दयाशंकर मिश्र

जीवित के साथ खड़े होना!
04-Aug-2020 9:59 PM
जीवित के साथ खड़े होना!

जीवन की डोर के लिए सबसे जरूरी है प्रेम। केवल प्रेम। प्रेम की कमी मन को उसी तरह संकट में डालती है, जैसे शरीर को ऑक्सीजन की कमी!

एक बार हम सुनना सीख जाएं। फिर मन वैसे ही काम करने लगेगा, जैसे शब्दभेदी बाण किसी जमाने में किया करते थे। मन की आंख बहुत संवेदनशील है। सुनने का अभ्यास आपको अपनों के मन के संकट को पढऩे में बहुत मददगार साबित होगा। हम अपने ही लोगों का मन पढऩे में असफल हैं, इसीलिए तो हम आए दिन देखते हैं कि हमारे कितने ही नजदीकी लोग किस तरह से अपने जीवन को समाप्त करने का निर्णय ले लेते हैं। किसी का बेटा चौबीस बरस की उम्र में आत्महत्या कर लेता है, तो किसी की पत्नी, पति शादी के एक साल बाद जीवन को समाप्त करने का फैसला कर लेते हैं।

सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को राजनीति ने अपनी जकड़ में ले लिया है। सुशांत की मौत हमारे समाज रूपी तालाब की गंदगी का संकेत थी, जिसे हमने केवल मछली की मौत के रूप में स्वीकार कर लिया है।

जिस बॉलीवुड में सुशांत ने बेहद कम समय में इतनी सफलता अर्जित कर ली उसके बारे में यह कहना कि वहां बाहरी लोगों के लिए जगह नहीं है, तर्कसंगत नहीं दिखता। उल्टे यह इरफान खान, नवाजुद्दीन जैसे अद्भुत कलाकारों के साथ अन्याय सरीखा है।

यह कहा जा रहा है कि बॉलीवुड बहुत कठोर है। वहां बाहरी व्यक्ति के लिए जगह नहीं है। यह हमारे समाज के मूल प्रश्न से भटकने का सटीक उदाहरण है। कौन-सा क्षेत्र है, जहां कठोरता नहीं है। जीवन के किस इलाके में उदारता बिखरी है! हमने ऐसे समाज का निर्माण किया है, जहां सफलता ही सबकुछ है। इसलिए इसके परिणाम भी ऐसे ही आएंगे।

परिस्थितियां जैसी भी हों, आत्महत्या विकल्प नहीं है। हमें हर हाल में जीवन के पक्ष में ही खड़े होना है। जीवन के पक्ष में खड़े होने के लिए जरूरी है, मन को संवेदनशील बनाया जाए। मन को सुनने लायक बनाया जाए। सुशांत के पक्ष में जितने लोग आज खड़े हैं, अगर इसके एक प्रतिशत भी उस समय उनके मन के सारथी बन गए होते, जब वह तनाव से जूझ रहे थे, तो संभव है, उनका जीवन बच जाता!

हम जीवित के साथ खड़े नहीं होते। जबकि ऐसा करने के लिए साहस और संवेदनशीलता के अलावा किसी गुण की जरूरत नहीं। हमारे बीच जब कोई आत्महत्या घटती है तो उसके बहाने हम दूसरों को घेरने की लहर में शामिल हो जाते हैं। तालाब की गंदगी को दूर करने की जगह हम मरी हुई मछली पर शोर मचाने में व्यस्त हो जाते हैं!

जिस तरह बॉलीवुड में किसी की अंतिम यात्रा के लिए भी खास कपड़े पहनने का रिवाज है। अब यह रंग समाज में उतर आया है। इस जीवनशैली को बदलिए। जीवित व्यक्तिव्यक्तियों के प्रति संवेदनशील बनिए। मन की गांठ, गहरी चिंता धीरे-धीरे हमारे मन से जीवन की आस्था, आशा की सुगंध और हृदय की कोमलता को मिटाती जाती है। इसलिए, जिनसे आप प्रेम करते हैं उनसे नियमित संवाद कीजिए।

यह समझने की भी जरूरत है कि बात-बात में डिप्रेशन शब्द का उपयोग मन के लिए ठीक नहीं है। हर छोटी-छोटी चिंता डिप्रेशन नहीं है। किसी सूचना पर मायूस होना। थोड़ी देर के लिए निराश हो जाना। यह मायूसी है। आशा की मात्रा मन से थोड़ी देर के लिए कम हो जाना है। मन का गहरी चिंता में डूबना, डिप्रेशन की ओर जाना है। इसके कुछ संकेत हमेशा ध्यान में रखिए।

अगर किसी व्यक्ति का व्यवहार दो सप्ताह से अधिक समय लिए बदला हुआ लगे। उसके स्वभाव में ज्यादा परिवर्तन दिखे। वह हर संकट को स्वयं सुलझाने की बात करने लगे, तो हमें ऐसे व्यक्ति के प्रति सजग होने की जरूरत है। हमारा कोई प्रिय नौकरी से परेशान है/प्रेम संबंधों में टकराहट है/दांपत्य जीवन में छटपटाहट है। बच्चा चाहकर भी अच्छे परिणाम नहीं दे पा रहा है। तो हमें इन सभी के प्रति मन में करुणा की जरूरत है। गहरे अनुराग और स्नेह की जरूरत है।

सफलता को केवल नौकरी की कीमत/ बिजनेस की कामयाबी से जोडक़र मत देखिए। मनुष्य होना, सुखी होना। जीवन में आनंद होना। इनका कामयाबी से कोई रिश्ता नहीं है। जीवन की डोर के लिए सबसे जरूरी है प्रेम। केवल प्रेम। प्रेम की कमी मन को उसी तरह संकट में डालती है, जैसे शरीर को ऑक्सीजन की कमी!

इसलिए प्रेम के प्रति सजग बनिए। स्नेह को जीवन की नींव बनाइए। नींव मजबूत होगी, तो वह किसी भी तरह का तनाव सरलता से सह जाएगी! जीवन यात्रा है। यात्रा में मुश्किलें आनी स्वाभाविक हैं। इसके प्रति सरलता सीखनी है, जीवन से बड़ी कोई दूसरी पाठशाला नहीं। यहां की पढ़ाई बहुत सरल है, बस हम रटने की जगह समझने की कोशिश करें!  (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र

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