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बाबा साहेब आंबेडकर की वकालत की दुनिया में कितनी धाक थी?
16-Apr-2024 12:32 PM
बाबा साहेब आंबेडकर की वकालत की दुनिया में कितनी धाक थी?

-तुषार कुलकर्णी

किसी का पक्ष लेना और उसे ठीक से प्रस्तुत करना आम बोलचाल की भाषा में 'किसी की वकालत करना' कहलाता है. भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर एक जाने माने वकील भी थे. उन्होंने न केवल अपने मुवक्किलों के लिए वकालत की बल्कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लोकतांत्रिक मूल्यों की भी वकालत की. इसलिए, उनकी गिनती आज भी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वकीलों में होती है.

डॉ. आंबेडकर ने एक लक्ष्य को ध्यान में रखकर क़ानून की पढ़ाई की. उन्होंने जीवनभर उसी लक्ष्य के साथ काम किया.

उन्होंने वकालत का पेशा पेशेवर उत्कृष्टता या उन्नति के लिए नहीं बल्कि उस दौर में भारत के लगभग छह करोड़ अछूतों और दबे-कुचले दलितों को न्याय दिलाने के लिए चुना था.

14 अप्रैल की उनकी जन्मतिथि के मौके पर हम आपको बताते हैं कि वे वकील कैसे बने और उन्होंने अपने मुवक्किलों के लिए कौन से प्रमुख मामले में पैरवी की और उन मामलों का नतीजा क्या रहा.

बाबा साहेब की शिक्षा
1913 में बाबा साहेब बॉम्बे के एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय चले गए थे. इसके लिए उन्हें बड़ौदा के सयाजीराव गायकवाड़ महाराज ने आर्थिक मदद मिली थी.

यह आर्थिक मदद के बदले में उन्हें बड़ौदा के राजपरिवार के साथ एक अनुबंध करना पड़ा था कि अमेरिका में पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें बड़ौदा सरकार के अधीन नौकरी करनी थी.

साल 1913 में वे अमेरिका पहुंचे. अमेरिका में उनका परिचय दुनिया भर के विभिन्न विचारकों और उनकी विचारधाराओं से हुआ. उससे उनके सामने जीवन का लक्ष्य स्पष्ट हो गया था. अमेरिका में पढ़ाई के दौरान कई जगहों पर इस बात का ज़िक्र मिलता है कि वे 18-18 घंटे तक पढ़ाई किया करते थे.

इस अवधि के दौरान उन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान, एथिक्स और मानवविज्ञान का अध्ययन किया. 1915 में 'भारत का प्राचीन व्यापार' विषय पर थीसिस प्रस्तुत करने के बाद उन्होंने एमए की डिग्री हासिल की. 1916 में उन्होंने 'भारत का राष्ट्रीय लाभांश' थीसिस प्रस्तुत की.

डॉ. आंबेडकर जितना पढ़ रहे थे, उतना ही उनके पढ़ने और जानने की भूख बढ़ रही थी. उन्होंने बड़ौदा के महाराज सायाजीराव गायकवाड़ से आगे की पढ़ाई करने की अनुमति मांगी. उन्हें वह अनुमति मिल भी गई.

इसके बाद वो अर्थशास्त्र और क़ानून की उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए लंदन पहुंचे. उन्होंने अर्थशास्त्र में शिक्षा के लिए लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनामिक्स में दाख़िला लिया, जबकि क़ानून की पढ़ाई के लिए ग्रेज़ इन में नामांकन लिया.

1917 में, बड़ौदा सरकार की छात्रवृत्ति समाप्त हो गई और अफ़सोस के साथ उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी. इस बीच उनके परिवार को आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था. इस स्थिति को देखते हुए ही आंबेडकर ने भारत लौटने का फ़ैसला लिया था.

