विचार / लेख

वोट सिर्फ अधिकार नहीं बल्कि नागरिक कर्तव्य भी है
30-Apr-2024 2:05 PM
वोट सिर्फ अधिकार नहीं बल्कि नागरिक कर्तव्य भी है

 डॉ. संजय शुक्ला

सामाजिक आलोचक जॉर्ज कार्लिन ने एक बात बड़े पते की कही है कि ‘यदि आप मतदान नहीं करते तो आप सरकार से शिकायत करने का हक खो देते हैं।’ यह बात भारत जैसे विशाल मतदाताओं वाले देश के लिए सटीक बैठती है। इन दिनों देश में आम चुनाव की राजनीतिक सरगर्मियां तेज है और अमूमन सभी दलों ने अपनी पूरी ताकत इस रण पर फतह हासिल करने के लिए झोंक दी है। दूसरी ओर चुनाव आयोग से लेकर जिला प्रशासन सहित अनेक सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं अधिकाधिक मतदान के लिए  जागरूकता अभियान चला रही है। बिलाशक चुनाव आयोग से लेकर देश की पूरी सरकारी मशीनरी के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना एक बहुत बड़ी चुनौती है लेकिन इस बीच मतदाताओं को मतदान के प्रति प्रेरित करना और उन्हें पोलिंग बूथ तक लाना यह जवाबदेही भी वह निभा रहा है।

चुनाव को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है जिसमें मतदाता अपने वोट के जरिए उम्मीदवार के भाग्य का फैसला करने का साथ ही देश का नीति नियंता भी चुनता है। एक लिहाज से कहें तो भारतीय लोकतंत्र में आम जनता के लिए मतदान ही एकमात्र ऐसा अधिकार है जिसके द्वारा वह किसी के हाथों सत्ता सौंपने या सत्ता छीनने की ताकत रखता है। एकबारगी हम देखें तो चुनावों के बाद देश की सरकारें आम जनता को हाशिए पर ही धकेल देती और उसे अगले चुनाव में ही केंद्रीय भूमिका मिलती है। इन तथ्यों के मद्देनजर मतदाताओं की जवाबदेही है कि वे अपने वोट की ताकत पहचानें और निष्पक्ष मतदान के लिए प्रतिबद्ध हों। दूसरी ओर पचहत्तर साल पुराने लोकतंत्र में  शांतिपूर्ण स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान अभी भी सबसे बड़ी चुनौती है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधायिका ही आधार स्तंभ है जिसकी बुनियाद चुनाव है। इस व्यवस्था में कोई भी बदलाव केवल और केवल मतदान के जरिए ही संभव है लिहाजा मतदाता ही लोकतंत्र की धुरी हैं। लोकतंत्र की मजबूती तब संभव है जब मतदाता अपने मताधिकार का अनिवार्य तौर पर उपयोग करें। चुनाव आयोग द्वारा अधिकाधिक मतदान के लिए विभिन्न स्तरों पर मतदाता जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है।चुनाव आयोग के मुताबिक इस चुनाव के लिए 97 करोड़ मतदाताओं का पंजीकरण किया गया है अब देखना यह होगा कि इनमें कितने फीसदी मतदाता अपने सर्वोच्च संवैधानिक अधिकार का उपयोग करते हैं? चुनाव आयोग द्वारा शत्-प्रतिशत मतदान के लक्ष्य को हासिल करने के उद्देश्य से बुजुर्ग, दिव्यांग और महिला मतदाताओं के लिए हरसंभव सुविधाएं मुहैया कराई है। दूसरी ओर जिला प्रशासन के पहल पर रायपुर सहित अनेक शहरों में विभिन्न व्यापारिक प्रतिष्ठानों और अस्पतालों द्वारा मतदाताओं को अंगुली पर लगे अमिट स्याही का निशान दिखाने पर 15 से 50 फीसदी तक छूट देने की घोषणा की गई है।अलबत्ता अधिकाधिक मतदान के लिए तमाम सहूलियत देने के बावजूद क्या देश के मतदाता अपनी जवाबदेही का निर्वहन करेंगे?अहम सवाल यह भी कि आखिरकार मतदाताओं में मतदान के प्रति स्वप्रेरणा और कर्तव्य बोध क्यों जागृत नहीं हो पा रहा है? देश के संविधान में मतदान सबसे प्रमुख अधिकार है लेकिन हम अपने इस अधिकार के कर्तव्य के प्रति कितना जवाबदेह और सजग हैं? यह आज भी गंभीर चिंतन का विषय है।

