विचार / लेख

पुस्तकों का अस्तित्व नहीं मिटेगा पर इतनी महंगी क्यों?
10-Dec-2022 3:10 PM
पुस्तकों का अस्तित्व नहीं मिटेगा पर इतनी महंगी क्यों?

-अपूर्व गर्ग

कभी सुप्रसिद्ध लेखकों, विचारकों और बुद्धिजीवियों की सालों में मुश्किल से एक पुस्तक आती और आज फेसबुक पोस्ट ही एकत्र कर किताबों में आती रहती हैं।

फेसबुक में विज्ञापन  भी दिखता है 15000/- में छपवा लो !

इसका मतलब ये नहीं आज सिर्फ स्तरहीन किताबें ही आ रही हैं बल्कि कई किताबें तो इस दौर की सबसे बेहतरीन किताबें हैं ।

इलेक्ट्रॉनिक जाल के फैलाव को देखते हुए कभी ये डर पुख़्ता हो चुके था कि गए किताबों के दिन। प्रकाशक हताश थे न बिकने की व्यथा को लेकर।

आज इससे बिल्कुल उलट हो रहा। कोविड लॉक डाउन के बाद किताबों का बढ़ता बाजार देखिये, किताबों  के पीछे लोगों की दीवानगी इस कदर बढ़ी है कि आज बाजार से कभी न बिक सकने वाली क्लासिकल बुक्स न केवल बिक चुकीं बल्कि अब इन्हें पाने के लिए लोग दुगने दाम तक चुकाने तैयार हैं।

जरा पता करिये सोवियत के प्रगति और रादुगा से कभी प्रकाशित किताबों को लेकर आज लोग कितने दीवाने हैं ।

सोशल मीडिया में इसे लेकर ग्रुप तक बन चुके और ऐसी मांग कि कुछ इन मूल अनुदित किताबों को  पुनर्प्रकाशित कर बेहद महंगे दामों में बेच रहे, तब भी  जल्दी आउट ऑफ स्टॉक!

बोर्खेस ने कहा था- ‘पुस्तकों का अस्तित्व नहीं मिटेगा। इसलिए कि मनुष्य के आविष्कारों में सबसे विस्मयकारी और चमत्कारिक आविष्कार यही है । दूसरे आविष्कार हमारे शरीर का  विस्तार हैं , जबकि पुस्तकें हमारी कल्पना और स्मृति  का विस्तार करती हैं।’

आज किताबों की मांग बहुत बढ़ चुकी ।अपने प्रिय लेखकों को सोशल मीडिया में पढऩे के बाद लोग उनकी किताबों के लिए सीधे दौड़ लगाते हैं।

बड़े  सोशल मीडिया लेखकों की बढ़ती पॉपुलरिटी से उनकी किताबें भी बहुत बिकने लगीं बल्कि रिकॉर्डतोड़ बिक्री की खबर हैं ।

पर इनमें बहुत से लेखक-प्रकाशक अपने पाठकों के प्रति बहुत बेरहम और निर्मम हैं ।खासतौर पर हिंदी किताबों के  मूल्य देखिये जीडीपी (गैस, डीजल, पेट्रोल) से भी ऊंचे...और हर बार बहुत ज्यादा! 

इन हिंदी लेखकों-प्रकाशकों से सवाल करिये तो बेरहम जवाब ‘पीजा खा सकते हैं पर किताब में ही दिक्कत’

अब इनसे कौन कहे ज्यादातर पीजा वाले ई- बुक्स में सिमटे हैं।

खैर, यहाँ मैं  बात करूँगा सिर्फ हिंदी के सन्दर्भ में वो भी देश भर की हिंदी साहित्य अकादमी की भूमिका पर।

क्या देश भर की हिंदी साहित्य अकादमी की भूमिका सिर्फ चर्चा-परिचर्चा और बुद्धिजीवियों के व्याख्यान तक ही सीमित होनी चाहिए।

क्यों नहीं देश के सारे हिंदी संस्थान ये जि़म्मेदारी लेते कि किताबें लोगों को सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाएं।

किताबों को मुनाफाखोरी से क्यों नहीं बचाना चाहिए?

किताबों की बिक्री सिर्फ मेलों और निजी प्रकाशकों के भरोसे क्यों रहे?

हम जानते हैं आज भी 500 रुपये में बिकने वाली किताबों को 50 से 100 तक बेचा जा सकता है।

आज जो हिंदी क्लासिक साहित्य गायब हो चुका उससे नई पीढ़ी का परिचय करवाना ही नहीं चाहिए बल्कि सस्ती दरों में उपलब्ध हों ये भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

हिंदी-हिंदी गाने की जगह और राष्ट्रभाषा का क्या हाल...ऐसी चिंताओं से परे ये देखना चाहिए कि हिंदी किताबें इतनी महंगी क्यों?

आप भी जरा सोचिये!

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