विचार / लेख
-सुदीप्ति
प्रज्वल रेवन्ना के नाम पर मेन स्ट्रीम मीडिया में सन्नाटा है। अभी तक आपको पता चल ही गया होगा कि यह कोई सामान्य सी बात नहीं है। जेडीएस का एम पी, देश के पूर्व प्रधानमंत्री का पोता और वर्तमान सत्ताधारी पार्टी से जुड़ा नेता जो हज़ारों महिलाओं का न सिर्फ शोषण करता है बल्कि उस शोषण और हिंसा से भरे वीडियो का कारोबार चलाता है। चुनाव के दिनों में ऐसी बातों पर भूचाल आ जाना चाहिए पर सन्नाटा सा ही पसरा है।
इस मुद्दे पर किसी ने एक बात कहीं जो इस प्रकार थी-‘इस केस की एक पीडि़ता जेडीएस की महिला नेता के पास शिकायत लेकर जाती है, वह नेता रोने लगती है और कहती है कि मैं भी पीडि़त हूँ। वे दोनों साथ में पुलिस स्टेशन जाते हैं, महिला पुलिसकर्मी रोने लगती है और कहती है कि वह भी पीडि़त है। वे सब एक टीवी न्यूज़ चैनल पर जाते हैं। एंकर रोने लगती है और कहती है कि वह भी पीडि़त है।’
मुझे लगा कौन असंवेदनशील है जो ऐसे मुद्दे पर जोक बना रहा है। पर नहीं! यह हुआ है। घटिया मज़ाक जैसी यह बात वास्तविकता है। बेटी बचाओ के दौर में यह कमज़ोर के साथ एमपावर्ड स्त्रियों के साथ घटित घटनाएं हैं।
इस वक्त जो भी कहे कि सभी राजनीतिक दलों में ऐसे लोग होते हैं और राजनीति ही कीचड़ है। उसकी बातों में मत आइए। यह राजनीति नहीं अपराध है। अपराध और राजनीति की सांठगांठ खूब है पर ऐसा हो जाने पर सीनाजोरी के साथ उसे ढांकना अब होने लगा है।
उन स्त्रियों की सोचिए जिन सबकी पहचान पूरे राज्य में उजागर हो चुकी है। कई लोग लिख रहे हैं कि उन वीडिओज़ में भयानक हिंसा है। ऐसा कि जानकारी या खबर के लिए भी देखा नहीं जाता है। आई ए एस अफसर से लेकर कारपोरेट दुनिया की महिलाएं हैं। क्या देश की आम महिलाएं इतनी कमजोर हो चुकी हैं। लडऩे से पहले हिम्मत हार चुकी हैं
उन औरतों की सोचिए जिनको एक्सप्लोइट भी किया गया और पहचान सामने आने के बाद भी उन्हें प्रताडऩा झेलनी पड़ेगी।
इस मुद्दे पर सबसे अधिक त्रासद स्त्रियों का शोषण नहीं है, शोषण के बाद की चुप्पी है। हाल में कितनी प्रोपेगैंडा फिल्में बनी हैं जो धार्मिक आधार पर लड़कियों/स्त्रियों का शोषण दिखा रही हैं और लोग उनपर हत्थे से उखड़ रहे हैं। शोषण की फिल्मी कहानी पर भी उबलने वाला समाज असली शोषण पर इतना मूक कैसे है? इसमें धर्म का एंगल नहीं है इसीलिए? स्त्री कभी चुनावी ताकत या मुद्दा नहीं रही है। वे वोट का अधिकार रखते हुए भी बराबर की नागरिक बनती नहीं हैं इसीलिए चुनाव के समय भी उनके शोषण के मुद्दे को यूँ दबाया जा सकता है।
यूँ तो खीझ, आक्रोश, दुख और निराशा में जाने कितनी बातें दिमाग में घुमड़ रही है। पर फिलहाल इसी पर सोचिए कि बहू-बेटी-मां आदि की इज्ज़त की दुहाई देते समाज में ऐसी घटनाएं खून खौलाने वाली, सजा दिलवाने को कटिबद्ध समुदाय की न्यायप्रियता से भरी क्यों नहीं होती?