अनुबंध के मुताबिक उन्होंने बड़ौदा सरकार के लिए काम करना शुरू कर दिया. वहां उन्हें अन्य कर्मचारियों से अत्यधिक जातिगत भेदभाव सहना पड़ता था. यहां तक ​​कि बड़ौदा में रहने के लिए जगह ढूंढने में भी उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. फिर उन्होंने बंबई वापस लौटने का फ़ैसला किया.

बड़ौदा सरकार के साथ काम करने के अपने अनुभव के बारे में आंबेडकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ''मेरे पिता ने मुझे पहले ही कह दिया था कि इस जगह काम मत करना. शायद उन्हें इस बात का अंदाज़ा था कि वहां मेरे साथ कैसा व्यवहार होगा.''

दलितों के उत्थान के लिए काम
वर्ष 1917 के अंत में आंबेडकर बंबई पहुंचे. वहां उन्होंने सिडेनहैम कॉलेज में प्रोफ़ेसर पद के लिए आवेदन किया. कहने की ज़रूरत नहीं है कि वे वहां जल्दी ही लोकप्रिय प्रोफ़ेसर हो गए. वे हमेशा बड़ी तैयारी के साथ पढ़ाने के लिए जाते थे. उनकी तैयारी ऐसी होती थी कक्षा से बाहर के छात्र भी उनके लेक्चर सुनने के लिए आते थे.

1919 में उन्होंने अछूत समाज की मुश्किलों को साउथबरो कमीशन के सामने प्रस्तुत किया. इस मौके पर उनकी प्रतिभा की झलक सबको दिखी थी. 1920 में उन्होंने अछूतों की दुर्दशा को दुनिया के सामने लाने के उद्देश्य से 'मूकनायक' समाचार पत्र की शुरुआत की और आधिकारिक तौर पर एक तरह से अछूतों की वकालत शुरू की.

लेकिन चूंकि सिडेनहैम कॉलेज की नौकरी सरकारी थी, इसलिए उन पर कई तरह की पाबंदियां भी थीं. इसके चलते ही उन्होंने 1920 में प्रोफ़ेसर पद से त्यागपत्र दे दिया और सीधे दलित मुक्ति के संघर्ष में कूद पड़े.

इसी साल यानी 1920 में मानगांव में जाति बहिष्कृत वर्गों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था. इसमें हिंसा भड़क गई थी. छत्रपति शाहूजी महाराज ने कहा था कि बाबा साहेब शोषितों और वंचितों के नेता होंगे और यह बाद में सच साबित हुआ.

क़ानून की पढ़ाई के लिए जब दोबारा लंदन पहुंचे


लंदन में आंबेडकर हाउस का बाहरी नज़ारा
डॉ. आंबेडकर को अब तक यह एहसास हो गया था कि दलितों से जुड़े मुद्दे बेहद जटिल हैं, इसलिए उस पर काम करने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर वकालत करनी होगी और विधायिका में भी उन मुद्दों को ठीक से उठाना होगा. यही सोच कर वे क़ानून की डिग्री हासिल करने दोबारा लंदन पहुंचे.

सितंबर, 1920 में लंदन पहुंचने से पहले ही वे भारत में दलित नेता के तौर पर पहचान बना चुके थे. यानी उन्हें अपनी चुनौती और भूमिका दोनों का एहसास था. इसलिए लंदन में रहने के दौरान उनका झुकाव कभी ड्रामा, ओपेरा, थिएटर जैसी चीज़ों के प्रति नहीं हुआ. वे अपना अधिकतम समय पुस्तकालय में बिताते थे.

क़िफायत से रहने के लिए लंदन में वे हमेशा पैदल चलते थे. खाने पर पैसे ख़र्च ना हों, ये सोच कर वे कई बार भूखे रह जाते थे. लेकिन पढ़ाई पर उनका पूरा ध्यान लगा रहता.

लंदन में बाबा साहेब आंबेडकर के रूममेट होते थे असनाडेकर. वे आंबेडकर से कहते, ''अरे आंबेडकर, रात बहुत हो गई है. कितनी देर तक पढ़ते रहोगे, कब तक जगे रहोगे? अब आराम करो. सो जाओ."

