विचार / लेख
-रवींद्र पटवाल ·
हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने मुख्यमंत्री का फैसला जल्द लेकर आने वाले तूफान को इस बार रोक दिया है. चुनाव के परिणाम जैसे-जैसे आने लगे गोदी मीडिया ने प्रतिभा सिंह को आसमान पर यूं ही उठाना शुरू नहीं कर दिया था.
जो प्रतिभा सिंह सुबह सीटों की ऊपर-नीचे होने पर खुद को कांग्रेस का कर्मठ सिपाही बता रही थी, दोपहर और शाम होते होते वीरभद्र की विरासत को ध्यान में रखने की नसीहत देने लगी थी.
यह सब यूं ही नहीं हो जाता है. इसके पीछे एक महीन जाल लगातार बुना जाता है. और बाकियों को पीछे छोड़ते हुए मीडिया के द्वारा इस जाल को कई गुना दिखाकर हवा दी गई, इसके पीछे दिल्ली में बैठे चाणक्य नीति का जरूर हाथ रहा होगा. लेकिन कांग्रेस इस बार सावधान थी. उसने झट से तीन-तीन लोगों को शिमला भिजवा दिया, चंडीगढ़ और रायपुर विधायकों को ले जाने की बात की गई. लेकिन मामला वहीं सलटा लिया गया.
हिमाचल रोडवेज के ड्राइवर के बेटे सुखविंदर सिंह सुक्खू, जो 4 बार से लगातार विधायक रहे, उससे पहले राजीव गांधी के समय से छात्र संगठन में रहते हुए विभिन्न दायित्व के निर्वहन और तीन बार पार्षद होते हुए कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभाली, के गृह नगर हमीरपुर में पांचों विधानसभा सीट कांग्रेस की जीत को सुरक्षित करा कर इस बार पहुंचे थे. जबकि प्रतिभा सिंह अपने संसदीय क्षेत्र वाले जिले में सिर्फ एक सीट कांग्रेस को दिला पाई, जबकि 9 सीटें भाजपा ले गई. ऐसे कमजोर विकेट पर राज- परिवार का धब्बा भाजपा के मंसूबों को परवान चढ़ाने के लिए काफी मुफीद होता. कांग्रेस की सरकार औंधे मुंह जल्दी गिर जाती. क्योंकि सुखविंदर सिंह के पास 15 से ज्यादा ठोस समर्थक विधायक थे, जबकि प्रतिभा सिंह के पास इक्का-दुक्का ही विधायक समर्थन था, सिर्फ बाहर से हो-हल्ला मचाया जा रहा था.
सुखविंदर के जरिए कांग्रेस ने अपने 50 साल के वीरभद्र सिंह के राज से खुद को मुक्त कर लिया, बल्कि अपने लिए बड़ी संख्या में साधारण लोगों के बीच में नेतृत्व की उम्मीद भी जगा दी है.
वहीं दूसरी तरफ हमीरपुर से लोकसभा सांसद और केंद्रीय मंत्री के रूप में भाजपा के ऊपर ही अब परिवारवाद का ठप्पा हिमाचल प्रदेश में चस्पा हो गया है. पिता चुनाव में भाजपा के बागी तो बेटा केंद्र में मंत्री बना हुआ है और अपनी लोकसभा की सारी सीटें हरवा देता है. कांग्रेस का इस बार का चयन हिमाचल प्रदेश में भाजपा के बिखराव को तेज करने वाला है. आगे आगे देखिए होता है क्या. शुरुआत अच्छी हुई है.
सिर्फ गुजरात जीतने से या गुजरात में सारी सत्ता और धन के केंद्रीकरण से देश में गुस्सा असंतोष बढ़ेगा.
महाराष्ट्र के सारे बड़े उद्योग गुजरात में शिफ्ट करने से महाराष्ट्र के असंतोष को दफन करना बहुत मुश्किल होगा. महाराष्ट्र और कर्नाटक के सीमा विवाद को भड़काने से महाराष्ट्र और कर्नाटक में अपनी सत्ता कैसे बचाई जाए, यह जुगत धीरे-धीरे सभी को समझ में आ रही है. भाजपा के प्रति अभी जो बात समझ में नहीं आ रही है वह अगले 1 साल में सब लोगों को दिखने लगेगी.