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भारत की अर्थव्यवस्था के अच्छे, बुरे और सबसे खराब पहलू
02-May-2024 1:36 PM
भारत की अर्थव्यवस्था के अच्छे, बुरे और सबसे खराब पहलू

 -निखिल ईनामदार

इस साल जनवरी में भयंकर ठंड के बावजूद हजारों लोग दिल्ली के लाल कि़ले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक कार्यक्रम में सुनने के लिए इक_ा हुए थे।

प्रधानमंत्री मोदी ने इस कार्यक्रम में ‘विकसित भारत 2047’ का संदेश देते हुए देश को 2047 तक विकसित बनाने का वादा किया था।

लुभावने जुमले गढऩे के उस्ताद कहे जाने वाले मोदी का ये सबसे ताजा सूत्रवाक्य है।

वैसे तो ‘विकसित भारत’ एक अनिश्चित संकल्प है। लेकिन, एक दशक पहले सत्ता में आने वाले नरेंद्र मोदी, पिछले दस वर्षों से तेज आर्थिक विकास की बुनियाद रखने की बातें कई बार कह चुके हैं।

प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को विरासत में एक ऐसी अर्थव्यवस्था मिली थी, जो डगमगा रही थी। विकास की रफ्तार सुस्त पड़ रही थी और निवेशकों का भरोसा कमजोर दिख रहा था। भारत के लगभग दर्जन भर अरबपति दिवालिया हो चुके थे और इस वजह से देश के बैंकों में अरबों के ऐसे कर्ज दर्ज थे, जो अदा नहीं किए गए थे। नहीं चुकाए गए इन कर्जों की वजह से बैंकों के पास कारोबारियों को और कर्ज दे पाने की क्षमता बेहद कम हो गई थी।

अब, दस साल बाद भारत की विकास दर दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से कहीं ज़्यादा तेज़ है।

भारत के बैंक मजबूत स्थिति में हैं और बेहद तकलीफदेह महामारी का सामना करने के बावजूद भारत सरकार का खजाना स्थिर है।

पिछले साल ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया था।

मॉर्गन स्टैनले के विश्लेषकों के मुताबिक- 2027 तक भारत, जापान और जर्मनी को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर बढ़ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि देश में उम्मीद की एक लहर दिखती है।

भारत ने जी20 शिखर सम्मेलन की कामयाब मेजबानी की। वो चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने वाला दुनिया का पहला देश बन गया और पिछले एक दशक में भारत में दर्जनों यूनिकॉर्न (1 अरब डॉलर से ज़्यादा मूल्य वाली कंपनी) उभरी हैं। हर दिन नई ऊंचाई छू रहे शेयर बाजार की वजह से भारत के मध्यम वर्ग को भी समृद्धि का कुछ हिस्सा हासिल हुआ है।

ऊपरी तौर पर देखें तो ‘मोदीनॉमिक्स’ यानी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का आर्थिक नजरिया कारगर होता दिखाई दे रहा है। लेकिन, जब आप गहराई से पड़ताल करते हैं तो तस्वीर ज़्यादा पेचीदा नजर आती है।

1।4 अरब आबादी वाले विशाल भारत देश में ऐसे करोड़ों लोग हैं, जिन्हें आज भी दो वक़्त की रोटी जुटाने के लिए ख़ासी मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसे तबके के लिए तरक्की का सुनहरा दौर आना अभी बाकी है।

तो मोदी की आर्थिक नीति से किसको फायदा हुआ है और किसे नुकसान?

डिजिटल क्रांति

नरेंद्र मोदी के डिजिटल प्रशासन पर जोर देने की वजह से भारत के सबसे गरीब तबके के लोगों की जिंदगी में बदलाव आते दिख रहे हैं।

आज भारत के दूर-दराज के किसी कोने में रहने वाले लोग भी रोजमर्रा के बहुत से सामान बिना नकदी के खरीद सकते हैं।

आज देश में बहुत से लोग एक पैकेट ब्रेड या बिस्किट खरीदने के लिए क्यूआर कोड स्कैन करके 10-20 रुपये जैसी मामूली रकम का भुगतान कर सकते हैं।

इस डिजिटल क्रांति की बुनियाद में तीन स्तरों वाले प्रशासन की एक व्यवस्था है। इसमें देश के हर नागरिक के लिए पहचान पत्र, डिजिटल भुगतान और डेटा का एक ऐसा स्तंभ है, जो लोगों को टैक्स रिटर्न जैसी अहम निजी जानकारी चुटकियों में मुहैया करा देता है।

करोड़ों लोगों के बैंक खातों को इस ‘डिजिटल तंत्र’ से जोडऩे की वजह से लालफीता शाही और भ्रष्टाचार को काफ़ी कम किया जा सका है।

