विचार / लेख
प्रिय दर्शन
1 पाठक लगातार कम हो रहे हैं। हम सब अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं - वे अंग्रेज़ी के पाठक बनते जा रहे हैं। हिंदी उनके लिए बोलचाल और मनोरंजन की भाषा है।
2 समाज में संवेदना कम हो रही है। यह मूलत: उपभोक्तावादी समाज है जो हर चीज़ फ़ायदे की तुला पर तौलता है। बरसों पहले एक इंटरव्यू में ग्राहम ग्रीन ने कहा था कि हमारे समय में रूबल और डॉलर महंगे हो रहे हैं, आदमी का मोल घट रहा है। तो हर कोई पूछता है, लिखने से पैसे नहीं मिलते तो लिखते क्यों हो।
3 पढऩे वालों की एकाग्रता घट रही है। दिल बहलाने या भटकाने के इतने साधन हैं- मसलन यह स्मार्टफोन ही- कि एक लय में पढऩा लगभग असंभव हो चुका है। तो किसी भी कृति का वास्तविक प्रभाव लगातार खंडित होता रहता है।
4 अनपढ़ लोगों की क़द्र बढ़ रही है। हालांकि यह पहले से थी, लेकिन पहले शिक्षक या लेखक या पत्रकार होना भी सम्मान की बात थी, अब सारा सम्मान इस एक बिंदु पर टिक गया है कि आपके पास पैसे कितने हैं।
5 इस देश के किसी भी धनपशु को यह अधिकार है कि वह हर विषय का विशेषज्ञ बन जाए, चाहे तो साहित्य भी लिखने लगे और लोकार्पण करा कर बड़ा लेखक बन जाए। उसकी स्तुति करने वाले मिल जाएंगे।
6 लेखन में सतहीपन बढ़ रहा है। क्योंकि बहुत सारे औसत लेखक बेशर्मी से अपना प्रचार करते हैं, अपने दोस्तों से लिखवाते हैं, साधन हो तो समारोह करते हैं और उल जलूल कुछ भी लिखकर मान्यता हासिल करने की कोशिश करते हैं।
7 हिंदी का समाज किसी बड़ी लड़ाई के लिए प्रस्तुत नहीं है। वह सामाजिक न्याय, समानता, लोकतंत्र आदि के मूल्यों को कुछ कौतुक से देखता है। लोकतंत्र का मतलब उसके लिए बस चुनाव में वोट डाल आना है। समानता की लड़ाई यूटोपिया हो चुकी है। ऐसे में हिंदी के लेखक के हिस्से भी न कोई सामाजिक संघर्ष दिखता है और न वह विचार जिसके लिए वह कोई लंबी लड़ाई लडऩे को तैयार हो?। जब बड़े युद्ध नहीं बचते तो वह छोटी-छोटी निजी? लड़ाइयों में लिप्त मिलता है।
8 हिंदी का लेखक अपनों की राजनीति का भी मारा है। संविधान ने हिंदी को राजकाज की भाषा तो बनाया, रोटी और रोजग़ार की भाषा नहीं बनाया। तो हिंदी की हैसियत इस देश में बची नहीं। वह अंग्रेजी के सामने दबी रहती है। बांग्ला और मराठी जैसी भाषाएं दावा करती हैं कि वे उससे पुरानी और समृद्ध हैं। फिर इन भाषाओं की अपनी 'कांस्टिटुएंसी' है जो हिंदी की नहीं है। कभी समाजवादी लोग हिंदी के लिए लड़ते थे, अब कोई लडऩे वाला नहीं है। ऐसे में हिंदी का लेखक वह आत्मविश्वास ही अर्जित नहीं कर पाता कि अपने लिए कुछ मांग सके, अपना शोषण भी रोक सके। पत्रिकाएं उसे पारिश्रमिक नहीं देतीं, प्रकाशक उसे रॉयल्टी नहीं देते और समाज उसका इतना साथ नहीं देता कि वह ठीक से खड़ा हो सके।
9 हिंदी इन दिनों वीभत्स सांप्रदायिकता की भाषा बनाई जा रही है। इस भाषा का सबसे लोकप्रिय वक्ता वह शख़्स है, जो झूठ बोलता है, नफऱत फैलाता है और आक्रामक बहुसंख्यकवाद का पोषण करता है। इस लोकप्रिय अविचार से लडऩे वाले जो विचार थे वे सांगठनिक तौर पर भी कमज़ोर हैं और सांस्कृतिक तौर पर भी हिंदी से दूर।
10 कुल मिलाकर हिंदी का लेखक अपने समाज का बेचेहरा प्राणी है जिसे कोई पहचानता नहीं। इस विज्ञापनबाज़ दुनिया में वह किसी तरह अपनी किताब छपवा कर कुछ संकोच के साथ घूमता रहता है कि किसे बताए कि उसने क्या लिखा है।