विचार / लेख
ध्रुव गुप्त
धनतेरस पांच-दिवसीय प्रकाश-पर्व का पहला दिन है। यह पर्व उस पौराणिक घटना की स्मृति है जब समुद्र मंथन के देवों और असुरों के संयुक्त अभियान में अमृत घट अर्थात जीवनदायिनी औषधियों के साथ आयुर्वेद के आदि चिकित्सक धन्वंतरि की खोज हुई थी। धन्वंतरि को देवों ने अपना चिकित्सक बनाया था।
हजारों वर्षों से इस दिन को आयुर्वेद को समर्पित धन्वंतरि त्रयोदशी, धन्वन्तरि जयंती या धनतेरस के रूप में मनाया जाता रहा है। पुराणकारों का विश्वास था कि इस दिन संध्या समय धन्वंतरि को याद कर यम को दीपदान करने से आरोग्य और अकाल मृत्यु से सुरक्षा मिलती है। मध्ययुग में इसके साथ यह विश्वास जुड़ा कि इस दिन घर के बर्तन खरीदने से धन-धान्य की वृद्धि होती है। पिछली एक सदी में यह पर्व कई विकृतियों का शिकार हुआ है। धनतेरस का आज जो स्वरुप है वह बाजार की आक्रामक नीतियों और उपभोक्तावाद की देन है। हमारी धनलिप्सा ने एक महान चिकित्सक को धन का देवता बनाकर रख दिया है।
बाजार हमें बताता है कि आज के दिन सोने-चांदी, गाडिय़ां और विलासिता के सामान खरीदने अथवा सट्टेबाजी करने से धन तेरह गुना बढ़ जाता है। यह तो पता नहीं कि इन उपायों से कितने लोगों के धन में वृद्धि हुई, लेकिन बाजार की आपाधापी देखकर यह विश्वास जरूर हो जाता है कि हमारी सांस्कृतिक चेतना उपभोक्तावाद की भेंट चढ़ चुकी है। हाल के वर्षों में धनतेरस के साथ एक और अंधविश्वास भी जुड़ गया है। पौराणिक मान्यता है कि देवी लक्ष्मी के वाहन उल्लू का दर्शन हो जाय तो घर में लक्ष्मी का आमद होता हैं। यह संभवत: हमारे पूर्वजों द्वारा पर्यावरण संतुलन में उल्लुओं की भूमिका का स्वीकार था। इधर हाल में कुछ पाखंडी तांत्रिकों ने यह स्थापना दी कि उल्लुओं के दर्शन से नहीं बल्कि उनकी बलि से तांत्रिक सिद्धियां और सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। अब धनतेरस की रात हजारों उल्लुओं की बलि दी जाने लगी है जिसके कारण बुद्धिमान पक्षियों की इस दुर्लभ प्रजाति के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया है।
धनतेरस का संदेश यह है कि हम अपनी प्रकृति की ओर लौटें। दीर्घकालिक, हानिरहित आरोग्य के लिए यथासंभव प्रकृति पर आधारित चिकित्सा पद्धति को अपनाएं और स्वस्थ रहें।
आप सबको धन्वंतरि जयंती की शुभकामनाएं!