डिजिटल प्रशासन की इस व्यवस्था की वजह से आंकलनों के मुताबिक, मार्च 2021 तक भारत की जीडीपी के 1.1 प्रतिशत के बराबर रकम बचाई जा सकी थी। इसके ज़रिए सरकार लोगों को कई तरह की सामाजिक सब्सिडी और आर्थिक सहायता को सीधे उनके खाते में डाल पाती है। इसके अलावा, सरकार को बहुत ज़्यादा वित्तीय घाटा उठाए बगैर मूलभूत ढांचे के निर्माण के मद में ख़र्च करने में भी मदद मिलती है।

हर जगह नजर आती है क्रेन

भारत में आप कहीं पर भी चले जाएं, हर जगह आपको क्रेन और जेसीबी मशीनें चलती दिखाई दे जाएंगी।

ये सब मिलकर भारत के बेहद खराब मूलभूत ढांचे की नई और चमकदार छवि गढ़ रहे हैं।

मिसाल के तौर पर आप भारत के कोलकाता शहर में पानी के भीतर बनी पहली मेट्रो लाइन को ही देख सकते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि भारत की तस्वीर बदल रही है।

नई सडक़ों, हवाई अड्डों, बंदरगाहों और मेट्रो लाइनों का निर्माण नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीति की धुरी रहा है। पिछले तीन साल से उनकी सरकार हर साल 100 अरब डॉलर की रक़म मूलभूत ढांचे के विकास में ख़र्च (पूंजीगत व्यय) कर रही है।

2014 से 2024 के बीच भारत में लगभग 54 हज़ार किलोमीटर (33,553 मील) लंबे नेशनल हाइवे बनाए गए हैं। जो इससे पहले के दस वर्षों के दौरान बने राष्ट्रीय राजमार्गों से दोगुना हैं।

मोदी सरकार ने अफसरशाही के कामकाज का भी रवैया बदला है। जबकि इससे पहले दशकों तक नौकरशाही को भारत की अर्थव्यवस्था का सबसे डरावना पहलू कहा जाता था। लेकिन, मोदी सबकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके हैं।

महामारी के दौरान निर्मम लॉकडाउन लगाए गए। 2016 में की गई नोटबंदी का असर अब तक अर्थव्यवस्था पर भारी है।

लंबे समय से लटका हुआ अप्रत्यक्ष कर की व्यवस्था का सुधार यानी गुड्स ऐंड सर्विसेज़ टैक्स लागू तो हुआ, मगर इसे लागू करने में कई खामियां रह गईं। इन सबकी वजह से भारत की अर्थव्यवस्था की बनावट पर दूरगामी असर पड़ा है।

भारत का विशाल असंगठित क्षेत्र- छोटे छोटे कारोबारी, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे हैं, वो अब भी इन फ़ैसलों के असर से उबर नहीं सके हैं। वहीं, निजी क्षेत्र बहुत बड़े बड़े निवेश करने से गुरेज कर रहा है।

जीडीपी के अनुपात में देखें तो 2020-21 में निजी निवेश महज़ 19.6 प्रतिशत था। जबकि 2007-08 में जीडीपी के 27.5 फीसद के साथ निजी निवेश अपने शिखर पर रहा था।

रोजगार की चुनौती

इसी साल जनवरी में हजारों नौजवान, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के भर्ती केंद्रों पर जमा हुए थे। वो सब इसराइल के कंस्ट्रक्शन उद्योग में काम पाने की उम्मीद में जुटे थे। बीबीसी संवाददाता अर्चना शुक्ला ने वहां पर कई लोगों से बात की थी।

इन कामगारों की मायूसी से जाहिर होता है कि भारत में रोजग़ार का संकट असल में कितना गहरा है। ये संकट हर जगह उम्मीदों का गला घोंट रहा है।

23 बरस की रुकैया बेपारी कहती हैं, ‘अपने परिवार की मैं पहली सदस्य हूं जिसने पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की है। मगर, जहां मैं रहती हूं, वहां कोई काम-धंधा नहीं है तो मैं अब ट्यूशन पढ़ाकर गुजर करती हूं। इसमें बहुत ज्यादा पैसे नहीं मिलते।’

पिछले दो साल से रुकैया और उनके भाई के पास कोई स्थायी रोजगार नहीं है। देश में वो अकेले नहीं हैं।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक़, साल 2000 में जहां देश के बेरोजगारों में पढ़े लिखे नौजवानों की तादाद 54.2 प्रतिशत थी, वो 2022 में बढक़र 65.7 फ़ीसद पहुंच चुकी है।

जाने-माने अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के जुटाए आंकड़ों के मुताबिक, 2014 के बाद से भारत में वास्तविक मजदूरी/तनख्वाह में भी कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं देखी गई है।

हाल ही में फाइनेंशियल टाइम्स को दिए गए एक इंटरव्यू में विश्व बैंक के एक अर्थशास्त्री ने कहा था कि भारत के सामने ‘अपनी आबादी की बढ़त (डेमोग्राफिक डिविडेंड) को गंवा देने का ख़तरा’ मंडरा रहा है।

रोजग़ार सृजन एक पहेली रही है, जिसे सुलझा पाने में नरेंद्र मोदी नाकाम रहे हैं।

भारत बन पाया दुनिया का कारखाना?

