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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सर्वे के धंधे में पारदर्शिता और जवाबदेही जरूरी...
24-Jun-2024 5:49 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  सर्वे के धंधे में पारदर्शिता और जवाबदेही जरूरी...

फोटो : सोशल मीडिया

एक टेलीविजन समाचार चैनल के लाईव टेलीकास्ट में आम चुनाव के नतीजों पर एक एक्जिट पोल एजेंसी के नतीजे जब पूरी तरह गलत साबित हुए, तो उसके संचालक वहीं स्टूडियो में बुरी तरह रोते हुए दिखे। उन्होंने यह काम ही बंद कर देने की बात कही। अभी कुछ हफ्ते गुजर जाने के बाद एक समाचार एजेंसी के पत्रकारों के साथ बातचीत में इस एक्जिट पोल संचालक ने कहा कि देश के तमाम एक्जिट पोल के नतीजे आने के अगले ही दिन शेयर बाजार में जो भूचाल आया था, और शेयरों के दाम आसमान तक पहुंच गए थे, उसके पीछे उनकी कोई साजिश नहीं थी। साथ-साथ उन्होंने कहा कि वह किसी भी तरह की जांच के लिए तैयार हैं। अब किसी एक एजेंसी का हिसाब-किताब गलत निकला हो ऐसा तो है नहीं, तकरीबन तमाम एजेंसियों के एक्जिट पोल भाजपा को अपने दम पर बहुमत पाते बता रहे थे, और पिछले चुनाव से सीटें अधिक बता रहे थे, लेकिन नतीजे भाजपा-एनडीए के लिए एक सदमा बनकर आए थे, और एक छोडक़र तमाम अंदाज गलत निकले थे। लेकिन इतनी सारी एजेंसियों ने जब एनडीए की सरकार को पहले से अधिक बहुमत के साथ सत्ता पर वापिस आते बताया था, तो अगली सुबह शेयर बाजार छत को तोडक़र आसमान पर पहुंच गया था। राहुल गांधी सहित विपक्ष के कई नेताओं का यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एक्जिट पोल के बाद लोगों को शेयर मार्केट में पूंजीनिवेश का सुझाव दिया था, और उससे लोगों की बहुत बड़ी रकम डूबी क्योंकि एक्जिट पोल बाद में गलत साबित हुए, और शेयर मार्केट धड़ाम से नीचे आ गिरा। 

भारत में ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल करने वाली एजेंसियों के साथ आमतौर पर कोई न कोई मीडिया घराने जुड़े रहते हैं, और किसी अखबार या टीवी चैनल का निजी राजनीतिक रूझान ऐसे सर्वे के नतीजों को प्रभावित करते हुए दिखाई देता है। यह बात बार-बार उठती है कि हिन्दुस्तान में ऐसे पोल या सर्वे करने वाली एजेंसियों की विश्वसनीयता को बनाने के लिए सरकार को एक ढांचा बनाना चाहिए जो नियम बनाकर इन एजेंसियों के कामकाज को पारदर्शी बनाए। देश में पहले भी विज्ञापनों पर निगरानी रखने के लिए एक संस्था है, रेडियो और टीवी पर निगरानी रखने के लिए एक दूसरी संस्था है, अखबारों पर निगरानी के लिए प्रेस कौंसिल है, इस तरह की कोई और संवैधानिक या गैरसरकारी और ट्रेड-इंडस्ट्री से जुड़ी हुई ऐसी संस्था बन सकती है। सरकारी संस्थाओं का तजुर्बा बहुत अच्छा नहीं रहता है, इसलिए यह भी हो सकता है कि पोल और सर्वे करवाने वाली एजेंसियां खुद होकर अपना एक संगठन बनाएं, और उसे चलाने के लिए इस कारोबार से बाहर के कुछ निष्पक्ष और साख वाले लोगों को उसमें रखे। जिसे आत्म-अनुशासन कहा जाता है, वह सरकारी निगरानी-संस्था के मुकाबले बेहतर इंतजाम हो सकता है, और उससे शुरूआत हो सकती है। फिर अगर यह निगरानी असरदार न हुई, तो फिर सरकार किसी तरह का और रास्ता निकाल सकती है। 

हम किसी एक कंपनी, और उसके एक बार के ओपिनियन या एक्जिट पोल के गलत नतीजों पर कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन जब बार-बार एजेंसियों के अनुमान थोक में गलत होते हैं, तो फिर सोचना पड़ता है। छह महीने पहले छत्तीसगढ़ सहित कुछ राज्यों के चुनाव हुए, सारे ओपिनियन पोल, और सारे एक्जिट पोल जो बता रहे थे, नतीजे उसके उल्टे आए। अधिकतर कंपनियों के अनुमान गलत साबित हुए। इस बार भी लोकसभा चुनाव के मतदान के तुरंत बाद जो एक्जिट पोल सामने आए, उनमें से तकरीबन तमाम गलत साबित हुए। ऐसे में यह शक पैदा होता है कि क्या कुछ ताकतें ऐसी रहती हैं जो बहुत सारी एजेंसियों के निष्कर्षों को थोक में खरीद सकती हैं? और क्या बहुत सी एजेंसियां बिकने के लिए तैयार रहती हैं? इससे परे हम पल भर के लिए संदेह का लाभ देते हुए यह भी समझना चाहते हैं कि पश्चिम के जिन देशों से ऐसे सर्वे के तरीके हिन्दुस्तान आए हैं, क्या उन तरीकों में ही कोई ऐसी बुनियादी खामी है कि वे हिन्दुस्तान पर उस तरीके से लागू नहीं किए जा सकते जिस तरह वे अमरीका में हर दिन लागू किए जाते हैं। वहां तो एक-एक घटना को लेकर राष्ट्रपति, या अगले संभावित राष्ट्रपति-प्रत्याशी की लोकप्रियता में कमी-बेसी का अंदाज लगाया जाता है कि किसकी लोकप्रियता कितने प्वॉइंट बढ़ी या घटी है। वहां जिस जनता के बीच सर्वे किया जाता है, उसमें और हिन्दुस्तानी जनता में क्या इतना बुनियादी फर्क है कि सर्वे के वे तरीके हिन्दुस्तान में सही नतीजे नहीं दे पाते? इस बारे में भी सोचने की जरूरत है। 

