विचार / लेख

स्वतंत्र पार्टी और आप
10-Dec-2022 2:15 PM
 स्वतंत्र पार्टी और आप

-सुदीप ठाकुर

आम आदमी पार्टी को गुजरात विधानसभा के चुनावों में यों तो कोई बड़ी सफलता नहीं मिली, लेकिन उसने जितनी सीटी जीतीं (5)और उसे जितने मत (12.92%) मिले उसके आधार पर वह अब एक राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी है। दिल्ली और पंजाब में उसकी सरकारें हैं और गोवा विधानसभा के चुनाव में उसने 6.8 फीसदी वोट हासिल कर लिए थे। किसी भी दल को राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता मिलने का एक आधार कम से कम चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में छह फीसदी वोट हासिल करना भी है। और यह कमाल आम आदमी पार्टी कर चुकी है।

आम आदमी पार्टी की चर्चा इसलिए है, क्योंकि महज एक दशक पहले ही उसका गठन किया गया था। 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ और लोकपाल की नियुक्ति को लेकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने यह आंदोलन शुरू किया था, जिसके मुख्य किरदार अरविंद केजरीवाल थे और चेहरा थे अन्ना हजारे। तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी।

इस आंदोलन की वजह से यूपीए की लोकप्रियता न्यूनतम स्तर पर आ गई। आंदोलन के महज सालभर के भीतर ही अरविंद केजरीवाल ने 2012 में आम आदमी पार्टी के नाम से एक नई पार्टी का गठन कर लिया। 2013 में दिल्ली के विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीत कर आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी। जो भले ही अधिक नहीं चली, लेकिन आम आदमी पार्टी ने एक राजनीतिक दल के रूप में अपनी पहचान बना ली।

भारतीय राजनीति में यह सचमुच विरल घटना है कि कोई दल महज एक दशक में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर ले। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कुछ ऐसा ही कमाल 1962 में हुए तीसरे लोकसभा चुनाव में पहली बार चुनाव जीतकर स्वतंत्र पार्टी ने किया था।

स्वतंत्रता मिलने के महज 12 साल बाद सात जून, 1959 में अस्तित्व में आई स्वतंत्र पार्टी को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश किया गया। स्वतंत्रता सेनानी सी. राजगोपालाचारी इसके संस्थापक थे। मीनू मसानी, एन. जी रंगा, दर्शन सिंह फेरुमान और के एम मुंशी जैसे दिग्गज इसमें शामिल थे। इस पार्टी के एक अहम किरदार थे वीपी मेनन जो कि देश के पहले गृह मंत्री और रियासतों को विलय में उनके सहयोगी रहे थे।

यों तो उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनसंघ और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जैसी पार्टियां भी थीं, लेकिन स्वतंत्र पार्टी ने हलचल पैदा कर दी थी। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की हिमायती यह पार्टी पूंजीवाद की समर्थक थी और मिजाज में दक्षिणपंथी थी।

अपने गठन के महज तीन साल के भीतर 1962 के चुनाव में स्वतंत्र पार्टी ने 18 सीटें जीतीं थीं और उसे सात फीसदी से अधिक मत मिले थे। कांग्रेस को 361 सीटें मिली थीं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 29 सीटें मिली थीं और वह दूसरे नंबर की पार्टी थी। भारतीय जनसंघ को सिर्फ 14 सीटें मिली थीं। इस तरह अपने पहले चुनाव में ही स्वतंत्र पार्टी लोकसभा में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई।

गौर करने वाली बात यह भी है कि स्वतंत्र पार्टी से जीतकर आने वालों में अधिकांश पूर्व राजा महाराजा और महारानियां थीं! वास्तव में स्वतंत्र पार्टी के इस उभार में पूर्व रियासतों की अहम भूमिका थी।
1967 के चुनाव में इस पार्टी ने कमाल ही कर दिया। उस चुनाव में कांग्रेस की सीटें घटकर 283 हो गई थीं। स्वतंत्र पार्टी ने 44 सीटें और करीब नौ फीसदी वोट हासिल किए और वह सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी। तब तक कम्युनिस्ट पार्टी का