गौरतलब है कि देश में 1952 से लगातार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं परंतु जैसे-जैसे हमारा लोकतंत्र बुजुर्ग हो रहा है वैसे-वैसे मतदाताओं में चुनाव के प्रति बेरुखी बढ़ती जा रही है। चुनाव आयोग के तमाम जतन के बावजूद आज भी औसत मतदान 50 से 65 फीसदी तक ही सीमित है जबकि देश में साक्षरता का प्रतिशत काफी बढ़ चुका है। मतदान के प्रति उदासीनता का ही परिणाम है कि चुनावी राजनीति में धनबल, बाहुबल, धर्म , जाति, भाषा, परिवारवाद और क्षेत्रवाद हावी होने लगा है जिसके लिए निश्चित तौर पर मतदाता भी जवाबदेह हैं। राजनीतिक दल चुनाव में वोट हासिल करने के लिए धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र या मुफ्त योजनाओं का ‘ट्रंपकार्ड’ इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके झांसे में मतदाता बड़ी आसानी से आ जाते हैं। मतदाताओं के प्रलोभन और स्वार्थ प्रेरित मतदान का नतीजा यह हो रहा है कि चुनाव के बाद आम आदमी से जुड़े शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी जैसे मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं।

विचारणीय है कि देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए 1962 से ही आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू है बावजूद चुनावों में नफरती भाषणों, वोट के लिए प्रलोभन और धनबल की कुरीति लगातार जारी है। चुनाव आचार संहिता के तहत वोट के लिए मतदाताओं को प्रलोभन देना, रिश्वत देना,जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र के नाम पर वोट मांगना गैर कानूनी है लेकिन यह व्यवस्था अभी भी सिर्फ  कागजी ही साबित हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के तमाम कोशिशों के बावजूद सियासी दलों द्वारा मुफ्त चुनावी रेवडिय़ां बांटने की होड़ मची हुई है जिसका खामियाजा चुनाव के बाद आम जनता को ही चुकाना पड़ रहा है। चुनाव जीतने के लिए किए जाने वाले मुफ्त घोषणाओं का सीधा असर सरकारी खजाने पर पड़ता है फलस्वरूप रोजगार और विकास योजनाएं ठंडे बस्ते में चली जाती है। अलबत्ता कई बार चुनाव के दौरान मतदाताओं से किए गए मुफ्त के वादे बाद में छलावा भी साबित हुए हैं। सरकारों को मुफ्त और रियायती  योजनाओं को लागू करने के लिए कर्ज भी लेना पड़ता है फलस्वरूप महंगाई और टैक्स में बढ़ोतरी होती है जिसका बोझ आम मध्यमवर्गीय परिवारों पर ही पड़ता है। मतलब साफ है कि वोट के लिए मुफ्त बांटे जाने वाली सुविधाओं की कीमत बाद में मतदाता के जेब से ही वसूला जाता है। मतदाताओं को यह भी समझना होगा कि उनका वोट अनमोल है और इसका सौदा मुफ्त के स्कूटी, कंबल, साड़ी, कूकर, पंखा, सिलाई मशीन,सायकल, शराब या चंद रूपयों के एवज में नहीं किया जा सकता। बहरहाल मतदाताओं को ऐसे मुफ्त योजनाओं के बारे में चिंतन अवश्य करना चाहिए क्योंकि आज जो मुफ्त की रेवड़ी उन्हें  मीठी लग रही है वह भविष्य में उनकी पीढ़ी के लिए नुकसानदायक भी साबित हो सकता है।