लेफ्टिनेंट धनंजय कीर की लिखी डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर की जीवनी में इसका ज़िक्र मिलता है. आंबडेकर अपने रूममेट को जवाब देते, ''अरे, मेरे पास खाने के लिए पैसे और सोने के लिए समय नहीं है. मुझे अपना कोर्स जल्द से जल्द पूरा करना है. कोई दूसरा रास्ता नहीं है.''

इससे यह पता चलता है कि डॉ. आंबेडकर अपने लक्ष्य के प्रति कितने प्रतिबद्ध थे.

1922 में क़ानून के सभी पाठ्यक्रम पूरे करने के बाद, उन्हें ग्रेज़ इन में ही बार का सदस्य बनने के लिए आमंत्रित किया गया और आंबेडकर बैरिस्टर बन गये. यहां यह बताना आवश्यक है कि बाबा साहेब ने एक ही समय में दो पाठ्यक्रम पूरे किए थे.

ग्रेज़ इन में कानून की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (एलएसई) में उच्च अर्थशास्त्र की डिग्री भी हासिल की. 1923 में लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स ने उनकी थीसिस को मान्यता दी और उन्हें डॉक्टर ऑफ़ साइंस की उपाधि से सम्मानित किया. एक ही वर्ष में वे डॉक्टर और बैरिस्टर बन गए थे.

भारत में वकालत की शुरुआत

दिल्ली में बाबा साहेब के आवास 26, अलीपुर रोड पर अब एक स्मारक बनाया गया है. इमेज स्रोत, NAMDEV KATKAR

हमारे देश में ऐसे कितने वकील हैं जिनके वकील बनने की सालगिरह मनाई जाती है.

आपको यह जानकर अचरज हो सकता है कि बीते साल भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने डॉ. आंबेडकर के वकील बनने की सौवीं वर्षगांठ मनाई थी.

यह डॉ. आंबेडकर के काम के प्रति श्रद्धांजलि थी हालांकि सौ साल पहले इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्हें खासा संघर्ष करना पड़ा था.

मुंबई के बार काउंसिल की सदस्यता लेने के लिए आवेदन करने तक के पैसे उनके पास नहीं थे. ऐसे में उनके मित्र नवल भथेना ने उन्हें 500 रुपये दिए थे, तब उन्होंने बार काउंसिल की सदस्यता के लिए आवेदन किया था. चार जुलाई, 1923 को उन्हें सदस्यता मिली और पांच जुलाई से उन्होंने वकालत शुरू कर दी.

वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद ब्रिटिश सरकार ने डॉ. आंबेडकर को ढाई हज़ार रुपये महीने की पगार पर ज़िला न्यायाधीश की नौकरी का प्रस्ताव दिया था. जो बेहद आकर्षक था लेकिन उन्होंने वकालत का पेशा ही चुना.

इसके बारे में उन्होंने बहिष्कृत भारत के अपने लेख और अपने भाषणों में इसका ज़िक्र किया है. उनके मुताबिक वे दलितों के हितों के लिए काम करना चाहते थे. उन्होंने इस बारे में स्पष्टता से लिखा है, "मैंने ज़िला न्यायाधीश सहित कोई सरकारी नौकरी स्वीकार नहीं की, क्योंकि स्वतंत्र रूप से वकालत करने में आज़ादी हासिल थी."

यहां ये भी देखना होगा कि हैदराबाद के निज़ाम ने उन्हें राज्य के मुख्य न्यायाधीश के पद की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने उस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया.

उस दौर में वकालत का पेशा मुख्य तौर पर ऊंची और वर्चस्व रखने वाले जातियों पर आधारित है, क्योंकि उनके मामले मुख्य तौर पर उन्हीं से आते हैं. उन्हें इस बात का अंदाज़ा था लेकिन फिर भी उन्होंने वकालत करने का जोख़िम उठाया.