2014 में अपनी जीत के ठीक बाद प्रधानमंत्री मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ के नाम से एक महत्वाकांक्षी अभियान की शुरुआत की थी।

इस अभियान का मकसद भारत को दुनिया के कारखाने में तब्दील करना था।

2020 में उनकी सरकार ने सेमीकंडक्टर बनाने वाली कंपनियों से लेकर मोबाइल इलेक्ट्रॉनिक्स बनाने वाली कंपनियों तक को 25 अरब डॉलर से सहयोग दिया था ताकि देश की निर्माण क्षमता को बढ़ावा दिया जा सके।

फिर भी कामयाबी हाथ नहीं आई।

हां, एप्पल के लिए आईफोन बनाने वाली फॉक्सकॉन जैसी कुछ कंपनियां ‘चीन प्लन वन’ की अपनी वैश्विक नीति के तहत विविधता लाने के लिए भारत आ रही हैं।

माइक्रॉन और सैमसंग जैसी दूसरी बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियां भी भारत में निवेश करने को लेकर उत्साहित हैं। लेकिन, अभी निवेश के ये आंकड़े बहुत बड़े नहीं हैं। इन तमाम कोशिशों के बावजूद, पिछले एक दशक के दौरान जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी जस की तस बनी हुई है।

निर्यात में बढ़ोतरी

निर्यात में बढ़ोत्तरी भी मोदी से पहले के प्रधानमंत्रियों के राज में बेहतर रही थी।

ग्रेट लेक्स इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर विद्या महामबरे कहते हैं, ‘अगर भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की विकास दर 2050 तक भी सालाना 8 प्रतिशत रहती है और चीन 2022 के स्तर पर ही अटका रहता है, तो भी 2050 में भारत का निर्माण क्षेत्र चीन के 2022 के स्तर के बराबर नहीं पहुंच सकेगा।’

बड़े स्तर के उद्योगों की कमी की वजह से भारत की आधी आबादी अभी भी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए खेती-बाड़ी के भरोसे है, जो दिन-ब-दिन घाटे का काम बनती जा रही है। इसका सीधा नतीजा क्या हुआ है? भारत में लोगों के घरेलू बजट सिमट रहे हैं।

भारत में कुल निजी खपत के व्यय की विकास दर तीन प्रतिशत ही रही है, जो पिछले बीस सालों में सबसे कम है। ये वो रक़म है जो लोग सामान खऱीदने में ख़र्च करते हैं।

वहीं, परिवारों पर कज़ऱ् का बोझ अपने रिकॉर्ड स्तर पर जा पहुंचा है। इसके उलट, एक नई रिसर्च के मुताबिक़ भारत में परिवारों की वित्तीय बचत अपने सबसे निचले स्तर तक गिर गई है।

बहुत से अर्थशास्त्रियों का कहना है कि महामारी के बाद भारत के आर्थिक विकास का मिज़ाज असमान या ‘्य’ के आकार का रहा है। जिसमें अमीर लोग तो दिनों-दिन और अमीर होते जा रहे हैं। वहीं, गरीब लोग रोजमर्रा की जद्दोजहद के शिकार हैं। भले ही जीडीपी के मामले में भारत, दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। लेकिन, प्रति व्यक्ति के नज़रिए से देखें, तो भारत अब भी 140वीं पायदान पर है।

असमानता

वल्र्ड इनइक्वालिटी डेटाबेस के ताजा रिसर्च के मुताबिक, भारत में असमानता अपने 100 साल के शिखर पर पहुंच चुकी है।

ऐसे में इस बात पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि हाल के दिनों में चुनाव अभियान की परिचर्चाओं में संपत्ति के वितरण और विरासत के टैक्स के इर्द गिर्द घूमती नजऱ आई है।

हाल ही में भारत के अरबपति कारोबारी मुकेश अंबानी के बेटे की शादी से पहले के तीन दिनों के समारोह के दौरान भारत के इस ‘सुनहरे दौर’ की झलक दिखाई दी थी। इस आयोजन में मार्क जुकरबर्ग, बिल गेट्स और इवांका ट्रंप शामिल हुए थे।

