाफ युद्धरत युक्रेन को मिल रहा है।
इसी तरह इजराइल और फिलिस्तीन के बीच जारी कई दशक पुरानी जंग भी पिछले कई सालों के सबसे खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है। फिलीस्तीन के गुरिल्ला हमलावरों ने इजराइल के अंदरूनी इलाकों में घुसकर जिस जंग की शुरुआत की थी उसने इजराइल को इतना भडक़ाया कि फिलिस्तीन में भारी तबाही के बाद उस पर यह आरोप भी लगा कि सीरिया में ईरान के दूतावास पर हुए हमले में इजराइल ने ही ईरान के शीर्ष कमांडरों को मारा है। सीरिया में हुई इस घटना ने ईरान को भी सीधे इजराइल के साथ युद्धरत कर दिया। अब यह युद्ध भी इजराइल और फिलीस्तीन तक सीमित नहीं रहा। दुनिया के दो संवेदनशील भागों मे चल रहे इन दो युद्धों में अमेरिका हर तरह से अपने मित्र राष्ट्र युक्रेन और इजराइल के साथ खड़ा है। अभी हाल ही में अमेरिकी सीनेट ने युक्रेन और इजराइल की मदद के लिए भारी भरकम आर्थिक सहायता को मंजूरी दी है। इस मदद के बाद युक्रेन और इजराइल और ज्यादा ताकत से अपने दुश्मन देशों से दो दो हाथ करने की तैयारी करेंगे।
युद्ध और आग की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह थोड़ी सी हवा मिलने पर तेजी से फैलते हैं। युद्ध में जब धर्म विशेष का तत्व शामिल हो जाता है तब उसके फैलने की आशंका कई गुणा बढ़ जाती है। इजराइल और फिलिस्तीन के युद्ध में यही खतरा सबसे ज्यादा है। इस युद्ध में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से इजराइल और फिलीस्तीन के साथ साथ सीरिया और ईरान का प्रवेश विशुद्ध रूप से धार्मिक आधार पर ही हुआ है जिसकी लपट अन्य इस्लामिक देशों तक भी फैल सकती है। इस दृष्टि से यह युद्ध रूस और युक्रेन के बीच चल रहे युद्ध से भी ज्यादा संवेदनशील है। इसलिए इसे रोकने के प्रयास ज्यादा तेज़ी से होने चाहिएं।
जिस समय पूरी दुनिया जलवायू परिर्वतन के भयावह दौर से जूझ रही है ऐसी स्थिति में कई बड़े देशों का युद्ध में शामिल होना जलवायू परिर्वतन के खतरे को ओर ज्यादा बढ़ाता है। एक तरफ युद्ध में इस्तेमाल होने वाले गोला बारूद से प्रकृति और पर्यावरण खराब होते हैं और दूसरी तरफ जिन संसाधनों का रचनात्मक उपयोग जलवायू परिर्वतन के दुष्प्रभावों को कम करने में हो सकता था उनका दुरुपयोग युद्ध के विध्वंश में होने से पर्यावरण के लिए आर्थिक संसाधनों की कमी होती है। दुर्भाग्य से युद्धरत देशों के शासक इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि प्रकृति और पर्यावरण से उन्हें कोई लेना देना नहीं है। ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ ही विश्व की बड़ी आबादी के लिए एकमात्र आशा की किरण दिखाई देता है। दुर्भाग्य से अभी इन युद्धों में संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रभावी हस्तक्षेप दिखाई नहीं दे रहा।