डॉ. आंबेडकर के वकालत के शुरुआती दिनों के बारे में धनंजय कीर लिखते हैं, "उस दौर में आपकी त्वचा का रंग, आपकी बुद्धि से ज़्यादा चमकता था. छुआछूत का कलंक, समाज में दबी कुचली स्थिति, पेशे का नया होना और आसपास के असहयोगी माहौल ने उनकी वकालत को मुश्किल चुनौती में डाल दिया था. लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. इस मुश्किल परिस्थितियों में वे भी निचली और ज़िला अदालतों में काम करते रहे."

डॉ. आंबेडकर के मुवक्किलों की स्थिति बेहद खस्ताहाल हुआ करती थे. वे ग़रीब, खेतिहर या दिहाड़ी मज़दूर हुआ करते थे. आंबेडकर इन लोगों के मामले को गंभीरता से सुनते और उन्हें न्याय दिलाने की कोशिश करते थे.

वे इन लोगों के साथ सामाजिक, आर्थिक या फिर धार्मिकता के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं करते थे. उन्होंने सेक्स वर्करों को भी क़ानूनी सहायता दिलाने के लिए अपने दरवाज़े खोल रखे थे. वे किसी के साथ किसी भी तरह का पूर्वाग्रह का भाव नहीं रखते थे.

अगर आप किसी वकील के बारे में सोचते हैं तो आपकी आंखों के सामने एक गंभीर चेहरे वाले व्यक्ति की छवि घूम जाती है. लेकिन बाबा साहेब एक अनुशासित और प्रखर विद्वान होते हुए भी अपने मुवक्किलों के साथ बहुत सहजता से व्यवहार करते थे. वे कई बार अपने मुवक्किलों के साथ अपना खाना तक साझा करते थे.

धनंजय कीर ने डॉ. आंबेडकर की जीवनी में लिखा है, "जैसे ही डॉ. आंबेडकर एक वकील के रूप में प्रसिद्ध हो गए, ग़रीब लोग क़ानूनी मदद की आस में उनके पास आने लगे. दलितों की पीड़ा और दुख देखकर उनका दिल व्यथित होता था. वे ग़रीबों का केस मुफ़्त में लड़ते थे."

"उस समय डॉ. आंबेडकर का घर गरीबों के लिए आशा का केंद्र बन गया था. एक दिन उनकी पत्नी रमाबाई जब घर में नहीं थीं तो दो मुवक्किल आए. आंबेडकर ने ना केवल उन्हें दिन का खाना खिलाया बल्कि रात में खुद अपने हाथों से बनाकर उन्हें खाना परोसा. वे खाना पकाने की कला में भी पारंगत थे."

वकील के रूप में कितने प्रभावी थे आंबेडकर

डॉक्टर बीआर आंबेडकर. इमेज स्रोत, NAVAYANA PUBLISHING HOUSE
समाज में दलित समुदाय की स्थिति कैसी है, इस बारे में ब्रिटिश सरकार के सामने पक्ष रखने के लिए 1928 में साइमन कमीशन के सामने गवाही देने के लिए डॉ. आंबेडकर को चुना गया था.

जिस दिन उन्हें ये गवाही देनी थी, ठीक उसी दिन उन्हें एक महत्वपूर्ण मामले में ठाणे के ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश के समक्ष अपने मुवक्किल का पक्ष रखना था. अगर डॉ. आंबेडकर उस मुक़दमे में उपस्थित नहीं होते तो शायद उनके कुछ मुवक्किलों को फांसी की सज़ा मिलती. इससे ग़रीब और उपेक्षितों के बीच ये संदेश जाता कि आंबेडकर वक्त पर काम नहीं आए और इसका मलाल उन्हें जीवन भर रहता.

दूसरी ओर डॉ. आंबेडकर इस दुविधा में थे कि अगर साइमन आयोग के सामने गवाही देने के लिए नहीं गए तो देश के करोड़ों लोगों की पीड़ा को दुनिया के सामने रखने का मौका हाथ से निकल जाएगा.