विचारणीय है कि किसी देश के लोकतंत्र और उनके नुमाइंदों को देखकर वहां के मतदाताओं के जिम्मेदारी की परख हो जाती है लिहाजा मतदाताओं को प्रत्याशी को धर्म, जाति या क्षेत्र के आधार पर नहीं बल्कि उसकी योग्यता और पृष्ठभूमि को देख कर वोट करना चाहिए। अलबत्ता आज आम भारतीय सोशल मीडिया से लेकर आम चर्चा में देश के राजनीतिक व्यवस्था और राजनेताओं पर खूब टीका टिप्पणियां करते हैं लेकिन वे स्वयं इस व्यवस्था को सुधारने की दिशा कितना जागरूक और जिम्मेदार हैं? इस सवाल पर चुप्पी ओढ़ लेते हैं। पचहत्तर साल पुराने लोकतंत्र में यदि हमारे राजनेता वैचारिक तौर पर परिपक्व नहीं हुए हैं तो इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि देश का आम मतदाता भी अपने वोट के प्रति गंभीर और जागरूक नहीं है। मतदान के प्रति उदासीनता का ही  परिणाम है कि चुनाव में 35 से 40 फीसदी मतदाता अभी भी वोट नहीं डाल रहे हैं।

यह हकीकत उस देश की है जहां कि जनता मुफ्त की चीजें हासिल करने के लिए अल सुबह दफ्तरों का लाइन लगा लेती है लेकिन मतदान के प्रति उनमें ऐसी जिजिविषा या उत्साह नहीं परिलक्षित होती। आंकड़ों पर गौर करें तो शहरों की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों में मतदान हमेशा ज्यादा होता है। शहरी मतदाता जो अपने आपको सुशिक्षित और अभिजात्य समझते हैं वे मतदान के दिन को ‘इलेक्शन हॉलीडे’ मानकर सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं। शहरी तबके का एक हिस्सा जिसमें युवा और महिलाएं शामिल हैं वे कतार में वोट डालने को अपना तौहीन समझते हैं। शहरी वर्ग की ऐसी मानसिकता लोकतंत्र के प्रति उनकी नागरिक कर्तव्यों की अवहेलना प्रदर्शित करती है लिहाजा इस जवाबदेही के प्रति जागरूकता आवश्यक है।

दूसरी ओर ग्रामीण इलाकों में मजदूर, किसान और महिलाएं सबसे पहले अपना वोट डालकर काम पर निकलते हैं। छत्तीसगढ़ के नक्सलगढ़ समझे जाने वाले बस्तर के वोटिंग प्रतिशत पर गौर करें तो एक दौर वह भी था जब इस इलाके में चुनाव प्रचार और मतदान के दौरान गोलियों की तड़तड़ाहट व बमों के धमाके सुनाई पड़ती थी लेकिन अब यहां मतदान केंद्रों में ईवीएम की बीप सुनाई पड़ती है। राज्य के नक्सल प्रभावित इलाके के युवाओं, महिलाओं और बुजुर्गो ने इस चुनाव में भी नक्सलियों के मतदान बहिष्कार की धमकी को धता बताकर सुबह से ही मतदान के लिए कतार पर खड़ा हो गए यह लोकतंत्र के लिए सुखद संदेश है। कुछ मतदाताओं की यह भी मानसिकता होती है कि मेरे एक वोट नहीं डालने से क्या फर्क पड़ेगा?देश और प्रदेश के चुनावी इतिहास पर गौर करें तो कुछ प्रत्याशियों के जीत-हार का फासला महज दहाई अंकों का रहा है। दूसरी ओर कुछ वोटर्स की यह भी दलील होती है कि चुनाव में कोई भी प्रत्याशी उनके अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं थे इसलिए उन्होंने वोट नहीं किया। ऐसे मतदाताओं को यह ज्ञात होना चाहिए कि ईवीएम में ‘नोटा’ यानि कोई भी प्रत्याशी उपयुक्त नहीं का भी विकल्प होता है लिहाजा इस पर भी बटन दबाया जा सकता है।