दूसरा हमारा ख्याल यह भी है कि एक्जिट या ओपिनियन पोल करने वाली एजेंसियों को अपने पिछले चुनावों के नतीजों को अपनी वेबसाइटों पर बनाकर रखना चाहिए, ताकि लोग यह देख सकें कि इतने बरसों में किस कंपनी का पूर्वाग्रह बार-बार किसी पार्टी के पक्ष में रहा है? इसके अलावा आज मीडिया के भीतर भी जिस तरह फैक्ट-चेक करने वाली वेबसाइटें काम करती हैं, उसी तरह देश के परंपरागत ज्योतिषियों और भविष्यवक्ताओं की कही बातों का भी एक रिकॉर्ड रखना चाहिए, और पोल या सर्वे करने वाली एजेंसियों के पिछले अनुमानों का भी। यह कुछ उसी तरह का सुझाव है जिस तरह भारत में एडीआर जैसी संस्था चुनावी उम्मीदवारों का विश्लेषण करके जनता के सामने यह रखती है कि किस पार्टी के कितने उम्मीदवार किस दर्जे के अपराधी हैं, किसने कितने करोड़पतियों को टिकट दी है, किसने महिलाओं को कितना महत्व दिया है। लोकतंत्र में जनता के सामने इस तरह के विश्वसनीय विश्लेषण भी आते रहना चाहिए, जो कि जनता को फैसले लेने में मदद कर सकें। 

बहुत से लोग ओपिनियन और एक्जिट पोल को मनोरंजन के सामान से अधिक नहीं मानते। हो सकता है कि हिन्दुस्तान में टीवी चैनलों ने अपने गलाकाट मुकाबले में दर्शक बांधे रखने के लिए इसे धंधा बना रखा हो, लेकिन दुनिया के विकसित देशों में इसे एक भरोसेमंद तकनीक माना जाता है, और कोई वजह नहीं है कि हिन्दुस्तान में इसे एक भरोसेमंद औजार की तरह विकसित करने के बजाय इसे दिल बहलाने का सामान मानकर इसकी साख खारिज कर दी जाए। अब जब आम चुनाव पांच बरस बाद हैं, देश के किसी भरोसेमंद जनसंगठन को यह पहल करनी चाहिए कि सर्वे एजेंसियां सर्वे की अपनी तकनीक, सैम्पल साईज, लोगों से बात करने की तारीखें जैसी बहुत सी बातों को सामने रखें। इसके बाद ऐसे संगठन को चुनावी नतीजे आने के बाद सही या गलत साबित होने वाले सर्वे पर उनकी एजेंसियों से सवाल भी पूछने चाहिए, और इन सबको इंटरनेट पर जनता के बीच रख देना चाहिए। जिस तरह के सर्वे-नतीजों से देश का जनमत प्रभावित होता हो, उन्हें मनोरंजन कहकर कोई रियायत नहीं देनी चाहिए। देश में सर्वे की तकनीक को बेहतर बनाना जरूरी है क्योंकि चुनावों से परे भी कई किस्म के मुद्दों पर जनता की राय जानी जा सकती है। 

संसद में कोई कानून बनाने की पहल जब होती है, तब यह भी देखना चाहिए कि जनता उस बारे में क्या सोचती है? चूंकि जनता के चुने हुए सांसद या विधायक अपने सदनों में पार्टी के नियमों से बंधे रहते हैं, और वे वहां पर अपने चुनाव क्षेत्र की जनता की सोच सामने नहीं रखते, बल्कि पार्टी के तय किए हुए एजेंडा को ही आगे बढ़ाते हैं। इसलिए सर्वे एजेंसियां जनता के बीच सीधे भी जा सकती हैं कि किसान कानून पर उनका क्या कहना है, फसलों के समर्थन मूल्य पर उनका क्या कहना है, या किसी फिल्म पर प्रतिबंध लगाने या न लगाने के बारे में उनकी क्या सोच है? हमारा ख्याल है कि सर्वे सिर्फ चुनावों तक सीमित नहीं रहते, और कुछ पत्रिकाएं तो हर बरस एक सनसनीखेज सेक्स-सर्वे भी करती हैं, और देश के अलग-अलग तबकों की सेक्स-संबंधित मुद्दों पर राय सामने रखती हैं। इसलिए सर्वे के धंधे में एक पारदर्शिता लाकर उसकी जवाबदेही तय करना जरूरी है।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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