दयाशंकर मिश्र

समझ के रोशनदान!
05-Aug-2020 10:23 PM
समझ के रोशनदान!

हम अपने सुख के लिए नहीं जीते, इन छोटे-छोटे उद्देश्यों के लिए अपनी चेतना और समझ को ग़ुलाम बनाए रखते हैं। जीवन केवल जीते रहना नहीं है। उदारता, स्नेह और करुणा के बिना हमारा मन हमेशा अंधेरे में ही रहेगा!

आज संवाद की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। एक यात्रा में दो व्यक्तियों की पहचान हो गई। सफर मुश्किल था अलग-अलग मौसम और स्थितियों के से होकर दोनों को जाना था। इनमें से एक देख नहीं सकता था। लेकिन उसे रास्ते अच्छी तरह याद रहते। दूसरे के पास यात्रा के अनुकूल समझ, साहस और जानकारी थी। चलते-चलते दोनों रेगिस्तान में पहुंचे। सर्दियों के दिन थे। तापमान नीचे की ओर जा रहा था। रात को विश्राम के बाद सुबह चलने का समय हुआ। जो व्यक्ति देख नहीं सकते थे उनकी नींद सुबह जल्दी खुल गई। जहां रात को उन्होंने अपनी छड़ी रखी थी, वही सांप ने छिपकर ठंड से बचने की कोशिश की लेकिन ठंड कुछ ऐसी थी कि उसका शरीर एकदम अकड़ गया। संभवत: ठंड से वह बेहोश हो गया हो। अपनी चेतना खो बैठा हो।

अपनी छड़ी टटोलने की कोशिश में उन्होंने सांप को पकड़ लिया। और अपने मित्र को उठने के लिए कहा। मित्र की जैसे ही नींद खुली उन्होंने कहा इसे फेंक दीजिए यह आप की छड़ी नहीं है बल्कि सांप है। जो देख नहीं सकते थे उन्होंने कहा कैसी बात कर रहे हो, यह एक नरम मुलायम, चिकनी और बहुत ही कोमल लेकिन मजबूत छड़ी है। संयोगवश इतनी सुंदर छवि मुझे मिली है। ऐसा लगता है तुम्हें इससे ईष्र्या हो रही है, इसलिए तुम इसे सांप बता रहे हो !

देख सकने वाले मित्र ने समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन न देख सकने वाले ने उसकी बात नहीं मानी। वह नए सफर पर निकल पड़े। जैसे ही सूरज ने धरती पर अपनी रोशनी फेंकी, गर्मी से सांप की चेतना वापस लौट आई। उसने अपनी जान बचाने की कोशिश में उन सज्जन को काट लिया, पकड़ से मुक्त हो गया।

जिन्होंने सांप को छड़ी समझ लिया था, उनकी आंखों में रोशनी नहीं थी, लेकिन यह इस संकट का एकमात्र कारण नहीं है। विश्वास की कमी, कुछ पाने की लालसा में अपने विवेक से समझौता, इस कहानी में संकट का बड़ा कारण हैं। हम सब एक तरह की बेहोशी में जी रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे नशे में धुत किसी शराबी से अगर आप उसके रात के आचरण के बारे में पूछें तो वह मना कर देगा। वह कहेगा उसने तो ऐसा किया ही नहीं। जिसने किया वह कोई दूसरा था। एक मायने में वह सही कह रहा है क्योंकि उसकी चेतना पर, उसके विवेक, समझ पर बेहोशी छाई हुई थी। इसलिए स्वयं से उसका नियंत्रण जाता रहा।

एक समाज के रूप में हम ठीक इसी तरह की बेहोशी का शिकार हैं। हम सब वही कर रहे हैं, जिसके लिए प्रशिक्षित किए जाते रहे। हमारे प्रशिक्षण के लक्ष्य बहुत छोटे हैं। हमारे हर छोटे से छोटे काम को हमने उद्देश्यों से जोड़ लिया है। हम अपने सुख के लिए नहीं जीते, इन छोटे-छोटे उद्देश्यों के लिए अपनी चेतना और समझ को ग़ुलाम बनाए रखते हैं। जीवन केवल जीते रहना नहीं है। उदारता, स्नेह और करुणा के बिना हमारा मन हमेशा अंधेरे में ही रहेगा!

कोरोना ने हमारी सामाजिकता को कठिन संकट की ओर धकेल दिया है। आर्थिक से अधिक यह सामाजिक प्रेम, उदारता और डर की चुनौती है। अपनी ही दुनिया में सिमटा हुआ आदमी उनकी तुलना में कहीं अधिक भयभीत होता है जिनके दायरे बड़े होते हैं। इसलिए यह समझना बहुत जरूरी है कि कोरोना का डर हमारे मन में तो नहीं बैठ गया। मन में बैठा डर शरीर की तुलना में कहीं अधिक नुकसानदायक होता है।

इसलिए यह समझने की जरूरत है कि हमें इस संकट का सामना एक-दूसरे के साथ ही करना है। एक-दूसरे के साथ रहते हुए ही करना है। एक-दूसरे का ख्याल रखते हुए करना है। यही सबसे अच्छी नीति है। कोरोना एक ऐसे समय पर हम सबके जीवन में आया है जहां परस्पर प्रेम, स्नेह और उदारता की दुनिया सिकुडऩे लगी थी। हम इतने अधिक आत्म केंद्रित हो गए थे कि हमें अपने अलावा दूसरे किसी की चिंता ही नहीं थी। इस बात की गवाही हम आसानी से पर्यावरण, नदी, जंगल और परिंदों से ले सकते हैं।

मनुष्य और प्रकृति अलग-अलग नहीं है। दोनों एक ही सफर के हमसफऱ हैं लेकिन हमने स्वयं को प्रकृति से बहुत अधिक दूर कर लिया। हम अधिकतर चीजों को सही और गलत केवल इस आधार पर मानते हैं कि अधिकतर लोग क्या कह रहे हैं! हम सही दिशा, दशा को समझने की कोशिश ही नहीं करना चाहते।

आइए, जिंदगी को उसकी पहचान की ओर ले चलें। अपने होने को दूसरों से नहीं खुद से जोड़ें। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र

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