चुनाव के दौरान कुछ स्थानों पर मतदाताओं द्वारा अपने कतिपय मांगों को लेकर ‘मतदान बहिष्कार’ की खबरें सुनाई पड़ती है जो उचित नहीं है। नागरिकों को समझना चाहिए कि लोकतंत्र में असहमति और विरोध का भी स्थान है लेकिन मतदान बहिष्कार इसका जरिया नहीं बन सकता। दूसरी ओर सच्चाई यह भी है कि ऐसे मतदाता जो मतदान नहीं करते अथवा स्वार्थ प्रेरित वोट करते हैं वे बाद में सरकार और व्यवस्था की आलोचना में आगे रहते हैं जो अनुचित है । उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में हर मतदाता का वोट अनिवार्य और महत्वपूर्ण है ताकि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में ‘प्रजा’ की भूमिका सुनिश्चित हो। गौरतलब है कि देश में मतदान को अनिवार्य करने के लिए साल  2015 में लोकसभा में एक सांसद ने अनिवार्य मतदान कानून लागू करने संबंधी निजी विधेयक प्रस्तुत किया था जिसे 2022 में सरकार की असहमति के बाद उन्होंने वापस ले लिया था। दूसरी ओर 2015 में विधि आयोग ने भी अनिवार्य मतदान कानून का विरोध करते हुए इसे अव्यवहारिक बताया था। गौरतलब है कि दुनिया के 33 देशों में अनिवार्य मतदान कानून लागू हैं जिसके तहत चुनावों में वोट नहीं करने वाले नागरिकों के खिलाफ जुर्माने से लेकर अन्य दंड का प्रावधान है। अलबत्ता मतदान के लिए कानून की नहीं बल्कि नागरिक जवाबदेही की जरूरत है जो लोकतंत्र के प्रति जिम्मेदारी सुनिश्चित करता है। प्रत्येक नागरिक को मतदान को अनिवार्य कर्त्तव्य मानना होगा तभी चुनावों की सार्थकता है।

उल्लेखनीय है कि भारत युवा आबादी के लिहाज से दुनिया का सबसे युवा देश हैं जहां की 65 फीसदी जनसंख्या युवाओं की है। इतिहास गवाह है कि दुनिया में जितने भी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव हुए हैं उसे युवाओं ने ही अंजाम दिया है। देश में 18 साल में मताधिकार प्राप्त है इस लिहाज से भारत में युवा मतदाताओं की निर्णायक आबादी है जो देश की राजनीति को नयी दशा और दिशा देने की ताकत रखते हैं। इस चुनाव में 30 करोड़ युवा मतदाता वोट डालेंगे यह आंकड़ा अमेरिका की कुल आबादी से ज्यादा है। बीते 75 सालों में युवा मतदाताओं की संख्या में पांच गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है लेकिन युवावर्ग भी मतदान के प्रति जागरूक और गंभीर नहीं है। राजनीतिक पार्टियां चुनावी नतीजों को प्रभावित करने वाले इस ‘वोट बैंक’ को अपने पाले में लाने के लिए  तमाम तरह की रणनीति अपना रहे हैं जिसमें धर्म और जाति की सियासत भी शामिल है। इसमें दो राय नहीं है कि युवाओं की बड़ी जनसंख्या धार्मिक और जातिवादी राजनीति के खिलाफ हैं और वे चुनाव सुधारों के पक्षधर भी हैं लेकिन उन्हें इस असहमति को वोट के जरिए प्रदर्शित करना चाहिए। अलबत्ता अ_ारह साल पूरे कर चुके युवाओं में अपने पहले मतदान के प्रति उदासीन होना देश के भविष्य के लिए उचित नहीं है। इस तथ्य की पुष्टि चुनाव आयोग के उस आंकड़े से होती है जिसके मुताबिक देश में 18 साल पूरे कर चुके केवल 38 फीसदी मतदाताओं ने ही पंजीकरण कराया है मतलब अभी भी 62 फीसदी युवाओं में अपने पहले मतदान के प्रति उत्सुकता नहीं

युवाओं को यह बात अपने जेहन में रखना होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदान ही ऐसा साधन है जिसके जरिए लोगों को अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, पारदर्शी प्रशासन और बेहतर रोजगार मुहैया कराया जा सकता है। युवाओं को इस बदलाव के लिए शत-प्रतिशत निष्पक्ष और स्वतंत्र मतदान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सुनिश्चित करनी होगी। युवाओं की यह भी जवाबदेही है कि वे मतदान को केवल रस्म अदायगी न समझें बल्कि इसके प्रति अपने परिवार और समाज को भी जागरूक करें। मतदान लोकतंत्र का अनुष्ठान है इसलिए हर नागरिक का कर्तव्य है कि वे अपने साथ बुजुर्गों और दिव्यांगों का भी मतदान कराने का बीड़ा उठाएं ताकि वे भी लोकतंत्र के महापर्व का हिस्सा बन सकें।

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