रिहाना ने बॉलीवुड के बड़े-बड़े सितारों के साथ ठुमके लगाए थे।

गोल्डमैन सैक्स में भारत के कंज्यूमर ब्रैंड पर रिसर्च करने वाले अर्नब मित्रा बताते हैं कि आज भारत में लग्जऱी ब्रैंड की कारें, घडिय़ां और महंगी शराब के निर्माताओं का कारोबार, भारत की आम जनता की ज़रूरत की चीज़ें बनाने वाली कंपनियों की तुलना में कहीं ज़्यादा तेज़ी से बढ़ रहा है।

स्टर्न की न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर विरल आचार्य कहते हैं कि कुछ मु_ी भर विशाल कारोबारी घराने, ‘हजारों छोटी छोटी कंपनियों की कीमत पर’ आगे बढ़े हैं।

विरल आचार्य कहते हैं कि देश के बेहद अमीर लोगों को टैक्स में भारी कटौती और ‘राष्ट्रीय चैंपियन’ तैयार करने की सोची समझी नीति का फायदा मिला है। इस नीति के तहत बंदरगाहों और हवाई अड्डों जैसी बेशकीमती सार्वजनिक संपत्तियों को बनाने या चलाने के लिए कुछ पसंदीदा गिनी चुनी कंपनियों के हवाले कर दिया गया है।

इलेक्टोरल बॉन्ड के आंकड़ों के सार्वजनिकहोने के बाद ये पता चला है कि इनमें से कई कंपनियां सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को चंदा देने में सबसे आगे रही हैं।

क्या ये सच में भारत का दशक है?

कुल मिलाकर ये सब बातें भारत की अर्थव्यवस्था की बेमेल तस्वीर पेश करती हैं। लेकिन, जानकार कहते हैं कि अपनी कई समस्याओं के बावजूद भारत आज तरक्की की उड़ान भरने के लिए तैयार खड़ा है।

मॉर्गन स्टैनले के विश्लेषकों ने एक बहुचर्चित पेपर में लिखा था, ‘भारत का अगला दशक 2007 से 2012 के चीन जैसा (बेहद तेज आर्थिक विकास वाला) हो सकता है।’

इन विश्लेषकों का कहना है कि भारत को कई मामलों में बढ़त हासिल है। भारत के पास युवा आबादी है। उसे चीन से जोखिम कम करने की भू-राजनीति और वहां के रियल एस्टेट सेक्टर में चल रहे सफाई अभियान का फायदा मिल सकता है। इसके अलावा, जानकार कहते हैं कि डिजिटलीकरण, स्वच्छ ईंधन की तरफ तेजी से बढ़ते कदम और दुनिया भर में कारोबार की ऑफशोरिंग जैसे अन्य पहलू भी भारत के आर्थिक विकास को रफ्तार दे सकते हैं।

मूलभूत ढांचे के विकास पर जोर भी एक ऐसा पहलू है, जिसके दूरगामी फायदे होते हैं। क्राइसिल के भारत के अर्थशास्त्री डीके जोशी कहते हैं कि सडक़ों, बिजली की आपूर्ति और बंदरगाहों में जहाजों पर सामान लादने उतारने के वक्त में सुधार करके भारत आखिरकार ‘एक ऐसा माहौल तैयार कर रहा है, जहां मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर फल-फूल सकता है।’ लेकिन, भारत के रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन कहते हैं कि इस ‘भौतिक पूंजी’ पर जोर देने के साथ साथ नरेंद्र मोदी को ‘मानवीय पूंजी’ के निर्माण पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है।

आज भारत के बच्चे उतनी अच्छी पढ़ाई नहीं कर रहे हैं, जितनी उन्हें करनी चाहिए ताकि वो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दुनिया का सामना करने के लिए तैयार हो सकें।

प्रथम फाउंडेशन की प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 14 से 18 साल की उम्र वाले एक चौथाई बच्चे साधारण से लिखे हुए वाक्य भी बिना अटके पढ़ नहीं सकते हैं।

कोविड-19 की वजह से छात्रों की पढ़ाई को तगड़ा झटका लगा था, क्योंकि वो लगभग दो साल तक पढऩे के लिए स्कूल नहीं जा सके थे। लेकिन, सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश को नहीं बढ़ाया है।

ऐसा लगता है कि अपने पहले दशक में मोदी की अर्थनीति केवल गिने चुने लोगों के लिए ही फ़ायदेमंद साबित हुई है। वहीं, देश की ज़्यादातर आबादी के लिए ऐसा लगता है कि ख्वाब अभी भी अधूरे ही हैं।(bbc.com/hindi)

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