विभाजन हो चुका था। उस चुनाव में भाकपा (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) ने 23 सीटें और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने 19 सीटें जीतीं। भारतीय जनसंघ ने 35 सीटें जीतीं और वह तीसरे नंबर की पार्टी थी।

1967 के चुनाव को संयुक्त विपक्षी दल (संविद) के कारण भी जाना जाता है, जिसकी वजह से अनेक प्रमुख राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। लेकिन स्वतंत्र पार्टी की कामयाबी इसलिए अहम थी, क्योंकि उसके गठन को महज एक दशक हुए थे।

आम आदमी पार्टी की मौजूदा सफलता को स्वतंत्र पार्टी के चश्मे से भी देखने की जरूरत है। यों तो दोनों के बीच कोई सीधी तुलना नहीं हो सकती। स्वतंत्र पार्टी के गठन के पीछे सी राजगोपालाचारी जैसे स्वतंत्रता सेनानी थे।

लेकिन इन दोनों पार्टियों में एक समानता तो यह है ही कि दोनों अपने मिजाज में दक्षिणपंथी हैं। स्वतंत्र पार्टी तो भाजपा के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ की सहयोगी की तरह रही है। बेशक, आम आदमी पार्टी आज भारतीय जनता पार्टी के घनघोर विरोधी की तरह व्यवहार करती है, लेकिन हिंदुत्व के उभार से लेकर कश्मीर मसले, सीएए ( नागरिकता संशोधन कानून) और आर्थिक नीतियों तक वह उसके साथ खड़ी नजर आती है। वह यदि खुद को आज भाजपा के विकल्प की तरह देखती है, तो यह नहीं भूलना चाहिए कि उसका गठन कांग्रेस को चुनौती देने के लिए हुआ था!

स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ के रिश्ते कैसे थे? इसे समझने के लिए एक उदाहरण काफी है। 1967 के आम चुनावों में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव भी साथ-साथ हुए थे। उस चुनाव में विजयाराजे सिंधिया ने मध्य प्रदेश की गुना लोकसभा सीट से स्वतंत्र पार्टी के रूप में चुनाव लड़ा और विजयी हुई थीं। लेकिन उसी दौरान उन्होंने मध्य प्रदेश में ही ग्वालियर क्षेत्र के करेरा विधानसभा क्षेत्र से भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीता था! विजयाराजे सिंधिया ने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और अपनी विधानसभा की सदस्यता कायम रखी। उसके बाद से वह भारतीय जनसंघ और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी रहीं।

जो स्वतंत्र पार्टी 1967 में सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी थी, उसका सफर 1971 के लोकसभा चुनाव के बाद तकरीबन खत्म हो गया। 1971 का चुनाव इंदिरा गांधी का चुनाव था, जिसमें उनके सामने तीन प्रमुख पार्टियां थीं, स्वतंत्र पार्टी, भारतीय जनसंघ और कांग्रेस से टूटकर बनी संगठन कांग्रेस, जिसके अहम किरदार थे के कामराज और मोरारजी देसाई। स्वतंत्र पार्टी, भारतीय जनसंघ और संगठन कांग्रेस तीनों मिजाज से दक्षिणपंथी पार्टी थीं। इसलिए एक समय में एक से अधिक दक्षिणपंथी पार्टियों को देखकर हैरत नहीं होनी चाहिए।

स्वतंत्र पार्टी का सफर तकरीबन एक दशक में खत्म हो गया। आम आदमी पार्टी का सफर अभी शुरू हुआ है। यह आने वाला वक्त बताएगा कि दक्षिणपंथी राजनीति के उभार के इस दौर में वह कितनी दूर तक जाती है। यह इस पर भी निर्भर करेगा कि दक्षिणपंथी राजनीति का केंद्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसका कॉडर देशभर में फैला हुआ है, उसे कितनी छूट देता है।
 

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