ऐसे में उन्होंने न्यायाधीश से अनुरोध किया कि अभियुक्तों के बचाव को अभियोजन पक्ष के समक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए.

अमूमन होता यह है कि अभियोजन पक्ष का भाषण पहले होता है, लेकिन डॉ. आंबेडकर की स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्हें अपना पक्ष पहले रखने की अनुमति दी गई.

डॉ. आंबेडकर की जीवनी में धनंजय कीर ने लिखा है, "बचाव के लिए दिए गए तर्कों की सटीकता और उनका आत्मविश्वास इतना मज़बूत था कि इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उन मामलों में अधिकांश अभियुक्तों को बरी कर दिया गया था."

हालांकि जब न्यायाधीश ये फ़ैसला सुना रहे थे तब डॉ. आंबेडकर साइमन कमीशन के सामने देश के दलितों की स्थिति पर अपना पक्ष रख रहे थे.

डॉ. आंबेडकर के प्रमुख मुक़दमे


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अब एक नज़र डॉ. आंबेडकर के चर्चित मुक़दमों पर...

आरडी कर्वे और समाज स्वास्थ्य पत्रिका का मुक़दमा

डॉ. आरडी कर्वे उस समय के नामचीन समाज सुधारक थे. वह महिलाओं के स्वास्थ्य और यौन शिक्षा के बारे में जागरूकता पैदा करने की कोशिश कर रहे थे.

आज़ादी से पहले भारत में यौन शिक्षा के बारे में बात करना लगभग असंभव था. कई जगहों पर उनकी सार्वजनिक तौर पर आलोचना होती थी.

डॉ. कर्वे को रूढ़िवादी समाज के गुस्से का सामना करना पड़ रहा था. उन पर एक मुक़दमा दर्ज हुआ कि अपनी मासिक पत्रिका 'समाज स्वास्थ्य' के ज़रिए वे समाज में अश्लीलता फैला रहे हैं.

डॉ. आंबेडकर ने उनकी तरफ़ से मामला लड़ना स्वीकार किया. ये 1934 की बात है. आंबेडकर ने इसके ज़रिए यह संदेश दिया कि कोई समाज सुधारक अपने काम के कारण अकेला है, तो वे उसके साथ हैं.

समाज स्वास्थ्य पत्रिका में यौन शिक्षा पर लेख प्रकाशित हुआ करते थे.

अदालत ने उनसे पूछा कि पत्रिका में दी गई जानकारी अश्लील और तोड़ मरोड़कर पेश की गई थी, इस पर उनकी क्या राय है?

तब डॉ. आंबेडकर ने कहा था, ''अगर कोई यौन समस्याओं के बारे में लिखता है तो उसे अश्लील नहीं माना जाना चाहिए.''

उन्होंने अपनी दलील देते हुए यह भी कहा था, ''अगर लोग अपने मन के सवाल पूछते हैं और इसे विकृति मानते हैं तो केवल ज्ञान ही विकृति को दूर कर सकता है. यदि नहीं तो यह कैसे दूर होगा? इसलिए उन सवालों के जवाब डॉ. कर्वे को देना चाहिए.''

हालांकि डॉ. आंबेडकर यह मामला हार गए थे. लेकिन कहा जाता है कि उनकी प्रगतिशील सोच और मदद के चलते कर्वे आख़िर में ये मामला जीतने में कामयाब हुए थे.

'देश के दुश्मन' का चर्चित मामला

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'देश के दुश्मन' केस में बाबा साहेब की भूमिका को समझने से पहले 1926 में सामने आए इस मामले को समझते हैं. दिनकर राव जावलकर और केशव राव जेधे गैर-ब्राह्मण आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं में से थे. उस समय ब्राह्मण समुदाय के लोग सामाजिक सुधारों का विरोध कर रहे थे. इस प्रबल विरोध के कारण रुढ़िवादियों ने महात्मा फुले की आलोचना भी की थी.

