विचार / लेख

कनक तिवारी लिखते हैं- वीर नारायण सिंह : आज शहादत दिवस
10-Dec-2022 3:44 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- वीर नारायण सिंह : आज शहादत दिवस

छत्तीसगढ़ की जगह उत्तरप्रेदश या बिहार होता। तो वहां के किसी धरती पुत्र को आजादी की लड़ाई का पहला महानायक सरकारी और दरबारी इतिहासकार घोषित कर देते। छत्तीसगढ़ के सोनाखान के जमींदार, आदिवासी पौरुष के प्रतीक वीर नारायण सिंह ने 1857 के जनयुद्ध के एक वर्ष पहले ही अंगरेजी हुकूमत से अपने दमखम पर जनयुद्ध की चिंगारी की तरह खुद को इतिहास में शामिल कर लिया है। जब मंगल पांडे ने बैरकपुर में विद्रोह की शुरुआत की। तब वीर नारायण सिंह छत्तीसगढ़ के भूखे अकाल पीड़ित किसानों के मसले पर सेठियों की शिकायत पर अंगरेजी हुकूमत के तेवर के मुकाबले खुद को खड़ा कर चुके थे। वे भारत के पहले क्रांतिकारी हैं जिन्होंने आर्थिक मोर्चे पर समाजवादी नस्ल का जनसैलाब लाने की कोशिश की थी। उन्होंने केवल इतना तो कहा था कि अकाल पीड़ित किसानों को जमाखोर और मुनाफाखोर व्यापारी अपना अनाज कर्ज के बतौर दे दें। अगली फसल आने पर वीर नारायण सिंह ब्याज सहित भरपाई कर देंगे। 

हुकूमत और सेठियों का गठजोड़ पूरी दुनिया में सड़ांध मार रहा है। छत्तीसगढ़ भी अछूता नहीं रहा। लिहाजा अंगरेजों ने हमला किया और वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार कर जानकारी के अनुसार राजद्रोह के मुकदमे में रायपुर के जयस्तंभ चौक के पास फांसी दे दी। 

जमाखोरों द्वारा ग्रामीण जनता को लूटे जाने के सरकारी संरक्षण के खिलाफ सोनाखान के जमींदार वीर नारायण सिंह ने डेढ़ सौ बरस पहले सशस्त्र विद्रोह किया था। सरकारी आदेश में भारत विमुखता के कारण मंगल पांडे ने एक जनयुद्ध का सिलसिला शुरू कर दिया था। आज भारतीय जनमानस का लिजलिजापन, अनिर्णय, संशय, अर्कमण्यता और संघर्षविमुखता लोकतंत्र के सबसे बड़े अभिशाप हैं। देश की दौलत पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के मार्फत लंदन पहुंची थी। तो गांधी ने बावेला मचा दिया। आज भारत की संपदा यूरो-अमेरिकी पूंजीवाद बेशर्मी से लूट रहा है। उनके भारतीय एजेंट खुद को अंतरराष्ट्रीय नेतागिरी की फेहरिस्त में स्थापित कर रहे हैं। गांधी का सच अधिक खतरे में है। अहिंसा का अर्थ संदिग्ध हो रहा है। उसे कायरता समझा जा रहा है। गांधी विमुख प्रधानमंत्री को लोकतंत्र का नया सूरज समझा जा रहा है। ग्राम्य संस्कृति, इतिहास, परंपराएं, भारतीय दृष्टि आदि को योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया जा रहा है। लोकतंत्र महाभारत के राज दरबार की तरह चुप है। ऐसी चुप्पी इतिहास के लिए बहुत खतरनाक होती है। पता नहीं नए कौटिल्य की समझ में कोई भारत-तत्व बचा भी है अथवा नहीं। 

वीर नारायण सिंह को आदिवासियों की अस्मिता , स्वाभिमान और अस्तित्व का प्रतीक बनाकर शंकर गुहा नियोगी ने भी एक आंदोलन चलाया। उनकी लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए नेताओं को सरकारी स्तर पर वीर नारायण सिंह की याद में स्मारकों की घोषणा करनी पड़ी। तब तक नियोगी लोकप्रियता की पायदान चढ़ते, आगे बढ़ते चले जा रहे थे। अंग्रेज सेना के मैगजीन लश्कर अज्ञात हनुमान सिंह ने भी ब्रिटिश सार्जेन्ट की हत्या कर दी। हनुमानसिंह का पता न गोरों को चला और न ही भारतीय इतिहासकारों को। उसके भी पहले बस्तर का भुमकाल आन्दोलन हुआ और राजनांदगांव के निकट डोंगरगांव में विद्रोह हुआ। 

सरकारें बड़ी आसानी से विकास का मुखौटा या नकाब ओढ़कर सदियों से बसे हजारों आदिवासियों को उनके वन परिवेश से उखाड़कर उनकी भूमियों को अंगरेजी बुद्धिराज के अधिनियमों के हथियार से बेदखल कर देती हैं। पहले जमीदारों, औपनिवेशिक ताकतों और बड़े किसानों वगैरह की महत्वाकांक्षाओं के कारण, अब यह खनिज ठेकेदारों, वन-शोषकों और बड़े कारखानों वाले उद्योगपतियों के कारण। वैसे भी आदिवासियों के भूमि सम्बन्धी पुश्तैनी अधिकारों का लेखा जोखा सरकारों के पास नहीं रहा है। राजा टोडरमल द्वारा ईजाद की गई भू अधिकार प्रणाली में ब्रिटिश हुकूमत से लेकर अब तक किए गए संशोधनों के बावजूद वनों में उपलब्ध कृषि भूमि के स्वामित्व का सही ब्यौरा अब भी शासकीय दस्तावेजों में दर्ज नहीं है। राज्य भले ही प्रतिदावा करता रहे। पटवारी की कलम चित्रगुप्त का लेख नहीं है। सदियों की कृषि पद्धति, सामाजिक व्यवहार, आर्थिक सोच आदि के आदिवासी अवयवों का लेखा जोखा एक प्रामाणिक पद्धति का आविष्कार सरकारों से मांगता रहा है। ऐसी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थिति के सन्दर्भ में आदिवासी का अपनी धरती से लगभग पशुओं की तरह खदेड़ा जाना कम से कम सभ्य नियामक मूल्यों, समझ और कानूनों की मांग तो कर सकता है। यह बुनियादी मुद्दा इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर उत्पन्न, वाचाल और युयुत्सु हुआ है। बाइसवीं सदी की दहलीज पर दुनिया सौ वर्षों में शत प्रतिशत बदल जाएगी। इसके कुचक्र की नफासत का ही नाम तो वैश्वीकरण है।

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