महात्मा फुले को क्राइस्टसेवक भी कहा जाता था. इन बातों के विरोध में दिनकर राव जावलकर ने 'देश के दुश्मन' नामक पुस्तक लिखी और केशवराव जेधे ने इसका प्रकाशन किया.

इस पुस्तक में लोकमान्य तिलक और विष्णु शास्त्री चिपलूनकर को देश का दुश्मन बताया गया. उन्हें और भी कई विशेषण दिए गए. जिससे तिलक के समर्थक नाराज़ हो गए और उन लोगों ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया. मुकदमा पुणे में चला और निचली अदालत ने जेधे-जावलकर को सज़ा सुनाई.

जावलकर को एक साल की सज़ा सुनाई गई, जबकि जेधे को छह महीने जेल की सज़ा सुनाई गई. इस सज़ा को चुनौती दी गई और आंबेडकर इस मामले में वकील बने. जब डॉ. आंबेडकर से संपर्क किया गया तो उन्होंने कहा कि वे 'देश के दुश्मन' पुस्तक पढ़ चुके हैं.

इस मामले को पुणे सेशन कोर्ट में जज लॉरेंस की अदालत में सुना गया. आंबेडकर ने एक पुराने मानहानि केस का हवाला देकर यह केस लड़ा.

उन्होंने जज फ्लेमिंग के आदेश का उल्लेख करते हुए कहा कि वहां भी मामला समान था, क्योंकि शिकायत दर्ज करने वाला व्यक्ति, मानहानि का दावा करने वाले शख़्स का दूर का रिश्तेदार है, इसलिए इस मामले में भी सज़ा नहीं हो सकती है. क्योंकि ये शिकायत ही दर्ज नहीं हो सकती थी.

पहले के मामले का गहन अध्ययन करने के बाद डॉ. आंबेडकर ने अदालत के सामने अचूक दलीलें पेश की और दोनों की सज़ा माफ़ी हो गई.

महाड़ सत्याग्रह का मामला

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सदियों तक अछूतों को सार्वजनिक जलस्रोतों से पानी पीने का अधिकार नहीं था. वहां मवेशी पानी पी सकते थे लेकिन अछूतों को पानी लेने की मनाही थी.

इस अन्याय के विरुद्ध डॉ. आंबेडकर ने एकअभियान चलाया और इसके कारण ही महाड़ सत्याग्रह हुआ. यह महाड़ झील के पानी पर नियंत्रण की संदेशात्मक लड़ाई थी.

महाड़ सत्याग्रह में एक तरह से हिंदुओं और अछूतों के बीच सीधा संघर्ष था. हिंदुओं की ओर से कुछ असामाजिक तत्वों ने अछूत समुदाय के लोगों पर भी हमला किया ताकि वे लोग महाड़ झील पर न आएं और पानी को न छूएं. हिंदुओं की तरफ़ से डॉ. आंबेडकर और उनके साथियों पर कई मुक़दमे दर्ज किए गए.

इस मामले में आंबेडकर को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा. पहले कहा कि यह झील पूरी तरह से हिंदुओं की है. यह कोई सार्वजनिक ज़मीन पर नहीं बना है. यह भी कहा गया कि इससे दूसरे समुदाय के लोग भी पानी लेते हैं, किसी को रोका नहीं गया है.

तब डॉ. आंबेडकर ने अदालत को बताया कि यह झील महाड़ नगर निगम की ज़मीन पर बनी हुई है. यहां से केवल सवर्ण हिंदुओं को पानी लेने की अनुमति है. जानवरों को काटने वाले खटीक मुस्लिमों को भी यहां से पानी नहीं लेने दिया जाता है.

वकील के तौर पर आंबेडकर ने जानबूझ कर खटीक मुस्लिमों का ज़िक्र किया था, क्योंकि हिंदू यह स्वीकार नहीं कर सकते थे कि खटीक को यहां से पानी मिलता है, नहीं तो सवर्णों के बीच झील की शुद्धता का मुद्दा उठता.

तब इसकी सत्यता का पता चला कि यह झील 250 सालों से है और यहां से केवल सवर्ण हिंदुओं को ही पानी मिलता है. आंबेडकर ने अदालत में यह भी साबित किया कि झील नगर निगम की ज़मीन पर है, इसलिए इसे सभी के लिए खोला जाए.

हाईकोर्ट ने आंबेडकर की दलील को स्वीकार करते हुए इसे सभी के लिए खोलने का निर्देश दिया.

अदालत ने माना कि यह आंदोलन किसी एक झील या जल निकाय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सभी सार्वजनिक जल निकायों पर भी लागू होगा और किसी की जाति और सामाजिक स्थिति को देखकर उसे पानी लेने से मना नहीं किया जा सकता. इससे ज़ाहिर तौर पर इस मामले के सामाजिक और क़ानूनी व्यापकता का पता चलता है.

डॉ. आंबेडकर के अनुसार एक अच्छे वकील में क्या गुण होने चाहिए?
डॉ. आंबेडकर ने 1923 से 1952 तक अपने लंबे करियर के दौरान कई मुक़दमे लड़े लेकिन अब बहुत कम मुक़दमों के दस्तावेज़ उपलब्ध हैं.

विजय गायकवाड़ ने उनके क़ानूनी मामलों और उसमें हुए निर्णयों को लेकर 'केसेज़ आर्ग्यूड बाय डॉ. आंबेडकर' नामक पुस्तक संपादित की है.

डॉ. आंबेडकर की वकालत को समझने के लिए इसे एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ माना जा सकता है.

डॉ. आंबेडकर एक अच्छे वकील से क्या अपेक्षा रखते थे, इसका विवरण गायकवाड़ ने अपनी पुस्तक में दिया है. 1936 में आंबेडकर के लिखे गए एक लेख के मुताबिक उनके हिसाब से अच्छा वकील वह होता है, जिसे

क़ानून के मौलिक सिद्धांतों की समझ हो
सामान्य ज्ञान की आधारभूत जानकारी हो
किसी विषय को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने की कला आती हो
संवाद और तर्कों में सत्यता हो
स्पष्ट भाषा में अभिव्यक्त करने की क्षमता हो
पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में हाज़िरजवाबी हो
डॉ. आंबेडकर के मुताबिक एक अच्छे वकील में सोचने समझने और तर्क करने की क्षमता होनी चाहिए.

वकालत के चलते ही डॉ. आंबेडकर को पूरे महाराष्ट्र का दौरा करने का मौका मिला था. उन्होंने लोगों के दुख को करीब से देखा था, इसलिए जब वे संविधान सभा के प्रारूप समिति के प्रमुख बने तो उनके अनुभव का लाभ पूरे देश को मिला.

1936 में डॉ. आंबेडकर ने तत्कालीन बंबई के सरकारी लॉ कॉलेज में व्याख्यान दिया था. आज भी ये व्याख्यान हमारे देश के क़ानून को समझने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है.

1936 में बाबा साहेब ने ब्रिटिश संविधान पर ये व्याख्यान दिया और कुछ साल बाद उन्होंने इस देश का संविधान लिखा. ये महज़ एक संयोग नहीं है बल्कि यह दलितों के अलावा संपूर्ण समाज के उद्धार के लिए डॉ. आंबेडकर की तपस्या का फल है.

इसीलिए उनकी वकालत न केवल अदालतों में बल्कि देश के कोने-कोने और दुनिया भर में बेजुबानों की आवाज़ बन गई है.

जब भी मानवता, समानता, भाईचारा और लोकतंत्र के मूल्यों की बात आती है तो डॉ. आंबेडकर का योगदान याद आता है. (bbc.com/hindi)

(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित)

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